‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



बुधवार, 21 जून 2023

डॉ. धर्मवीर भारती: माधवराव सप्रे संग्रहालय

इतिहास-पुरुषों के कक्षों में बोल रहा इतिहास

      धीरे-धीरे पर सधे कदमों से जब आप संग्रहालय की आत्मा से जुड़ते हैं, तो लगता है ज्ञान की संपदा और धड़कता इतिहास आपके पीछे पीछे गुपचुप,गुमसुम टहल रहा है। यहाँ की खामोशी आपको बोझिल नहीं करती,वह आपको बहुत कुछ जानने की ताकत देती है।

        विजयदत्त श्रीधर कहते हैं,'यहाँ संग्रहीत पुराने समाचार पत्रों और पत्रिकाओं की इबारतों में इतिहास को रूबरू देखने का रोमांच अनुभव किया जा सकता है।' यह सच तब बड़ी शिद्दत से सामने आता है जब इतिहास-पुरुषों के नाम से बने कक्षों में रचा बसा इतिहास स्तब्ध भी करता है,रोमांचित भी।

       कालजयी लेखक,संपादक 'डॉ धर्मवीर भारती साहित्य प्रभाग' के अंर्तगत भारती जी के अतिरिक्त इस कक्ष में कवि प्रदीप,जहूर बक्श, कमलेश्वर, दुष्यंत कुमार, चित्रा मुदगल,गोविंद मिश्र, पुष्पा भारती, कृष्णबिहारी मिश्र, रमेशचन्द्र शाह, सत्येन कुमार, धनंजय वर्मा, राजेश जोशी की व्यक्तिगत लाइब्रेरी की पुस्तकें,उनकी पांडुलिपिपाँ, उन पर हुए शोध, लघु शोध प्रबंध व उन पर आईं पुस्तकें संगृहीत हैं।

        डॉ. भारती कक्ष में भारती जी की किताबें, उनकी पांडुलिपि,उन पर किए शोध,उन पर आईं पुस्तकों के अलावा वह कुर्सी व वह जाकिट भी सुरक्षित रखी है, घर में वे जिस कुर्सी पर बैठते थे और जो जाकिट वे पहनते थे। भारती जी की पद्मश्री, मुक्ति संग्राम में इस्तेमाल किये बम के खोखे (जो भारती जी अपने साथ लाए थे) के अलावा 200 निबों से बनी वह माला भी यहाँ रखी है, जिसे उनके मुम्बई आने पर हुए एक सार्वजनिक अभिनंदन के वक्त पहनाई गई थी। गले में कारतूस रखने वाली पट्टी के डिज़ाइन की यह माला बेजोड़ है।

       इसके अतिरिक्त 'बनारसीदास चतुर्वेदी जनपदीय अध्ययन प्रभाग' में लोकभाषा (बुंदेली,मालवी,बघेली), लोकगीत, लोकगाथा, मागधी,भोजपुरी, मैथिली, अवधी, गढ़वाली, कुमायूंनी, ब्रज, हिमाचली और राजस्थानी भाषा से जुड़ी दुर्लभ सामग्री उपलब्ध है। 

       'निरंजन महावर प्रभाग' में 5,206 किताबें मौजूद हैं। भारत की जनजातियाँ, छतीसगढ़ की भाषा, साहित्य, लोकजीवन, मूर्तिकला, मंदिरकला, चित्रकला, हस्तशिल्प, चित्रकला का इतिहास आदि से जुड़ी दुर्लभतम सामग्री उपलब्ध है।

        'गणेशशंकर विद्यार्थी कक्ष' में 10,000 पुस्तकें उपलब्ध हैं, जिनमें विज्ञान और अंग्रेजी की किताबों के साथ 5600 संदर्भ फाइलें हैं। 'माखनलाल चतुर्वेदी कक्ष ' में मनीषियों को समर्पित अभिनन्दन ग्रंथ हैं, जिनकी सँख्या 3000 है।

          शब्दकोश, विश्वकोष, गजेटियर के अलावा सरस्वती, विशाल भारत,हंस(प्रेमचंद),जागरण(प्रेमचंद), मधुकर, मर्यादा, महारथी, माधुरी(प्रेमचंद), चाँद, सुधा, वीणा, विक्रम आदि के वे अंक सुरक्षित हैं, जो इतिहास कथाओं का ज़रूरी हिस्सा रहे हैं।

      यही नहीं दुर्लभ पांडुलिपियों में श्रीमद्गभगवतगीता, श्रीराम गीतावली, प्रागन गीता,वेदार्थ प्रकाश, तिथि दर्पण सहित कई दुर्लभ पांडुलिपियाँ यहाँ मौजूद हैं।

    मेरे गुरु कमलेश्वर के शब्द उधार ले लूँ तो यह 'यह संग्रहालय शब्दों और विचारों की विपुल संपदा का रक्षक है। यहाँ आ कर मैं अपने अतीत से नहीं, बल्कि भविष्य से मिलने की नई ऊर्जा और शक्ति ले कर जा रहा हूँ। यह एक अदभुत उपक्रम है- अपने इतिहास,परंपरा और विरासत को पहचान कर आगे देख सकने का एक शक्तिपुंज।'

सच यहीं पर कहीं ठहरा है। अपनी साफ़गोई, ईमानदारी, प्रतिबद्धता, लगन, समर्पण और सरोकारों के संग-साथ।

      बहुत मुश्किल है इस दौर में विजयदत्त श्रीधर बनना और बने रहना।

      

-हरीश पाठक की वॉल से तथा संतोष श्रीवास्तव के सौजन्य से


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शब्दों की आत्मा से साक्षात्कार (कृष्णा सोबती)


बात उन दिनों की है जब मैं दिल्ली में कृष्णा सोबती जी से मिली थी। उनसे मिलना एक आत्मीयता में बंध जाना था। वे पूछ रही थीं-" क्या लिख रही हो आजकल?" मन हुआ कहूं ,पीछे छूट गए रास्तों को ढूंढ रही हूं ।

अतीत ही तो है जो परछाई की तरह पीछा करता है। जब उस अतीत को याद कर कलम उठाती हूँ तो कभी मित्रो, कभी बालो ,कभी जया ,कभी रतिका...... उनकी रचनाओं के पात्र मेरे मन को  झंझोड़ते रहते हैं।

उनका उपन्यास "मित्रो मरजानी" एक ऐसा उपन्यास है जिसने प्रकाशित होते ही कई सवाल खड़े कर दिए ।नायिका मित्रो ने एक विवादास्पद नारी चरित्र की तरह हिंदी साहित्य में प्रवेश किया कि पूरे शिक्षित समाज में इसके प्रति एक जिज्ञासा जागृत हो गई ।यह न टैगोर की ओस जैसी नारी थी न शरतचन्द्र या जैनेंद्र कुमार की विद्रोहिणी नारी ।इसे आदर्श का कोई मोह न था ।न समाज का भय न ईश्वर का ।इसीलिए मित्रो हमें चौकाती है, डराती है क्योंकि वह खुलकर वह सब कहती है जिसे आम और खास लड़कियां कहते डरती हैं।

"सूरजमुखी अंधेरे के "उपन्यास एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसके फटे बचपन ने उसके सहज भोलेपन को असमय चाक कर दिया और उसके तन मन के गिर्द दुश्मनी की कटीली बाड़ खेंच दी। अंदर और बाहर की दोहरी लड़ाई लड़ती नायिका रत्ती का जीवन वृत्त चाहत और जीवट भरे संघर्ष का दस्तावेज है ।बचपन में रत्ती यानी  रतिका बलात्कार की शिकार होती है ।यह घटना एक गांठ की तरह उसके मन में जड़ जाती है। बड़ी होते-होते यह गांठ उसके भीतर चल रहे युद्ध में उसे कई मोर्चों पर तैनात कर देती है । पुरुष के प्रति वह हीन भावना से ग्रसित है।

वह पुरुष के द्वारा ही तो समाज में लांछित की गई ।शारीरिक अत्याचार के कटु अनुभव से गुजरी रतिका अपनी आंखों में दाम्पत्य जीवन की मधुर तस्वीर भी सँजोए  है ।वह मां बनने को भी आतुर है। रीमा के घर परिवार का भरापूरा ऊष्मा से भरा माहौल उसे बेचैन कर देता है ।आखिर वह भी तो एक स्त्री है। ये कामनाएं पालना स्वाभाविक ही है ।एक खास उम्र के बाद औरत इस अकेलेपन को महसूस करती है ।वह अकेलापन रतिका को भी परेशान करता है।

इन दोनों उपन्यासों का जिक्र करते हुए मैं कह सकती हूं कि उनकी लेखनी शब्दों की मानसिकता से नहीं खेलती शब्दों की आत्मा से साक्षात्कार करती चलती है और इसीलिए असीमित प्रभाव की सृष्टि करने में सक्षम है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी ।अपनी रचना यात्रा के दौरान उन्होंने लगभग हर मोड़ पर कोई न कोई सुखद विस्मय  दिया है। "डार से बिछुड़ी "से लेकर "सूरजमुखी अंधेरे के" तक एक से एक सधी कृतियाँ ।

"हम हशमत "के जीवंत आलेख और औपन्यासिक संरचना शिल्प का नया प्रतिमान "जिंदगीनामा।" जिंदगीनामा तक आते-आते उनकी रचना बगिया के अंकुरित बीज जमीन से सिर उठा विशाल वृक्ष बन गए हैं।

 विद्रोही तेवर, खुले आसमान में अपने परों को पसारने ,आंधियो  से लड़ने की ताकत रखने वाली उनकी कहानियों के महिला चरित्र आज समाज के सामने चुनौती हैं। जो घर की चौखट पार न कर सकने की मजबूरी को धता बता रहे हैं।

उनसे मेरी पहली और आखिरी मुलाकात में चाय पीते हुए वे कहती हैं -" तुम्हारा लेखन जैसे मेरी लेखनी का वारिस है। "

मैं कहती हूं -"कृष्णा दी, मैं हर बार अपनी लेखनी के जरिए आपके लेखन ही से तो रूबरू होती हूँ।" 

- संतोष श्रीवास्तव की स्मृति से


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मन्नू जी की जयंती पर स्मृति-विशेष


