याद है मुझे उस दिन रक्षाबंधन था जब मेरे एक साहित्यिक मित्र ने मुझे फोन कर यह बात बताई थी कि आपके साहित्यिक गुरु नहीं रहे। अचानक ज़हन में सीता बुआ की छवि कौंध गई | रक्षाबंधन के दिन ही उन्हें उनके वे भाई हमेशा के लिए छोड़ कर चले गए जिन्होंने अपनी गृहस्थी बहन की गृहस्थी के लिए नहीं बसाई।
त्यौहार के दिन भी मन अनमना हो गया। उनकी वे सारी बातें याद आने लगीं जो अक्सर उनके घर जाने पर मैं देखती थी, समझती थी, जानती थी।
बहुत सी यादें हैं जो साझा करना चाहती हूं। मैं एम.ए. में उनकी 'विकलांग श्रद्धा का दौर' रचना पढ़ रही थी। उसमें उन्होंने यह लिखा था कि आजकल किस तरह से श्रद्धा रद्दी की टोकरी में बिक रही है और लोग आजकल पैर क्यों पढ़ते हैं। मैंने सोच लिया था कि पैर नहीं पढ़ना है। जब भी मैं उनके घर जाती उन्हें नमस्ते करती और बैठ जाती। वे जो पूछते बता देती, और चुपचाप आने -जाने वालों से उनके वार्तालाप को सुनती रहती थी। उस वार्तालाप के बारे में आगे लिखती हूं। पहले संस्मरण जो मुझे ऐसा लगता है कि जैसे कल ही मेरे साथ हुआ हो।
कटनी में बड़े भाई सदृश्य कवि हैं, उन्होंने मुझे पूछा - तुम जाती हो तो परसाई जी के यहां, उन्हें किस तरह से मिलती हो?
मैंने कहा - जाती हूं नमस्ते करती हूं, बैठने के लिए कहते हैं बैठ जाती हूं। तो उन्होंने पूछा - तुम जाकर उनके पैर नहीं छूती?
मैंने कहा नहीं, छूउंगी भी नहीं।
गुस्से में कहा, क्यों नहीं छुओगी?
मैंने कहा 'विकलांग श्रद्धा का दौर' पढ़ने के बाद उनके पैर छूना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।
भैया ने कहा, ज्यादा बड़ी मत बनो, अगली बार जाकर उनके पैर छूना।
अगली बार जब मैं गई मैंने उनके चरण स्पर्श किए।
वे अधलेटे बैठे रहते थे, क्योंकि कूल्हे की हड्डी टूट चुकी थी। मुझे आज तक उनकी वह दृष्टि याद है, उन्होंने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा,"क्या हो गया है तुम्हें, तुमने मेरे पैर क्यों छुए?"
मैंने कहा सर भैया ने कहा था।
मुझे डरा देखकर उन्होंने नम्र होते हुए कहा, "किसी के कहने से खुद को मत बदलो। तुम जैसी हो वैसे ही अच्छी हो, वैसी ही रहो।"
एक बार मैं उनके घर बैठी हुई थी | कुछ नौजवान आए। उन्होंने कहा कि वे क्रांति करना चाहते हैं, क्रांति के बारे में लिखना चाहते हैं। परसाई जी ने पूछा क्रांति के बारे में जानते कितना हो? पढ़ा कितना है? फिर पूछा कि तुम्हारे घर में कमाता कौन है?
किसी ने कहा पिता किसान है,किसी ने कहा छोटी सी दुकान है पिता की, किसी के पिता नौकरी करते थे। वे लड़के अभी तक कुछ नहीं कमा रहे थे।
परसाई जी ने कहा पहले खुद कमाओ फिर क्रांति की बात करो। पिता के कंधे पर चढ़कर क्रांति करोगे?
इसी तरह के कुछ और संस्मरण आगे भी साझा करना चाहूंगी।
परसाई जी शारीरिक तौर पर हमारे साथ नहीं है तो क्या कदम कदम पर लगता है कि उनका मार्गदर्शन हमारे साथ है।
अलका अग्रवाल सिगतिया की स्मृति से
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