‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



बुधवार, 17 मई 2023

और हमारा चन्दर चला गया

  (  संस्मरण  भारती जी  )


वो भी क्या दिन थे जब पठन पाठन का इतना शौक़ था कि साहित्यिक पत्रिकाओं " धर्मयुग " कहानियों की पत्रिका सारिका की प्रसार संख्या लाखों में थी उन दिनों आज की तरह विज़ुअल मीडिया तो था नहीं इसलिए घटिया मनोरंजन के बज़ाय अच्छा कथा साहित्य उपन्यास खोज खोज कर पढ़ने की रुचि होती थी कोई भी कहानी या उपन्यास पढ़ने का एक जबरदस्त फ़ायदा तो यह होता था कि पाठक की कल्पना शक्ति का जागरण होता था हम उपन्यास और कहानियों के पात्रों की छवि अपने अनुरूप बना लेते थे ऐसा रंग होगा ऐसा रूप होगा ऐसे बाल होंगे ऐसी लम्बाई होगी हर पाठक अपनी कल्पना के अनुसार पात्रों के रंग रूप गढ़ लेते थे जितने पाठक उतने रूप 

अब क्या है जो टेलीविजन ने परोसा वो देख लिया मज़ाल है जो आप अपने तरह से पात्रों के रंग रूप को गढ़ सकें

हमने तो बीस वर्ष की आयु होते होते लगभग सभी महत्वपूर्ण रचनाकारों की रचनाएं पढ़ लीं थीं 

और इसी कारण पच्चीस वर्ष की आयु होते होते लिखने भी लगे पहली कहानी 

" अगिहाने " सन 1975 में सारिका में प्रकाशित हो गई थी इस कहानी पर एक स्थानीय ज़मीदार ने मानहानि का मुक़दमा दायर कर दिया। पार्टी बनाया हमें सम्पादक होने के नाते श्री कमलेश्वर जी और टाइम्स ऑफ इंडिया के मुद्रक प्रकाशक श्री कृष्ण गोविंद जोशी को ये लोग तो एक वर्ष के बाद सारिका में खेद प्रकाशित करके मुक़दमे से अलग हो गए हम लड़ते रहे खैर यह एक अलग प्रसंग होते हुए भी धर्मयुग से अलग नहीं है क्योंकि हमारी दूसरी कहानी " अपने जैसे लोग " धर्मयुग में स्वीकृत हुई पर प्रकाशित होने से पूर्व हमारे पास धर्मयुग से  " एक शपथ पत्र " आया जिसे भर कर हस्ताक्षर करके हमें भेजना था वो इस आशय का था इस कहानी का सम्पादक प्रकाशक का कोई लेना देना नहीं है समस्त जिम्मेदारी लेखक की है "

उन्हीं दिनों हम पर सारिका की कहनी पर मुक़दमा चल रहा था यह तभी लेखकों से शपथपत्र लेने की परंपरा तभी से प्रारंभ हुई

हमारी बड़ी जिज्जी की शादी कोटा में हो चुकी थी उन्होंने एम ए हिंदी से किया था बाद में उन्होंने पी एच डी की फिर गवर्नमेंट कॉलेज में प्रवक्ता बन गई थीं 

उन्हें पढ़ने का बेहद शौक़ था जब हम कक्षा 8 में थे तभी से जिज्जी जो उपन्यास पढ़ लेती थीं हमें पढ़ने को दे देती थीं 

इस तरह हमने कक्षा 8 से लेकर कक्षा 10 तक हिंदी में प्रकाशित अधिकतर उपन्यास पढ़ लिए थे जिनमें देवकीनंदन खत्री , मुंशी प्रेमचंद , 

शरदचन्द्र चट्टोपाध्याय , बंकिमचंद्र चटर्जी , ताराशंकर बंधोपाध्याय , भगवती चरण वर्मा, बृन्दावन लाल वर्मा , आचार्य चतुरसेन , कुशवाहा कांत , को समग्र पढ़ लिया था