मन्नू दीदी को  लेखिका मन्नू के रूप में तो हम सभी भलीभाॅंति जानते  हैं, लेकिन सिर्फ़  मन्नू के रूप  में  उनके कुछ निकटस्थ  लोगों को छोड़कर, अन्य  लोग बहुत कम जानते  होंगे। इस संस्मरण  से उनके आन्तरिक और बाह्य  व्यक्तित्व के कुछ पहलू  ख़ुद-ब-ख़ुद सामने आएंगे।
      हिन्दी   साहित्य  जगत  की दीप्तिमान   दीपस्तम्भ  "मन्नू दीदी"  आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन जहाॅं भी हों,  वे वहाॅं  स्वस्थ एवं सुखी  रहें !  उनके लिए  ढेर  प्रार्थनाएँ.... !!! 
     वस्तुत:  मन्नू दी  का जन्मदिन  12  जून  है,  लेकिन  हिन्दी  जगत व विभिन्न  साहित्यिक एवं शिक्षण संस्थान   उनका  जन्मदिन 3, अप्रैल  मनाते आ  रहे  हैं ।  इस  बारे  में एक दिन  मैंने  मन्नू दीदी से पूछा कि 3 अप्रैल  लोगों  के दिलोदिमाग  में कैसे बैठ गई, जबकि सही तिथि  12 जून  है।  तब  मन्नू  दीदी  ने  बताया  कि किसी कारणवश उनके सारे  प्रपत्रों में, स्कूल सर्टिफिकेट में, पुस्तकों  में, उनके जन्म की तारीख़  3 अप्रैल  दर्ज़  हो गई  थी ! इसलिए सब जगह  3,  अप्रैल उनकी आधिकारिक  जन्मतिथि  हो गई ।  उन्होंने   बाद   में  सब  जगह  यही  तारीख   रहने  दी क्योंकि उनका कहना  था कि  किस -किस  को बताती, कहाॅं-कहाॅं वो तिथि  बदलवाती । इस तरह तीन अप्रैल  वाला, उनका  जन्मदिन  चल निकला ।
तीन अप्रैल  को  फ़ोन करके, मैं  हमेशा  उनसे शरारत में कहती नकली जन्मदिन  की  बधाई एवं  शुभकामनाएँ  दीदी !! 
वे हॅंसती  और कहतीं - "मुझे पता था  कि तेरा फ़ोन आता  ही होगा । फ़ेसबुक  पर तू  सबसे कहेगी  कि यह दिनांक ग़लत है, आप सब  मन्नू जी को  सालगिरह मुबारक 12 जून को कहिए और ख़ुद  फ़ोन पर आकर, मुझे जन्मदिन की शुभकामनाऍं  देगी"।
 यह सुनकर, मैं दलील देती कि  दीदी,  इस तारीख़ को हर कोई आपको बधाई देता है, तो मैं  क्यों  चुप  रहूॅं ? इसलिए आज  सबके साथ, मैं  भी  आपको मुबारकबाद दे रही हूॅं और  इसके बाद, असली  जन्मदिवस पर  आपको फिर से  हैप्पी बर्थडे बोलूॅंगी  और वे फिर से खिलीखिली सी हॅंस पड़ती ।
मन्नू  दीदी  मेरे  लिए  सदा 'माँ ' जैसी  स्नेहिल  और  रहनुमाई  करने वाली रहीं।  उनके निधन से कुछ  वर्ष  पहले तक, मेरी  उनसे  अक्सर रोज, तो  कभी एक दिन   छोड़कर, बातें  होती  थीं । कभी -कभी मेरी  माॅं‌  की  तबियत  ख़राब  होने  की वज़ह से मुझे फ़ोन किए हुए,  यदि दो-तीन‌ दिन हो जाते थे, तो  दीदी तीसरे  दिन  मेरे फ़ोन करने  पर प्यार भरी उलाहना  देती  थीं -
"दीप्ति, मुझे लगा कि  तू मुझे भूल गई  या  मुझसे बातें कर-कर के तेरा मन भर गया"।
मैं  फ़ोन के इधर अपने कान छूते  हुए कहती  --- 
"तौबा  दीदी, कैसी बात कर रही हैं.....! आपसे  तो  बात  करके कभी मन ही नहीं भरता ।आपकी  अपनत्व  और सादगी भरी  बातें कितनी प्रेरक  होती हैं, कितना मन  मोहती  हैं,   कितनी ऊर्जादायक  होती हैं, मैं आपको बता नहीं सकती। मैं भाग्यशाली  हूँ कि  मुझे  अनवरत आपका प्यार  और  ख्याल भरा सान्निध्य  मिल रहा है"।
और  यह  सुनकर  वे  हौले  से  कहती हूॅं ssss...... ।
 मैंने  उन्हें दुख और सुख  में  कभी  भी भावनात्मक अतिरेक में  बहते हुए नहीं देखा ।
अतीत  की  पीड़ा  हो अथवा वर्तमान के  कष्ट, वे उन पर हमेशा  बिना किसी भावनात्मक बिखराव के,  तटस्थ  भाव  से, अपने  को साधकर बातें करती  थीं ।  अपने  दुख-दर्द  पर बात करने  से बचती नहीं थीं । अपने जीवन से जुड़ी वेदना और पीड़ा पर बात करने से मानो उनका  भावनात्मक विरेचन  होता था , भीतर की जमी  पीड़ा  को बाहर  बहाकर, वे  हल्का महसूस करती थीं । उनका साहस और सहनशक्ति अद्भुत थी ! 
2007  से  2015 तक  वे अपनी  स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के चलते भी, लम्बी बात करने की ऊर्जा  से  भरपूर  थीं। जब  2011  में प्रकाशित,  मैंने उनको  अपना कहानी-संग्रह  'सरहद से घर‌  तक' भेजा और इस बारे में  फ़ोन  से भी उन्हें सूचित  करते हुए  कहा  कि  "दीदी, आपने कहा था कि अपनी  कोई किताब भेज - लिख नहीं पाती हूॅं , तो कुछ  पढ़ तो लूं"।
  सो आपको नमन प्रकाशन, दिल्ली  से  प्रकाशित कहानी संग्रह भेज दिया  है । आराम  से पढ़िएगा,कोई  जल्दी नहीं  है  कि किताब आ गई, तो उसी तभी तुरन्त पढ़ना  शुरू कर दें आप । आपकी  सेहत, आपकी सुविधा  पहले  है"।
 लेकिन  क्या देखती हूंँ  कि किताब मिलने के बाद  उन्होंने  दो  दिन  में  कहानियाँ   पढ़  डालीं  । फिर  तीसरे दिन   घर की अपनी सहायिका  लक्ष्मी  से फ़ोन लगवाया  और   मुझे  यह बता कर सुखद आश्चर्य  से भर दिया कि उन्होंने  मेरा संग्रह पढ़कर समाप्त भी  कर दिया । मैं तो सुनकर निशब्द रह गई....। 
तभी उन्होंने  स्नेहभरा  आदेश दिया कि  काग़ज-पैन उठा और जो मैं बोलती  जाऊं, बेटा, तू   लिखती  जा ‌। तुझे पता  ही है कि  मैं  लम्बे समय से न  लिखने  की दर्दनाक स्थिति  से गुज़र  रही  हूॅं"।
 मैं तो मंत्रमुग्ध  सी  जैसा वे कहती गई, करती गई । 
मै अपनी कहानियों पर  उनके  खरे विचार  पाकर कृतकृत्य हो गई ।  मुझे  आज  भी  याद  है कि लिखना समाप्त होने पर जब वे रोज  की  तरह बात करने लगी़,  तो  बातों के बीच  वे रह-रह कर,  एक ही बात  बोली__
 " देख  दीप्ति  तुझे भाषा का वरदान  है, इसे सहेजे  रखना और दूसरी बात,  तेरे  अन्दर  जो 'खुद्दारी'  है, उसे  कभी  मत खोना । यह आज-कल बड़ी दुर्लभ  है ।" .
यह दूसरी चौंकाने वाली बात थी  - मेरे लिए, मतलब कि मैं जो फ़ोन पर उनसे  बेबाकी से बतयाती थी, उससे उनका मन तो लगता ही था, पर साथ-साथ उनके द्वारा सहज  ढंग  से  मेरा आकलन भी  चल रहा था । यह  सुनकर  मैं संकोच  से  भर  उठी । 
इस वार्तालाप  के कुछ दिन बाद मैंने  दीदी से उत्सुक्तावश पूछा___ 
 "दीदी, प्लीज़, एक बात बताइए कि  बिना मिले, फ़ोन ही फ़ोन पर आपने कैसे जाना कि  मैं ख़ुद्दार हूंँ । क्या पता  मैं  हूंँ  या  कि नहीं....!"
इसके जवाब में दीदी   तपाक से बोली___
"इतने वर्षों  से फ़ोन पर मेरी-तेरी  घोर अपनत्व भरी  बातें होती हैं । इतनी घनिष्ठता हो जाने पर भी, तूने  कभी  भी मुझसे अपनी  कहानियों की बाबत, उनके हंस में प्रकाशित होने की बात नहीं  की । एक बार भी, जो तूने  भूले से कभी कहा हो । वरना, आज-कल की अनेक ऐसी उभरती हुई लेखिकाएँ और  लेखक  हैं,  जो  इस तरह की मदद की चाह पहले रखते हैं और हाल-चाल  बाद में पूछते हैं ।
 मैं तो सुनकर दंग रह गई । तुरत प्रतिक्रिया स्वरूप मेरे मुॅंह   से  निकला --
 दीदी, आप  तो बड़ी अन्तर्यामी  हैं ।
फिर रुक कर, मैंने सहज भाव से कहा___
दीदी, अन्यथा  मत लेना ।कुछ कारणों से मुझे  हंस पसंद नहीं।  बीते समय में दो वर्ष तक लगातार मैं इसकी  वार्षिक ग्राहक रही। लेकिन इसमें छपी सामग्री कभी मेरी साहित्यिक अभिरुचि  को सन्तुष्ट  नहीं कर पाई । इसमें प्रकाशित कहानियों और कविताओं  आदि  को पढ़ कर, मुझे अपनी रचना हंस को भेजने  का मन  नहीं हुआ ।  और जब  नया ज्ञानोदय, वागर्थ, साक्षात्कार, प्रेरणा,  सम्बोधन, और समकालीन भारतीय साहित्य(हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों) आदि तथा अन्य और भी  पत्रिकाओं  से मेरी  रचनाऍं, पाठकों  तक पहुॅंच  रही हों, पाठकों  की प्रतिक्रियाऍं  मुझ तक  आ  रही हों, तो फिर  "हंस" की न  मुझे  कभी याद  आई और न ज़रूरत  महसूस  हुई । वैसे दीदी, आपको भी  मैंने  हंस में कभी नहीं पढ़ा । जब मैं इसे मंगाती  थी,उस समय‌ तक मैंने आपकी कोई रचना  हंस  में नहीं पढ़ी । हो सकता  है कि उससे पहले आपकी  कोई रचना इसमें  छपी  हो और मेरी नज़र  से चूक गई हो ।
 मेरी  बात पर अपनी सहमति की मुहर लगाती  हुई, दीदी बोली _
"बात तो तू ठीक  कह रही  है और जिनका तूने नाम लिया  ये सभी स्तरीय और प्रतिनिधि  पत्रिकाऍं  हैं ।"
 दूसरी बात का उन्होंने जो मसखरी  भरा जवाब दिया,उसे  मैं यहाॅं  नहीं  बता सकती । 
इस दौरान,  एक दिन  देखा कि डाक से मेरे पास, उनकी  राधा-कृष्ण प्रकाशन  से प्रकाशित किताब एक कहानी यह भी आई  है । मैंने  झटपट  उन्हें  फ़ोन मिलाया और  उनकी ओर  से इस  एक और प्यारे  से सुखद आश्चर्य  के लिए  उन्हें झोली भर-भर के  शुक्रिया  दिया ।
 इसके बाद मैंने भी उनकी उस लेखकीय यात्रा आधारित  यादगार  पुस्तक को डूब कर पढ़ा  और फिर  शिद्दत  से उस  पर क़लम चलाई । इतना ही नहीं, भोपाल की प्रतिनिधि  पत्रिका  प्रेरणा में  प्रकाशन हेतु  उसे भेज दिया । जब  सम्पादक अरुण तिवारी जी की अविलम्ब  स्वीकृति  आ गई और आगामी  अंक  में  मेरा लिखा  'आकलन आलेख'   छप गया, तब, मैंने  यह  सुखद आश्चर्य  दीदी  को  दिया  ।   मैंने किताब का तोहफ़ा मिलने पर, उस पर अपने  बेबाक आकलन  और भावभीनी अभिव्यक्ति का छोटा सा तोहफ़ा उन्हें  देकर, जो अकस्मात ख़ुशी दी, उसे पाकर वे बेहद ख़ुश हुई । उनके पास तो सभी पत्रिकाएँ आती  ही थीं , सो  प्रेरणा पढ़कर  मुझे  उनके  आशीष  का   बड़ा-बड़ा वरदान  मिला । 
उम्र और पीढ़ियों  के अन्तराल से परे, जब काफ़ी  हद तक, समान सोच वाले, दो क़लमकारों  के  बीच  निस्वार्थ एवं निश्छल आत्मीय  रिश्ता क़ायम  होता  है, तो  उस ख़ूबसूरत रिश्ते की कोई सानी नहीं  होती । मन्नू दी का और मेरा रिश्ता कुछ ऐसा ही था ।
उनके निधन से  कुछ  वर्ष पहले  से  उनको फ़ोन  पर  सुनने में समस्या  होने लगी थी, तो तब से  उनके और मेरे बीच, फ़ोन  पर  बातों  का सिलसिला भले  ही  थम गया था, पर  मन का रिश्ता  सदा  प्रगाढ़  और  सघन  बना रहा । मुझे  इस बात  की खुशी  है कि   मेरे  और  उनके  विचार  व सोच  ही नहीं मिलती, बल्कि  इत्तेफ़ाक से, मेरी  पैदाइश  भी  उनकी  तरह  जून  माह  की   है...

 - सुश्री दीप्ति की स्मृति से

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विष्णु प्रभाकर की जयंती पर कुछ यादें

        मित्र अरूण कहरवां ने आग्रह किया कि विष्णु प्रभाकर जी को कुछ इस तरह स्मरण करूं कि बात बन जाए। मैं फरवरी , 1975 में अहमदाबाद गुजरात की यूनिवर्सिटी में केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा अहिंदी भाषी लेखकों के लिए लगाए गए लेखन शिविर के लिए चुना गया था । दिल्ली में नरेंद्र कोहली जी मुझे रेलगाड़ी में विदा करने आए थे । पहली बार एक छोटे से कस्बे के युवा ने इतनी लंबी रेल यात्रा की थी, बिना बुकिंग वो भी एक कनस्तर पर बैठ कर । यूनिवर्सिटी पहुँचा । दूसरे दिन क्लासेज़ शुरू हुईं । मैंने कथा लेखन चुना । हमारे कथा गुरु के रूप में विष्णु प्रभाकर जी आमंत्रित थे । मज़ेदार बात कि आज के प्रसिद्ध कथाकार राजी सेठ व उनकी बहन कमलेश सिंह भी हमारे साथ प्रतिभागी थीं । कुल बत्तीस लेखक विभिन्न हिंदी भाषी प्रांतों से चुन कर आए थे। विष्णु प्रभाकर जी की सबसे चर्चित व लोकप्रिय पुस्तक आवारा मसीहा तब प्रकाशित हुई थी और वे उसकी प्रति झोले में रखते थे बड़े चाव से दिखाते । उनका शरतचंद्र का कहा वाक्य नहीं भूलता कि लिखने से बहुत मुश्किल है न लिखना । यानी जब कोई रचना आपके मन पर सवार हो जाती है तो आप उसे लिखे बिना नहीं रह सकते । फिर उनकी सुनाई लघुकथा : 

चांदनी रात थी। नदी किनारे मेंढकों के राजा ने कहा कि कितनी प्यारी चांदनी खिली है । आओ चुपचाप रह कर इसका आनंद लें और सभी मेंढक यही बात सारी रात टर्राते रहे। देखिए कितना बड़ा व्य॔ग्य। एक सप्ताह ऐसे ही कथा लेखन की बारीकियां सीखीं । शब्द चयन के बारे में वे कहते थे कि भागो नहीं , दौड़ो । इसका गूढ़ अर्थ यह कि भागते हम डर से हैं जबकि दौड़ते हम विजय के लिए हैं । 

 वे उन दिनों साप्ताहिक हिंदुस्तान के लिए कहानी का संपादन यानी चयन करते थे। मेरी कहानी थी -एक ही हमाम में । यह कहानी कार्यशाला में पढ़ी । उन्होंने शाम की सैर पर मुझे कहा कि कुछ तब्दीलियां कर लो तो इसे साप्ताहिक हिंदुस्तान में दे दूं । मैंने राजी सेठ से यह बात शेयर की। उन्होंने कहा कि इसलिए तब्दील मत करो कि यह साप्ताहिक हिंदुस्तान में आयेगी । यदि जरूरी हो तो चेंज करना। मैंने लालच छोड़ा और वह कहानी रमेश बतरा ने साहित्य निर्झर के कथा विशेषांक मे प्रकाशित की और उतनी ही चर्चित रही । यानी चेंज लेखक सोच समझ कर करे । 

इसके बाद मैंने लगातार विष्णु जी से संपर्क बनाए रखा । वे हर पत्र  का जवाब देते। अनेक पत्र घर में पुरानी फाइलों में मिलते रहे । बहुत समय बाद पता चला इन पत्रों का, बोल कर मृदुला श्रीवास्तव और बाद में वीणा से लिखवाते थे । नीचे हस्ताक्षर करते थे । फिर वे लुधियाना आए । तब भी मुलाकात हुई । जालंधर आए तब भी दो दिन मुलाकातें हुईं । फिर मैं दैनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक लगा तो उनकी इंटरव्यू प्रकाशित की -मैं खिलौनों से नहीं किताबों से खेलता था । इसके बाद मेरी ट्रांसफर हिसार के रिपोर्टर के तौर पर हुई । यहाँ आकर विष्णु जी का हिसार कनैक्शन पता चला कि वे रेलवे स्टेशन के पास अपने मामा के पास ही पढ़े लिखे और उन्होंने ही उनकी पशुधन फाॅर्म में नौकरी लगवाई । वहीं लेखन में उतरे और नाटक मंचन में अभिनय भी करते रहे । बीस वर्ष यहीं गुज़ारे । शायद सारा जीवन हिसार में गुजारते लेकिन सी.आई.डी के इंस्पेक्टर ने कहा कि काका जी , क्रांति की अलख पंजाब के बाहर जगाओ । तब हिसार पंजाब का ही भाग था । इस तरह वे परिवार सहित दिल्ली कश्मीरी गेट बस गए और यह उनके लेखन के लिए वरदान साबित हुआ। संभवतः हिसार में रह कर वे इतनी ऊँची उड़ान न भर पाते । कहानी ही नहीं , नाटक और लघुकथा तक में उनका योगदान है। बहुचर्चित जीवनी आवारा मसीहा पर उन्हें जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार मिला जिसे उन्होंने मकान बनाने में लगाया और उसी मकान पर कब्जा हुआ और वे प्रधानमंत्री तक गए और आखिरकार मकान मिला। वे इतने स्वाभिमानी थे कि प्रधानमंत्री के एक समारोह में जब उनके बेटे को साथ नहीं जाने दिया तब वे वापस आ गए। पता चलने पर प्रधानमंत्री ने चाय पर बुलाया । वे गांधीवादी और स्वतंत्रता सेनानी होते हुए भी किसी प्रकार की पेंशन लेने को तैयार न हुए । 

आखिर दैनिक ट्रिब्यून की ओर से कथा कहानी प्रतियोगिता के पुरस्कार बाँटने के लिए उन्हें आमंत्रित किया गया क्योंकि वे हिसार के हीरो थे । उन्हें पाँवों में सूजन के कारण कार में ही दिल्ली से लाने की व्यवस्था करवाई और वे यहाँ चार दिन रहे । प्रतिदिन मैं उन्हें मामा जी के घर से लेकर आयोजनों में ले जाता । वे गुजवि के भव्य वी.आई. पी गेस्ट हाउस में नहीं रुके । उनका कहना था कि मुझे यह आदत नहीं और मैं अपने मामा के घर ही रहूँगा । यह सारी व्यवस्था संपादक विजय सहगल के सहयोग से करवाई । जब समारोह के बाद उन्हें सम्मान राशि दी तब वे आँखों में आँसू भर कर बोले -कमलेश। तेरे जैसा शिष्य भी मुश्किल से मिलता है । 

