लेखक छोटा या बड़ा नहीं होता। वह लेखक, लेखक ही कहलाता है। कपड़ा भले ही नया-पुराना हो सकता है, लेकिन लेखक कभी नया-पुराना नहीं कहलाया जाता है। यह बात साहित्यकार विष्णु प्रभाकर जी एक औपचारिक वार्तालाप के दौरान कह रहे थे। उनसे बातचीत करते समय यह लग ही नहीं रहा था कि इतनी बड़ी शख्सियत के सामने मेरी बात हो रही थी, जबकि कल तक उन्हें मैंने किताबों में ही पड़ा था। किताबों में ही उनका रेखाचित्र देखा था। यह बात साल 1980 जनवरी की थी। उन दिनों टी.वी पर भी कभी उनकी झलक नहीं देखने में आती थी। केवल समाचार पत्रों में ही कभी रचनाओं के माध्यम से या कभी किसी लेख के माध्यम से ही उनकी बात पढ़ने मिलती। यह बात दार्जिलिंग की है, उन दिनों मैं लेखक शिविर में गोंदिया से प्रतिनिधित्व कर रहा था, तब मैं महज 20 साल का था। कभी यह भी नहीं सोचा था कि मेरी भेंट विष्णु प्रभाकर जी से होगी। वह इतने मिलनसार होंगे, इसकी भी कल्पना नहीं थी। वे जब किसी विषय पर बात करते हैं तो करते ही चले जाते थे। और सुनने वाला सुनते ही रह जाता था, मैं भी सुन ही रहा था। ऐसा लगता था कि उन्हें लगातार सुनते ही रहें। उन दिनों मैं उनके साथ 10 दिनों तक था। दार्जिलिंग के जिस स्कूल में हम ठहरे थे वहाँ साहित्यिक चर्चाओं के अलावा हमारे पास कुछ नहीं था। सुबह दिन निकलते ही चाय पर साहित्य की चर्चा होती। दार्जिलिंग की वादियों में टहलते, तब भी साहित्य पर ही वे बात करते। लगता था जैसे वे साहित्य गढ़ने के लिए ही बने हों। शिविर में भी वही चर्चा भोजन के समय भी वही चर्चा फुर्सत के क्षणों में भी साहित्य पर ही चर्चा करते।
अक्सर वे साहित्यकार शरदचंद्र चट्टोपाध्याय जी पर बात करते वे। अपना उपन्यास आवारा मसीहा पर वे अक्सर चर्चा करते। वह शरदचंद्र चट्टोपाध्याय जी को लेकर इस तरह बात करते जैसे चट्टोपाध्याय भी हमारे साथ में बैठे हों। एक छवि सी मन में उतर जाती थी, जब वह उनकी जीवनी पर रोशनी डालते। कभी चकला घर की बातें होती तो कभी उनके फुर्सत क्षणों की। कभी और किसी चीज पर। फिर दार्जिलिंग जैसे पहाड़ी क्षेत्र में 10 दिन तक रहना हम लोगों के लिए किसी स्वर्ग की सैर करने जैसी बात थी। वह भी काफी गदगद थे। अक्सर वे हमें समझाते थे। कहते थे हमेशा लिखा करो। अपना लिखा अपने वरिष्ठ को दिखाओ जो वाकई में साहित्य के प्रति समर्पित हो।
आठ दिवसीय शिविर में विष्णु प्रभाकर जी अक्सर कहते कि हर लेखक के लिए चिंतन और मनन आवश्यक है। उसके बिना वह अधूरा है। हर लेखक को पढ़ना जरूरी है। जिस चीज में उसकी रुचि है उस विषय को लेकर उस व्यक्ति ने अवश्य पढ़ना चाहिए। कुछ नहीं तो समाचार पत्र अवश्य पढ़ें। मैं स्वयं भी समाचार पत्रों के अलावा किताबें पढ़ना पसंद करता हूं। इससे आपको शब्दों के ज्ञान के साथ ही साहित्य में क्या लिखा जा रहा है इसकी भी जानकारी मिलती है। अतः अपने चुने हुए विषय