जब हम कक्षा 11 में 

पटियाली ( एटा ) आए तो हमारे क्लॉस में एक लड़का था सुरेन्द्र मोहन मिश्र उपन्यासों का बहुत पढ़ाकू था क्लॉस रूम में भी छुप छुप कर पढ़ता रहता था हमने उससे दोस्ती कर ली और कहा यार हमें भी कुछ पढ़वाओ तो उसने पूछा कि इससे पहले भी कुछ पढ़ा है क्या हमने बता दिया तो बोला ये तो कुछ भी नहीं है मैं कल लाकर देता हूँ

अगले दिन उसने आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास 

" वयम रक्षामि " दिया ये तो बहुत ही कठिन भाषा में था पढ़ कर हमने उससे कहा कि यह तो बहुत ही कठिन भाषा में है तो बोला यह क्या कठिन भाषा में है कठिन भाषा का तो हम कल तुम्हें लाकर देंगे  डिक्शनरी लेकर बैठोगे तब भी समझ में नहीं आएगा

अगले दिन वो हमें

हजारीप्रसाद द्ववेदी का उपन्यास 

" बाणभट्ट की आत्मकथा " दे गया

अरे बाप रे बाप क्या भाषा थी पढ़ने में आनंद तो आ गया पर बहुत से शब्द समझ में नहीं आए हमने कहा यार ये तो जानलेवा है तो उसने कहा कि

हजारीप्रसाद द्ववेदी ने केवल तीन उपन्यास लिखे हैं

एक तुमने पढ़ लिया 

दूसरा है " चारु चन्द्र लेख " और तीसरा है

" अथ रैक्य पुराण " तो हम कह रहे थे कि बड़ी जिज्जी कोटा से आईं थीं हमारी छोटी जिज्जी की शादी होने वाली थी तो वो हमारे लिए

धर्मवीर भारती का उपन्यास " गुनाहों के देवता " साथ लेकर आईं थीं हमसे बोलीं इसे पढ़ बहुत अच्छा उपन्यास है

हम ऊपर वाले कमरे में जाकर पढ़ने लगे कुछ देर बाद ही हम फफक फफक कर हिचकियों से बहुत जोर से रोने लगे जिज्जी दौड़ कर ऊपर आईं हमें चुपटा कर चुप कराने लगीं " पगले ये कोई सच्ची बातें थोड़े ही हैं ये तो सब काल्पनिक होता है

अबतक कितने उपन्यास तूने पढ़े हैं सब क्या सच्चे होते हैं चुप होजा चल नीचे चल अब बाद में पढ़ना पर हमारे मन में तो यह कीड़ा घुस गया था कि भारती ही " चंदर " हैं

और हमारे मन में यह ख़्याल आया कि काश अपने "चंदर" ( भारती जी ) को कभी दूर से ही देख सकें

हमें क्या मालूम था कि एक दिन इनको दूर से देखेंगे ही नहीं पास भी बैठने का अवसर भी और भरपूर सान्निध्य और अत्यधिक प्यार के पात्र बनेंगे 

और जब एक दिन हमने उन्हें ये घटना बताई तो बहुत हँसे

हमने उस उपन्यास के पात्रों के बारे में पूछा तो टाल गए 

हमने कहा अच्छी एक बात  बताइए जिनको आपने उपन्यास समर्पित किया है वो पुष्पा दीदी कौन हैं तो बोले जिनके कोर्ट में तुम्हारा मुकदमा चल रहा है एस. के. सक्सेना उनके पति हैं यानि कि हमारे जीजाजी 

भारती जी बेहद अनुसाशन प्रिय थे धर्मयुग के कार्यालय में जब भारती जी अपने कैबिन में बैठे होते थे तब भी बाहर सहायक सम्पादक " मनमोहन सरल " गणेश मंत्री " " योगेन्द्र कुमार लल्ला  " सतीश वर्मा " आदि अपनी अपनी टेबिल पर सर झुकाए काम में लगे रहते थे जो कहीं बाहर निकल आएं तो पिनड्रॉप साइलेंस कोई मुस्कुरा भी नहीं सकता था भारती जी का व्यक्तित्व बहुत ही प्रभावशाली था 6 फिट 2 इंच लंबे इकहरा वदन छोटे छोटे घुंघराले बाल गम्भीर मुखमण्डल कोई भी लेखक कवि कथाकार पत्रकार बिना अपॉयनमेन्ट के उनसे नहीं मिल सकता था