बाद में उन्हें सपरिवार दिल्ली छोड़ने गया। मेरा दोहिता आर्यन मात्र एक डेढ़ वर्ष का था। उसे गोदी में खूब खिलाया। वह फोटो भी है मेरे पास।  लगातार लेखन में जुटे रहे और आज भी उनके बेटे अतुल  प्रभाकर के साथ संपर्क बराबर है । उन्होंने दो वर्ष पूर्व दिल्ली के समारोह में बुलाया और मुझसे कहानी पाठ के साथ विष्णु जी के संस्मरण सुनाने को कहा । इसी प्रकार रोहतक के एमडीयू के हिंदी विभाग के विष्णु स्मृति समारोह में मुझे विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया । बहुत कुछ है पर तुरंत जो ध्यान में आया लिख दिया । हिसार की चटर्जी लाइब्रेरी को उन्होंने 2100 पुस्तकें अर्पित कीं ।  लाइब्रेरी में उनकी फोटो भी लगाई गयी है । हिसार के आमंत्रण पर उनका कहना था कि जब भी बुलाओगे तब नंगे पाँव दौड़ा आऊँगा। आज बहुत याद आ रहे हैं विष्णु जी। हरियाणा सरकार ने जिला पुस्तकालय को विष्णु प्रभाकर जी के नाम से जोड़ा तब भी राज्यपाल आए और विष्णु जी का पूरा परिवार भी आया। बहुत सी छोटी छोटी यादें उमड़ रही हैं । वे हमारे दिल में सदैव रहेंगे । मेरी चर्चित पुस्तक यादों की धरोहर में सबसे पहले इंटरव्यू विष्णु प्रभाकर जी का ही है जो उसी कथा कहानी प्रतियोगिता के समारोह के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून में विशेष रूप से प्रकाशित किया गया था । यह इंटरव्यू विशेष रूप से दिल्ली जाकर किया था और वे उस शाम बाहर खड़े मेरा इंतज़ार कर रहे थे । उन्होंने इंटरव्यू के बाद अपना उपन्यास अर्द्धनारीश्वर मुझे भेंट किया था। एक ऐसा उपहार जिसे मैं भूल नहीं सकता।  इस पुस्तक के दो संस्करण पाठकों के हाथों में बहुत कम समय में पहुँचे।

            -कमलेश भारतीय की कलम से तथा अतुल प्रभाकर के सौजन्य से


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मंगलवार, 20 जून 2023

विष्णु प्रभाकर जी के साथ वह दस दिन

  


           लेखक छोटा या बड़ा नहीं होता। वह लेखक, लेखक ही कहलाता है। कपड़ा भले ही नया-पुराना हो सकता है, लेकिन लेखक कभी नया-पुराना नहीं कहलाया जाता है। यह बात साहित्यकार विष्णु प्रभाकर जी एक औपचारिक वार्तालाप के दौरान कह रहे थे। उनसे बातचीत करते समय यह लग ही नहीं रहा था कि इतनी बड़ी शख्सियत के सामने मेरी बात हो रही थी, जबकि कल तक उन्हें मैंने किताबों में ही पड़ा था। किताबों में ही उनका रेखाचित्र देखा था। यह बात साल 1980 जनवरी की थी।  उन दिनों टी.वी पर भी कभी उनकी झलक नहीं देखने में आती थी। केवल समाचार पत्रों में ही कभी रचनाओं के माध्यम से या कभी किसी लेख के माध्यम से ही उनकी बात पढ़ने मिलती। यह बात दार्जिलिंग की है, उन दिनों मैं लेखक शिविर में गोंदिया से प्रतिनिधित्व कर रहा था, तब मैं महज 20 साल का था।  कभी यह भी नहीं सोचा था कि मेरी भेंट विष्णु प्रभाकर जी से होगी।  वह इतने मिलनसार होंगे, इसकी भी कल्पना नहीं थी। वे जब किसी विषय पर बात करते हैं तो करते ही चले जाते थे। और सुनने वाला सुनते ही रह जाता था, मैं भी सुन ही रहा था। ऐसा लगता था कि उन्हें लगातार सुनते ही रहें। उन दिनों मैं उनके साथ 10 दिनों तक था। दार्जिलिंग के जिस स्कूल में हम ठहरे थे वहाँ साहित्यिक चर्चाओं के अलावा हमारे पास कुछ नहीं था। सुबह दिन निकलते ही चाय पर साहित्य की चर्चा होती। दार्जिलिंग की वादियों में टहलते, तब भी साहित्य पर ही वे बात करते। लगता था जैसे वे साहित्य गढ़ने के लिए ही बने हों।  शिविर में भी वही चर्चा भोजन के समय भी वही चर्चा फुर्सत के क्षणों में भी साहित्य पर ही चर्चा करते। 

अक्सर वे साहित्यकार शरदचंद्र चट्टोपाध्याय जी पर बात करते वे। अपना उपन्यास आवारा मसीहा पर वे अक्सर चर्चा करते। वह शरदचंद्र चट्टोपाध्याय जी को लेकर इस तरह बात करते जैसे चट्टोपाध्याय भी हमारे साथ में बैठे हों। एक छवि सी मन में उतर जाती थी, जब वह उनकी जीवनी पर रोशनी डालते। कभी चकला घर की बातें होती तो कभी उनके फुर्सत क्षणों की। कभी और किसी चीज पर। फिर दार्जिलिंग जैसे पहाड़ी क्षेत्र में 10 दिन तक रहना हम लोगों के लिए किसी स्वर्ग की सैर करने जैसी बात थी। वह भी काफी गदगद थे।  अक्सर वे हमें समझाते थे। कहते थे हमेशा लिखा करो। अपना लिखा अपने वरिष्ठ को दिखाओ जो वाकई में साहित्य के प्रति समर्पित हो।   

   आठ दिवसीय शिविर में विष्णु प्रभाकर जी अक्सर कहते कि हर लेखक के लिए चिंतन और मनन आवश्यक है। उसके बिना वह अधूरा है। हर लेखक को पढ़ना जरूरी है। जिस चीज में उसकी रुचि है उस विषय को लेकर उस व्यक्ति ने अवश्य पढ़ना चाहिए। कुछ नहीं तो समाचार पत्र अवश्य पढ़ें। मैं स्वयं भी  समाचार पत्रों के अलावा किताबें पढ़ना पसंद करता हूं। इससे आपको शब्दों के ज्ञान के साथ ही साहित्य में क्या लिखा जा रहा है इसकी भी जानकारी मिलती है। अतः अपने चुने हुए विषय पर लिखने से पहले यह भी जान लेना ज़रूरी है कि उस विषय पर क्या और कैसे लिखा गया। और मैं कैसे लिख सकता हूँ? यह जानना और समझना बहुत ज़रूरी है। एक दिन मैंने अपनी लिखी कुछ कहानियाँ देते हुए उनसे कहा, दादा जब भी आपको फुर्सत मिले आप इन कहानियों को पढ़िएगा ज़रूर और अपनी राय भी अवश्य दीजिएगा। तब उन्होंने कहा- क्यों नहीं, क्यों नहीं। यहाँ मेरे पास समय ही समय है। मैं कल अवश्य तुम्हें  इस पर अपनी प्रतिक्रिया दूँगा।  

        मैंने उन्हें पढ़ने के लिए अपनी छह कहानियाँ दी थीं और उन्होंने एक ही रात में उन्हें पढ़कर दूसरे दिन अपनी प्रतिक्रिया दी। मैं हैरान था कि इतनी जल्दी मुझे अपनी कहानियों पर इतनी बड़ी शख्सियत से प्रतिक्रिया मिलेगी। मैं काफ़ी गदगद हुआ। मेरे लिए उनकी प्रतिक्रिया किसी प्रमाण पत्र से कम न थी।

  उन्होंने कहा लिखकर  रुको मत, लिखते रहो।  लिखते के पश्चात हमेशा चिंतन, मनन और अध्ययन करना कभी मत भूलो। इसे अपने पास गाँठ बाँधकर रख लो, यह जीवन भर काम आएगा। और यह बात आज भी मेरे काम आ रहा है। उस समय उन्होंने मेरी सौदा कहानी का ज़िक्र करते हुए कहा था, यह एक अनमेल विवाह की कहानी है। इसे लिखने से पूर्व एक बार मुंशी प्रेमचंद का निर्मला उपन्यास पढ़ते तो तुम और भी अच्छा लिख पाते । ऐसा नहीं है कि अभी अच्छा नहीं लिखा,‌‌अच्छी बात यह है कि निर्मला कहानी को पढ़े बिना तुमने एक नए तरीके से सौदा कहानी को लिखा है। यह तारीफ के काबिल है जहाँ तक शब्दों के प्रयोग की बात है तो वह और भी अच्छी तरीके से इसे मांजा जा सकता था।  लेकिन फिर भी यह कहानी अपने आप में परिपूर्ण है। मैं चाहता हूँ कि एक बार तुम  निर्मला को अवश्य पढ़ो। तब तुम्हें समझ में आएगा कि उसे कैसे लिखा गया। दादा की हर बात मैं आज भी नहीं भूला हूँ।  उनकी कही अनेक बातें मेरे ज़ेहन में है। आज विष्णु प्रभाकर जी हमारे बीच नहीं है, लेकिन इतने सालों के बाद भी उनकी बातें आज भी उतनी ही कारगर और सटीक है। उस समय उनके साथ चल रही चर्चा के दौरान मैंने उनकी बातें डायरी में  शब्द बद्ध की थी। वे अपनी लिखी कहानियों और उपन्यासों का भी ज़िक्र करते। लेकिन आज मेरे लिए अफसोस की बात यह है कि उनके साथ मैंने जिन पलों को बिताया उनमें से, मेरे पास चित्र के रूप में एक भी चित्र नहीं है। फिर भी मैं अपने आपको गौरवान्वित महसूस इसलिए करता हूँ कि मैंने उनके साथ समय बिताया। एक साथ भोजन किया। आज भी विष्णु प्रभाकर जी के साथ दार्जिलिंग और कोच्चि में बिताए सुनहरे पल  कभी भुलाए नहीं भूलते। हालांकि इसके बाद भी  मेरी उनसे नागपुर में अक्सर मुलाकात हुआ करती। नागपुर में वे अक्सर अपने बेटे के पास आते। मेरी उनसे मुलाकात सुबह टहलते समय होती थी और साहित्य पर चर्चा के अलावा मुझे भी लिखने के लिए प्रेरित करते।

                                -अतुल कुमार प्रभाकर की कलम से


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पुष्पा भारती...कल -कल बहती एक 'नेह' नदी

भौगोलिक रूप से हर नदी का एक नाम होता है पर संबंधों की कुछ नदियाँ हमारे भीतर भी तो बहती हैं न! शीतल जल से हमारी ज़मीन को गीला कर उर्वर बनाती हैं।भीतर कुछ सूखा है तो नेह जल का छिड़काव कर देती हैं। कुछ खो गया तो थपकी दे ढूंढ लाने को कहती हैं...

     जुलाई 2014 का दिन नहीं भूल पाती। बाहर सावन की घनघोर बारिश। मुंबई की बरसात मुझे बेहद पसंद है पर उस दिन जो भीतर बरस रहा था वह थम ही नहीं रहा था। कविताओं की पुरानी हरी डायरी सामने रखी थी।पीले पड़ते पन्ने...यूँ ही उड़ जाएंगे...बिब्बी को गये चार साल बीत गए पर अवसाद भीतर पैठ कर गया।उनका पर्स,चश्मा छूते- छूते और कविताएँ पढ़ते हुए जैसे भीतर एक भूचाल आ गया था। कभी भी कविताएँ कहीं छपने नहीं भेजी। वे नितांत अकेली यात्रा की सहभागी थी, बस अपवाद के रूप में अजित कुमार जी के कहने पर एक संयुक्त कविता संग्रह के लिए दी थी।एक प्रश्न ने सिर उठाया -'क्या बच्चे मुझे जानते हैं?' वह तो सिर्फ माँ से परिचित हैं।परिवार की धुरी संभाले स्तम्भ से लिपटते हैं पर कितना कुछ है जो संदुकों में बंद है! इस मन को क्यों न साझा किया जाए।मेरे जाने पर शायद वे भी मुझे ऐसे ही याद करें।उनके लिए विरासत में क्या छोड़कर जाऊं? यहाँ भौतिक ज़मीन की बात नहीं है पर जो नितांत अपना है उसे ही तो विरासत में दे सकती हूँ न! सब कविताओं को एक संग्रह में सहेज लूँ तो शायद वह किताब ही मेरी असली विरासत होगी।सिर्फ और सिर्फ यही सोच कर कविताएँ प्रकाशित करने की सोची। ये भी सोचा कि जब मैं ना रहूँ तो बच्चे उस किताब को पकड़ कर मुझे छुने का अहसास कर सकते हैं।यहीं से प्रकाशन की शुरुआत हुई।

      अगला सवाल कौंधा कि इस की राह तो पता नहीं।किस डगर जाऊँ? एक नाम जो सबसे पहले याद आया वह था - 'धर्मवीर भारती'।उनकी 'कनुप्रिया' और 'अंधा युग' सिराहने रहती थी।जानती थी कि वे अब नहीं है। पर उसी क्षण सोचा पुष्पा भारती जी तो हैं। उन्होंनें अपना जीवन भारती जी के साथ बिताया है।उनके लेख और साक्षात्कार धर्मयुग में पढ़े थे।उन्हें चौपाल में कई बार देखा और सुना था पर संकोचवश व्यक्तिगत रूप से मिली नहीं थी। कौन गली से जाऊँ!

        फिर वकील युग याद किया।डेस्क टाॅप पर धर्मवीर भारती जी की वेबसाइट पर गयी।घर का नम्बर कागज़ पर लिखा और फोन लगा दिया। वह संवाद शब्दश याद है- 

   ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग ...'हैलो'

' नमस्कार।मैं चित्रा देसाई बोल रही हूँ। मुझे पुष्पा भारती जी से बात करनी है '।

' मैं पुष्पा भारती ही बोल रही हूँ।कहिए '।

' जी नमस्कार। मैं चित्रा देसाई बोल रही हूँ।व्यवसायिक रूप से वकील हूँ और कविताएँ लिखती हूँ'।

' अरे बेटा बहुत अच्छा लगा कि तुम वकील हो।आजकल लड़किया हर जगह कितना कुछ काम करती हैं'।

' जी। लेकिन मैंने अलग कारण से फोन किया है।यदि आज भारती जी होते तो मैं यह फोन उन्हें करती। क्योंकि अब वे नहीं है इसीलिए आपको कर रही हूँ।मैं कविताएँ लिखती हूँ और उन्हें प्रकाशित करवाना चाह रही हूँ लेकिन मुझे ये नहीं मालूम कि वे प्रकाशन के लायक हैं या नहीं। अगर आप कुछ समय निकाल कर मेरी कुछ कविताएँ सुन कर अपनी राय दे तो मैं किसी निर्णय पर पहुँच पाऊँगी।मैं कब आ सकती हूँ?'

'अरे बिटिया कल आ जाऔ'

' जी। कितने बजे?'

