कितने कमाल का संयोग है कि यह चित्र जो आज मेरी निगाह में आया है, ठीक पचास साल पुराना है। ज़रा ज़ूम करके देखिए, पच्चीस फ़रवरी तिहत्तर। आज भी पच्चीस फ़रवरी है। इस ग्रुप फोटोग्राफ में अंतिम पंक्ति में दूसरा मैं हूँ। पहली पंक्ति में दूसरी ओर से दूसरे हैं कवि धूमिल। जितने भी साहित्यकार इसमें हैं लगभग सभी से मेरा व्यक्तिगत परिचय रहा है। सोचिए कितने संस्मरण होंगे मेरे पास। कितनी सारी स्मृतियां तो धूमिल भी हो चुकी हैं, पर धूमिल की धूमिल नहीं हुईं। कुछ यहाँ शेयर करूंगा।
—अशोक चक्रधर
ग्रुप-फोटो में उपस्थित लेखकों के नाम निम्न-लिखित हैं—
अखिल भारतीय प्रगतिशील साहित्यकार सम्मेलन बाँदा उत्तर प्रदेश
दिनांक 22-25 फ़रवरी 1973
बैठे हुए : सर्वश्री 1. रमेश सिन्हा 2. श्याम सुंदर घोष 3. कन्हैया जी 4. मन्मथनाथ गुप्त (सदस्य संयोजन समिति) 5. डॉ. रणजीत (सचिव संयोजन समिति) 6. शिव दान सिंह चौहान (सदस्य संयोजन समिति) 7. केदारनाथ अग्रवाल (अध्यक्ष, संयोजन समिति) 8. डॉ. भगवत शरण उपाध्याय 9. अमृत राय (सदस्य संयोजन समिति) 10. त्रिलोचन (सदस्य संयोजन समिति), 11. राजीव सक्सेना (सदस्य संयोजन समिति), 12. अजित मोहन अवस्थी (सदस्य संयोजन समिति), 13. विश्वम्भर उपाध्याय (सदस्य संयोजन समिति), 14. हरिहर जी, 15. सुदामा प्रसाद पांडेय धूमिल, 16 चन्द्रभूषण तिवारी।
खड़े हुए प्रथम पंक्ति में : सर्वश्री 1. राजन, 2. अमरकांत, 3. प्रवासी, 4. खगेन्द्र प्रसाद ठाकुर, 5. कैलाश सोनी, 6. जगदेव उपाध्याय, 7. रामगोपाल सिंह चौहान, 8. जितेंद्र रघुवंशी, 9. दिनेश सन्यासी, 10. अयोध्या, 11. सनत कुमार, 12. अंकिमचन्द्र, 13. सुभेन्दु पटेल, 14. योगेंद्र शर्मा, 15. एस. अतिबल, 16. लक्ष्मण दत्त गौतम, 17. सुरेन्द्र नाथ तिवारी, 18. कर्ण सिंह चौहान।
द्वितीय पंक्ति में : सर्वश्री 1. रमेश रंजक, 2. अशोक चक्रधर, 3. सुधीश पचौरी, 4. राणा प्रताप सिंह, 5. ब्रजकुमार पांडे, 6. वाचस्पति उपाध्याय, 7. बिजेन्द्र, 8. असगर वजाहत, 9. मनमोहन, 10. अवधेश प्रधान, 11. उदय चित्रांशी, 12. सव्यसाची, 13. रमेश राजहंस, 14. सुरेश पांडेय, 15. श्यामबिहारी राय, 16. सुमंत कुमार, 17. आनंदप्रकाश, 18. प्रभुनारायण झींगरन, 19. रामकृष्ण पांडेय, 20 उद्भ्रांत, 21 वीरेंद्र सुमन, 22. रमेश उपाध्याय, 23. कामतानाथ, 24. चंद्रप्रकाश पांडेय, 25. अनूप अशेष, 26. अजित मुस्कान, 27. कपिल आर्य, 28. शांति निगम
अब प्रस्तुत है--
सन् 2003 में कादम्बिनी के मेरे स्थाई-स्तंभ ‘मंच-मचान’ का एक लेख
धूमिल ने पूछा भूख क्या होती है