हम बचपन से ही शरारती रहे हैं तो हम बिना समय लिए 

मिलने की ज़िद करते थे तो लल्ला भाई साहब और बाकी लोग हमें रोकते थे तो हम जबरदस्ती उनके केबिन में घुस जाते थे 

असल में हम मुंबई में कवि सम्मेलनों में जाया करते थे तो कई कई दिन रुकते थे हमारे रुकने का स्थाई अड्डा होता था चित्रा भाभी ( चित्रा मुदगल ) 

का बांद्रा वाला " साहित्य सहवास " का फ्लैट उसी बिल्डिंग में भारती जी का फ्लैट था उसी में शब्द कुमार भाई साहब का फ्लैट था ( जिन्होंने इंसाफ का तराजू ) फ़िल्म की पटकथा और सम्वाद लिखे थे जिस फ़िल्म से राज बब्बर को फिल्मी दुनियाँ में एंट्री मिली थी

सोमेन्द्र बत्रा तो चित्रा भाभी के फ्लैट में ही दूसरे कमरे में रहते थे वो फिल्मों में निदेशक बनने के लिए स्ट्रगल कर रहे थे और किसी निदेशक के सहायक थे चित्रा भाभी तो ममता की

साकार मूर्ति हैं जब कभी हमको 4 या 5 दिन बाहर के कवि सम्मेलन में हो ही जाते थे एक दिन जब हम 4 दिन बाद कहीं से लौट कर आए तो देखा कि चित्रा भाभी हमारे पेंट शर्ट पर प्रेस कर रही थीं न जाने कब उन्होंने धोकर सुखा लिए थे

हमने कहा " भाभी ये आप क्या कर रही हैं तो बोलीं तुम्हें कल भी तो बिरला मातुश्री में कवि सम्मेलन में जाना है क्या इन्हीं कपड़ों में जाओगे " हमने पैर पकड़ लिए आप क्या क्या करेंगी हमारे लिए हमारी आँखें छलछला आईं थीं

बच्चे भी हमें बहुत प्रेम करते थे गुड्डू बिट्टू दोनों ही बिट्टू तो बेचारी असमय चली गई 

अवध दादा ( अवधानारायण मुदगल ) भी हमें बहुत प्यार करते थे

कभी कभी चित्रा भाभी के फ्लैट पर साहित्यकारों का जमघट लगता था तो 

उसमें भारती जी , शब्द कुमार भाई साहब और उनकी पत्नी सरोज भाभी 

सोमेन्द्र भाई , विश्वनाथ सचदेवा जो अब रीडर्स डाइजेस्ट के सम्पादक हैं तब नव भारत टाइम्स में थे सब जमा हो जाते तो बहुत मौज़ आती थी यहाँ भाई साहब ( भारती जी ) का व्यक्तित्व बिल्कुल भिन्न हो जाता था खूब हंसोड़ मज़ाकिया हो जाते थे

कभी ऐसी ही महफिलें भारती जी के फ्लैट में भी होती थीं उसमें इन सबके साथ श्यामरथी सिंह , राममनोहर त्रिपाठी ( जो उस समय विधायक थे ) अवश्य होते थे

 तो बात ये चल रही थी कि हम भाई साहब ( भारती जी ) के केबिन में यों ही घुस जाते थे तो एक दिन भाई साहब बाहर निकल कर आए और बोले " सुरेन्द्र जब चाहे हमसे मिल सकता है इसे मत रोका करिए " उसके बाद तो हमारे मज़े ही आ गए जब चाहते उनकी केबिन में घुस जाते और वो भी अपना काम निबटा कर आराम से बैठ जाते थे

