दद्दा : राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त
(श्रीमती सुशीला नरेंद्र शर्मा जी का संस्मरण)
“ शांत जल में किसी के पत्थर फेंकने से जैसे पानी तितर-बितर हो जाता है, वैसे ही पूज्य दद्दा के देहावसान की बात एकाएक सुन कर, मन, दुःख और शोक से हिल उठा। ऐसे कठोर और शोकपूर्ण समाचार के लिए दुख शब्द कितना तुच्छ और छोटा है!-
भाव और शब्द में शायद उतना ही अंतर है जितना मुझमें और पूज्य दद्दा में है। पर न जाने क्यों मन के भावों को उस पत्थर ने ऐसे झकझोर दिया है कि आज मैं कुछ कहे बिना नहीं रह सकती।
तब नरेन्द्र जी का दिल्ली में तबादला हुआ था। मकान मिला न था और बंबई में बच्चों की गर्मी की छुट्टियाँ हो चुकी थीं। शायद यह बात पूज्य दद्दा को किसी से ज्ञात हो गई थी कि हम सब कुछ दिनों के लिए दिल्ली आना चाहते हैं।
नरेन्द्र जी से पत्र लिखा कर, दद्दा ने हमें अपने घर नॉर्थ एवेन्यू में बुलवा लिया।
हम लोग समय से कुछ पहले ही आ गये और अशोक जी के घर ठहर गये, जहाँ नरेन्द्र जी ठहरे थे। दद्दा के चिरगाँव जाने के दिन बच्चों के साथ मैं, नॉर्थ एवेन्यू पहुँची। दद्दा भोजन की मेज़ पर बैठे थे। मुझे भी सामने वाली कुर्सी पर बिठाया और खाने के लिए कहा। लेकिन हम सब खाना खा कर निकले थे इसलिए दद्दा को अकेले ही खाना पड़ा। उनकी थाली में बासी पूरी, भुना हुआ आलू, हरी चटनी, दही और कटोरी में सत्तू परोसा गया। दद्दा से बातें करते, मैं मन ही मन तब यही सोच रही थी कि स्वस्थ और सुघड़ तन-मन के लिए मुझे भी कुछ ऐसा ही खाना चाहिये। मैंने दद्दा से पूछा:-"दद्दा! आप ताज़ी पूरी नहीं लेते क्या?" तो वह बोले:-"मुझे बासी पूरी ज़्यादा अच्छी लगती है।"
मैंने कहा कि, "शाम को मैं दही अजवायन वाली नमकीन पूड़ियाँ आपको खिलाऊँगी।"
“शाम को क्यों, अभी बनाओ" - दद्दा बोले। गिरिधारी की सहायता से मैंने तुरंत पूड़ियाँ बना दीं और दद्दा ने जिस चाव से, बखान करते हुए पूड़ियाँ खाईं, उससे मुझे अपने पाक-शास्त्र पर नाज़-सा हो गया और यह भी सुख हुआ कि अब की बात शाम पर न टली।
सत्तू का नाम सुना ज़रूर था। लेकिन गुजरात में सत्तू खाया नहीं जाता, इसलिए मैंने पूछा:-"दद्दा! सत्तू खाना क्या स्वास्थ्य के लिए अच्छा होता है?" दद्दा ने आग्रह करके मुझे सत्तू घुलवा कर खिलाया। बड़ों की ममता में जो मिठास होती है, वही कुछ-कुछ सत्तू के स्वाद में थी। फिर दद्दा ने मुझे उस घर की एक-एक वस्तु से परिचित कराना चाहा। प्रथम वह मुझे किताबों की अलमारी के पास ले गये। कहा:-"बहू, देखो आज रात को मैं चिरगाँव चला जाऊँगा। तो मैं तुम्हें चीज़-बस्त बतलाये देता हूँ। यहाँ सब किताबें हैं, यदि दोपहरी में पढ़ना चाहो और यह हैं कोरे काग़ज़। यह हैं लिफ़ाफ़े, इनलैंड, पोस्टकार्ड, इंक, पेन्सिल। यह है टेलिफ़ोन। तुम दिन में पाँच बार फ़ोन कर सकती हो। मैं एक नंबर पर पंखा चलाता हूँ, तुम चाहो जिस नंबर पर चला सकती हो।" फिर कुछ विनोद-भरे स्वर में बोले:-"पर हाँ, नरेन्द्र जी को तो एक नंबर पर ही चलाने देना। यह है तुम्हारी जिया का बक्सा। कपड़े-लत्ते की आवश्यकता पड़े तो ले सकती हो।"
