समकालीन हिंदी कथा साहित्य में एक अनूठा लोक रंजित इतिहास हैं गौरा पन्त शिवानी। शिवानी साहित्य की गंगा थीं। उनका ज्यादा समय कुमायूँ की पहाड़ियों में बीता लेकिन उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में आने के बाद साहित्य जगत में शिवानी ही होकर रह गईं। सच कहूँ तो वे साहित्य की गंगा थीं ।
लखनऊ में यशपाल, भगवती चरण वर्मा और अमृत लाल नागर के बाद श्रीलाल शुक्ल,ठाकुर प्रसाद सिंह और शिवानी साहित्य जगत के दैदीप्यमान नक्षत्र थे। उस समय की सरकारी वी आई पी गुलिस्ता कालोनी में ठाकुर भाई 31 और शिवानी जी 66 नम्बर में रहती थीं। मेरा आवास कालोनी में प्रवेश करते ही पड़ता था। जो भी उनसे मिलने आता था।पहले मुझसे ही उनके बारे में पूछता था। ठाकुर भाई का आवास खुला दरबार था लेकिन शिवानी जी से मिलाने के पहले उनकी अनुमति लेनी पड़ती थी। बरसों मैं द्वारपाल की तरह दोनों साहित्यकारों के लिये दरबानगिरी करता रहा। मेरा आवास बाहर से आने वाले साहित्यकारों का अतिथिगृह बना रहा। ठाकुर भाई का मैं दत्तक पुत्र माना जाता था।शिवानी जी का मैं स्नेह पात्र था ही।
शिवानी जी के पति शुकदेव पन्त रियासतों के विलीनीकरण के बाद उत्तर प्रदेश सरकार में उप सचिव के पद पर नियुक्त हुए थे। उन्हें सरकारी आवास के रूप में 66 गुलिस्ता कालोनी आवंटित किया गया था। पति की असामयिक मृत्यु के बाद सबसे बड़ी समस्या आई निवास की।जिसे तत्काल खाली कराने का परवाना आ चुका था। इसका निदान निकालने के लिए ठाकुर भाई ने मुझसे स्वतन्त्र भारत के सम्पादक अशोक जी से बात करने की सलाह दी। उस समय मैं स्वतन्त्र भारत का चीफ रिपोर्टर था। स्वतन्त्र भारत के सम्पादक अशोक जी का स्नेहपात्र भी समझा जाता था । अशोक जी ने शिवानी जी को सांस्कृतिक संवाददाता के रूप में नियुक्त पत्र जारी कर दिया। तय हुआ शिवानी हर इतवार को "वातायन"शीर्षक से सम्पादकीय पृष्ठ पर लिखेंगी। अखबार की ओर से मेरी ड्यूटी लगाई गई कि प्रत्येक शनिवार की सुबह शिवानी जी का कॉलम लेकर अखबार में पहुंचाया करूँ। उधर शिवानी जी ने कॉलम में क्या लिखना है इस पर शुक्रवार की सुबह चर्चा करने का हुक्म दिया। कभी कभी ठाकुर भाई मदद कर देते। मुझे राहत मिल जाती। बरसों में शिवानी जी के कालम का हरकारा बना रहा। वातायन के लेखों का बाद में संकलन भी छपा।
शिवानी जी रोज सुबह की सैर से लौटते समय मेरे निवास 10 गुलिस्ताँ की घंटी बजाती। अखबार पढ़तीं। कभी कभी चाय भी...
शिवानी जी किसी भी विसंगति को बर्दाश्त नही करती थीं।दूसरी ओर ठाकुर भाई मृत्युशैया पर रहते हुए भी परिहास करने से नहीं चूके । महाप्रयाण के बाद ठाकुर भाई की अंतिम पुस्तक हारी हुई "लड़ाई लड़ते हुए" का लोकार्पण कैसे किया जाए? कोई बड़ा समारोह कर सकना सम्भव नहीं था।ठाकुर भाई ने कहा शिवानी जी घर आकर कर दें। शिवानी तैयार हो गयीं।
लेकिन प्रकाशक और सम्पादक डॉ शुकदेव सिंह का अता पता न था। शिवानी ने पूछा-शुकदेव सिंह जी कहां हैं?
ठाकुर भाई ने उस हालत में भी चुटकी ले ली-बेचारा अपने 'पार्षद' खोजने गया है।
काफी इंतजार के बाद डॉ शुकदेव सिंह पधारे। समस्या तब भी नही सुलझी। ठाकुर भाई को पहनाने के लिए शुकदेव सिंह माला लेकर नही आये थे। उन्होंने तोड़ निकाला-,शरद जोशी के चित्र पर से माला उतारकर पहनाने लगे शिवानी जी बर्दाश्त नही कर सकीं।उन्होंने बरज दिया ।शिवानी जी ने मेरी ओर देखा।मैने उठकर सरस्वती के चित्र पर चढ़ाई गयी माला उतार कर शिवानी जी को बढ़ा दिया। ठाकुर भाई ने हाथ जोड़ दिए- माँ का प्रसाद है।
इस घटना को शिवानी भूली नहीं ।लिखा -नाकारा बनारसी!
यही नहीं,ठाकुर भाई के देहावसान पर शोक संवेदना व्यक्त करने आये पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह के कर्कश स्वर के लिए भी उन्हें आड़े हाथों लिया।
एक दिन दोपहर शिवानी जी का फोन आया-अनूप जी आप कहाँ हैं/अखबार में हूँ। आ सकते है?बोलीं -दिलीप कुमार को जानते है आप?जी! वे आप के लिए जाल डाले हुए हैं। वे देर शाम भगवती बाबू के आवास चित्रलेखा को बाहर से देखना चाहते हैं।मुझे अंदाजा नहीं है।मैं भी चलूंगी । आदेश था। चित्रलेखा निवास पर काफी देर खड़े रहे। आंख बंद किये । उनके बेटे ,परिवार को खबर करने मैं बढ़ा।जन्होने बरज दिया। लौटते में दिलीप कुमार स्मृतियों में डूबे रहे।शिवानी जी बोलती रहीं, ढेर सारे संस्मरण उचारती रहीं।
शिवानी और ठाकुर भाई के महाप्रयाण के बाद भी द्वारपाली से मेरी छुट्टी नही हुई।लोग आते रहे।पूछते -शिवानी जी कहाँ किस फ्लैट में रहती थी,ठाकुर प्रसाद सिंह श्री लाल शुक्ल भी कभी यहीं थे?
एक दिन रायपुर से व्यंग्यकार मित्र गिरीश पंकज का फोन आया-रायपुर की डॉ सोनाली चक्रवर्ती शिवानी का घर देखना चाहती हैं । विमान से उतर कर सीधे आपके निवास पर आएंगी। उनकी मदद करेंगे ।
सोनाली आई। उनको शिवानी के घर ले कर गया। 66 गुलिस्ता पर ताला लगा था सोनाली चक्रवर्ती सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुंची। बन्द ताले पर माथा टेके खड़ी रहीं। उनका मन शिवानी से मिलने के लिए छटपटा रहा था,उनका वे सीधा साक्षात्कार कर रही थी ।
लगभग 42 साल बाद मैं भी गुलिस्ता कालोनी छोड़ आया। जाने के पहले शिवानी और ठाकुर भाई के घरों पर जाकर दोनों को प्रणाम किया। लेकिन जैसे ही गुलिस्ता कॉलोनी के गेट से मुड़ा, किसी को पूछते सुन पड़ा-शिवानी यहीं रहती थीं?
अनूप श्रीवास्तव की स्मृति से
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