और बोलते सुनाओ क्या हाल चाल है 

हम उनसे पूछते भाई साहब आपके यहाँ के व्यक्तित्व में और घर के व्यक्तित्व में इतना भारी अंतर कैसे होता है तो कहते कि " अगर हम यहाँ भी घर जैसे ही हो जाएं तो धर्मयुग चार दिन नहीं चल पाए ये लोग भी तो हमारे घर आते हैं ये भी तो हमारा वो रूप देखते हैं पर ये जानते हैं कि घर घर होता है और ऑफिस ऑफिस यहाँ अनुसाशन बहुत ज़रूरी है

अब हमने तुम्हें तो इसलिए छूट देदी है क्योंकि तुमसे बातचीत करके हमें भी अच्छा लगता है

एक तो तुम कहानियाँ बहुत अच्छी मार्मिक और जनजीवन से जुड़ी हुई लिखते हो और तुम्हारे अनुभव का दायरा बहुत बड़ा है फिर तुम जितने शरारती हो उतने ही बड़ों को सम्मान देते हो फिर तुम्हारी राइटिंग बहुत सुंदर है तुम्हारी कहानियों में हमें कौमा फुलस्टाप भी नहीं बदलना पड़ता है नहीं तो बिहार के कथाकारों की कहानियों में तो लिंग परिवर्तन भी करना पड़ता है

भाई साहब जानते थे कि हम आर . आर . एस से होते हुए सी पी आई फिर सी पी एम से होते हुए नक्सलाइड मूवमेंट से जुड़े रहे और ध्यान से जुड़े हैं

भाई साहब हमसे ओशो के साहित्य के बारे में बहुत बात करते थे जबकि उन्होंने सार्वजनिक रूप से कभी भी ओशो का खुल कर समर्थन नहीं किया

और महर्षि रमण , जे , कृष्ण मूर्ति के साहित्य और उनकी विचारधारा के बारे में खूब बात करते थे

भाई साहब भी ज्ञान के अक्षय भंडार थे

एक और खास बात थी कि भले ही किसी कहानीकार का कितना भी साहित्य प्रकाशित हुआ हो पर यदि धर्मयुग में जब उनकी पहली कहानी प्रकाशित हो रही होती तो परिचय के साथ साथ यह अवश्य लिखते थे कि ये कथाकार इतने दिनों से लिख रहे हैं और इतना साहित्य प्रकाशित हो चुका है पर धर्मयुग में यह इनकी पहली कहानी है ( लेखक को उसकी औकात दिखा देते थे ) 

जब हमारी लगभग 30 या 35 कहानियाँ धर्मयुग में प्रकाशित हुई होंगी यदि हमें कहानी भेजने में कुछ अधिक दिन हो जाते थे तो उनका छोटा सा पत्र लिफाफे में आता था कि

 " प्रिय सुरेन्द्र

 तीन चार हजार शब्दों की कोई मार्मिक सी कहानी शीघ्र भेजो प्रतीक्षा रहेगी

तुम्हारा

( अपने हस्ताक्षर )

कई बार तो ऐसा भी होता कि हमारे पास कोई तय्यार कहानी नहीं होती थी  तो हम लिख देते

" आदरणीय भाई साहब 

चरण स्पर्श

कहानी तो तय्यार है पर अभी फेयर नहीं की है फेयर करते ही भेज देंगे तबतक हम दो नवगीत भेज रहे हैं देख लीजिएगा "

तो उनका उत्तर आता 

" प्रिय सुरेन्द्र

तुम्हारे कमजोर गीत भी तुम्हारी कहानी की प्रतीक्षा में स्वीकार कर लिए हैं "

फिर हम जल्दी से कहानी लिखते और भेज देते 

एक बार तो ऐसा हुआ कि हमने एक कहानी " रंडी बहू " शीर्षक से भेजी कुछ समय बाद धर्मयुग के एक अंक में उक्त कहानी उक्त तारीख में प्रकाशित होने की सूचना प्रकाशित हुई  

पर उक्त अंक में वो कहानी प्रकाशित नहीं हुई तो हमने पत्र लिखा

आदरणीय भाई साहब

चरण स्पर्श

आपने हमारी उक्त कहानी को उक्त अंक में प्रकाशित करने की सूचना प्रकाशित की थी पर उक्त अंक में तो प्रकाशित नहीं हुई क्या हुआ ? 