' ग्यारह बजे। और आने से पहले फोन कर लेना।मैं भूल जाती या कोई कार्यक्रम बदला तो बता दूंगी '।

' जी बिल्कुल ' कह कर फोन रख दिया।

अगली सुबह निकलने से पहले 10 बजे फोन किया।हामी सुन कर पहुँच गयी। बांद्रा ईस्ट में बसे साहित्य सहवास प्रांगण की शाकुंतलम बिल्डिंग में।सीढ़ियाँ चढ़ते हुए कितनी बार भारती जी को सोचा, महसूस किया। 39 साल पहले दौलतराम काॅलेज की लाइब्रेरी से शुरू हुई यात्रा यहाँ मुंबई में उनके घर की देहरी पर ले आई! उनकी किताबों और धर्मयुग ने एक अलग दुनियाँ से जोड़ा। घंटी बजाई और सामने पुष्पा जी! चौपाल में देखा,सुना था। लेख, साक्षात्कार, संस्मरण पढ़े थे और अब उनके सामने उनकी देहरी पर खड़ी थी! उन्हें याद दिलाया कि कविताएँ सुनाने आई हूँ। उन्होंनें वहीं खड़े हुए कहा - ' बिटिया कविताएँ तो मैं सुनूँगी पर मैं बहुत मुँहफट हूँ।अगर कविताएँ मुझे अच्छी नहीं लगी तो साफ कह दूँगी कि छपवाने की आवश्यकता नहीं है।अगर तुम में 'ना' सुनने की हिम्मत है तो सुनाना वरना तुम घर आई हो तो साथ में चाय पियेंगे और बस...'

' जी बिल्कुल।आपसे ज्यादा निष्पक्ष कौन हो सकता है? अगर मुझे हाँ ही सुननी होती तो मैं अपनी मित्र मंडली को ही सुना देती। मुझे बिल्कुल ईमानदार प्रतिक्रिया चाहिए'।

' चलो अंदर आऔ'- उनके ड्राइंगरूम में भारती जी की कुर्सी देख कर अजीब सी सिहरन हुई। सबसे मजबूत रिश्ता - लेखक और पाठक का है।

पुष्पा जी ने कविताएँ सुननी शुरू की।उनके भीतर होती प्रतिक्रिया चेहरे पर...खंड दर खंड। 

    'चैती सरसो', 'बैसाखी कचनार ',' जेठ का बंजर' ,'सावनी तीज', 'फाल्गुनी मन'...

' अरे बिटिया तुम कहाँ थी? भारती जी होते तो तुम्हें लपक कर छापते।तुम सीधे प्रकाशन के लिए जाऔ...

     पुष्पा जी यदि कविता सुन कर आपने स्वीकृति की मोहर नहीं लगाई होती तो 'सरसो से अमलतास' हरी डायरी में ही सिमटी रहती। छपवाने की महत्वकांक्षा थी ही नहीं, बस विरासत छोड़ने की बात थी। आपने मुझे हिम्मत दी,साहस दिया,आत्मविश्वास दिया। घंटो उस घर में बैठकर आपको सुना। 2014 से उस देहरी को नमन करती हूँ। समय बहता है वहाँ पर एक बहती हुई नदी ठहरी है...

  - चित्रा देसाई की स्मृति से


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पद्मश्री रमेश चंद्र शाह से मुलाकात

मुंबई में 38 वर्ष के मेरे निवास के दौरान दिव्या जैन से दोस्ती बहुत मायने रखती है दिव्या का पूरा परिवार ही साहित्य से जुड़ा रहा। पिता वीरेंद्र कुमार जैन पहले भारती और फिर नवनीत पत्रिका के संपादक रहे ।दिव्या स्वयं पत्रकार है। अंतरंग संगिनी नामक महिला पत्रिका की संपादक और उसकी कवयित्री, कथाकार बड़ी बहन ज्योत्सना मिलन और क्योंकि बाद में यह परिवार रमेश चंद्र शाह का ससुराल हुआ तो मुलाकातें प्रगाढ़ता में बदलती गईं।
जेजेटी यूनिवर्सिटी मुंबई में शोध प्रबंधक के पद से सेवानिवृत होकर मैंने भोपाल को शेष जीवन निवास के लिए चुना लेकिन तब तक ज्योत्सना दी दुनिया से विदा हो गई थीं।
बहुत समय तक तो दादा रमेश चंद्र शाह  से मिलने की हिम्मत ही नहीं हुई। उनके लिए ज्योत्स्ना दी एक रोमांटिक जुनून था जो उन्हें प्रथम मिलन में ही नितांत उनकी अपनी कृति ,कल्पना सृष्टि सी लगती रही ।हर दृश्य और यथार्थ को लांघ कर उस पर अंततः हावी हो जाती कल्पना सृष्टि मानो कल्पना ही एकमात्र स्थायी सच हो बाकी  यथार्थ नियंत्रण से बाहर।
बातों बातों में बताया दादा ने कि पहली मुलाकात ही उसकी कविता के ज़रिए हुई । यदि वह कविता सामने न पड़ी होती तो हम दोनों एक दूसरे के अस्तित्व से बेखबर कोई दूसरा ही जीवन जी रहे होते।"
"यानी कविता मेघदूत बनकर आई और आपका मन लुभा लिया।  दादा , वह कविता हमें भी सुनाइए।"
"ज्ञानोदय के नवोदित लेखिका विशेषांक में छपी थी वह कविता। सभी  कवयित्रियों की कविता पठनीय। मगर मेरी नजर ज्योत्सना की कविता पर ही जाकर ठहरी।"
अब स्मृति साथ नहीं देती उनका। लेकिन वह कविता तो उनकी स्मृति की शिलालेख हो गई
जब हर दिशा में /अंधकार गहराये थे/ तब मेरी पुतलियों के/ कंदील जल उठे थे/ मूक आलोक छिटक गया था /क्योंकि तुम जा रहे थे/ आज/ अनंत के हर कोने में/ दीप जल उठे हैं /आंखों से छलकते ताल में/ पुतलियों के दो कमल/ काँपकर खिल गए हैं/ क्या/ सच ही तुम लौट आए हो /
और कविता के अंत में छपे पते को देख मैं विस्मय से अवाक रह गया। इस पते पर तो जाने कितनी चिट्ठियां वीरेंद्र जी को लिख चुका हूं। यह कैसा संयोग था कि वयस्क जीवन में जिस पहले साहित्यकार को मैंने अपने इतने निकट पाया ज्योत्सना उन्हीं की पुत्री थी।"
" फिर कैसे उन्हें आप अपनी डिस्कवरी,अपनी खोज बता पाए ?"
"यह काम तो हमारे भाग्य ने किया ।संयोग ने किया ।बड़े विस्मय और उल्लास से बता दिया न अपनी डिस्कवरी को। रहा सहा काम ज्योत्सना के द्वारा मुझे लिखे पत्र ने किया।" और यह बताते हुए उनके चेहरे की खुशी मैं साफ महसूस कर रही थी।
जल्द ही वे ज्योत्स्ना दी से मिले। बार-बार मिलते रहे। उन अक्षर कुंजों में जहां उन दोनों की लेखनी के फूल खिले थे ।उस सुवासित कुंज में मिलते हुए ही उनके जीवन की किताब के कोरे पन्ने भरते गए। विवाह उपरांत रमेश दादा जब ज्योत्सना दी को लेकर अपने पैतृक निवास अल्मोड़ा गए तो यह सोच कर कि उनका परिवार खासकर उनकी माँ  इस विवाह के पक्ष में नहीं हैं वे ज्योत्सना दी को लेकर चिंतित हो उठे। जानते थे ज्योत्सना दी को बहुत कुछ अनभ्यस्त और विचित्र लगेगा और ऐसा होना लाजमी भी है ।
"मुझे तो मां और ज्योत्सना को एक दूसरे की पसंद का बनाना था ।दोनों ही स्त्रियां, शक्ति का स्वरुप। 3 वर्ष लगे मुझे मां का क्रोध शांत करने में। ज्योत्सना के पक्ष में लाने में। ज्योत्स्ना को भी उनकी अनुकूलता में ढालना था और ऐसा करने में मैं सफल हुआ। मां के लिए नई बहू के तेवर अनपेक्षित थे। धीरे-धीरे उन पर ज्योत्सना का जादू चल गया और देखते ही देखते वह क्या छोटे ,क्या बड़े सबके स्नेह का पात्र बन गई ।यहां तक कि उस बड़े परिवार के रसोई घर में भी उसका प्रवेश हो गया ।"
रमेश दादा ने कभी भी ज्योत्सना दी के किसी भी गुण को दबाया नहीं ।यह वह जमाना था जब स्त्री पितृसत्ता की आंच से पूरी तरह उबर नहीं पाई थी ।घरों में सामंती आदेशों का पालन करते हुए वह अपने मन को घोटते  हुए खत्म तक हो जाती थी। पर रमेश दादा ने ज्योत्सना दी के साथ ऐसा होने नहीं दिया।
रमेश दादा ज्योत्सना दी की यादों में खोए रहते हैं ।जैसे दिन के 24 घंटे आसपास ही हो कहीं ।उनका घर भी ज्योत्सना दी की उपस्थिति दर्ज कराता है। उनसे जिस दिन मिलने का तय था मैं नहीं जा सकी। मेरा ब्लड प्रेशर हाई हो गया था। दूसरे दिन गई तो रास्ता भटक गई ।जब पहुंची तो वे दीवान पर बैठे मेरे लिए चिंतित थे
" एक तो तुम्हारा ब्लड प्रेशर ठीक नहीं फिर भटकती रहीं जाने कहां-कहां" मैं अभिभूत थी उनकी मेरे प्रति आत्मीयता से। मैंने देखा एक साहित्यकार दंपति का ड्राइंग रूम
सादगी भरा......किताबों की खुशबू वाला....... एहसास हो रहा था जैसे अभी ज्योत्सना दी आएंगी..... लेकिन .....बिटिया शंपा तुलसी अदरक की चाय और बिस्किट रख गई ।पिता की देखभाल वही करती है ।सुबह 4:30 बजे उठा कर घुमाने ले जाती है ।चढ़ाई तक गाड़ी से फिर पैदल 2 किलोमीटर आना जाना, 85 की उम्र में। मैंने उन्हें प्रणाम किया
" आप की जिजीविषा को प्रणाम।" "तुम भी स्वास्थ्य पर ध्यान दो। स्वस्थ तन, स्वस्थ मन ।तभी तो एकाग्र चित्त लिख सकोगी। ज्योत्सना इस मामले में बहुत मूडी थी ।वह अपने इस पक्ष को भी बगैर किसी संकोच के तुरंत तत्काल अभिव्यक्त होने देती थी। किंतु उसके अंतर्मन में या कहें स्वभाव में एक ऐसी जबरदस्त उछाल थी कि वह पलक मारते ही किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया से उबर जाती थी। बिल्कुल अल्मोड़े के आसमान की तरह ।जो कभी एकदम नीला निरभ्र होता और कभी एकदम बादलों से घिर जाता और मिनटों के अंदर तड़ातड़ बरस कर फिर उसी पारदर्शी निर्मलता से जगमगा उठता ।अन्याय चाहे वह जिसका भी जिसके भी प्रति हो उसे कतई नागवार था ।उसकी अनदेखी करना उसके प्रति तटस्थ भाव ओढ़ जाना नामुमकिन था। स्वभाव मेरा भी ऐसा ही है। अतः हम मिलकर अन्याय का विरोध करते।"
"आपके कवि पक्ष  से वे कितना जुड़ी थीं जबकि वे स्वयं कवयित्री थीं।"
" जब मैं कक्षा नवमी में था तबसे कविताएं लिख रहा हूं। कविता से ही कलम को विस्तार मिला। उन दिनों अल्मोड़ा से निकलने वाला पहला साप्ताहिक पत्र शक्ति में यह कविता छपी थी ।अब यह मत कहने लगना कि सुनाओ कविता। उपन्यास ,कहानी, ललित निबंध सब विधाओं पर कलम चली। तुम्हारे भी ललित निबंध पढ़े हैं। तसल्ली होती है कि कोई महिला साहित्यकार ललित निबंध भी लिख रही है।"
जी, फागुन का मन मेरा ललित निबंध संग्रह है। डॉ विद्यानिवास मिश्र मुझसे हमेशा कहते थे लिखा करो महिला ललित निबंधकार कम ही हैं ।"
मैं तो ललित निबंध को आत्म निबंध कहता हूं ।बड़ा कठिन होता है इसका सृजन। खुद से मुठभेड़ करना कोई मामूली बात नहीं है। बड़ी दर्दनाक प्रक्रिया है यह सृजन की।  ज्योत्सना कहती थी कि "आप मूलतः कवि ही हैं। अन्य विधाओं में आप नाहक उलझे रहते हैं। "
अब क्या करूं ।मन नहीं मानता। मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि भी तो साहित्य अकादमी पुरस्कार का मिलना है। 78 किताबें लिखने के बाद कहीं जाकर विनायक उपन्यास को साहित्य अकादमी के लिए चुना गया । छह बार साहित्य अकादमी के लिए मेरी किताबें शॉर्टलिस्ट की गईं।
38 साल पहले जब मेरा उपन्यास 'गोबर गणेश' प्रकाशित हुआ था, तब पहली बार मुझे साहित्य अकादमी दिये जाने की चर्चा हुई थी। "
"ये 78 किताबें सभी विधाओं में लिखी होंगी आपने ।"
" हाँ संतोष ,मेरी किताबें कम से कम छह अवसरों पर साहित्य अकादमी के लिये शार्टलिस्ट की गईं, लेकिन मुझे सुख केवल इस बात का है कि जिस 'विनायक' उपन्यास के लिये अंतत: मुझे साहित्य अकादमी मिला, वह मेरे पहले उपन्यास  'गोबर गणेश' का ही विस्तार है।"
"तुमने डायरी पढ़ी  है मेरी  'अकेला मेला'  । उसमें १९८० से ८६ तक की घटनाओं का वर्णन है। 
कई लोगों का कहना है कि इस डायरी को पढ़ते हुए सहसा उन्हें मेरा यात्रा-संस्मरण 'एक लम्बी छांह याद' हो आता है। इंग्लैंड और आयरलैंड के छवि-अंकन से बढ़कर वह पुस्तक एक बौद्धिक सहयात्रा का आनंद देती है। इस डायरी में भी अपने पाठकों को वैसी ही यात्रा पर ले जाने का प्रयास है।
ये वर्ष मेरे लेखन के सबसे महत्वपूर्ण वर्ष सिद्ध हुए। मेरा मन जो इतना खुला और समावेशी है, जो लिखे हुए का प्रभाव ग्रहण करता है, उसकी व्याख्या करता है और उससे जब-तब जिरह कर कृतज्ञ भी होता है।
सच में लेखन का आनंद ही कुछ और है।"
मेरी पुस्तक जो 18वीं सदी से अब तक की मुंबई का महत्वपूर्ण दस्तावेज है "करवट बदलती सदी आमची मुंबई "के लोकार्पण की अध्यक्षता करते हुए रमेश चंद्र शाह दादा ने कहा था कि " मुंबई मेरी ससुराल है ।कई बार मुंबई जाना हुआ , घूमा भी लेकिन तुम्हारी किताब पढ़कर लगता है अब मुंबई फिर से जाना होगा क्योंकि इस रूप में तो मुंबई को मैंने जाना ही नहीं।"
उनके घर पर हुई मुलाकात के दौरान जब मैंने इस किताब और इस पर दिए उनके उद्बोधन की चर्चा की तो कहने लगे
"मुंबई भारत का सर्वाधिक कॉस्मोपॉलिटन महानगर है । वही कॉस्मोपॉलिटन संस्कार ज्योत्सना के भीतर कहीं गहरे बिंधे हुए थे। यह उसकी कविताओं में स्पष्ट झलकता है ।उसकी छोटी सी कविता है
पैदा होने के दिन से/ हरदम कूदने को /झुका शहर /समुद्र पर । स्वभाव की छोटी-छोटी बातें मुंबई से उसको जोड़े रखती थी। जैसे मुझे अल्मोड़ा से। तुम भी महसूस करती हो न ऐसा। तभी तो लिख सकीं आमची मुंबई ।"
अद्भुत बात है। स्मृति भले ही काफी कुछ अतीत का भूलने का कहती है पर सब कुछ को याद रखने की उनकी मजबूरी भी दिखाई देती है।
शायद उसी रौ में वे बताते रहे
"मुंबई के कॉस्मोपोलिटन संस्कारों की वजह से ही वह जीवन की तमाम तरह की परिस्थितियों परिवेशों को सहज अपना लेती थी। विवाह के बाद मैं सीधी जो विंध्य प्रदेश का सर्वाधिक पिछड़ा इलाका है वहां प्राध्यापक नियुक्त हुआ ।
सीधी तो बिल्कुल अंडमान जैसा, न पार्क, न थिएटर, न सिनेमाघर। कायदे का एक बाजार तक नहीं और तो और हमारा निवास भी एक के भीतर एक धँसे तीन डिब्बा नुमा कमरों का था जहां सुबह शाम चूल्हे सुलगते ही पड़ोसी घरों का सारा धुआं घर के अंदर भर जाता था। बुरादे की अंगीठी से ही अक्सर काम चलाना पड़ता था। ऐसे माहौल में गृहस्थी की शुरुआत, आंखों में ढेर सारे सपने और एक-एक करके गुजरते पूरे 8 वर्ष। लेकिन ज्योत्सना ने खूब साथ दिया। किसी भी असुविधा के लिए उफ नहीं किया। हमारे बीसियों सहकर्मी तो एक डेढ़ बरस में ही तौबा करके चले गए। हम दोनों अपवाद सिद्ध हुए जो बिना किसी शिकायत और कुंठा के मस्त रहे अपने इस अरण्यकांड में ।उसी को अपना राज्याभिषेक मानते रहे। प्रतिदिन प्रातःकाल 3 किलोमीटर स्थित शोणभद्र के दर्शन करना वह भी टेकरी पर चढ़कर हमारा रूटीन था ।उन दिनों अजीब सा नशा था। सप्ताह में 1 दिन घर में संगीत की बैठकी होती जो हमें सप्ताह भर की ऊर्जा जुटा देती ।साल में दो-तीन बार इलाहाबाद के चक्कर लगाते ।इलाहाबाद साहित्यकारों का तीर्थ। खूब मन भी रमता वहां और यह सब संभव होता ज्योत्सना की बदौलत ।सोचता हूं कैसे लांघी होगी मुंबई से सीधी के बीच की दुर्लंघ्य खाईयाँ उसने।
वह तो नौकरी करने की भी जिद करती । वे तंगहाली के दिन थे। मुझे अपने वेतन का एक तिहाई हिस्सा अपने माता-पिता को भेजना पड़ता था ।जिसमें वह मेरा सहयोग करना चाहती थी। पर मैं यह कहकर रोक देता कि क्या घर चलाने की आठों प्रहर की नौकरी कम है जो तुम एक और बोझ अपने सिर पर लादना चाहती हो। थोड़ी सी जो मोहलत तुम्हें नसीब है अपनी अंतरातमिक्चर्या को जीने की उसे भी क्यों गवा देना चाहती हो।"
इस घटना के 20 बरस बाद जब वे भोपाल स्थानांतरित हुए तब वह दिन भी आया जब सेवा संस्था की संस्थापक और विश्व प्रसिद्ध समाज सेवी इलाबेन भट्ट भोपाल पधारीं और उन्होंने अपने पाक्षिक मुखपत्र अनुसूया को हिंदी में निकालने संपादित करने का प्रस्ताव ज्योत्सना के सामने रखा। यही तो चाहती थी वह। लिहाजा वह जुट गई इलाबेन के साथ विभिन्न कार्यों में।
उसने इला भट्ट के ऐतिहासिक उपन्यास ‘लॉरी युद्ध’ का हिंदी अनुवाद किया, साथ ही उनकी स्त्री-चिंतन की पुस्तक का अनुवाद ‘हम सविता’ नाम से किया।
अनुसूया ज्योत्सना के जीवन में उतने ही महत्व की जगह घेरी रही जितनी उसकी कविता और कहानी। स्वरोजगार स्त्रियों को समर्पित यह भारत ही क्या विश्व भर की इकलौती अनूठी संस्था और उसकी गतिविधियों में ज्योत्सना सहर्ष रमी रहती। यह सच्चे अर्थों में सेवा थी। इला बेन उसकी प्रेरणा स्रोत थीं। उसका अंतरंग संबंध इंदौर ,लखनऊ, भागलपुर इत्यादि तमाम सेवा केंद्रों में कार्यरत स्त्री शक्ति के प्रतिनिधियों से रहा।
यह सिलसिला चलता रहता , अगर इंदौर से लौटना उसके लिए अंतिम सिद्ध न होता।
"अंतिम !वो कैसे ?"
"नहीं संतोष, मत पूछो ।उस तकलीफ से मैं प्रतिदिन गुजरता हूं।वह स्मृति नहीं कृति है मेरी, शिलालेख जो मेरे हृदय में अंकित है। भोपाल के चिरायु में उसने अंतिम सांस ली ।क्या इससे भी अधिक वाहियात और विडंबना पूर्ण किसी अस्पताल का नाम हो सकता है ।उसकी अचेतन जीवन यात्रा 3 दिन 3 रात का सफर तय कर हमेशा के लिए लुप्त हो गई। मेरी अर्द्ध विक्षिप्त हुई चेतना पर उसकी कविताओं की दस्तक मेरी कलम को विस्तार देती रहती है।"
मैंने उनसे विदा ली तो गहराती शाम में इस महान लेखक का, महान प्रेमी का ,अपनी सहचरी के महान सहचर का बड़ा सा सितारा जगमगाते पाया।


