मन्नू दीदी को लेखिका मन्नू के रूप में तो हम सभी भलीभाॅंति जानते हैं, लेकिन सिर्फ़ मन्नू के रूप में उनके कुछ निकटस्थ लोगों को छोड़कर, अन्य लोग बहुत कम जानते होंगे। इस संस्मरण से उनके आन्तरिक और बाह्य व्यक्तित्व के कुछ पहलू ख़ुद-ब-ख़ुद सामने आएंगे।
हिन्दी साहित्य जगत की दीप्तिमान दीपस्तम्भ "मन्नू दीदी" आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन जहाॅं भी हों, वे वहाॅं स्वस्थ एवं सुखी रहें ! उनके लिए ढेर प्रार्थनाएँ.... !!!
वस्तुत: मन्नू दी का जन्मदिन 12 जून है, लेकिन हिन्दी जगत व विभिन्न साहित्यिक एवं शिक्षण संस्थान उनका जन्मदिन 3, अप्रैल मनाते आ रहे हैं । इस बारे में एक दिन मैंने मन्नू दीदी से पूछा कि 3 अप्रैल लोगों के दिलोदिमाग में कैसे बैठ गई, जबकि सही तिथि 12 जून है। तब मन्नू दीदी ने बताया कि किसी कारणवश उनके सारे प्रपत्रों में, स्कूल सर्टिफिकेट में, पुस्तकों में, उनके जन्म की तारीख़ 3 अप्रैल दर्ज़ हो गई थी ! इसलिए सब जगह 3, अप्रैल उनकी आधिकारिक जन्मतिथि हो गई । उन्होंने बाद में सब जगह यही तारीख रहने दी क्योंकि उनका कहना था कि किस -किस को बताती, कहाॅं-कहाॅं वो तिथि बदलवाती । इस तरह तीन अप्रैल वाला, उनका जन्मदिन चल निकला ।
तीन अप्रैल को फ़ोन करके, मैं हमेशा उनसे शरारत में कहती नकली जन्मदिन की बधाई एवं शुभकामनाएँ दीदी !!
वे हॅंसती और कहतीं - "मुझे पता था कि तेरा फ़ोन आता ही होगा । फ़ेसबुक पर तू सबसे कहेगी कि यह दिनांक ग़लत है, आप सब मन्नू जी को सालगिरह मुबारक 12 जून को कहिए और ख़ुद फ़ोन पर आकर, मुझे जन्मदिन की शुभकामनाऍं देगी"।
यह सुनकर, मैं दलील देती कि दीदी, इस तारीख़ को हर कोई आपको बधाई देता है, तो मैं क्यों चुप रहूॅं ? इसलिए आज सबके साथ, मैं भी आपको मुबारकबाद दे रही हूॅं और इसके बाद, असली जन्मदिवस पर आपको फिर से हैप्पी बर्थडे बोलूॅंगी और वे फिर से खिलीखिली सी हॅंस पड़ती ।
मन्नू दीदी मेरे लिए सदा 'माँ ' जैसी स्नेहिल और रहनुमाई करने वाली रहीं। उनके निधन से कुछ वर्ष पहले तक, मेरी उनसे अक्सर रोज, तो कभी एक दिन छोड़कर, बातें होती थीं । कभी -कभी मेरी माॅं की तबियत ख़राब होने की वज़ह से मुझे फ़ोन किए हुए, यदि दो-तीन दिन हो जाते थे, तो दीदी तीसरे दिन मेरे फ़ोन करने पर प्यार भरी उलाहना देती थीं -
"दीप्ति, मुझे लगा कि तू मुझे भूल गई या मुझसे बातें कर-कर के तेरा मन भर गया"।
मैं फ़ोन के इधर अपने कान छूते हुए कहती ---
"तौबा दीदी, कैसी बात कर रही हैं.....! आपसे तो बात करके कभी मन ही नहीं भरता ।आपकी अपनत्व और सादगी भरी बातें कितनी प्रेरक होती हैं, कितना मन मोहती हैं, कितनी ऊर्जादायक होती हैं, मैं आपको बता नहीं सकती। मैं भाग्यशाली हूँ कि मुझे अनवरत आपका प्यार और ख्याल भरा सान्निध्य मिल रहा है"।
और यह सुनकर वे हौले से कहती हूॅं ssss...... ।
मैंने उन्हें दुख और सुख में कभी भी भावनात्मक अतिरेक में बहते हुए नहीं देखा ।
अतीत की पीड़ा हो अथवा वर्तमान के कष्ट, वे उन पर हमेशा बिना किसी भावनात्मक बिखराव के, तटस्थ भाव से, अपने को साधकर बातें करती थीं । अपने दुख-दर्द पर बात करने से बचती नहीं थीं । अपने जीवन से जुड़ी वेदना और पीड़ा पर बात करने से मानो उनका भावनात्मक विरेचन होता था , भीतर की जमी पीड़ा को बाहर बहाकर, वे हल्का महसूस करती थीं । उनका साहस और सहनशक्ति अद्भुत थी !