उत्तर लल्ला जी का आया 

प्रिय सुरेन्द्र भाई

भारती जी विदेश यात्रा पर गए हैं उन्हें आपकी उस कहानी के शीर्षक पर ऐतराज है वो जब वापस आएंगे तब कोई निर्णय लिया जाएगा "

थोड़े दिन बाद उनका पत्र आया

" प्रिय सुरेन्द्र 

हमें तुम्हारी कहानी का शीर्षक अच्छा नहीं लगा अब हमने तुम्हारी कहानी का शीर्षक बदल कर  " पातुर बहू " 

कर दिया है तुम्हें कोई ऐतराज हो तो बताओ

अंधा क्या चाहे एक आँख हमने पत्र लिखा 

आदरणीय भाई साहब

चरण स्पर्श 

हमें " पातुर बहू " शीर्षक बहुत ही पसंद आया है असल में हम भी " रंडी बहू " शीर्षक से हम भी संतुष्ट नहीं थे पर हमें कोई अच्छा शीर्षक नहीं मिल पा रहा था आपने बड़ी कृपा की शीर्षक बदल कर

आपका

सुरेन्द्र

जब वो कहानी प्रकाशित होकर आई तो उसकी बेहद चर्चा हुई और कई भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त जापानी और अंग्रेजी में अनुवाद होकर प्रकाशित हुई पंजाबी भाषा में तो इस कहानी का अनुवाद

अमृता प्रीतम ने किया 

क्या थे वो दिन जब श्रेष्ठ पत्रिकाओं के सम्पादक लेखकों की प्रतिभा को पाहचान कर उनको पूर्ण प्लेटफार्म देते थे और उनको स्थापित करने में अपना योगदान देते थे

उन्होंने हमसे अन्य विषयों पर भी लिखवाया 

एक बार हमने एक बहुत बड़ा सर्वेक्षण 

नौटंकियों पर कर " मेले में नौटंकी " शीर्षक से धर्मयुग में भेजा हमारा नौटकियों पर बहुत बड़ा काम है चित्रों सहित भेजा उसकी भी बहुत चर्चा हुई

उसके बाद भाई साहब ने हमें कहा कि तुम्हारे इलाके एटा इटावा मैनपुरी डाकुओं का इलाका है तुम एक सर्वेक्षण डाकुओं पर करके भेजो 

हमने कह दिया कि भाई साहब हमें कहानीकार ही रहने दें

एक बार हमने कुछ गीतकारों को लेकर धर्मयुग के लिए एक परिचर्चा की शीर्षक था " यदि आने वाली हिंदी फिल्मों के गीत हम लिखें तो " इसमें हमने बलवीर सिंह रंग , सोम ठाकुर , भारत भूषण , सुरेन्द्र मोहन मिश्र , कुमार शिव , तारादत्त निर्विरोध , किशन सरोज , आत्मप्रकाश शुक्ल को लिया किशन भाई साहब के गीत पढ़ कर बोले इनके गीत बहुत ही मधुर हैं फिर उन्होंने पत्र लिख कर किशन भाई साहब से गीत मंगवा कर धर्मयुग में प्रकाशित किए फिर उन्हें मुंबई बुला कर सम्मानित किया और अपने आवास पर एक गोष्ठी की और 51 हजार रुपये भेंट किए 

ऐसे थे हमारे भाई साहब

एक बार हमने दस गर्मी के दोहे भेजे उन्होंने पूरे पेज पर वो दोहे प्रकाशित किए और हमें लिखा 

इन गर्मियों में जितने भी दोहे आए हैं उनमें सबसे अच्छे दोहे तुम्हारे हैं इसलिए इन्हें पूरे पृष्ठ पर प्रकाशित कर रहे हैं

धर्मयुग अपने विशेषांकों के लिए भी चर्चित रहता जैसे दिवाली विशेषांक , होली विशेषांक , दशहरा विशेषांक , 

