1992 की बात है। दिल्ली के लाल किला के प्रांगण में "राष्ट्रीय कवि- सम्मेलन" का आयोजन हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा किया गया था। सम्मेलन में राष्ट्र के अनेक बड़े कवि-गीतकार आमंत्रित थे। यह आयोजन 23 जनवरी की रात में सम्पन्न होता था। आमंत्रित साहित्यकारों में गीत- सम्राट गोपालदास नीरज,सोम ठाकुर, डॉ.रविन्द्र भ्रमर,डॉ.शम्भूनाथ सिंह आदि पधारे हुए थे। मैं भी श्रोता के रूप में अकादमी द्वारा सादर आमंत्रित था। लगभग 8-30 बजे तक मैं लाल किला के आयोजन स्थल पर पहुंच गया था। कुछ अन्य श्रोता भी पहुंच कर कुर्सियों पर बैठे थे। चर्चित गीतकार सन्तोष आनन्द अगली पंक्ति में विराजमान थे।मैं भी उनके पासवाली कुर्सीपर जाकर बैठ गया। हम एक- दूसरे को पहले से ही जानते थे। दिल्ली के साहित्यिक कार्यक्रमों में मिल चुके थे। हम बातें करते रहे कि इसी बीच डॉ. शम्भूनाथ सिंह मंच की ओर आते हुए दिखाई दिए।चूंकि वे बनारस से पूर्वपरिचित थे। मैं तुरन्त उठकर उन्हें प्रणाम करते हुए बैठने का आग्रह किया कि हिन्दी अकादमी के सचिव डॉ. नारायणदत्त पालीवाल ने उन्हें मंच पर आमंत्रित कर लिया। वे मंच पर आसीन हुए।
करीब 9-30 बजे तक सभी आमंत्रित साहित्यकार मंच पर पधार चुके थे। 10-00 मां सरस्वती की वन्दना के पश्चात काव्य-पाठ शुरू हुआ।शम्भूनाथ सिंह ने जैसे ही काव्य-पाठ के लिए उठे, मंच पर आसीन साहित्यकारों उनसे उनके पुराने बहुचर्चित गीत 'समय की शिला पर'' को सुनाने का आग्रह किया।आपने अपने उसी पुराने अंदाज में गीत-गान शुरू किया समय की शिला पर मधुर गीत कितने किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए सभी मन्त्र-मुग्ध होकर सुने।तालियों की ध्वनि से पंडाल गुंजायमान हो उठा। वास्तव में यह गीत आपने भाव- ताल-लय-स्वर में बहुत ही उम्दा और मार्मिक है।जैसे सभी श्रोताओ के मन को मोह लिया था डॉ. शम्भूनाथ सिंह ने। यद्यपि इससे पहले लोग नीरज जी तथा डा.सोम ठाकुर के गीतों को सुन चुके थे लेकिन जो भाव-विह्वलता एवं माधुर्य का रसानन्द डॉ.शम्भूनाथ सिंह के गीतों में आभासित हुआ,अद्भुत, अनुपम,अद्वितीय। फिर सभी ने उनके दूसरे प्रतिष्ठित गीत जिसका स्वर-नाद इस प्रकार है, को सुनाने की मांग की।वे हंस पड़े। बोले, कुछ नया भी सुनिये।मगर मांग थी उस गीत की जिसे सुनते ही 'अजन्ता और एलोरा' की यादें ताजा हो जाती हैं। तो आप भी सुनिये-
यही है जिन्दगी अपनी यही है अपना सरमाया,
एलोरा में कभी रोया, अजन्ता में कभी गाया।
कदम रखता पहाड़ों पर
दिशाएं शीश पर बांधे,
चला मैं आसमां के छोर
लटकाए हुए कांधे।
हवाओं के कभी रुख मोड़ता उलटी दिशाओं में,
कभी गुमसुम समुन्दर की लहर गिनना मुझे भाया।
समय को मुट्ठियों में कैद
कर बढ़ता रहा आगे,
लगी जब पांव की ठोकर
बवण्डर नींद से जागे,
पुकारा इन्द्रधनुषों ने मुझे जिस राह से गुजरा
मगर मुंह मोड़कर पीछे न मुझको देखना आया।...