 - संतोष श्रीवास्तव की स्मृति से

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संस्मरण ~ पूज्य श्री अमृतलाल नागर जी -

" मद्रास ही में उदयशंकर जी की 'कल्पना' फ़िल्म के लेखन-कार्य के अलावा मुझे एक और काम भी मिल गया था। 

दक्षिण की सुख्यात गायिका श्रीमती एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी जी के पति सदाशिवम जी ने बंबई के सेठ स्वर्गीय चिमनलाल देसाई की मार्फ़त मुझसे संपर्क स्थापित किया। 

सुब्बुलक्ष्मी जी को ले कर उन्होंने तमिल भाषा में एक फ़िल्म बनायी थी, 'मीरा'। वे उसे हिंदी में भी बनाना चाहते थे। मैंने कहा, "मैं आपकी इसी तमिल फ़िल्म में हिंदी के संवादों की डबिंग कर दूँगा। आपकी पिक्चर सस्ते में बन जायेगी।" 

 डबिंग उस समय भारत में एक नई कला थी। रूसी लोग अपनी कुछ फ़िल्मों की डबिंग हिंदी भाषा में कराना चाहते थे। बंबई में उन्होंने कई लेखकों को इस काम के लिए घेरा, पर सफलता न मिली। संयोगवश वे मेरे पास आये। मुझे तरक़ीब सूझ गयी और सफलता भी मिली। मद्रास आने से पहले मैं 'नसरूद्दीन बुखारा में' और 'जोया' नामक दो रूसी फ़िल्मों की डबिंग सफलतापूर्वक कर चुका था।"

 "श्री सदाशिवम जी को मेरी बातों के प्रति बड़ा कौतूहल था, फिर भी वे प्रयोग करने के लिये राज़ी हो गये।"  

"मैंने मद्रास में एक मास्टर रख कर तमिल भाषा पढ़ना आरंभ किया था।  एक दिन मेरे मास्टर साहब के आते ही पंत जी ने मेरे कमरे में प्रवेश किया और तमिल अध्यापक से पूछा,” पंडित जी, तमिल में सबसे बड़े मूर्ख के लिए क्या शब्द है?" 

 "मेरे वृद्ध तमिल अध्यापक, जो आजीवन काशी में रहे थे, पंत जी के नाम से ख़ूब परिचित थे। 

 पंत जी के एकाएक यह पूछने पर वे आश्चर्य से उनका मुख देखने लगे, मैं समझ गया कि किसलिए पूछ रहे हैं और मुझे हँसी आ गयी। मेरे तमिल अध्यापक जी ने उन्हें शब्द बतला दिया। चलते समय पंत जी ने छोटे बच्चे की तरह षड्यंत्रकारी बन कर मुझसे और मेरी पत्नी से कहा, “बंधु , आप बतलाइयेगा मत। प्रतिभा जी, आप भी नरेन्द्र को कुछ मत बतलाइयेगा।"

 "उल्लसित हो कर पंत जी चले गये। चाय के समय हम चारों मेज़ पर थे। पंत जी ने कहना शुरू किया- “ हमारा नरेन्द्र बड़ा मुट्टाड़ है।" मेरी और प्रतिभा की हँसी बड़ी मुश्किलों से रुक पा रही थी। जब दो-चार बार 'मुट्टाड़' शब्द का शहद लिपटा प्रयोग हुआ तो नरेन्द्र जी समझ गये कि, पंत जी के द्वारा उनकी शान में कहा जाने वाला यह शब्द कुछ बहुत अच्छा अर्थ निश्चय ही न रखता होगा। उन्होंने बड़े मीठे ढंग से एकाएक बात को पलट दिया, बोले, “ अरे पंत जी, भला आपके सामने मैं क्या हूँ। बड़े  मुट्टाड़ तो आप ही हैं।" सुन कर मुझे बड़ी ज़ोर से हँसी आ गयी।  

प्रतिभा भी हँस पड़ीं और उसी दिन से हम लोगों ने तमिल भाषा का इस शब्द का अर्थ ही बदल दिया। गांधी, टैगोर, पंत, निराला आदि हर बड़ा आदमी हमारे लिए मुट्टाड़ था। 


वैसे हमारे भाषा-विज्ञानी बंधुवर रामविलास जी को यह बात शायद दिलचस्प लगे कि, तमिल भाषा का यह शब्द अवधी में भी इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है। शायद राम जी ने भी इस शब्द का महत्व मान कर इसे अवध में प्रयुक्त किया होगा। ख़ैर, पुदुच्चेरी (पांडीचेरी) के श्री अरविंदाश्रम में भी हम और नरेन्द्र जी बहुत आनंद लेते रहे।वह छोटा-सा शहर हम दोनों ने   टहल-टहल कर घूम लिया। एक दिन उपरत्नों की तलाश में भी हम लोग निकले।हमें संयोग से अपने मन मुताबिक़ उपरत्न तो न मिले, हाँ उसी बहाने, 'बूँद और समुद्र' नाम अवश्य मिल गया।"

पाँच महीने मद्रास में बिता कर हम लोग फिर बंबई आ गये। ‘ मीरा' फ़िल्म की डबिंग का कार्य श्रीसाउंड स्टूडियो में होना था, क्योंकि वहाँ के सुख्यात साउंड रिकॉडिस्ट श्री चंद्रकांत पांडया डबिंग कला के रहस्य में मेरे साझीदार बन चुके थे। मीरा बाई के हिंदी गीतों की रिकॉर्डिंग और उनका फ़िल्मीकरण नये सिरे से होना था। कुछ एक तमिल गीतों की डबिंग भी होनी थी। मैंने नरेन्द्र जी से उसके लिए बात तै की थी। बंधुवर नरेन्द्र जी ने उक्त फ़िल्म के कुछ तमिल गीतों को हिंदी में इस तरह रूपांतरित कर दिया कि वे मेरी डबिंग में जुड़ सकें।सुब्बुलक्ष्मी जी तथा उनके पति बंबई आ गये। काम आरंभ हुआ।  आरंभ में कुछ ही रीलों की डबिंग होने से सदाशिवम जी का उत्साह बहुत बढ़ गया था; वे मुझसे और नरेन्द्र जी से बड़े ही प्रसन्न हुए। हमारा उनसे निकटका नाता स्थापित हो गया। सदाशिवम जी और उनकी स्वनामधन्य पत्नी तथा बेटी राधा हम लोगों के साथ व्यावसायिक नहीं, किंतु पारिवारिक प्रेम व्यवहार करने लगे थे।"

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चित्र में उपस्थित हैं 

पंडित नरेन्द्र शर्मा, महाकवि सुमित्रानंदन पंत जी, श्री अमृतलाल नागर तथा भारतरत्न एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी जी उनकी बेटी राधा तथा मध्य में जो श्वेत दाढ़ी वाले सज्जन दिख रहे हैं वे चैतन्य महाप्रभु जी गौरांग के वंशज संत कवि दिलीप कुमार रॉय हैं उन्हीं के सौजन्य से दुर्लभ कृष्ण भजन एम. एस. सुब्बू लक्ष्मी जी को प्राप्त हुए थे।यह सन् १९४४ का चित्र ऊपर लिखे संस्मरण के साथ जीवंत हो उठा है

विश्व वंदनीय एम. एस. सुब्बूलक्ष्मी जी के घर पर ली गयी यह छवि उस समय के मद्रास शहर जो अब चेन्नई कहलाता है, उस शहर में सन् १९४४ के दिन खींची गयी थी। 

संकलन 

~ लावण्या दीपक शाह


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बाबा अलाउद्दीन खान साहब

 कटनी से 65-67 कि.मी. उत्तर की ओर सतना जाने से पूर्व "मैहर" एक छोटा सा कस्बा है, जो "शारदा माता " के पहाड़ की चोटी पर स्थित मंदिर के लिए जाना जाता है। , 

           सन्1918 में बाबा ने इसी स्थान को चुना और "मैहर बैण्ड"( जिसे अब "मैहर वाद्य वृन्द" कहते हैं)एवं "मैहर संगीत घराने" की स्थापना की थी। बाबा सरोद , सितार एवं ध्रुपद गायकी के लिए जाने जाते  थे। उन्होंने "लोलो और मुन्ने खां से दीक्षा ली थी । बाबा २०वीं सदी के सबसे महान संगीत शिक्षक माने जाते थे। उन्होंने "जल-तरंग", "नल-तरंग"और "चन्द्र-तरंग" वाद्य यंत्रों का अविष्कार किया था। उन्हें १९५८ में "पद्म श्री"और १९७१में "पद्म विभूषण" सम्मान भी मिले थे । उनके पुत्र "उस्ताद अली अकबर खां" भी सरोद वादक थे। उन्होंने ही पाश्चात्य देशों का "सरोद" वाद्ययंत्र से परिचय करवाया था , अमेरिका में अपना प्रोग्राम दे कर।

