"आदमी अपना जादूगर आप बन सकता है"
-रामधारी सिंह दिनकर
डायरी आदमी की अच्छाइयों-बुराइयों, जिंदगी, शरीर या मन की घटनाओं-दुर्घटनाओं, सोच-प्रति सोच और क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं का आईना होती है। वह उसकी अंतरंग और निजी संपत्ति है। जब वह निजी संपत्ति प्रकाशित होकर सार्वजनिक बन जाये तो...?
देखें, राष्ट्रकवि और ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता दिनकरजी के वे अंतरंग क्षण क्या और कैसे हैं?
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डायरी
-रामधारी सिंह दिनकर
18 अप्रैल, 1972 ( दिल्ली)
आज इंदु ने एक छोटी-सी किताब पढ़ने को दी. नाम है 'आर्ट आव लिविंग', उसमें से कितने ही वाक्य नोट कर लेने योग्य हैं।
कोई भी जीवधारी अपने को बदल नहीं सकता। केवल आदमी अपने आप को बदल सकता है। इसलिए वह अपने भाग्य का निर्माता कहा जाता है।
आगम भी सर्वथा त्याज्य नहीं हैं. पूजा-भवन में जो बाहरी प्रतीक रखे जाते हैं, उनसे उपासना का वातावरण तैयार होता है।
मैं जो हूँ, वही होने का अधिकार स्वतंत्रता है. यह गलती करने का अधिकार है, असफल होने का अधिकार है और फिर से प्रयास करने का अधिकार है।
जीवन की गति को तेज करना ही सब कुछ नहीं है. कभी-कभी ठहरना भी चाहिए फूल सूँघने के लिए, बच्चों से खेलने के लिए, गाय की पीठ थपथपाने के लिए।
ठहर जाओ और मन को शांत कर लो। खिड़की पर जाओ और आकाश के सितारों को देखो निरुद्देश्य घूमने के लिए जो समय निकाल सकता है, वह ज्ञानी मनुष्य है। जिसे क्रोध आता है, उसका कुछ न कुछ नुकसान जरूर हो जाता है।
हममें से हर एक यदि शांति की कला का अभ्यास करे तो घर, परिवार, दफ्तर और कारखाना, सर्वत्र शांति हो सकती है।
मधुमक्खी न काटे और हम मधु निकाल लें, इसे 'टैक्ट' कहते हैं।
टहलना पूरे मनुष्य का व्यायाम है, सृष्टि के प्रति भय के भाव में भरकर घूमो, आश्चर्य और विनम्रता के भाव में भरकर घूमो। अकेले घूमना ज्यादा अच्छा है, मगर साथी की जरूरत ही आन पड़े तो ऐसे व्यक्ति को चुनो, जो मौन की महिमा को समझता हो। समानानुभूति (एंपेथी) के जरिये आदमी सभी आदमियों का दुख-दर्द समझ सकता है, उनसे तदाकार हो सकता है।
जब मैं ऊँची बातें बोलता हूँ, सबसे सुंदर बात बोलता हूँ, तब असल में मैं ईश्वर को भाषा में रखता हूँ।
मृत्यु बूढ़ी और रहमदिल धाई है। किसी-न-किसी दिन वह हमें गोद में हलराकर सुला लेगी. अतएव जब तक हम जीवित हैं, हमें एक दूसरे की सहायता करनी चाहिए।
अपनी अवस्था सुधारने का मनुष्य के भीतर दुर्दांत संकल्प है। यही संकल्प उसकी प्रगति है। गैलीलियो ने लोहे की पाइप से आकाश को रात में देखा था, आज भीमाकार लेन्स से हम करोड़ों प्रकाश-वर्ष तक देखते हैं।
राइट बंधु धरती से 100 फुट ऊपर उड़े थे और केवल दस सैकेंड तक। आज हम सारे विश्व का चक्कर लगाते हैं।
संत वह पापी है, जो बराबर पाप से निकलने का प्रयास कर रहा है। जीवन का सबसे बड़ा उपयोग उसे किसी ऐसे काम में लगाना है, जो जिंदगी के बाद तक ठहर सके।
गंभीर चिंतन, ऊँची से ऊँची भावनाओं की अनुभूति और सत्कर्म संपादन, यह सफल जीवन का लक्षण है।
हर आदमी के भीतर कोई बात है, जिसे सुनने से हमारा भला हो सकता है, हम कुछ सीख सकते हैं. अतएव उसे बोलने दो।
अपनी अभिलाषाओं को सुनो, आकांक्षाओं को सुनो। तुम्हारे भीतर जो तुमसे भी श्रेष्ठ मनुष्य है, उसकी आवाज सुनो।
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(रामधारी सिंह दिनकर)