फिर वही जोरदार करथल ध्वनि। बहुत सुंदर, वाह! वाह!! का स्वर-नाद..सभी तरफ हर्षोल्लास। रात के डेढ़ बज रहे थे जब कवि-सम्मेलन समाप्त हुआ। मंच से जब डॉक्टर सिंह साहब नीचे उतरे तो देखा उनका जूता गायब था। मैं उनके पास खड़ा -- इधर-उधर उनके साथ आंखें गडाए ढूंढ रहा था। तभी डॉ पालीवाल जी ने पूछा, "क्या हुआ "
मैं बोला--"इनका जूता गायब हो गया।"
वह हंस पड़े--"कोई 'जूताखोर' होगा।लेकिन गया।"
तब कुछ पता न चला। वे भौचक्क हो ताकते रहे। तब मैंने धीरे कहा--"डॉक्टर साहब, चलिये, रात में
कौन देखता है पैर में जूता है या नहीं।" उन्हेः भी ये बात जंची। हम दोनों परस्पर बातें करते चल पड़े।.जब थोडी दूर आए तो फिर मंच के लाउडस्पीकर से किसी के गाने का सुरीला स्वर सुनाई दिया। वह कहने लगे,"अब कौन यह गीत गा रहा है?"
मैंने हंसते हुए कहा--यह सन्तोषान्द की आत्मा है। इतनी प्रसिद्धि के बावजूद उसे आमंत्रित नहीं किया।
इसलिए अब वह सबसे आखिर में राग-अलाप रहा है। कोई तो सुने उसके गीत।" प्राय राष्ट्रीय आयोजनों में उसकी उपेक्षा हुई है। उन्हें 1988 में अलीगढ़ में हुए 'अन्तरराष्ट्रीय कवि-सम्मिलन' में नहीं आमंत्रित किया था। जिसका मैं प्रत्यक्षदर्शी हूं। और यहां भी आपने देखा ही।"
उन्होंने कहा-"यह आयोजक अपनी-अपनी परख- पकड़ होती है। जरूरी नहीं सभी को एकमंच पर इकट्ठा करना। फिर सन्तोष आनन्द का क्षेत्र फिल्म है।हम साहित्यिक हैं।फिल्म में गीत लिखने से प्रसिद्धि जरूर मिलती है,साहित्यिक मंच जरूरी नहीं।"
अब हम लाल किला के मुख्य द्वार से बाहर निकल चुके थे। मैं उन्हें एक आटो में बैठा के बाद 'रात्रि-सेवा' वाली
दिल्ली परिवहन की बस के लिए सड़क किनारे बस स्टैंड पर इन्तजार करने लगा।
करीब 9-30 बजे तक सभी आमंत्रित साहित्यकार मंच पर पधार चुके थे। 10-00 मां सरस्वती की वन्दना के पश्चात काव्य-पाठ शुरू हुआ।शम्भूनाथ सिंह ने जैसे ही काव्य-पाठ के लिए उठे, मंच पर आसीन साहित्यकारों उनसे उनके पुराने बहुचर्चित गीत 'समय की शिला पर'' को सुनाने का आग्रह किया।आपने अपने उसी पुराने अंदाज में गीत-गान शुरू किया समय की शिला पर मधुर गीत कितने किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए सभी मन्त्र-मुग्ध होकर सुने।तालियों की ध्वनि से पंडाल गुंजायमान हो उठा। वास्तव में यह गीत आपने भाव- ताल-लय-स्वर में बहुत ही उम्दा और मार्मिक है।जैसे सभी श्रोताओ के मन को मोह लिया था डॉ. शम्भूनाथ सिंह ने। यद्यपि इससे पहले लोग नीरज जी तथा डा.सोम ठाकुर के गीतों को सुन चुके थे लेकिन जो भाव-विह्वलता एवं माधुर्य का रसानन्द डॉ.शम्भूनाथ सिंह के गीतों में आभासित हुआ,अद्भुत, अनुपम,अद्वितीय। फिर सभी ने उनके दूसरे प्रतिष्ठित गीत जिसका स्वर-नाद इस प्रकार है, को सुनाने की मांग की।वे हंस पड़े। बोले, कुछ नया भी सुनिये।मगर मांग थी उस गीत की जिसे सुनते ही 'अजन्ता और एलोरा' की यादें ताजा हो जाती हैं। तो आप भी सुनिये-
