" मद्रास ही में उदयशंकर जी की 'कल्पना' फ़िल्म के लेखन-कार्य के अलावा मुझे एक और काम भी मिल गया था।
दक्षिण की सुख्यात गायिका श्रीमती एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी जी के पति सदाशिवम जी ने बंबई के सेठ स्वर्गीय चिमनलाल देसाई की मार्फ़त मुझसे संपर्क स्थापित किया।
सुब्बुलक्ष्मी जी को ले कर उन्होंने तमिल भाषा में एक फ़िल्म बनायी थी, 'मीरा'। वे उसे हिंदी में भी बनाना चाहते थे। मैंने कहा, "मैं आपकी इसी तमिल फ़िल्म में हिंदी के संवादों की डबिंग कर दूँगा। आपकी पिक्चर सस्ते में बन जायेगी।"
डबिंग उस समय भारत में एक नई कला थी। रूसी लोग अपनी कुछ फ़िल्मों की डबिंग हिंदी भाषा में कराना चाहते थे। बंबई में उन्होंने कई लेखकों को इस काम के लिए घेरा, पर सफलता न मिली। संयोगवश वे मेरे पास आये। मुझे तरक़ीब सूझ गयी और सफलता भी मिली। मद्रास आने से पहले मैं 'नसरूद्दीन बुखारा में' और 'जोया' नामक दो रूसी फ़िल्मों की डबिंग सफलतापूर्वक कर चुका था।"
"श्री सदाशिवम जी को मेरी बातों के प्रति बड़ा कौतूहल था, फिर भी वे प्रयोग करने के लिये राज़ी हो गये।"
"मैंने मद्रास में एक मास्टर रख कर तमिल भाषा पढ़ना आरंभ किया था। एक दिन मेरे मास्टर साहब के आते ही पंत जी ने मेरे कमरे में प्रवेश किया और तमिल अध्यापक से पूछा,” पंडित जी, तमिल में सबसे बड़े मूर्ख के लिए क्या शब्द है?"
"मेरे वृद्ध तमिल अध्यापक, जो आजीवन काशी में रहे थे, पंत जी के नाम से ख़ूब परिचित थे।
पंत जी के एकाएक यह पूछने पर वे आश्चर्य से उनका मुख देखने लगे, मैं समझ गया कि किसलिए पूछ रहे हैं और मुझे हँसी आ गयी। मेरे तमिल अध्यापक जी ने उन्हें शब्द बतला दिया। चलते समय पंत जी ने छोटे बच्चे की तरह षड्यंत्रकारी बन कर मुझसे और मेरी पत्नी से कहा, “बंधु , आप बतलाइयेगा मत। प्रतिभा जी, आप भी नरेन्द्र को कुछ मत बतलाइयेगा।"
"उल्लसित हो कर पंत जी चले गये। चाय के समय हम चारों मेज़ पर थे। पंत जी ने कहना शुरू किया- “ हमारा नरेन्द्र बड़ा मुट्टाड़ है।" मेरी और प्रतिभा की हँसी बड़ी मुश्किलों से रुक पा रही थी। जब दो-चार बार 'मुट्टाड़' शब्द का शहद लिपटा प्रयोग हुआ तो नरेन्द्र जी समझ गये कि, पंत जी के द्वारा उनकी शान में कहा जाने वाला यह शब्द कुछ बहुत अच्छा अर्थ निश्चय ही न रखता होगा। उन्होंने बड़े मीठे ढंग से एकाएक बात को पलट दिया, बोले, “ अरे पंत जी, भला आपके सामने मैं क्या हूँ। बड़े मुट्टाड़ तो आप ही हैं।" सुन कर मुझे बड़ी ज़ोर से हँसी आ गयी।
प्रतिभा भी हँस पड़ीं और उसी दिन से हम लोगों ने तमिल भाषा का इस शब्द का अर्थ ही बदल दिया। गांधी, टैगोर, पंत, निराला आदि हर बड़ा आदमी हमारे लिए मुट्टाड़ था।
वैसे हमारे भाषा-विज्ञानी बंधुवर रामविलास जी को यह बात शायद दिलचस्प लगे कि, तमिल भाषा का यह शब्द अवधी में भी इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है। शायद राम जी ने भी इस शब्द का महत्व मान कर इसे अवध में प्रयुक्त किया होगा। ख़ैर, पुदुच्चेरी (पांडीचेरी) के श्री अरविंदाश्रम में भी हम और नरेन्द्र जी बहुत आनंद लेते रहे।वह छोटा-सा शहर हम दोनों ने टहल-टहल कर घूम लिया। एक दिन उपरत्नों की तलाश में भी हम लोग निकले।हमें संयोग से अपने मन मुताबिक़ उपरत्न तो न मिले, हाँ उसी बहाने, 'बूँद और समुद्र' नाम अवश्य मिल गया।"
पाँच महीने मद्रास में बिता कर हम लोग फिर बंबई आ गये। ‘ मीरा' फ़िल्म की डबिंग का कार्य श्रीसाउंड स्टूडियो में होना था, क्योंकि वहाँ के सुख्यात साउंड रिकॉडिस्ट श्री चंद्रकांत पांडया डबिंग कला के रहस्य में मेरे साझीदार बन चुके थे। मीरा बाई के हिंदी गीतों की रिकॉर्डिंग और उनका फ़िल्मीकरण नये सिरे से होना था। कुछ एक तमिल गीतों की डबिंग भी होनी थी। मैंने नरेन्द्र जी से उसके लिए बात तै की थी। बंधुवर नरेन्द्र जी ने उक्त फ़िल्म के कुछ तमिल गीतों को हिंदी में इस तरह रूपांतरित कर दिया कि वे मेरी डबिंग में जुड़ सकें।सुब्बुलक्ष्मी जी तथा उनके पति बंबई आ गये। काम आरंभ हुआ। आरंभ में कुछ ही रीलों की डबिंग होने से सदाशिवम जी का उत्साह बहुत बढ़ गया था; वे मुझसे और नरेन्द्र जी से बड़े ही प्रसन्न हुए। हमारा उनसे निकटका नाता स्थापित हो गया। सदाशिवम जी और उनकी स्वनामधन्य पत्नी तथा बेटी राधा हम लोगों के साथ व्यावसायिक नहीं, किंतु पारिवारिक प्रेम व्यवहार करने लगे थे।"
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चित्र में उपस्थित हैं
पंडित नरेन्द्र शर्मा, महाकवि सुमित्रानंदन पंत जी, श्री अमृतलाल नागर तथा भारतरत्न एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी जी उनकी बेटी राधा तथा मध्य में जो श्वेत दाढ़ी वाले सज्जन दिख रहे हैं वे चैतन्य महाप्रभु जी गौरांग के वंशज संत कवि दिलीप कुमार रॉय हैं उन्हीं के सौजन्य से दुर्लभ कृष्ण भजन एम. एस. सुब्बू लक्ष्मी जी को प्राप्त हुए थे।यह सन् १९४४ का चित्र ऊपर लिखे संस्मरण के साथ जीवंत हो उठा है
विश्व वंदनीय एम. एस. सुब्बूलक्ष्मी जी के घर पर ली गयी यह छवि उस समय के मद्रास शहर जो अब चेन्नई कहलाता है, उस शहर में सन् १९४४ के दिन खींची गयी थी।
संकलन
~ लावण्या दीपक शाह
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