           पंडित रविशंकर भी बाबा के शिष्य थे। उन्होंने बाबा की बेटी" अन्नपूर्णा" से इसलिए विवाह किया था कि बाबा कहीं अपने पुत्र को अधिक शिक्षा न दे दें । वे दामाद बनकर उनके प्रिय बने और पूरी शिक्षा प्राप्त की। बाबा प्रति वर्ष दिसम्बर में " संगीत सम्मेलन " करते थे। तब क्रिसमस की छुट्टियों में हम पांच दिनों के लिए मैहर में संगीत सम्मेलन में सम्मिलित होने जाते थे। घर से रजाईयां और गद्दे वहां ट्रक में भिजवा देते थे, क्योंकि पंडाल में कड़ाके की ठंड लगती थी पर हमें सारी-सारी रात वहां जागकर संगीत का आनंद लेना होता था नीचे गद्दे बिछाकर और ऊपर रजाईयां ओढ़कर । बीच में जब पक्के राग होते थे ,तभी कुछ नींद आ जाती थी । वैसे भोर की आहट होते ही राग भैरवी से इसको विराम मिलता था । और भोर होने पर चिड़ियों का चहचहाना सुनते ही हम मेरे ताया जी के बेटे जो वहां रहते थे ,उनके घर चले जाते थे । खा-पीकर दिन भर वहां सोते थे, शाम को फिर मस्ती का कोई नया शुगल होता था ।

बाबा अलाउद्दीन खान साहब अली अकबर खान (सरोद वादक) के पिता और पंडित रविशंकर जी (सितार वादक) के ससुर थे! आज भी उनके जाने के पश्चात वहां 3 दिन का उर्स मनाया जाता है! 2020 में हेमा मालिनी भी उस उर्स में उन्हें श्रद्धांजलि देने गई थीं अपना नृत्य पेश करके। हम बाबा के पास लाल किनारी की सफेद धोती पहन कर जाते थे। ‌ वैसे घर के भीतर हर कोई नहीं आ सकता था। मैं कोई संगीतज्ञ नहीं थी केवल अली अकबर दादा और अन्नपूर्णा दीदी के कारण हर वर्ष वहां जाना होता था। मैं भी कुछ वर्ष सितार सीखती रही। प्रयाग से परीक्षाएं भी दीं। किंतु कुछ कारणवश बीच में ही छोड़ दिया।

बाबा अलाउद्दीन खान साहब को प्रणाम करने के स्वरूप सभी प्रसिद्ध कलाकार बाबा को अपना संगीत भेंट करने आते थे। कोई पैसे नहीं दिए जाते थे। शास्त्रीय संगीतकार पंडित शामता प्रसाद तबला वादक बनारस घराने से थे। उनकी उंगलियों का थिरकना जादू लगता था। उन्होंने सन् 75 में फिल्म "जनम जनम के फेरे" में तबला बजाया था फिर अन्य कई फिल्मों में भी तबला बजाया था। भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान शहनाई वादक, उस्ताद विलायत खां सितार वादक, पन्नालाल घोष बांसुरी वादक बसंत राय ,बहादुर राय और पंडित हरिप्रसाद चौरसिया व अन्य कई कलाकार आते थे। कई दिग्गज कलाकार बाबा का आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु आते और आशीर्वाद पाते थे। खाना खिलाते समय हमारा सबसे मेल हो जाता था बाबा के घर में। वैसे बाबा यतीम बच्चों को संगीत सिखाते थे। ऐसे  महान संगीतकार हमारे देश के शास्त्रीय संगीत के स्तंभ हैं। उनके दर्शन करके हम धन्य हो जाते थे। तभी भर सर्दी में हम वहां भागे जाते थे प्रतिवर्ष।

 - डॉ. वीणा विज उदित का स्मृति से


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शुक्रवार, 16 जून 2023

हिंदी के ज्यादातर प्राध्यापक मूर्ख होते हैं

 हिंदी के ज्यादेतर प्राध्यापक मूर्ख होते हैं


युवा पंडित नंददुलारे बाजपेई निराला जी का एक कविता पाठ बी .एच .यू . (तब 1927 में,  यह आर्ट्स कालेज था)के हिंदी विभाग में आयोजित करना चाहते थे और इसके लिए तब के अध्यक्ष  (1924-37)धीर गंभीर बाबू श्याम सुंदर दास के पास अनुमति लेने गए। (याद रखें यह अध्यक्षीय हेकड़ी आज भी सर्वत्र बनी है जिस पर शीघ्र ही संपादकीय व् संस्मरण पढ़ने को मिलेगा!!-लेखक)! दास साहब ने कहा कि उन्हें कोई दिक्कत नहीं है,बस रामचंद्र शुक्ल से पूछ लें।(ध्यानार्थ-आज भूमिका लेखक  रामचंद्र शुक्ल अपने नए लाठी यानि लाठावतार में हैं! चूँकि इस लाठावतार में   काशी के एक गोमुखी व्याघ्र की महत्वपूर्ण भूमिका है,इसलिए महाभारत के सन्दर्भ से  इन पर भी कुछ शीघ्र ही!!-लेखक)शुक्ल जी से जैसे ही बाजपेई जी मिले और कार्यक्रम की अध्यक्षता का अनुरोध किये,वे विफर पड़े।।कहा-यह असंभव है।निराला की कवितायेँ  मुझे नापसंद हैं।उनका कविता पाठ सुनने की बात तो दूर,मैं उसमें रह भी नहीं सकता।अब बाजपेई जी करते क्या।वे निराला को आमंत्रित कर चुके थे।निराश होकर बाजपेई जी हरिऔध जी के पास गए और फिर हरिऔध जी की अध्यक्षता में कविता पाठ आरम्भ हुआ।

निराला इलाहाबाद से बी एच यू आये और कविता पाठ शुरू करने के ठीक पहले बोले--"हिंदी के ज्यादेतर प्राध्यापक मूर्ख होते हैं"।सभा में सन्नाटा।यह सुनकर हरिऔध जी भी  तमतमाये हुए सभागार के बाहर निकल गए।अब बाजपेई जी क्या करते।उन्होंने निराला जी को बुलाया था।तब स्वयं उन्होंने कार्यक्रम की अध्यक्षता की।और सञ्चालन भी।

कुपित निराला इलाहाबाद पहुंचे और एक कविता लिखी-"कालेज का बचुआ।


-विवेक निराला की स्मृति से


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ऊँचा साहित्यिक क़द बनाम सादगी और सरलता- मन्नू भंडारी

मन्नू भंडारी

यह वाक़या 2015 का है, जब आदरणीय  बाबू जी  अमृतलाल नागर  की जन्मशती के उपलक्ष्य  में , "उ.प्र. हिन्दी  संस्थान" ने दो दिवसीय  भव्य आयोजन के तहत देश के उन साहित्यकारों  को  बाबू जी  के  व्यक्तित्व  और कृतित्व पर  व्याख़्यान  हेतु निमंत्रित  किया था, जिनका उन पर  गहन अध्ययन था  या जो उनके  बहुत निकट रहे । डॉ.प्रभाकर श्रोत्रिय, डाॅ. सूर्यप्रकाश दीक्षित, आदरणीय सोम ठाकुर, बेकल  उत्साही जी, नासिरा  शर्मा  जी, अचला नागर  दीदी, उनका बेटा संदीपन नागर (रंगमंच  की मशहूर हस्ती) व अन्य परिवार जन शामिल हुए  थे ।
हिन्दी  संस्थान  का  वह एक सफलतम और यादगार कार्यक्रम था, जो आज तक याद आता है ।
 लखनऊ के  इस साहित्यिक आयोजन  से लौटते वक्त, मैने एक सप्ताह दिल्ली रुकने का भी प्रोग्राम  बना लिया था,  जिससे अपने रिश्तेदारों और मित्र-परिवारों की लम्बे समय से न मिलने की शिकायत दूर कर सकूँ और  दिल्ली के सात दिवसीय पड़ाव के दौरान,  एक  पूरा  दिन  मैंने  अपनी  प्रिय लेखिका  "मन्नू भंडारी दीदी"  से मिलने   का रखा।

सो,  दिल्ली  पहुॅंचने  पर, सबसे  पहले  मैं  "मन्नू  भंडारी " दीदी  से  मिलने  गई। इन्दिरापुरम जहाॅं मैं ठहरी थी, वहाॅं  से  दीदी के घर "हौज़ख़ास*  जाना कोई सरल कार्य  नहीं  था । लेकिन मिलने की ललक, नदी, पहाड, नाले , सब.पार करवा  देती  है और‌  यहाॅं  तो सिर्फ़  कई किलोमीटर लम्बी सड़कों के   जाल को ही पार  करना था ।  सो  मैं अपनी  सहेली के बेटे  "कनु" के साथ  मन्नू दीदी  के घर आराम से पहुँच गई । कनु, ग्रेजुएशन  के साथ थिएटर  भी करता  है । थिएटर  पूरे परिवार में  समाया हुआ  है ।  कनु की नानी भी NSD .से जुड़ी  हुई  थी,  मम्मी भी थिएटर करती थी । बहन  रिद्धिमा 'कत्थक कलाकार ' है ।अक्सर, Stage Shows  देती रहती है । दिल्ली दूरदर्शन से भी उसकी  नृत्य प्रस्तुति  आ चुकी है । विदेशों  में  भी अपने  नृत्य कार्यक्रम  कर‌ चुकी  है ।  इस कलाकार परिवार का  कलाकार  बेटा 'कनु'  भी मन्नू दीदी  से मिलना चाहता था क्योकि, वह दीदी के  प्रख़्यात उपन्यास महाभोज के मंचन का हिस्सा  रह चुका  था, अनेक बार  ज़ोरावर की भूमिका निभा  चुका   था ।
सो हम  दोनो  उत्साहित से मन्नू दीदी के  घर पहुँचे ।  वर्षों से दीदी की  सेविका  लक्ष्मी ने दरवाज़ा खोला, बड़े आदर - सम्मान के साथ हमें‌‌  ड्रॉइंगरूम  में बैठाया । फिर सरपट  मन्नू दी के  कमरे में  बताने चली गई ।
इसके बाद,  फिरकी सी रसोई में गई और ट्रे  में दो गिलास पानी लेकर आई । मन्नू दी के  बेडरूम से  धीरे-धीरे  हमारे  पास आने तक, लक्ष्मी  मुझसे बतियाती रही । कहने लगी, आज सुबह से आपके आने  की बाट जोह रहे  है हम ।
मैंने कहा कि  मैं तो जल्द से जल्द आ जाना चाहती थी,  पर दिल्ली  की दूरियाँ और भीड़  इंसान का बहुत समय खा लेती  है । लक्ष्मी मेरी बात से  सहमत हुई । 

तभी मन्नू  दीदी, छड़ी के सहारे धीरे-धीरे आती दिखी । उनको देखते ही मैं  गति  से उठी  और  उन्हें प्रणाम कर, जैसे ही चरण-स्पर्श  करना चाहा, उन्होने बीच में ही रोक कर गले लगा लिया और  दुलारती हुई बोली....
अरे, कहीं बेटियों सै भी पैर  छुआए जाते है ?

 कनु ने भी नत  होते हुए, उनके पैर छुए , तो  उसको दीदी  नहीं रोका और बोली -हाँ, बेटा, तुझे मैं नहीं रोकूँगी । लेकिन  ज़रूरत तुझे भी नहीं है , पैर छूने की बच्चे ।

मैंने कहा - दीदी, ये  आपके 'महाभोज' के जोरावर की भूमिका निबाह रहा है, इसलिए यह तो चरणस्पर्श किए बिना, आशीर्वाद लेगा नहीं।
यह सुनते ही दीदी ने उस छह फुट लम्बे, सुन्दर  कनु को ऊपर.से नीचे तक देखा और बोली -
अभी  तो  कॉलिज छात्र  सा लगता है.....साहित्य, थियेटर भी पढ़ाई के साथ-साथ ??.....  बहुत अच्छी बात है, दीप्ति । वरना,  तो आज-कल इस नाज़ुक उम्र के किशोर' तो  पार्टी, डिस्को  मे लगे रहते हैं ।

मैंने  दीदी के सही आकलन से सहमत  होते  हुए कहा -
दीदी, कनु कलाकार ख़ानदान से है । नानी, मम्मी, बहन सब NSD  वाले हैं । 
दीदी वाकई  प्रभावित हुई । तभी लक्ष्मी मुस्कुराती हुई, चाय, नाश्ता लिए हाज़िर हुई । बढ़िया बंगाली रसगुल्ले देख कर, मेरी तो बांछे  खिल गई । समोसा, दालमोठ सभी बहुत  tempting लग रहे थे । मैने कहा भी के इतना सारा नाश्ता.....इतनी तक़लीफ़ काहे उठाई दीदी ? 

दीदी बोली :  अरे, कुछ नहीं .....खाओ, चलो । तेरे मनपसंद बंगाली रसगुल्ले है, तुझे सारे खाने होंगे।
मैंने हैरान होते हुए पूछा__
आपको  कैसे पता कि मुझे  बंगाली  रोशोगुला पसंद है?
 दीदी  बोली__
 दो साल पहले, फ़ोन पर दीवाली के  दिन  मिठाइयों  की बात करते  हुए मैंने तुझसे पूछा था कि तुझे कौन सी मिठाई  पसंद है, तो तूने बंगाली रसगुल्ला बताया था।बस, वो मुझे याद रहा ‌

मैंने गदगद  होते हुए कहा_
दीदी........आपका मेरे साथ casual बातचीत के दौरान, मेरी पसंद को जानना और उसे याद रखना, रसगुल्ले  से भी ज़्यादा मीठा और मनभावन है।
चाय पीते-पीते,  दीदी ने लखनऊ आयोजन के बारे में   जानना चाहा, उसके बारे में संक्षेप  में  बताया, कुछ नागर जी की बातें हुई । उसके बाद, हम  फिर से, महाभोज  उपन्यास की रोचक बातों  और उसके   वर्षों से चल रहे,  सफल मंचन पर चर्चा करने लगे ।
तब  दीदी ने महाभोज के मंचन  से जुड़ा,  एक अविस्मरणीय  वाक़या सुनाया ।

श्रीराम सेंटर पर महाभोज का मंचन चलता ही रहता था ।सो एक बार, शायद, 2009 या  2010 में, दीदी के पास राजेन्द्र यादव जी का फ़ोन आया कि 
आज  महाभोज  देखने,  श्रीराम सेंटर चलते हैं । तैयार रहना, मैं  पिकअप कर लूँगा ।

दीदी  भी समय से तैयार हो गई । लेकिन इत्तेफ़ाक से, राजेन्द्र जी को  घर से निकलने,  ‌ऊपर से, दिल्ली के चक्काजाम  ट्रैफ़िक  में हौज़ख़ास पहुँचते -पहुँचते थोड़ी देर हो गई और  फिर  वहाँ से  जब तक,  वे दोनों श्रीराम सेंटर पहुँचे, तो Show को शुरू  हुए   आधा  घंटा हो चुका था । कार से उतर कर, जब दीदी और राजेन्द्र जी,  थियेटर के प्रवेश द्वार पर पहुँचे  तो, गेट पर खड़े 'गार्ड'  ने दोनों को रोक दिया । उन्हे वह अन्दर ही न जाने दे ।
महाभोज की रचयिता को अपने ही उपन्यास के मंचन  को देखने की अनुमति नहीं मिल रही थी । नया  गार्ड  दोनों को  न जानता था, न पहचानता  था, सो वह  नियमानुसार अपनी ड्यूटी बामशक्कत (बामुशक्कत) , बामुलाहिजा स्टाइल..में ...निबाह रहा था और इधर  ऊँचे साहित्यिक क़द वाले सरल - तरल   स्वभाव  पति-पत्नी  उस गार्ड  से  भोलेभाले अन्दाज़  म़े अपनी बात कह रहे थे -- अपने  'ऊँचे स्टेटस'  का  तनिक  भी  'दबाव'  डाले बिना, किसी भी तरह की झुंझलाहट, क्रोध, खीज दिखाए बिना । 

