गुरू सुआ जेइ पंथ देखावा
हिन्दू कॉलेज में हरी-भरी घास हमेशा रंग-बिरंगे फूलों के साथ मुस्कुराती मिलती. कॉलेज के पिछले हिस्से में खेल का विशाल मैदान, कैंटीन के समोसों की खुशबू से हाथ मिलाता. उसके बाद पड़ती एक संकरी गली जो सीधे किरोड़ीमल कॉलेज पहुंचा देती – वहां पढ़ाते थे मेरे गुरुवर अजित कुमार !
गुरुवर अजित कुमार …कवयित्री सुमित्रा कुमारी सिन्हा के पुत्र, सप्तक कवयित्री कीर्ति चौधरी के बड़े भाई, बीबीसी फेम ओंकारनाथ श्रीवास्तव के सखा, सहपाठी और अनन्तर संबंधी. विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में हमें समकालीन हिन्दी साहित्य के विकल्प प्रश्न पत्र में अज्ञेय की कविता ‘असाध्य वीणा’ पढ़ाने आए.
इस कविता के सहज, गहन, संवेदनशील व्याख्याता के रूप में सबके मन को भा गए... आ गए प्रियंवद केश कम्बली गुफागेह ..अपने स्वर और मुद्राओं से कविता के पात्रों को साकार कर देने वाले कविवर !
इनके मार्गदर्शन में ही मैंने कुंवर नारायण के आत्मजयी पर एम.ए का लघु शोध-प्रबंध लिखा और कवि भवानी प्रसाद मिश्र पर पीएचडी का शोध प्रस्तुत किया. दोनों कवियों पर काम करते हुए, सर से हिंदी कविता की जो समझ पाई, उसे शब्दों में कहना मुश्किल.
छात्र जीवन से अध्यापन तक - समय के एक लम्बे अंतराल में सर से भरपूर संवाद करने का अवसर मिला. उनके सानिध्य में कितनी ही चर्चाएं सहज ही आ जुड़ती - साहित्यिक गतिविधियां, चर्चित पुस्तकें, अच्छी फिल्में, सामयिक सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक मुद्दे या फिर किसी अच्छे शे'र, अच्छी कविता का पाठ. ‘सन्नाटा’ और ‘घर की याद’ कविता पहले-पहल सर के भावपूर्ण स्वर में सुनकर ही तो भवानी प्रसाद मिश्र से मन जा जुड़ा था.
धीरे-धीरे सर मेरे फ्रेंड, फिलोसॉफर और गाइड हुए और इस भूमिका में अनवरत राह दिखाते रहे. सर हमेशा रचनात्मक लेखन के लिए प्रोत्साहित करते हुए कहते- 'हमारे गुरुवर बच्चन जी कहते थे कि पहले सौ पन्ने पढ़ो तब एक पन्ना लिखो.' यह बात मैंने गांठ बांध ली. मेरी टूटी-फूटी कविताओं के पहले पाठक सर ही बने !
एक दिन सर ने अंग्रेजी की पुस्तक पढ़ने को दी - पोएम्स दैट टच द हार्ट. सुनहरे शब्दों से जड़ी खलील जिब्रान डायरी भी. उस डायरी के कितने ही पन्ने मर्मस्पर्शी कविताओं से रंगे हुए, आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं.
उमर खैय्याम, फिटज़रेल्ड, सार्त्र, कामू, एज़रा पाउंड, इलियट और भी कितने ही नाम हैं, इन सभी से परिचय का सूत्र सर से ही मिला. 'हमारे गुरुवर बच्चन जी कहते थे' - लगभग हर बातचीत में उनका यह प्रिय वाक्य उभर आता और तकिया कलाम था- 'ये है कि'. हर वाक्य इसी से शुरू होता. ....भई ये है कि तुम लोग फ़िराक को पढ़ो, गालिब को जानो….. हमें गुल-ए-नग्मा से परिचित कराते हुए सर ने यह पंक्तियां सुनाई –
ग़ज़ल के साज उठाओ, बड़ी उदास है रात
सुखन की शमा जलाओ, बड़ी उदास है रात
कोई कहे ये ख्यालों से और ख्वाबों से
दिलों से दूर न जाओ बड़ी उदास है रात !