यही है जिन्दगी अपनी यही है अपना सरमाया,
एलोरा में कभी रोया, अजन्ता में कभी गाया।
कदम रखता पहाड़ों पर
दिशाएं शीश पर बांधे,
चला मैं आसमां के छोर
लटकाए हुए कांधे।
हवाओं के कभी रुख मोड़ता उलटी दिशाओं में,
कभी गुमसुम समुन्दर की लहर गिनना मुझे भाया।
समय को मुट्ठियों में कैद
कर बढ़ता रहा आगे,
लगी जब पांव की ठोकर
बवण्डर नींद से जागे,
पुकारा इन्द्रधनुषों ने मुझे जिस राह से गुजरा
मगर मुंह मोड़कर पीछे न मुझको देखना आया।...
फिर वही जोरदार करथल ध्वनि। बहुत सुंदर, वाह! वाह!! का स्वर-नाद..सभी तरफ हर्षोल्लास। रात के डेढ़ बज रहे थे जब कवि-सम्मेलन समाप्त हुआ। मंच से जब डॉक्टर सिंह साहब नीचे उतरे तो देखा उनका जूता गायब था। मैं उनके पास खड़ा -- इधर-उधर उनके साथ आंखें गडाए ढूंढ रहा था। तभी डॉ पालीवाल जी ने पूछा, "क्या हुआ "
मैं बोला--"इनका जूता गायब हो गया।"
वह हंस पड़े--"कोई 'जूताखोर' होगा।लेकिन गया।"
तब कुछ पता न चला। वे भौचक्क हो ताकते रहे। तब मैंने धीरे कहा--"डॉक्टर साहब, चलिये, रात में
कौन देखता है पैर में जूता है या नहीं।" उन्हेः भी ये बात जंची। हम दोनों परस्पर बातें करते चल पड़े।.जब थोडी दूर आए तो फिर मंच के लाउडस्पीकर से किसी के गाने का सुरीला स्वर सुनाई दिया। वह कहने लगे,"अब कौन यह गीत गा रहा है?"
मैंने हंसते हुए कहा--यह सन्तोषान्द की आत्मा है। इतनी प्रसिद्धि के बावजूद उसे आमंत्रित नहीं किया।
इसलिए अब वह सबसे आखिर में राग-अलाप रहा है। कोई तो सुने उसके गीत।" प्राय राष्ट्रीय आयोजनों में उसकी उपेक्षा हुई है। उन्हें 1988 में अलीगढ़ में हुए 'अन्तरराष्ट्रीय कवि-सम्मिलन' में नहीं आमंत्रित किया था। जिसका मैं प्रत्यक्षदर्शी हूं। और यहां भी आपने देखा ही।"
उन्होंने कहा-"यह आयोजक अपनी-अपनी परख- पकड़ होती है। जरूरी नहीं सभी को एकमंच पर इकट्ठा करना। फिर सन्तोष आनन्द का क्षेत्र फिल्म है।हम साहित्यिक हैं।फिल्म में गीत लिखने से प्रसिद्धि जरूर मिलती है,साहित्यिक मंच जरूरी नहीं।"
अब हम लाल किला के मुख्य द्वार से बाहर निकल चुके थे। मैं उन्हें एक आटो में बैठा के बाद 'रात्रि-सेवा' वाली
दिल्ली परिवहन की बस के लिए सड़क किनारे बस स्टैंड पर इन्तजार करने लगा।
...वे मधुर यादें, मार्मिक क्षणआज भी मेरी स्मृति में कौंधते हैं। (28-5-2023)
- डॉ.राहुल की स्मृति से
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