2007 से 2015 तक वे अपनी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के चलते भी, लम्बी बात करने की ऊर्जा से भरपूर थीं। जब 2011 में प्रकाशित, मैंने उनको अपना कहानी-संग्रह 'सरहद से घर तक' भेजा और इस बारे में फ़ोन से भी उन्हें सूचित करते हुए कहा कि "दीदी, आपने कहा था कि अपनी कोई किताब भेज - लिख नहीं पाती हूॅं , तो कुछ पढ़ तो लूं"।
सो आपको नमन प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित कहानी संग्रह भेज दिया है । आराम से पढ़िएगा,कोई जल्दी नहीं है कि किताब आ गई, तो उसी तभी तुरन्त पढ़ना शुरू कर दें आप । आपकी सेहत, आपकी सुविधा पहले है"।
लेकिन क्या देखती हूंँ कि किताब मिलने के बाद उन्होंने दो दिन में कहानियाँ पढ़ डालीं । फिर तीसरे दिन घर की अपनी सहायिका लक्ष्मी से फ़ोन लगवाया और मुझे यह बता कर सुखद आश्चर्य से भर दिया कि उन्होंने मेरा संग्रह पढ़कर समाप्त भी कर दिया । मैं तो सुनकर निशब्द रह गई....।
तभी उन्होंने स्नेहभरा आदेश दिया कि काग़ज-पैन उठा और जो मैं बोलती जाऊं, बेटा, तू लिखती जा । तुझे पता ही है कि मैं लम्बे समय से न लिखने की दर्दनाक स्थिति से गुज़र रही हूॅं"।
मैं तो मंत्रमुग्ध सी जैसा वे कहती गई, करती गई ।
मै अपनी कहानियों पर उनके खरे विचार पाकर कृतकृत्य हो गई । मुझे आज भी याद है कि लिखना समाप्त होने पर जब वे रोज की तरह बात करने लगी़, तो बातों के बीच वे रह-रह कर, एक ही बात बोली__
" देख दीप्ति तुझे भाषा का वरदान है, इसे सहेजे रखना और दूसरी बात, तेरे अन्दर जो 'खुद्दारी' है, उसे कभी मत खोना । यह आज-कल बड़ी दुर्लभ है ।" .
यह दूसरी चौंकाने वाली बात थी - मेरे लिए, मतलब कि मैं जो फ़ोन पर उनसे बेबाकी से बतयाती थी, उससे उनका मन तो लगता ही था, पर साथ-साथ उनके द्वारा सहज ढंग से मेरा आकलन भी चल रहा था । यह सुनकर मैं संकोच से भर उठी ।
इस वार्तालाप के कुछ दिन बाद मैंने दीदी से उत्सुक्तावश पूछा___
"दीदी, प्लीज़, एक बात बताइए कि बिना मिले, फ़ोन ही फ़ोन पर आपने कैसे जाना कि मैं ख़ुद्दार हूंँ । क्या पता मैं हूंँ या कि नहीं....!"