पर लिखने से पहले यह भी जान लेना ज़रूरी है कि उस विषय पर क्या और कैसे लिखा गया। और मैं कैसे लिख सकता हूँ? यह जानना और समझना बहुत ज़रूरी है। एक दिन मैंने अपनी लिखी कुछ कहानियाँ देते हुए उनसे कहा, दादा जब भी आपको फुर्सत मिले आप इन कहानियों को पढ़िएगा ज़रूर और अपनी राय भी अवश्य दीजिएगा। तब उन्होंने कहा- क्यों नहीं, क्यों नहीं। यहाँ मेरे पास समय ही समय है। मैं कल अवश्य तुम्हें इस पर अपनी प्रतिक्रिया दूँगा।
मैंने उन्हें पढ़ने के लिए अपनी छह कहानियाँ दी थीं और उन्होंने एक ही रात में उन्हें पढ़कर दूसरे दिन अपनी प्रतिक्रिया दी। मैं हैरान था कि इतनी जल्दी मुझे अपनी कहानियों पर इतनी बड़ी शख्सियत से प्रतिक्रिया मिलेगी। मैं काफ़ी गदगद हुआ। मेरे लिए उनकी प्रतिक्रिया किसी प्रमाण पत्र से कम न थी।
उन्होंने कहा लिखकर रुको मत, लिखते रहो। लिखते के पश्चात हमेशा चिंतन, मनन और अध्ययन करना कभी मत भूलो। इसे अपने पास गाँठ बाँधकर रख लो, यह जीवन भर काम आएगा। और यह बात आज भी मेरे काम आ रहा है। उस समय उन्होंने मेरी सौदा कहानी का ज़िक्र करते हुए कहा था, यह एक अनमेल विवाह की कहानी है। इसे लिखने से पूर्व एक बार मुंशी प्रेमचंद का निर्मला उपन्यास पढ़ते तो तुम और भी अच्छा लिख पाते । ऐसा नहीं है कि अभी अच्छा नहीं लिखा,अच्छी बात यह है कि निर्मला कहानी को पढ़े बिना तुमने एक नए तरीके से सौदा कहानी को लिखा है। यह तारीफ के काबिल है जहाँ तक शब्दों के प्रयोग की बात है तो वह और भी अच्छी तरीके से इसे मांजा जा सकता था। लेकिन फिर भी यह कहानी अपने आप में परिपूर्ण है। मैं चाहता हूँ कि एक बार तुम निर्मला को अवश्य पढ़ो। तब तुम्हें समझ में आएगा कि उसे कैसे लिखा गया। दादा की हर बात मैं आज भी नहीं भूला हूँ। उनकी कही अनेक बातें मेरे ज़ेहन में है। आज विष्णु प्रभाकर जी हमारे बीच नहीं है, लेकिन इतने सालों के बाद भी उनकी बातें आज भी उतनी ही कारगर और सटीक है। उस समय उनके साथ चल रही चर्चा के दौरान मैंने उनकी बातें डायरी में शब्द बद्ध की थी। वे अपनी लिखी कहानियों और उपन्यासों का भी ज़िक्र करते। लेकिन आज मेरे लिए अफसोस की बात यह है कि उनके साथ मैंने जिन पलों को बिताया उनमें से, मेरे पास चित्र के रूप में एक भी चित्र नहीं है। फिर भी मैं अपने आपको गौरवान्वित महसूस इसलिए करता हूँ कि मैंने उनके साथ समय बिताया। एक साथ भोजन किया। आज भी विष्णु प्रभाकर जी के साथ दार्जिलिंग और कोच्चि में बिताए सुनहरे पल कभी भुलाए नहीं भूलते। हालांकि इसके बाद भी मेरी उनसे नागपुर में अक्सर मुलाकात हुआ करती। नागपुर में वे अक्सर अपने बेटे के पास आते। मेरी उनसे मुलाकात सुबह टहलते समय होती थी और साहित्य पर चर्चा के अलावा मुझे भी लिखने के लिए प्रेरित करते।
-अतुल कुमार प्रभाकर की कलम से
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