और इस तरह फ़िराक हमारे प्रिय शायर हुए.
अपनी जीवन दृष्टि को सर अक्सर यूं व्यक्त करते –
फुगां कि मुझ गरीब को हयात का ये हुक्म है
समझ हरेक राज़ को मगर फरेब खाए जा !
और हंसते हुए कहते – देखो मेरे लिए जीवन का यही आदेश है कि सभी रहस्यों को जानूं लेकिन धोखा खाता रहूँ !
कितनी ही कविताएं, कितना गद्य, भवानी प्रसाद मिश्र और कुंवर नारायण, नई कविता, सप्तक काव्य, हिन्दी कविता की पृष्ठभूमि पर कितनी बातें, कितने प्रसंग, कितने चुटकुले-मुहावरे सर के मुख से सुनकर, वह दुनिया हमारी जानी पहचानी हो गई. सर ने मुझे कविता के गहन अर्थों की खोज करना सिखाया. वे कहते – कविता की दो लिखित पंक्तियों के बीच एक अलिखित पंक्ति होती है – उसी में कविता का अर्थ निहित होता है. Between the lines कविता क्या कह रही है, उसे समझने की कोशिश करो.
तमाम व्यस्तताओं से घिरा सर का स्वर बदलता रहता - 'अरे भई बहुत खिट-खिट है जीवन में'- सर का बार-बार यह कहना याद आता है. लेकिन हम देखते रहे कि यह खिट-खिट दरअसल सर की प्रिय व्यस्तता का ही दूसरा नाम है !
लन्दन में बहन कीर्ति के यहां वे आकस्मिक रूप से अस्वस्थ हुए, लम्बे इलाज के बाद अपने मनोबल और जीवनेच्छा से उबरे और भारत लौटे.
रोग के झटकों से उबरना और अपने प्रिय कामों में जुटे रहना - यही तो था सर का जीवन क्रम !
सर ने जीवन को स्थिरता-शांति प्रदान करने वाले तत्वों की खोज अपने तईं की और उनके अनुरूप जिए. बहन कीर्ति चौधरी के अप्रकाशित लेखन का प्रकाशन सर के जीवन का ऐसा ही एक मिशन था. जब कीर्ति चौधरी की समग्र कविताएं आई और फिर समग्र कहानियां – सर आंतरिक प्रसन्नता से सराबोर हुए.
ओंकारनाथ श्रीवास्तव जी की पुस्तक 'दुनिया रंग बिरंगी' के प्रकाशन ने सर को कितनी संतुष्टि दी ! स्नेहमयी चौधरी के कविता संकलनों की न केवल साज-संवार, बल्कि उनसे निरंतर आग्रह-मनुहार कि स्नेह ! अब संग्रह आना चाहिए, इतनी कविताएं हो गई हैं !.. सर के जीवन के सहज सत्य रहे.
पांडुलिपियां असंख्य थी, सर डूबे रहते ..संचयन-सम्पादन, प्रतिलिपियां, प्रकाशक !
आज सर की अत्यधिक प्रिय कविता पंक्तियां याद आ रही हैं....खैय्याम, फिटज़रेल्ड, बच्चन तीनों के प्रसंग में सार्थक पंक्तियां -
Ah Love ! could you and I with him conspire
To grasp this sorry scheme of things entire
Would not we shatter it to bits and then
Remould it nearer to the heart's desire !
यह सर का जीवन स्वप्न ही था .. इस बेढ़ब दुनिया को तोड़-मरोड़ कर अपने अनुरूप कर लूं.
बतरस और गप्पाष्टक भी सर के प्रिय शब्द रहे. इन्हीं के तहत कभी-कभी सर अपने बचपन में पहुँच जाते.. ‘मां मधुर स्वर में गाती और गीत लिखती थी, पिता चौधरी राजेन्द्र शंकर युग मंदिर, उन्नाव के प्रकाशन कार्यों में व्यस्त रहते, निराला जी उन्नाव आकर घर ठहरते. पिता के नाम से ही हम भी अजित शंकर चौधरी हुए, कीर्ति प्रिय बहन बिन्नो थी, उनके पति ओंकार नाथ श्रीवास्तव, सहपाठी और मित्र ...सिर्फ ओंकार. छोटे भाइयों अभय और अमरेन्द्र, पूनम और साधना के प्रति आपकी सहज प्रीति शब्दों में छलकती.