जब गार्ड टस से मस नहीं हुआ, तब भी,  दोनो  ने अपने  Well known  Status का तनिक भी हवाला  नहीं दिया, और  न  ही निदेशक के पास  अन्दर अपने नाम की पर्ची भेजने की सोची और वहाँ से लौटने का निर्णय ले  लिया । दोनो सहज भाव  से वहाँ  से लौट आए ।

वास्तव में जो  लोग दिलोदिमाग, सोच एवं  प्रतिदिन  के  व्यवहार  में  गम्भीर  और ऊँचे  होते हैं, वे  शालीनता से  गरिमामय शान्ति बनाए रखते हैं । ऐसे  समझदार और विचारशील लोगो की लड़ाईयाँ  अपने  स्टेटस, मान,सम्मान, के लिए नहीं ,वरन महाभोज  की तरह,  सामाजिक, राजनीतिक कुप्रथाओ और कुव्यवस्थाओ  के ख़िलाफ़ होती  है । ग़रीब के अधिकारों  और हक़ के लिए  होती है । 
वरना अपने  लिए तो हर कोई आवाज़  ऊँची करता है और दूसरों  के साथ होने वाले अन्याय को पत्थर बना देखता रहता है ।
मन्नू दीदी  ने उस दिन भी  वह  वाक़या उतने ही तटस्थ  और नि:स्पृह भाव से, सादगी  भरे लहज़े  में   सुनाया, जितनी  तटस्थ  और नि:स्पृह वे  उस दिन श्रीराम सेंटर  में प्रवेश  न मिलने पर रही थी । 
इसे कहते है - ऊँचे साहित्यिक और वैचारिक  क़द  की  दुर्लभ सादगी  और उदात्तता......जिसे  बारम्बार नमन करने को दिल चाहे ।


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'समय की शिला पर...' के अमर गीतकार डॉ. शम्भूनाथ सिंह

1992 की बात है। दिल्ली के लाल किला के प्रांगण  में "राष्ट्रीय कवि- सम्मेलन" का आयोजन   हिन्दी  अकादमी, दिल्ली द्वारा किया गया था। सम्मेलन में राष्ट्र  के अनेक बड़े कवि-गीतकार आमंत्रित थे। यह आयोजन  23 जनवरी की रात में सम्पन्न  होता था। आमंत्रित  साहित्यकारों में गीत- सम्राट गोपालदास नीरज,सोम ठाकुर, डॉ.रविन्द्र भ्रमर,डॉ.शम्भूनाथ सिंह आदि पधारे हुए थे। मैं भी श्रोता के रूप में अकादमी द्वारा सादर आमंत्रित था। लगभग 8-30 बजे तक मैं लाल किला के आयोजन स्थल पर पहुंच  गया था। कुछ  अन्य श्रोता भी पहुंच कर कुर्सियों पर बैठे थे। चर्चित  गीतकार  सन्तोष आनन्द  अगली पंक्ति में विराजमान थे।मैं भी उनके पासवाली कुर्सीपर जाकर बैठ गया। हम एक- दूसरे को पहले से ही जानते थे।  दिल्ली के साहित्यिक कार्यक्रमों में मिल चुके थे। हम बातें करते रहे कि इसी बीच डॉ. शम्भूनाथ सिंह मंच की ओर आते हुए दिखाई दिए।चूंकि वे बनारस से पूर्वपरिचित थे। मैं तुरन्त उठकर उन्हें प्रणाम  करते हुए बैठने का आग्रह  किया कि हिन्दी अकादमी के सचिव डॉ. नारायणदत्त पालीवाल ने उन्हें मंच पर आमंत्रित कर लिया। वे मंच पर आसीन हुए।  
करीब  9-30 बजे तक सभी आमंत्रित साहित्यकार मंच पर पधार चुके थे। 10-00  मां सरस्वती की वन्दना के पश्चात काव्य-पाठ शुरू हुआ।शम्भूनाथ सिंह ने जैसे ही काव्य-पाठ के लिए उठे, मंच पर आसीन साहित्यकारों उनसे उनके पुराने बहुचर्चित गीत 'समय की शिला पर'' को सुनाने का आग्रह किया।आपने अपने उसी पुराने अंदाज  में गीत-गान शुरू किया समय की शिला पर मधुर गीत कितने किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए सभी मन्त्र-मुग्ध होकर सुने।तालियों की ध्वनि से  पंडाल गुंजायमान हो उठा। वास्तव  में यह गीत आपने भाव- ताल-लय-स्वर में बहुत ही उम्दा और  मार्मिक है।जैसे सभी श्रोताओ  के मन को मोह लिया था डॉ. शम्भूनाथ सिंह ने। यद्यपि इससे पहले लोग नीरज जी तथा डा.सोम ठाकुर के गीतों को सुन चुके थे लेकिन जो भाव-विह्वलता एवं माधुर्य का रसानन्द डॉ.शम्भूनाथ सिंह के गीतों में आभासित हुआ,अद्भुत, अनुपम,अद्वितीय। फिर सभी ने उनके दूसरे प्रतिष्ठित गीत जिसका स्वर-नाद इस प्रकार है, को सुनाने की मांग की।वे हंस पड़े। बोले, कुछ नया भी सुनिये।मगर मांग थी उस गीत की जिसे सुनते ही 'अजन्ता और  एलोरा' की यादें ताजा हो जाती हैं। तो आप भी सुनिये-
    यही है जिन्दगी अपनी यही है अपना सरमाया,
    एलोरा में कभी रोया, अजन्ता  में  कभी गाया।
              कदम  रखता पहाड़ों पर
              दिशाएं   शीश  पर  बांधे, 
              चला  मैं आसमां  के छोर
              लटकाए    हुए      कांधे।
   हवाओं   के कभी   रुख मोड़ता उलटी दिशाओं में,
   कभी गुमसुम समुन्दर की लहर गिनना मुझे भाया।
              समय  को  मुट्ठियों  में  कैद 
              कर   बढ़ता   रहा      आगे,
              लगी जब   पांव की  ठोकर
              बवण्डर  नींद  से       जागे,
     पुकारा इन्द्रधनुषों ने  मुझे  जिस  राह  से गुजरा
     मगर मुंह मोड़कर पीछे न मुझको देखना आया।...
फिर वही जोरदार करथल ध्वनि। बहुत सुंदर, वाह! वाह!! का स्वर-नाद..सभी तरफ हर्षोल्लास।  रात के डेढ़ बज रहे थे जब कवि-सम्मेलन  समाप्त हुआ। मंच से जब डॉक्टर सिंह साहब नीचे उतरे तो देखा उनका जूता गायब था। मैं उनके पास खड़ा -- इधर-उधर उनके साथ आंखें गडाए ढूंढ रहा था। तभी डॉ पालीवाल जी ने पूछा, "क्या हुआ " 
    मैं बोला--"इनका जूता गायब हो गया।"
    वह हंस पड़े--"कोई 'जूताखोर' होगा।लेकिन गया।"
    तब कुछ  पता न चला। वे भौचक्क हो ताकते रहे। तब मैंने धीरे कहा--"डॉक्टर साहब, चलिये, रात में 
कौन देखता है पैर में जूता है या नहीं।" उन्हेः भी ये बात जंची। हम दोनों परस्पर बातें करते चल पड़े।.जब थोडी दूर आए तो फिर मंच के लाउडस्पीकर  से किसी  के गाने  का सुरीला  स्वर सुनाई दिया। वह कहने लगे,"अब कौन यह गीत गा रहा है?" 
मैंने हंसते हुए कहा--यह सन्तोषान्द की आत्मा है।  इतनी प्रसिद्धि के बावजूद उसे आमंत्रित नहीं किया।
इसलिए अब वह सबसे आखिर में राग-अलाप रहा है। कोई तो सुने उसके गीत।" प्राय राष्ट्रीय आयोजनों में उसकी उपेक्षा हुई है। उन्हें 1988 में अलीगढ़ में हुए 'अन्तरराष्ट्रीय कवि-सम्मिलन' में नहीं आमंत्रित  किया था। जिसका मैं प्रत्यक्षदर्शी हूं। और यहां भी आपने देखा ही।"
उन्होंने कहा-"यह आयोजक अपनी-अपनी परख- पकड़ होती है। जरूरी नहीं सभी को एकमंच पर इकट्ठा करना। फिर सन्तोष आनन्द  का क्षेत्र फिल्म है।हम साहित्यिक हैं।फिल्म में गीत लिखने से प्रसिद्धि जरूर मिलती है,साहित्यिक मंच जरूरी नहीं।"
अब हम लाल किला के मुख्य द्वार से बाहर निकल चुके थे। मैं उन्हें एक आटो में बैठा के बाद 'रात्रि-सेवा' वाली 
दिल्ली परिवहन  की बस  के लिए  सड़क  किनारे बस स्टैंड पर इन्तजार  करने लगा। 
...वे मधुर यादें, मार्मिक क्षणआज भी मेरी  स्मृति में कौंधते हैं।   (28-5-2023)

 - डॉ.राहुल  की स्मृति से

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गुरुवार, 15 जून 2023

बच्चन-नरेन्द्र बन्धुत्व -अर्थात - अग्रज-अनुज मित्रता


१.

सुमित्रानंदन पंत, हरिवंशराय बच्चन, और पं. नरेंद्र शर्मा

अग्रज, बच्चन जी ने १९३६ में अपनी पहली पत्नी श्यामा जी के निधन पश्चात् अपना मुठ्ठीगंज स्थित पैत्रिक घर छोड़ दिया और अपने अनुज, नरेन्द्र के निम्नांकित इलाहाबाद के नया कटरा में स्थित मकान, दिलकुशा नाम के मोहल्ले में रहने आ गए। 

प्रस्तुतकर्ता :- परितोष नरेन्द्र शर्मा ।

संस्मरण :-हरिवंश राय जी 'बच्चन'  (‘ नीड़ का निर्माण ’ आत्मकथ्य से। )

" मैं युनिवर्सिटी के निकट की नई बस्ती नए कटरे में नरेन्द्र शर्मा के साथ रहने को चला आया। नरेन्द्र से मेरा प्रथम परिचय 1933 में, महावीर प्रसाद द्विवेदी मेले के अवसर पर आयोजित कवि-दरबार के रिहर्सलों में हुआ था। नरेन्द्र ने उसमें सुमित्रानंदन पंत की भूमिका अदा की थी। खुदा के फ़ज़ल से सुंदर, गौर, सुकुमार थे ही, लड़कियों के बाल सिर पर लगा दिए गए तो पंतजी के लघु संस्करण लगने लगे। नरेन्द्र, पंत जी की कविता के प्रेमी थे और उनके स्वर मुद्रा की हूबहू नक़ल कर सकते थे। मैं एक देहाती कवि की भूमिका में उतरा था। उसके लिए दो कवित्त और एक लोकगीत मैंने स्वयं रचे थे। "

" उस मेले के बाद समय-समय पर प्रयाग की गोष्ठियों, कवि-सम्मेलनों, साहित्य सभाओं में मिलते-जुलते, एक-दूसरे के यहाँ आते-जाते, एक-दूसरे की कविताएँ पढ़ते-सुनते और सबसे बढ़कर एक-दूसरे के जीवन-संघर्ष में जो नरेन्द्र के सामने प्रायः वैसा ही था जैसा मेरे सामने-रूचि लेते और एक-दूसरे को प्रोत्साहन देते हमारा परिचय क्रमशः पारस्परिक सहानुभूति, लगाव, मैत्री और निकटता में बदल गया था। हमारे संबंध-श्रृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी यह भी थी कि हम दोनों ही पंत जी के कवित्व और उससे बढ़कर उनके व्यक्तित्व के प्रेमी थे। नरेन्द्र मुझसे छह वर्ष छोटे थे, पर किसी को अपने से छोटा समझने की बात तब मेरे मन में उठती ही न थी, लगता था मैं ही सबसे छोटा हूँ-उम्र में भी। मैंने उनको अपना समवयस्क ही समझा। इसमें ज़्यादा सहायता शायद नरेन्द्र ने ही दी। एक तो एम.ए. उन्होंने मुझसे दो बरस पहले कर लिया था; दूसरे, वे बात, और कभी-कभी कविता भी, जरा बुजुर्गी अंदाज में कर जाते थे। क़द में वे नाटे न होते तो बहुत मुमकिन था कि मैं उनको अपने अग्रज का मान देता। उनके ब्राह्मण होने के नाते और अपने कायस्थ संस्कारों से विवश उनका चरण तो मैंने कई बार छुआ है। "

" नए कटरे के किराये के जिस नए मकान में रहते थे उसका नाम ‘ दिल-कुशा ’ था। दुमंजिला था। निचली मंज़िल पर नरेन्द्र। ऊपर दो कमरे छोटे थे, एक बड़ा था। छोटे कमरों में नरेन्द्र रहते थे, बड़ा बंद रहता था, सुमित्रानंदन पंत जी के रहने के लिए, जब वे प्रयाग आएँ। नरेन्द्र के हिस्से में एक कमरा नीचे भी था, बाहर से स्वतंत्र, ठीक जीने से लगा। वह खाली रहता था। नरेन्द्र अकेले ही रहते थे। एक पहाड़ी नौकर था उनके पास, जो खाना भी बनाता था और ऊपर का काम भी करता था। कुछ पढ़ा-लिखा भी था-हिसाब आदि लिखने योग्य। "

" नरेन्द्र उन दिनों अखिल भारतीय काँग्रेस कमिटी में काम करते थे जिसका दफ़्तर थोड़ी  ही दूर पर पुराने ‘ आनंद-भवन ’ में था। फुरसत का समय वे साहित्यानुशीलन या काव्य-सृजन में लगाते। खेल-कूद या किसी मनोरंजन में समय देते मैंने उन्हें न देखा था। "

" मैंने कुछ दिनों के लिए उनके पास आकर रहने का प्रस्ताव उनके सामने रख्खा तो उन्होंने उसका सहज सहानुभूति से स्वागत किया, केवल इसलिए नहीं कि मेरे लिए युनिवर्सिटी निकट पड़ेगी, या मैं दुखद स्मृतियाँ जगानेवाले अपने घर-परिवेश से दूर हो सकूँगा, बल्कि इसलिए कि मेरी आँखों में उन्होंने वही तलाश देख ली थी जो उनकी आँखों में था,  जैसे दो तृषार्त हिरन मृगतृष्णा की ओर भागते हुए साथ-साथ हो जाना चाहें। मेरे सामने तो अभी मृगतृष्णा पूरी परह स्पष्ट भी न थी, पर क्या मेरे शब्दों में उन्होंने मेरी प्यास पढ़ ली थी। पढ़ ली हो तो कोई आश्चर्य नहीं- ‘ समुझहि खग खग ही कै भाषा। ’  "

" जब मैं नरेन्द्र के साथ रहने को आ गया, तब तो कितनी ही रातें, समांतर चारपाइयों पर चित लेटे वेदना-बोझिल अस्फुट शब्दों में हमने एक दूसरे को अपनी-अपनी व्यथा-कथा, कल्पना-आकांक्षा,भय-भ्रांति, आशाएँ-आकांशाएँ सुनाई। मुझ अनिकेतन को अपने घर में शरण देते, मुझ निःसंग को अपना संवेदनशील संग देने और मेरी एकाकी ध्वनि को अपनी प्रतिध्वनि से आश्वस्त करने के लिए मैं आज भी नरेन्द्र को कृतज्ञता-पूर्वक स्मरण करता हूँ। "

