हिंदी के ज्यादेतर प्राध्यापक मूर्ख होते हैं
युवा पंडित नंददुलारे बाजपेई निराला जी का एक कविता पाठ बी .एच .यू . (तब 1927 में, यह आर्ट्स कालेज था)के हिंदी विभाग में आयोजित करना चाहते थे और इसके लिए तब के अध्यक्ष (1924-37)धीर गंभीर बाबू श्याम सुंदर दास के पास अनुमति लेने गए। (याद रखें यह अध्यक्षीय हेकड़ी आज भी सर्वत्र बनी है जिस पर शीघ्र ही संपादकीय व् संस्मरण पढ़ने को मिलेगा!!-लेखक)! दास साहब ने कहा कि उन्हें कोई दिक्कत नहीं है,बस रामचंद्र शुक्ल से पूछ लें।(ध्यानार्थ-आज भूमिका लेखक रामचंद्र शुक्ल अपने नए लाठी यानि लाठावतार में हैं! चूँकि इस लाठावतार में काशी के एक गोमुखी व्याघ्र की महत्वपूर्ण भूमिका है,इसलिए महाभारत के सन्दर्भ से इन पर भी कुछ शीघ्र ही!!-लेखक)शुक्ल जी से जैसे ही बाजपेई जी मिले और कार्यक्रम की अध्यक्षता का अनुरोध किये,वे विफर पड़े।।कहा-यह असंभव है।निराला की कवितायेँ मुझे नापसंद हैं।उनका कविता पाठ सुनने की बात तो दूर,मैं उसमें रह भी नहीं सकता।अब बाजपेई जी करते क्या।वे निराला को आमंत्रित कर चुके थे।निराश होकर बाजपेई जी हरिऔध जी के पास गए और फिर हरिऔध जी की अध्यक्षता में कविता पाठ आरम्भ हुआ।
निराला इलाहाबाद से बी एच यू आये और कविता पाठ शुरू करने के ठीक पहले बोले--"हिंदी के ज्यादेतर प्राध्यापक मूर्ख होते हैं"।सभा में सन्नाटा।यह सुनकर हरिऔध जी भी तमतमाये हुए सभागार के बाहर निकल गए।अब बाजपेई जी क्या करते।उन्होंने निराला जी को बुलाया था।तब स्वयं उन्होंने कार्यक्रम की अध्यक्षता की।और सञ्चालन भी।
कुपित निराला इलाहाबाद पहुंचे और एक कविता लिखी-"कालेज का बचुआ।
-विवेक निराला की स्मृति से
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