इसके जवाब में दीदी तपाक से बोली___
"इतने वर्षों से फ़ोन पर मेरी-तेरी घोर अपनत्व भरी बातें होती हैं । इतनी घनिष्ठता हो जाने पर भी, तूने कभी भी मुझसे अपनी कहानियों की बाबत, उनके हंस में प्रकाशित होने की बात नहीं की । एक बार भी, जो तूने भूले से कभी कहा हो । वरना, आज-कल की अनेक ऐसी उभरती हुई लेखिकाएँ और लेखक हैं, जो इस तरह की मदद की चाह पहले रखते हैं और हाल-चाल बाद में पूछते हैं ।
मैं तो सुनकर दंग रह गई । तुरत प्रतिक्रिया स्वरूप मेरे मुॅंह से निकला --
दीदी, आप तो बड़ी अन्तर्यामी हैं ।
फिर रुक कर, मैंने सहज भाव से कहा___
दीदी, अन्यथा मत लेना ।कुछ कारणों से मुझे हंस पसंद नहीं। बीते समय में दो वर्ष तक लगातार मैं इसकी वार्षिक ग्राहक रही। लेकिन इसमें छपी सामग्री कभी मेरी साहित्यिक अभिरुचि को सन्तुष्ट नहीं कर पाई । इसमें प्रकाशित कहानियों और कविताओं आदि को पढ़ कर, मुझे अपनी रचना हंस को भेजने का मन नहीं हुआ । और जब नया ज्ञानोदय, वागर्थ, साक्षात्कार, प्रेरणा, सम्बोधन, और समकालीन भारतीय साहित्य(हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों) आदि तथा अन्य और भी पत्रिकाओं से मेरी रचनाऍं, पाठकों तक पहुॅंच रही हों, पाठकों की प्रतिक्रियाऍं मुझ तक आ रही हों, तो फिर "हंस" की न मुझे कभी याद आई और न ज़रूरत महसूस हुई । वैसे दीदी, आपको भी मैंने हंस में कभी नहीं पढ़ा । जब मैं इसे मंगाती थी,उस समय तक मैंने आपकी कोई रचना हंस में नहीं पढ़ी । हो सकता है कि उससे पहले आपकी कोई रचना इसमें छपी हो और मेरी नज़र से चूक गई हो ।
मेरी बात पर अपनी सहमति की मुहर लगाती हुई, दीदी बोली _
"बात तो तू ठीक कह रही है और जिनका तूने नाम लिया ये सभी स्तरीय और प्रतिनिधि पत्रिकाऍं हैं ।"
दूसरी बात का उन्होंने जो मसखरी भरा जवाब दिया,उसे मैं यहाॅं नहीं बता सकती ।
इस दौरान, एक दिन देखा कि डाक से मेरे पास, उनकी राधा-कृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित किताब एक कहानी यह भी आई है । मैंने झटपट उन्हें फ़ोन मिलाया और उनकी ओर से इस एक और प्यारे से सुखद आश्चर्य के लिए उन्हें झोली भर-भर के शुक्रिया दिया ।
इसके बाद मैंने भी उनकी उस लेखकीय यात्रा आधारित यादगार पुस्तक को डूब कर पढ़ा और फिर शिद्दत से उस पर क़लम चलाई । इतना ही नहीं, भोपाल की प्रतिनिधि पत्रिका प्रेरणा में प्रकाशन हेतु उसे भेज दिया । जब सम्पादक अरुण तिवारी जी की अविलम्ब स्वीकृति आ गई और आगामी अंक में मेरा लिखा 'आकलन आलेख' छप गया, तब, मैंने यह सुखद आश्चर्य दीदी को दिया । मैंने किताब का तोहफ़ा मिलने पर, उस पर अपने बेबाक आकलन और भावभीनी अभिव्यक्ति का छोटा सा तोहफ़ा उन्हें देकर, जो अकस्मात ख़ुशी दी, उसे पाकर वे बेहद ख़ुश हुई । उनके पास तो सभी पत्रिकाएँ आती ही थीं , सो प्रेरणा पढ़कर मुझे उनके आशीष का बड़ा-बड़ा वरदान मिला ।
उम्र और पीढ़ियों के अन्तराल से परे, जब काफ़ी हद तक, समान सोच वाले, दो क़लमकारों के बीच निस्वार्थ एवं निश्छल आत्मीय रिश्ता क़ायम होता है, तो उस ख़ूबसूरत रिश्ते की कोई सानी नहीं होती । मन्नू दी का और मेरा रिश्ता कुछ ऐसा ही था ।
उनके निधन से कुछ वर्ष पहले से उनको फ़ोन पर सुनने में समस्या होने लगी थी, तो तब से उनके और मेरे बीच, फ़ोन पर बातों का सिलसिला भले ही थम गया था, पर मन का रिश्ता सदा प्रगाढ़ और सघन बना रहा । मुझे इस बात की खुशी है कि मेरे और उनके विचार व सोच ही नहीं मिलती, बल्कि इत्तेफ़ाक से, मेरी पैदाइश भी उनकी तरह जून माह की है...