ग्रामकथा विशेषांक  ऐसे ही एक बार ग्रामकथा विशेषांक में

हमारी कहानी " उऋण " प्रकाशित हुई उसकी भी बहुत चर्चा हुई उस कहानी का इलाहाबाद रेडियोस्टेशन के उस समय के निदेशक दिनेश रस्तोगी के निर्देशन में राधेश्याम उपाध्याय द्वारा रूपांतरित नाटक " उऋण " नाम से ही प्रसारित किया फिर उसको अखिल भारतीय रेडियो

नाट्य प्रतियोगिता में भेजा गया जिसमें उसने प्रथम स्थान पाया उसके बाद वो नाटक पूरे भारत में सभी रेडियोस्टेशन से

प्रसारित हुआ जिसके फलस्वरूप हमें सालों हर रेडियोस्टेशन से रुपए आते रहे 

अभी कुछ महीने पहले हमारे पास एक सूचना आई कि अब वो नाटक गूगल पर आ गया है

उस कहानी के नाट्य रूपांतरण के मंचन बिहार में बहुत हुए उसी कहानी पर हमारे मित्र दिनेश आकुल के शिफ़ार्शी पत्र के साथ कला फ़िल्म निदेशक मदन बाबरिया 

का पत्र आया कि वो उक्त कहानी पर एक कला फ़िल्म बनाना चाहते हैं पर बात नहीं बन पाई 

हम सदैव यही सोचते रहे कि हमारा काम लिखना है प्रकाशकों काम पुस्तक प्रकाशित करना है और समीक्षकों का काम उस पुस्तक की समीक्षा करना है इसीलिए हम कभी भी अपनी ओर से किसी भी प्रकाशक के पास नहीं गए 

हम ग़लत थे हम नहीं गए तो 

हमसे भी किसी ने संपर्क नहीं किया लगभग 100 कहानियाँ 

धर्मयुग, सारिका , साप्ताहिक हिंदुस्तान , इंडिया टुडे , रविवार और बड़े बड़े दैनिक समाचार पत्रों के रविवासरीय अंकों में प्रकाशित होने के बाद भी किसी बड़े प्रकाशक ने हमसे संपर्क नहीं साधा वो तो भला हो हमारे दो मित्रों का एक तो डॉक्टर राजेन्द्र गढ़वालिया ( उस समय के श्री  वाष्णेय कॉलेज ) उन्होंने केवल हमारा कहानी संग्रह प्रकाशित करने के लिए जाग्रति प्रकाशन 

खोला और हमारा पहला संग्रह 

" नाग वंशी " आया दूसरा संग्रह हमारे हापुड़ के मित्र

पूजन प्रियदर्शी ने अपने तिरपुति प्रकाशन से " ग़लत व्याकरण " प्रकाशित किया इस तरह से दो कहानी संग्रह आए पर न हम किसी समीक्षक के पास गए न हमसे किसी ने सम्पर्क साधा इसलिए कोई चर्चा भी नहीं हो पाई 

धीरे धीरे बड़ी पत्रिकाएं बंद होती गईं हमारा लिखना कम होता गया इधर हम कवि सम्मेलनों में व्यस्त होते गए पैसा और प्रचार प्रचुर मात्रा में

मिलता गया कहानी लेखन पीछे छूट गया

अंतिम बार भाई साहब ( डॉक्टर धर्मवीर भारती ) से मुलाक़ात मुंबई के चकल्लस के मंच पर हुई थी कवि सम्मेलन में बाद पास में आकर खड़े हो गए थे हम तो पाहचान ही नहीं पाए एक बेहद दुबला पतला आदमी हमारे पास खड़ा 

था बोला ° सुरेन्द्र " 

अरे भाई साहब आप हमने झुक कर पैर छुए आपको क्या हुआ भाई साहब हम तो पाहचान भी नहीं पाए तो 

मुस्कुरा कर बोले " अब तुम्हारे

चंदर की जाने की तैयारी है " 

हमारी आँखें भर आईं 

और उसके कुछ ही दिन बाद 

हमारा " चंदर " चला गया हमेशा के लिए।

सुरेन्द्र सुकुमार की स्मृति से


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