और अब रसोई घर की बारी आई। पीतल और स्टील के बर्तन, इलेक्ट्रिक केतली, जिसकी दद्दा ने सिफ़ारिश की, कि उसमें चाय जल्दी बन जाती है और फिर दद्दा ने मुझे स्टोर से परिचित कराया, "देखो, यह है सरोता- पूरे सौ साल का है। इसे बहुत जतन से रखना। मैं ध्यान से सुन रही थी। बहू, यह रहे पापड़ और यह हैं तुम्हारी जिआ के हाथ की मँगौड़ियाँ। यह मसाले, यह घी, साबुन।" स्टोर भरापूरा था। आभार और संकोच मेरी आँखों में देख कर दद्दा बोले:-"यह सब ख़ास तुम्हारे लिए छोड़े जा रहा हूँ। उपयोग में ज़रूर लाना। मैं साँझ तक का तुम्हारा मेहमान हूँ।" मैं 'जी' के सिवा कुछ कह न पाई।
बरामदे में धूप आ गई थी। आँखों को खल रही थी। दद्दा ने कहा:-"दोपहरी में चिक इस तरह नीचे डाल लेना" और दद्दा स्वयम् ही एक के बाद एक, चिकें गिराने लगे। मैं भी मदद करने के इरादा से साथ खड़ी हो गई। तभी एक परदा, फिरकी में रस्सी उलझ जाने से अटक गया। मैंने कुर्सी सरकाई और चाहा कि ऊपर चढ़ कर उसे ठीक कर दूँ। पर दद्दा ने मुझे अवसर न दे कर वह काम भी स्वयम् ही किया। उनकी सतर्कता और फुरती देखते ही बनती थी।
मैं अपने काम में लग गई और दद्दा सोफ़ा पर बैठ कर परितोष के साथ ताश खेलने लगे। खेल ख़त्म हुआ तो ताश परितोष को सौंप दिये गये। दद्दा परितोष से बतियाने लगे। कुछ पहाड़े पूछे और हिंदी में कुछ पंक्तियाँ लिखाईं। नन्हे परितोष को यह तो भान न था कि वह किसके सामने बैठा है, अपनी बाल-सुलभ चतुराइयाँ दिखलाये जा रहा था। दद्दा ने उसके अक्षरों की भी तारीफ़ की। तब वह हेकड़ी भर कर यह भी कहने लगा कि, "मैं तो और भी अच्छे अक्षर लिख सकता हूँ, आराम से लिखूँ तो।" दद्दा का इस बात पर मुस्कराना मुझे आज भी ठीक-ठीक याद है। दो महीने सुख-सुविधा से रह कर जब मैंने बंबई प्रस्थान किया, तो मुझे मन ही मन यह भय सताने लगा कि मेरी वानर-सेना ने दद्दा के व्यवस्थित घर में कहीं कुछ त्रुटियाँ न छोड़ दी हों। पर जब दद्दा से एक वर्ष बाद फिर मिली तो यह भय भी चला गया। दद्दा के सौम्य और उदार व्यक्तित्व ने मुझे आश्वस्त कर दिया, यह कह कर कि घर दुबारा खोलने पर ज़्यादा स्वच्छ और व्यवस्थित था।
मुझे वह एक दिन, जो मैंने दद्दा की छत्र-छाया में बिताया था, सदा याद रहेगा। आज रह-रह कर यही विचार आता है कि एक दिन में उन्होंने मुझे कितना ममत्व दिया, जो भुलाये नहीं भूलता। तो उनसे अनेक दिनों का जिनका साथ रहा होगा- वह दद्दा को कैसे भुला सकते हैं? साकेत के कर्ता ने मुझे तो इस कलियुग में भी रामराज्य के प्रत्यक्ष-दर्शन करवा दिये।”
परितोष नरेन्द्र शर्मा की प्रस्तुति
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