"तौबा दीदी, कैसी बात कर रही हैं.....! आपसे तो बात करके कभी मन ही नहीं भरता ।आपकी अपनत्व और सादगी भरी बातें कितनी प्रेरक होती हैं, कितना मन मोहती हैं, कितनी ऊर्जादायक होती हैं, मैं आपको बता नहीं सकती। मैं भाग्यशाली हूँ कि मुझे अनवरत आपका प्यार और ख्याल भरा सान्निध्य मिल रहा है"।
और यह सुनकर वे हौले से कहती हूॅं ssss...... ।
मैंने उन्हें दुख और सुख में कभी भी भावनात्मक अतिरेक में बहते हुए नहीं देखा ।
अतीत की पीड़ा हो अथवा वर्तमान के कष्ट, वे उन पर हमेशा बिना किसी भावनात्मक बिखराव के, तटस्थ भाव से, अपने को साधकर बातें करती थीं । अपने दुख-दर्द पर बात करने से बचती नहीं थीं । अपने जीवन से जुड़ी वेदना और पीड़ा पर बात करने से मानो उनका भावनात्मक विरेचन होता था , भीतर की जमी पीड़ा को बाहर बहाकर, वे हल्का महसूस करती थीं । उनका साहस और सहनशक्ति अद्भुत थी !
2007 से 2015 तक वे अपनी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के चलते भी, लम्बी बात करने की ऊर्जा से भरपूर थीं। जब 2011 में प्रकाशित, मैंने उनको अपना कहानी-संग्रह 'सरहद से घर तक' भेजा और इस बारे में फ़ोन से भी उन्हें सूचित करते हुए कहा कि "दीदी, आपने कहा था कि अपनी कोई किताब भेज - लिख नहीं पाती हूॅं , तो कुछ पढ़ तो लूं"।
सो आपको नमन प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित कहानी संग्रह भेज दिया है । आराम से पढ़िएगा,कोई जल्दी नहीं है कि किताब आ गई, तो उसी तभी तुरन्त पढ़ना शुरू कर दें आप । आपकी सेहत, आपकी सुविधा पहले है"।
लेकिन क्या देखती हूंँ कि किताब मिलने के बाद उन्होंने दो दिन में कहानियाँ पढ़ डालीं । फिर तीसरे दिन घर की अपनी सहायिका लक्ष्मी से फ़ोन लगवाया और मुझे यह बता कर सुखद आश्चर्य से भर दिया कि उन्होंने मेरा संग्रह पढ़कर समाप्त भी कर दिया । मैं तो सुनकर निशब्द रह गई....।
तभी उन्होंने स्नेहभरा आदेश दिया कि काग़ज-पैन उठा और जो मैं बोलती जाऊं, बेटा, तू लिखती जा । तुझे पता ही है कि मैं लम्बे समय से न लिखने की दर्दनाक स्थिति से गुज़र रही हूॅं"।
मैं तो मंत्रमुग्ध सी जैसा वे कहती गई, करती गई ।
मै अपनी कहानियों पर उनके खरे विचार पाकर कृतकृत्य हो गई । मुझे आज भी याद है कि लिखना समाप्त होने पर जब वे रोज की तरह बात करने लगी़, तो बातों के बीच वे रह-रह कर, एक ही बात बोली__
" देख दीप्ति तुझे भाषा का वरदान है, इसे सहेजे रखना और दूसरी बात, तेरे अन्दर जो 'खुद्दारी' है, उसे कभी मत खोना । यह आज-कल बड़ी दुर्लभ है ।" .
यह दूसरी चौंकाने वाली बात थी - मेरे लिए, मतलब कि मैं जो फ़ोन पर उनसे बेबाकी से बतयाती थी, उससे उनका मन तो लगता ही था, पर साथ-साथ उनके द्वारा सहज ढंग से मेरा आकलन भी चल रहा था । यह सुनकर मैं संकोच से भर उठी ।
इस वार्तालाप के कुछ दिन बाद मैंने दीदी से उत्सुक्तावश पूछा___
"दीदी, प्लीज़, एक बात बताइए कि बिना मिले, फ़ोन ही फ़ोन पर आपने कैसे जाना कि मैं ख़ुद्दार हूंँ । क्या पता मैं हूंँ या कि नहीं....!"