ये बात है 25 फ़रवरी 1973 की। बांदा में आयोजित तीन दिवसीय प्रगतिशील लेखन सम्मेलन का यह तीसरा दिन था, जिसके समापन समारोह के रूप में कविसम्मेलन होना था। बाज़ार की चर्चाओं में यह बात शामिल थी कि भारत के कोने-कोने से बड़े टॉप के कवि आए हुए हैं। शहर को रात का इंतज़ार था।
विलक्षण बनारसी ठसक
सम्मेलन का आकर्षण थे धूमिल इसमें कोई दो राय नहीं। ठेठ ग्रामीण सज-धज में एक बिखरा-बिखरा लेकिन निखरा-निखरा सा व्यक्तित्व। शानदार कद-काठी, उस पर सर्दियों के कारण मोटा गर्म कुर्ता सिलेटी से रंग का, उस पर गर्म जाकेट और एक अदद चौखाने का भारी कम्बल, जिसका एक छोर रोमन राजाओं की तरह ज़मीन पर घिसटता हुआ चलता था। वे स्वयं चलते थे मत्तगयंद छंद वाली चाल में, झूमते हुए। चलते-चलते अपनी मोटी खादी की धोती की लांग भी ठीक करते जाते थे। उनके अगल-बगल कुछ अतिवामपंथी नौजवान चलते थे। एक निराला ही अंदाज़ था धूमिल का।
भूख क्या होती है
निराला जी को मैंने देखा नहीं पर यों ही अनुमान लगा रहा हूं कि कुछ ऐसा ही अंदाज़ उनका भी रहा होगा। धूमिल ज़ोर-ज़ोर से बोलते थे, इसलिए नहीं कि वे जो बोल रहे हैं सबको सुनाना चाहते हैं, बल्कि उनका हाई वौल्यूम में बोलना शायद चौपाल पर बतियाने के उनके देशज अभ्यास के कारण रहा होगा। मुझे लगता था जैसे वे प्रसाद की कहानी से निकल आए कोई पात्र हैं जिनमें एक विलक्षण बनारसी ठसक है। मैं धूमिल को मुग्ध भाव से देख रहा होता था।
संगठन गोष्ठी की बहस शिखर पर चल रही थी। हर कोई मार्क्स और एंगिल्स की टिप्पणियां उद्धृत कर रहा था। एक बिंदु ऐसा आया जब अचानक धूमिल खड़े हुए और बोले- देखिए आप लोग हैं मार्क्स के रसोइए और ये जान लीजिए कि मैं खुद मार्क्स हूं। क्या आप बता सकते हैं कि भूख क्या होती है?'
बहस रुक गई
सारी बहस कुछ पल के लिए रुक गई।
फ़िलहाल मैं भी रुकता हूं। धूमिल की धूमिल न होने वाली और रंजक जी की कुछ और रंजक बातें अगली बार। और अगली बार ही उस रात के कविसम्मेलन का वर्णन ब्यौरेवार। अभी धूमिल की स्मृति को समर्पित है मेरी एक कविता-
यमदूत यमराज को रिपोर्ट सुना रहा था,
यमराज को गुस्सा आ रहा था-
क्या कहा, ये भी भूख से मरा,
कहते हुए शर्म नहीं आती ज़रा!
क्या बकता है?
भूख से कोई कैसे मर सकता है?
यमदूत घिघियाया- मौताधिपति!
पड़ौसियों ने तो यही बताया।
घर में नहीं थे अन्न के दाने,
ये लगा घास की रोटी चबाने।
महाजन को ज़रा भी दया नहीं आई,
बिना पैसे अनाज की
बोरी नहीं खुल पाई।
इस प्रकार हे डैथाधीश!
ये भूख से मर गया
और राम के नाम को
सत्य कर गया।
यमराज सुनकर
पलभर को हुए उतावले,
फिर बोले- बावले!
ये भूख से नहीं,
कुपोषण से मरा है,
इंसान द्वारा इंसान के
शोषण से मरा है।
_______________
अशोक चक्रधर
_______________
व्हाट्सएप शेयर |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें