[अध्यापक पद के लिए प्रति- द्वंद्विता के संघर्ष से आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जैसे विद्वान को भी गुजरना पड़ा। यहाँ प्रस्तुत हैं, उनकी व्यथा उजागर करने वाला उनका ही एक पत्र]
काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना सन् १९१६ में हो चुकी थी। सर्वप्रथम हिंदू कॉलेज प्रारंभ हुआ। इसमें अन्य विषयों के साथ हिंदी विषय का अध्यापन भी आरंभ हुआ। हिंदी अध्यापक पद के लिए उस समय भी कई प्रत्याशी थे, जो मालवीयजी तथा चयन समिति के सदस्यों को अपने विषय में आकृष्ट करने का प्रयास करते थे। यह प्रतिद्वंद्वितापूर्ण प्रयास कितना संघर्षमय होता था और प्रत्याशी परस्पर किस प्रकार एक दूसरे के प्रयास को शंका की दृष्टि से देखते थे, इसकी झलक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के उस पत्र से मिलती है, जो उन्होंने स्व. रायकृष्णदासजी को लिखा था। ( मूल पत्र भारत कला भवन (का. हि. विश्वविद्यालय में सुरक्षित है)
हिंदू कॉलेज के हिंदी विभाग में हिंदी अध्यापक पद पर नियुक्त होने का प्रयास आचार्य शुक्ल आरंभ से ही कर रहे थे। एक पद निकला, उसके लिए प्रयास किया किंतु उनकी नियुक्ति नहीं हो सकी, लाला भगवानदीन की नियुक्ति हो गयी। जब दूसरा पद निकला तो उसके लिए वह विशेष रूप से सक्रिय हुए और पिछली बार नियुक्ति न होने की खिन्नता तथा निराशा से कुंठित हो उन्होंने स्व. रायकृष्णदासजी को नागरी प्रचारिणी सभा से २५ जुलाई १९१९ को पत्र लिखा, जिसमें श्री गोविंददासजी (डॉ. भगवान दास जी के अग्रज) से अनुशंसा करने का अनुरोध किया गया था। पत्र इस प्रकार है-
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नागरी प्रचारिणी सभा काशी
ता: २५ जुलाई १९१९
मान्यवर राय साहब,
अनेक आशीर्वाद। आपको स्मरण होगा कि मैंने एक बार हिंदू विश्व-विद्यालय में हिंदी अध्यापक की जगह के सम्बम्ध में आपसे चर्चा की थी। गत वर्ष मेरे साथ जो चाल चली गयी और जिस प्रकार कायस्थचक्र ने भीतर-भीतर कार्य किया, वह आपसे छिपा नहीं है।
इस वर्ष हिंदू कालेज में हिंदी अध्यापक की एक जगह और होने वाली है। मेरा प्रार्थना-पत्र इस बार भी है। पर वही गत वर्ष वाली चाल इस बार भी मेरे साथ चली जा रही है। बाबू या मुंशी जगमोहन वर्म्मा प्रकट रूप में तो पाली अध्यापक की जगह के लिए प्रयत्न कर रहे हैं, पर भीतर ही भीतर डॉक्टर गणेशप्रसाद के साथ परामर्श करके हिंदी के लिए उद्योग कर रहे हैं। डॉ. गणेशप्रसाद उनके लिए बहुत जोर लगा रहे हैं। ऐसी दशा में मुझे कहाँ तक सफलता हो सकती है, मैं नहीं कह सकता। दौड़-धूप, खुशामद आदि में कायस्थों से पार पाना सहज नहीं है।
मालवीयजी तो मुझे अच्छी तरह जानते हैं पर Appointment Board में पाँच मेम्बर जिनमें एक बाबू गोविंददास भी हैं। मेरा उनसे परिचय नहीं। यदि आप अनुग्रह करके उनके पास पूरी व्यवस्था लिख देंगे और सब बातें समझा देंगे, तो वे कायस्थ मंडल के कहने में इस बार न आवेंगे। गत वर्ष रामदास गौड़ ने ला. भगवानदीन को उनके पास ले जाकर उन्हें अच्छी तरह अनुकूल कर लिया था, उसी से लाला साहब को सफलता हुई।
यदि मुंशी जगमोहन वर्म्मा हिंदी साहित्य (विशेषत: शुद्ध हिंदी गद्य लिखना, जिस पर Univercity का अधिक जोर है) पढ़ाने के लिए मेरी अपेक्षा अधिक योग्य हों तो मैं कुछ नहीं कह सकता। पर मैं समझता हूँ, आप ऐसा न समझते होंगे। अत: आशा है आप इस सम्बन्ध में मेरी पूरी सहायता करेंगे और एक पत्र बाबू गोविन्ददास के पास और एक मेरे पास (उनके यहाँ ले जाने के लिए) लिख देंगे। पत्र मेरे सम्बन्ध में आप, जो उचित समझिएगा, लिख दीजिएगा। और अधिक क्या लिखूँ ?
समय बहुत थोड़ा है। पत्र पाते ही यदि आप लिखने का कष्ट करेंगे, तो काम होगा। क्षमा कीजिएगा।
पाठकजी ने एक कार्ड आपके पास भेजा है और आपके पत्र का उत्तर कल भेजेंगे। बाबू गोविंददास आजकल काशी में हैं।
आपका
रामचन्द्र शुक्ल
-१४/११ नंदन साहू, वाराणसी-१
-मुरारीलाल केड़िया की स्मृति से
(कादम्बिनी, दिसम्बर 1984, में प्रकाशित)
-प्रस्तुति
-डा. जगदीश व्योम
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