इसके जवाब में दीदी तपाक से बोली___
"इतने वर्षों से फ़ोन पर मेरी-तेरी घोर अपनत्व भरी बातें होती हैं । इतनी घनिष्ठता हो जाने पर भी, तूने कभी भी मुझसे अपनी कहानियों की बाबत, उनके हंस में प्रकाशित होने की बात नहीं की । एक बार भी, जो तूने भूले से कभी कहा हो । वरना, आज-कल की अनेक ऐसी उभरती हुई लेखिकाएँ और लेखक हैं, जो इस तरह की मदद की चाह पहले रखते हैं और हाल-चाल बाद में पूछते हैं ।
मैं तो सुनकर दंग रह गई । तुरत प्रतिक्रिया स्वरूप मेरे मुॅंह से निकला --
दीदी, आप तो बड़ी अन्तर्यामी हैं ।
फिर रुक कर, मैंने सहज भाव से कहा___
दीदी, अन्यथा मत लेना ।कुछ कारणों से मुझे हंस पसंद नहीं। बीते समय में दो वर्ष तक लगातार मैं इसकी वार्षिक ग्राहक रही। लेकिन इसमें छपी सामग्री कभी मेरी साहित्यिक अभिरुचि को सन्तुष्ट नहीं कर पाई । इसमें प्रकाशित कहानियों और कविताओं आदि को पढ़ कर, मुझे अपनी रचना हंस को भेजने का मन नहीं हुआ । और जब नया ज्ञानोदय, वागर्थ, साक्षात्कार, प्रेरणा, सम्बोधन, और समकालीन भारतीय साहित्य(हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों) आदि तथा अन्य और भी पत्रिकाओं से मेरी रचनाऍं, पाठकों तक पहुॅंच रही हों, पाठकों की प्रतिक्रियाऍं मुझ तक आ रही हों, तो फिर "हंस" की न मुझे कभी याद आई और न ज़रूरत महसूस हुई । वैसे दीदी, आपको भी मैंने हंस में कभी नहीं पढ़ा । जब मैं इसे मंगाती थी,उस समय तक मैंने आपकी कोई रचना हंस में नहीं पढ़ी । हो सकता है कि उससे पहले आपकी कोई रचना इसमें छपी हो और मेरी नज़र से चूक गई हो ।
मेरी बात पर अपनी सहमति की मुहर लगाती हुई, दीदी बोली _
"बात तो तू ठीक कह रही है और जिनका तूने नाम लिया ये सभी स्तरीय और प्रतिनिधि पत्रिकाऍं हैं ।"
दूसरी बात का उन्होंने जो मसखरी भरा जवाब दिया,उसे मैं यहाॅं नहीं बता सकती ।
इस दौरान, एक दिन देखा कि डाक से मेरे पास, उनकी राधा-कृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित किताब एक कहानी यह भी आई है । मैंने झटपट उन्हें फ़ोन मिलाया और उनकी ओर से इस एक और प्यारे से सुखद आश्चर्य के लिए उन्हें झोली भर-भर के शुक्रिया दिया ।
इसके बाद मैंने भी उनकी उस लेखकीय यात्रा आधारित यादगार पुस्तक को डूब कर पढ़ा और फिर शिद्दत से उस पर क़लम चलाई । इतना ही नहीं, भोपाल की प्रतिनिधि पत्रिका प्रेरणा में प्रकाशन हेतु उसे भेज दिया । जब सम्पादक अरुण तिवारी जी की अविलम्ब स्वीकृति आ गई और आगामी अंक में मेरा लिखा 'आकलन आलेख' छप गया, तब, मैंने यह सुखद आश्चर्य दीदी को दिया । मैंने किताब का तोहफ़ा मिलने पर, उस पर अपने बेबाक आकलन और भावभीनी अभिव्यक्ति का छोटा सा तोहफ़ा उन्हें देकर, जो अकस्मात ख़ुशी दी, उसे पाकर वे बेहद ख़ुश हुई । उनके पास तो सभी पत्रिकाएँ आती ही थीं , सो प्रेरणा पढ़कर मुझे उनके आशीष का बड़ा-बड़ा वरदान मिला ।
उम्र और पीढ़ियों के अन्तराल से परे, जब काफ़ी हद तक, समान सोच वाले, दो क़लमकारों के बीच निस्वार्थ एवं निश्छल आत्मीय रिश्ता क़ायम होता है, तो उस ख़ूबसूरत रिश्ते की कोई सानी नहीं होती । मन्नू दी का और मेरा रिश्ता कुछ ऐसा ही था ।
उनके निधन से कुछ वर्ष पहले से उनको फ़ोन पर सुनने में समस्या होने लगी थी, तो तब से उनके और मेरे बीच, फ़ोन पर बातों का सिलसिला भले ही थम गया था, पर मन का रिश्ता सदा प्रगाढ़ और सघन बना रहा । मुझे इस बात की खुशी है कि मेरे और उनके विचार व सोच ही नहीं मिलती, बल्कि इत्तेफ़ाक से, मेरी पैदाइश भी उनकी तरह जून माह की है...
- सुश्री दीप्ति की स्मृति से
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