हम सर के घर में हरीश चन्द्र सनवाल जी की उपस्थिति को नहीं भूल सकते. वे पारिवारिक सदस्य की तरह सर को समझाते, डांटते, घर की व्यवस्था करते और रूठते भी.
बेटू.. पवन कुमार चौधरी, पुत्रवधू सुचित्रा, अगली पीढ़ी में चिंटू-मिंटू, सेतु-मीतू सर के जीवन के आधार स्तम्भ रहे..शब्दों से नहीं, अनुभव से जाना.
बचपन कई-कई छवियों के साथ सर की स्मृति में आता .. मेले से एक ख़ास खिलौना खरीदने का किस्सा ..लगभग सर के शब्दों में याद आता है – ‘उन्नाव और आसपास मेले में मेरा प्रिय खिलौना था – उलूक पाठा यानी उल्लू का पट्ठा. यह गोल पेंदी वाला एक ऐसा बबुआ होता जिसे सब ओर से चपत लगा कर गिराया जा सकता था, पर वह हरबार सही मुद्रा में खड़ा हो जाता. मैं भी वही हूँ, जिन्दगी के थपेड़े गिराते हैं, मैं बार-बार उठ खड़ा होता हूं !’
सर की कही यह बात मेरे मन से कभी न उतरी.. हँसते हुए सर ने कहा था - ‘यह तो मैं अपनी जिन्दगी में कभी करने-कहने वाला नहीं कि ...मैंने पानी पी लिया, मेरी घोड़ी ने पानी पी लिया, ऐ कुंए तू ढह जा’.
कानपुर के डीएवी कॉलेज से अध्यापन आरम्भ करने वाले सर, दिल्ली के विदेश मंत्रालय में बच्चन जी के सहयोगी होते हुए, दिल्ली विश्वविद्यालय में आए. सर के मेल-मिलाप के दायरे से बच्चन जी, डॉक्टर नगेन्द्र, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, मैडम निर्मला जैन, मन्नू भंडारी, भारत भूषण अग्रवाल-बिंदु अग्रवाल, केजी और अर्चना वर्मा, शैल कुमारी मैडम .. और भी कितने-कितने साहित्यिक परिचयों को जाना .
सर ! आपका जीवन था कि जादूगर की पिटारी ! आपके जीवन की पुटलिया से जादूगर के पिटारे की तरह अभी कितना कुछ आना शेष था, आपने क्यों कह दिया...
व्यस्त नहीं अस्त हूं मैं
बस समझो कि नष्ट हूं मैं !
आपके बहुत से विद्यार्थी देश-दुनिया में बिखरे हुए हैं. सबके मन में आपकी बहुत सी स्मृतियां और छवियां होंगी, मेरे मन की भी यह एक.. इस कविता में छिपी .. आपकी स्मृति को ये पंक्तियां समर्पित करते हुए आप ही का कहा याद आ रहा है – 'मन की बात कहने से आदमी छोटा नहीं होता'. कविता है – भवानी प्रसाद मिश्र की, शीर्षक ‘कमल के फूल’...
फूल लाया हूं कमल के
क्या करूं इनका ?
पसारें आप आंचल
छोड़ दूं
हो जाए जी हल्का !
....................
और अंत में कविता कहती है ..
ये कमल के फूल
लेकिन मानसर के हैं
इन्हें हूं बीच से लाया
न समझो तीर पर के हैं !
सर ! आप ने ही समझाया था इस कविता का अर्थ कि हृदय की गहराई से निकले अछूते संवेदन कितने मूल्यवान होते हैं !
आपकी बदौलत मैंने जीवन भर ऐसे संवेदनों को संजोया और उल्लास का अनुभव किया. मेरे जीवन में आपकी यह अनूठी देन है. मेरे विद्यार्थी जीवन को छोटी-छोटी अनगिनत खुशियों से भर देने के लिए, केवल हार्दिक आभार भर कह कर कैसे थम जाऊं गुरु जी !
प्रस्तुति - विजया सती
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