साभार, 'सारिका' 16-31 जनवरी, 1985 से
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1 मई, 1972 (पटना)
श्री प्रफुल्लचंद्र ओझा मुक्त अपने सुपुत्र श्री आनंदवर्धन के साथ आये। उनसे काफी देर तक साहित्यालाप करता रहा। जब वे चले गये, श्री नरसिंहैया के एक लेख पर दृष्टि पड़ी, जिसे उन्होंने भारतीय बुद्धिजीवियों पर लिखा है।
नरसिंहैया ने यह बात बड़ी सफाई से कही है कि मनीषी जब सरकार से सटने लगता है, तब जनता उस पर संदेह करने लगती है और जब वह सरकार का अंग बन जाता है, तब जनता उस पर विश्वास करना छोड़ देती है।
मेरे जीवन से इस उचित का समर्थन भी होता है और खंडन भी। समर्थन इस प्रकार होता है कि जब मेरे बारे में यह अफवाह उड़ने लगी कि मैं मंत्री बनने वाला हूँ, तब जनता की आँखों से मैं गिरने लगा। और खंडन इस प्रकार होता है कि मैं जब अंग्रेजों की नौकरी में था, मैं जनता का लाड़ला था. यहाँ तक कि जब मेरा तबादला युद्ध-प्रचार विभाग में हुआ, तब भी जनता के प्रेम में कोई कमी नहीं आयी. असली स्थिति शायद यह है कि जनता चाहती है कि मनीषी ऐसा हो कि वह राजा और प्रजा, दोनों को डाँट सके। जब तक मनीषी इस धर्म का पालन करता है, तब तक जनता उसके साथ रहती है। स्वराज्य के पूर्व तक मनीषियों का इस देश में बड़ा सम्मान था, क्योंकि मनीषी शासकों के खिलाफ आवाज उठाते थे, मगर अब मनीषियों का आदर बहुत कम हो गया है। जो मनीषी लेखक और कवि हैं, वे कला की सेवा तो करते हैं, लेकिन समय के जलते प्रश्नों पर अपना विचार व्यक्त नहीं करते। स्पष्ट हो, यह सुरक्षा को राह है और जो सुरक्षा खोजता है, जनता उसकी खोज नहीं करती. हम लोग सुरक्षा की खोज में हो मारे गये हैं।
मनु ने ब्राह्मण की जो कल्पना की थी, वह इसी मनीषी की कल्पना थी।ब्राह्मण संचय न करे।ब्राह्मण किसी एक आदमी के दान पर न जिये (नहीं तो वही आदमी उसका मालिक हो जायेगा) ब्राह्मण सम्मान से उस प्रकार भागे। जैसे आदमी साँप को देखकर भागता है। चूँकि ब्राह्मण को न धन का लोभ था, न प्रतिष्ठता का, इसलिए समाज उसका आदर करता था और राजा भी उससे डरता था। आज तो स्थिति यह है कि जिस समाज में हम जीते हैं, उसका प्रोप्राइटर राजनीतिज्ञ है, मैनेजर अफसर हैं और मनीषी मजदूर हैं।कुछ मनीषी अध्यापक और प्राध्यापक हैं, कुछ लेखक, कवि और पत्रकार हैं। मगर वे हमेशा चौकन्ने और सतर्क रहते हैं कि कहीं कोई ऐसी बात मुँह या कलम से न निकल जाये, जिससे सरकार या विश्वविद्यालय के अधिकारी नाराज हों।जिस समाज के मनीषी असुरक्षा से इतने चकित और भयभीत हों, उस समाज का नेता राजनीतिज्ञ ही रहेगा, मनीषी नहीं बन पायेगा।
सरस्वती और लक्ष्मी में वैर है, यही सिद्धांत ठीक था। हमने इस वैर को बुझाने की कोशिश की, यही हमसे बड़ी भारी भूल हो गयी. सफलता की चाह मनीषी को क्षीण करती है।'प्रोफाइल इन करेज' में केनेडी ने जिन लोगों का चरित्र-चित्रण किया है, उनमें से कोई भी सांसारिक दृष्टि से सफल मनुष्य नहीं था। जो ध्येय हमें सत्य दिखाई देता है, उसका पक्ष हमें लेना चाहिए, भले ही जनता उस ध्येय के खिलाफ हो, भले ही राजा उससे नाराज हो। हम लोगों का प्रभाव समाज पर इसलिए नहीं रहा कि हम सत्य बोलने की कीमत चुकाने में आनाकानी करने लगे।
-रामधारी सिंह दिनकर
(साभार, सारिका, 16-31 जनवरी, 1985 से)
प्रस्तुति- डा० जगदीश व्योम
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