'स्वराज भवन' में हिंदी विभाग, 1937
एम. ए. करने के बाद 'भारत' नामक, एक दैनिक पत्र में मैंने उप-संपादक का कार्य किया। तभी दद्दा, राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त की पुस्तक 'यशोधरा' का प्रकाशन हुआ था।
मैंने पुस्तक की विस्तृत समालोचना की, जो स्थानीय 'भारत' में प्रकाशित हुई। कुछ सप्ताह बाद दद्दा इलाहाबाद आए और मुझे पहली बार उनके साक्षात-दर्शन हुए।
दद्दा ने नवयुवक अनजान आलोचक कवि को सस्नेह आशीर्वाद दिया और आलोचना के अवज्ञासूचक अंश का तनिक भी बुरा न माना।
आलोचना में मैंने आपत्ति की थी कि राजकुमार राहुल अपनी माता यशोधरा को 'दो थन की गइया' नहीं कह सकता, क्योंकि वह किसी ग्वाले की गऊ का पला हुआ बालक नहीं, राजमहल में लालित-पालित राजकुमार है। उक्ति की अस्वाभाविकता मुझे खली थी। लेकिन दद्दा ने इसे मेरी खलता न माना।
'भारत' एक लीडर ग्रुप का समाचार पत्र था और लीडर के बहुत बड़े विख्यात संपादक हुए हैं सी. वाई. चिंतामणि, जो कि इलाहाबाद में, लिब्ररल नेताओं में अग्रगण माने जाते थे, गणमान्य माने जाते थे। सी. वाई. चिंतामणि का प्रभाव भी बहुत ज़्यादा था। यह एक तरह से लिब्ररल नीति का पत्र था। अब मेरी राजनीतिक चेतना इतनी जाग चुकी थी कि लिब्ररल लोगों के साथ थोड़ी अनबन हो जाए, कभी खटपट हो जाए, यह स्वाभाविक था। ऐसा कुछ हुआ नहीं। लेकिन मुझे एक सुयोग मिला कि विद्यार्थीकाल में ही मेरा परिचय श्री जे. बी. कृपलानी जी से हो चुका था। वह इतने महान होते हुए भी, छोटों से ऐसे मिलते थे कि जैसे बराबर के हों। यह उनकी महानता थी। उस समय के राजनीतिक नेता, बड़े साहित्यिक, बड़े शिक्षक, इन सब में यह गुण था। वह ऊँच-नीच का भाव बहुत नहीं बरतते थे। कृपलानी जी से बातचीत कभी-कभी हो जाती थी और उन्होंने एक दिन कहा- यह 1937 की बात है कि, "अगर तुम उस लिबरल पत्र में बहुत ज़्यादा संतोष का अनुभव नहीं करते तो तुम यहाँ 'स्वराज भवन' में क्यों नहीं आ जाते? हमें ज़रूरत है, हिंदी का काम-काज़ देखने के लिए किसी की।" 'स्वराज भवन' यानी अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी का केंद्रीय कार्यालय, ऑल इंडिया काँग्रेस कमेटी का हेड ऑफ़िस, यह 'स्वराज भवन' किसी समय 'आनंद भवन' था, जिसका निर्माण पंडित मोतीलाल नेहरू ने कराया था और उन्होंने ही इसको दान में दे दिया था।
वहीं पर उस समय यह अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी का केंद्रीय कार्यालय था। मैं 1937 के अक्टूबर में यहाँ आ गया और उस समय पंडित जवाहरलाल नेहरू काँग्रेस के सभापति थे। कृपलानी जी ने कहा कि, "तुम्हारी नियुक्ति के बारे में निर्णय जवाहरलाल जी लेंगे तुम एक बार उनसे मिलो।" उनसे भेंट कराई और वह भी भेंट ऐसी थी कि आज भी स्मरणीय है।
वह दफ़्तर के बाहर निकले। बाग़ था वहाँ पर। वह इधर से उधर घूमते-घूमते, साथ-साथ, कभी पचास क़दम उधर जाते पचास क़दम इधर आते कभी सौ क़दम उधर जाते सौ क़दम इधर आते। इस तरह घूमते-घूमते जब बहुत समय हो गया, लगता है हम लोगों को डेढ़ घंटे से ऊपर हो गया। शायद दो घंटे से भी ऊपर हो गया। उन्होंने इतिहास के बारे में मुझसे पूछताछ की, साहित्य के बारे में पूछताछ की, काँग्रेस के बारे में या राजनीति के बारे में कोई बातचीत नहीं हुई और दूसरे विषयों के बारे में बहुत बातचीत हुई। और जब मैंने देखा कि मैं इनका बहुत समय ले रहा हूँ। मैंने एक अवसर देख करके हाथ जोड़ कर कहा कि पंडित जी मैं आज्ञा लूँ, फिर मैंने जरा रुक करके कहा कि, "फिर मैं आप से कब मिलूँ?" "कब मिलो का क्या मतलब? बस आज से आपकी नियुक्ति हो गयी। आपके लिए टेबल अभी डलवाए दे रहे हैं और आप काम शुरू कर दीजीए। फिर कब का क्या मतलब", उस दिन से मैं वहाँ काम करने लगा। मेरे ज़िम्मे वहाँ पर हिंदी के बुलेटिन, हिंदी का पत्र व्यवहार और काँग्रेस की जो वर्किंग कमेटी थी, वह कार्यकारिणी अंतरंग सभा भी कहलाती थी, उसके जो मिनिट्स होते थे, उनकी नक़ल भी मैं एक बड़े रजिस्टर में करता था, क्योंकि मेरा लेखा थोड़ा ठीक माना जाता था। कृपलानी जी बड़े आदमी थे। बड़े आदमी थोड़ा इललेजिबल लिखते हैं यानी पढ़ने में कठिनाई होती है। उन्होंने कहा कि मिनिट बुक में तुम्हीं लिखो। मैं उनके आधार पर लिख देता था। इस तरह से वहाँ समय बीतता गया।
मैं अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी के केंद्रीय कार्यालय 'स्वराज भवन' में हिंदी विभाग का काम-काज़ देखने लगा। उन दिनों पंडित जवाहरलाल नेहरू के हिंदी-सचिव का काम भी करता था।
- नरेंद्र शर्मा की स्मृति से (1913-1989)
प्रस्तुतकर्ता :- परितोष नरेन्द्र शर्मा।
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