‘ नीड़ का निर्माण ’ आत्मकथ्य से। 


संस्मरण :- नरेन्द्र शर्मा ।

" इलाहाबाद के नया कटरा में मेरा मकान, दिलकुशा  नाम के मोहल्ले में, होहल्ले से दूर एक शांत, सुंदर स्थान था। उन दिनों 'बच्चन' भी वहाँ रहते थे और कभी-कभी पंत जी भी वहाँ आ कर दो-चार दिन को ठहर जाते थे।"


निम्नांकित छविचित्र : नरेन्द्र शर्मा के उस काल किराये के मकान का है।



संस्मरण :- श्री सुमित्रानंदन पंत :- 

"सन् 1938 में 'रूपाभ' निकला था और नरेन्द्र ने उसमें सह-संपादक के रूप में कार्य-भार सँभालने की स्वीकृति दी थी।  निःसंदेह इससे पहले हम लोग आपस में घुलमिल कर एक दूसरे के काफ़ी सन्निकट आ गये थे- जिसमें बाहरी घटनाओं या परिस्थितियों से अधिक, भीतर ही के परस्पर खिंचाव का हाथ रहा होगा।  मैं तो 'रूपाभ'  का केवल हाथी के दाँत की तरह दिखावे का संपादक भर था, वास्तविक कार्य-व्यापार, नरेन्द्र ही उसका सँभालता था।  मैं दो-चार दिन को प्रयाग आ कर, नरेन्द्र के पास ही ठहर कर, उसके द्वारा प्रस्तुत की गई 'रूपाभ' के अंकों की रूपरेखा देख भर लेता था।  शेष सारा काम, कविता, लेख आदि के लिए पत्र-व्यवहार करना, ग्राहक बनाना, प्रेस में छपवाने का दायित्व, प्रूफ़ देखना आदि और भी अनेकों काम नरेन्द्र ही करता।  प्रत्येक मास की प्रति यथासमय निकल कर मेरे पास पहुँच जाती और ग्राहकों तथा अभिभावकों के पास समय पर भेज दी जाती थी।  यह सब कितने झंझट का काम है और अकेले उसे निभा लेना और भी कितना कठिन है, यह भुक्तभोगी पत्रकार ही समझ सकता है।  किंतु हिरन से चंचल स्वभाव के नरेन्द्र ने यह सब यथासमय ठीक तरह से संपादित कर लिया- इससे उसके स्वभाव के दूसरे आयाम का पता चला।"

" 'रूपाभ' के संपादनकाल के दिनों में जब मैं नरेन्द्र के साथ रहता था, उसके परिहास और व्यंग्यों का लक्ष्य मैं ही रहता था, जिससे उसका पर्याप्त मनोविनोद होता रहता था। पर जैसा स्वाभाविक है, उसके हास-परिहास में कटुता, आदि का एकदम अभाव रहता था और निर्मल पहाड़ी निर्झर की तरह अपनी फेनमुखार कलकल के प्रवाह में बहता रहता था।  दूसरा उसकी फबतियों का निशाना शमशेर रहता, जो एकदम शायराना तबियत का था और उसे 'रूपाभ' के काम में छोटी-मोटी मदद कर दिया करता था।  वह नरेन्द्र की कविताओं के साथ, आकंठ स्नेह में डूबा उसका प्रशंसक था और गूँगे के गुड़ की तरह मन ही मन अपने स्नेह का स्वाद लेता रहता था।"

 "उन दिनों नरेन्द्र काँग्रेस-ऑफ़िस में काम करता था, जो तब 'आनंद भवन' में स्थित था।  उसके सहयोगियों में तब, यदि मुझे ठीक याद है तो, डॉक्टर लोहिया भी थे, जो आगे चल कर प्रसिद्ध सोशलिस्ट नेता बने।  उसके दिलकुशा वाले आवास में प्रगतिशील लेखकों तथा कवियों का अच्छा जमघट रहता था और दो एक बार 'निराला' जी ने भी वहाँ अपनी रचनाएँ सुनाई थीं।  'बच्चन' के निकट संपर्क में भी मैं, दिलकुशा ही में पहले-पहल आया था।  तब वह नरेन्द्र ही के साथ रहता था और संभवतः अँग्रेज़ी में एम. ए. परीक्षा की तैयारी कर रहा था।  पत्नी के मृत्यु के शोक में 'निशा निमंत्रण'  तथा 'आकुल अंतर' की स्फुट रचनाएँ भी उसने अधिकांशतः इसी काल में की।"

"नरेन्द्र का स्वर्गीय श्री भवानीशंकर जी से भी अच्छा परिचय था, जो तब प्रयाग विश्वविद्यालय में अँग्रेज़ी के प्राध्यापक थे।  उसके साथ जब-तब मैं भी उनके पास आता-जाता रहता था। मिलनसार होने के कारण नरेन्द्र का और भी कई लोगों से संपर्क था, वह तब अपने उन्मुक्त स्वभाव के कारण काफ़ी लोकप्रिय था।"

"अपनी एम. ए. कक्षा के साथियों से पहले के स्वर्गीय श्री रवींद्रनाथ देव तथा श्री प्रकाशचंद्र गुप्त जी से उसके अधिक प्रगाढ़ संबंध रहे। उसने अँग्रेज़ी में एम. ए. किया और तब वह शायद हिंदू होस्टल से हॉलैंड हॉल छात्रावास में चला आया था। रवि देब के साथ उसका विशेष रूप से हास-परिहास और व्यंग्य-विनोद चलता।  उसके मनोविनोद के इस ढंग पर उन दिनों का काफ़ी प्रभाव लक्षित होता है।"

प्रस्तुतकर्ता :- परितोष नरेन्द्र शर्मा ।

अग्रज, बच्चन जी ने ‘ नीड़ का निर्माण ’ नामक अपने आत्मकथ्य में लिखा है, उसी कथन को प्रकट करने  हेतु वह कमरा जो श्री सुमित्रानंदन पंत जी  के लिए सुरक्षित रहता था उसी का छविचित्र !

संस्मरण :-हरिवंश राय जी 'बच्चन' (‘ नीड़ का निर्माण ’ आत्मकथ्य से। )

" नए कटरे के किराये के जिस नए मकान में रहते थे उसका नाम ‘ दिल-कुशा ’ था। दुमंजिला था। निचली मंज़िल पर नरेन्द्र। ऊपर दो कमरे छोटे थे, एक बड़ा था। छोटे कमरों में नरेन्द्र रहते थे, बड़ा बंद रहता था, सुमित्रानंदन पंत जी के रहने के लिए, जब वे प्रयाग आएँ। नरेन्द्र के हिस्से में एक कमरा नीचे भी था, बाहर से स्वतंत्र, ठीक जीने से लगा। वह खाली रहता था। नरेन्द्र अकेले ही रहते थे।"

‘ नीड़ का निर्माण ’ नामक अपने आत्मकथ्य में लिखा है, उसी कथन को प्रकट करने  हेतु वह कमरा जो श्री सुमित्रानंदन पंत जी  के लिए सुरक्षित रहता था उसी का छविचित्र !


प्रस्तुति - लावण्या शाह


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शुक्रवार, 9 जून 2023

जब गीत-ऋषि नीरज जी पूना आए

मेरी न जाने कब-कब  की (1983- 1999) लिखी  हुई कविताओं  के संग्रह का  ड्राफ्ट तैयार  करते-करते  2004 से  जनवरी  2005  आ गया , मतलब कि 2005  में वह फाइनल  हुआ !  फिर सोचा  किसी वरिष्ठ कवि के आशीष वचन  लेने चाहिए !  अचानक  मन में  आया ,  क्यों  न नीरज  जी से निवेदन किया जाए ! अगर,  इस  काव्य संग्रह के  लिए  वे आशीर्वचन लिखेगें,  तो  मेरे लिए कितना प्रेरणास्पद  होगा !  मैंने  पूना के सबर्ब  'पिम्परी'  में  कवि सम्मेलनों के आयोजक  राकेश  श्रीवास्तव  जी  से  नीरज जी का  पता  और  फोन नम्बर लिया !  किसी से मुझे पता चला  था  कि  2004 में श्रीवास्तव  साहब द्वारा  आयोजित  कवि सम्मेलन में  नीरज जी,  तबियत खराब होने की वजह से  नहीं आ पाए थे और भोपाल तक  आ कर  लौट  गए थे !  आयोजक को जनता की  बहुत सुननी पड़ी थी ! सबकी  धन राशि लौटानी पड़ी, साथ ही, पूना  के  स्थानीय  हिन्दी और  मराठी के  समाचार  पत्रों में  भी  इस 'घटना'  की  काफी आलोचना  हुई ! अतैव, मुझे लगा कि नीरज जी तक पहुँचने के लिए, उनके परिचित  ‘श्रीवास्तव  साहब’  सबसे  सही स्रोत हैं ! सो मैंने उनसे पता  व फोन नम्बर लिया  और बड़े सोच-विचार के बाद, अपनी पसंदीदा दस कविताओं की फोटो कॉपी,  अपने एक पत्र के साथ नीरज  जी को  डाक द्वारा  फरवरी  2005  में  भेज दी !  मुझे न जाने क्यों लगा कि  अगर ‘गीत-ऋषि’ नीरज जी,  गेय  कविताएँ लिखने वाले  इतने  सिद्ध-हस्त गीतकार, उन्हें  मेरी छन्द- मुक्त  कवितायेँ  पसंद  नही  आईं  और  कूडे  में  फेक दी,  तो  क्या  होगा  ?  इसलिए  मैंने  सोचा कि  अपनी कविताएँ ‘् तू चंदा मैं चाँदनी’  के गीतकार बालकवि वैरागी जी को भी  भेज  देनी चाहिए, जिससे दोनों में से किसी एक  के  आशीष  की  चार-पाँच  पंक्तियाँ  तो आ ही जाएगी  और फिर, अविलम्ब  किताब प्रकाशित  करा  ली जाएगी ! यद्यपि  बालकवि  वैरागी  भी गेय कविताएँ ही लिखते थे, लेकिन उनको भेजने की हिम्मत इसलिए जुटा पाई कि  वे अक्सर पूना  आते  रहते थे और उनके सामने  मैंने महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा के  कार्यक्रमों में  कई  बार अपनी छंद-मुक्त कविताओं का पाठ  किया  था, जिनमें से एक बार ‘रिश्ते’ और ‘सूर्य समाया नयनों में आज’, कविताएँ, उनको इतनी पसंद आई थी कि जब उस कार्यक्रम  के अन्त में उन्होंने सबको सम्बोधित  किया, तो  उन्होंने मेरी  दोनों  कविताओं  को सराहते हुए उनका उल्लेख किया, जो मेरे लिए अप्रत्याशित खुशी की बात थी ! एक अन्य कवि के ‘मुक्तक’ भी उन्हें बहुत पसंद आए थे ! इसलिए  उस छोटी सी पहचान से साहस जुटा कर, उन्हें  भी  मैंने  उन्हीं  दस कविताओं  की फोटोकॉपी  भेजने की हिमाकत  की  ! 


     मुझे पहली बार, बालकवि जी की बहुत बड़ी विशेषता  पता चली कि कि  वे  खत  प्राप्ति की सूचना  तुरंत  देते  थे, जिसका प्रमाण था, उनके सुघड़    लेख में लिखा हुआ कुछ पंक्तियों का एक पोस्टकार्ड ! उनसे  कविताओं  की    प्राप्ति की सूचना  का  पोस्टकार्ड  मिलते ही मुझे बहुत अच्छा लगा और तसल्ली  हुई !  उसके एक सप्ताह बाद, वैरागी जी ने  मेरी  कविताओं को पढकर,  सिलसिलेवार  बड़े ही कायदे, से अपने विचार, शुभकामनाओं  के साथ,  बहुत  ही  दिल से लिख भेजे ! 


  मार्च शुरू हो गया था और  और नीरज जी के आशीष और शुभकामनाओं की प्रतीक्षा करते-करते आधा मार्च बीत गया था ! इतना समय बीत जाने पर भी नीरज जी का  कोई जवाब  फरवरी तो फरवरी, मार्च  के मध्य तक भी नही  नहीं  आया, तो मुझे  अपनी  कविताएँ  अपने  काल्पनिक भय  के अनुसार  कूड़ेदान  में  फिंकी  नज़र आई !  मुझे निराशा घेरने लगी ! खैर, मैंने  निर्णय लिया कि  वैरागी जी ने इतने विस्तार से  मेरी कविताओं के लिए  आशीर्वाद लिख कर भेजा  हैं, सो  अब किताब  छपने  दे देनी चाहिए !  दो दिन बाद,  मैं पाण्डुलिपि लेकर, घर से निकल ही रही  थी कि  मोबाइल बज  उठा !  एक  अंजान  मोबाइल नंबर  देखकर, मैंने बेमन से फोन  उठाया !  मेरे पास  नीरज का  घर वाला नम्बर था, इसलिए  नीरज का मोबाइल मैं पहचानी ही      नहीं ! उधर  से आवाज़ आई__

‘मैं नीरज बोल रहा हूँ , क्या दीप्ति से  बात हो सकती  है ?’

यह सुनते ही एक क्षण के लिए  मैं सन्न  सी  रह गई !  मुँह से बोल ही नहीं  निकले !  इतने  में, फिर  नीरज  जी की गुरु गम्भीर  आवाज़  उभरी__


अरे भई, क्या  मैं दीप्ति से बात कर सकता हूँ !


तब  मैंने  तुरंत अपनी आश्चर्य  मिश्रित खुशी को सम्हालते हुए कहा__

  

जी दादा,  प्रणाम !  मैं  बोल रही  हूँ


वे फिर  उधर से वे बोले__


दीप्ति, तुम्हारी कविताएँ मिल गई हैं ! मैं दो सम्मेलनों में अलीगढ़ से  बाहर गया हुआ था !  कल ही लौटा हूँ, तो डाक देखते समय, तुम्हारी कविताएँ  हाथ लगी ! फरवरी की भेजी हुई कविताओं पर आशीष-वचन लिखने में  देर हो गई ! अब यह बताओं कि तुम्हारी पुस्तक छपने गई या अभी  रोक  रखी है ?

मैंने आधा झूठ  और  आधा सच कहा, क्योंकि उस समय मैं पाण्डुलिपि लेकर प्रकाशक से मिलने जा रही थी और नीरज दादा से  आशीष-वचनों की उम्मीद    मैं छोड चुकी थी, फिर भी मैंने कहा__

दादा  अभी रुकी हुई है ! आपके  आशीष  वचनों  की  प्रतीक्षा कर रही थी......!

बस, फिर क्या था ,  दादा ने आश्वासन दिया  कि  एक सप्ताह का समय और दो !  तुम्हारी 'रिश्ते' , 'निश्छल भाव', 'अवमूल्यन', ‘काला चाँद’ आदि  कविताएँ  बहुत  पसंद आई ! भले ही तुम छन्द-मुक्त लिखती हो, पर कविता का असली प्राण, उसकी संवेदना और भावनात्मक लय होती है, जो तुम्हारी कविताओं  में बखूबी बरक़रार है और दिल को पकडती है !


उस पल, मेरे लिए उनके मुख से सकारात्मक बात सुनना, किसी आशीर्वाद   से कम नहीं था ! लगे हाथ, मैंने उनसे यह भी पूछ लिया कि ‘क्या वे मेरी  अंग्रेज़ी कविताओं के संग्रह का भी  विमोचन  हिन्दी काव्य-संग्रह के साथ कर देंगे ?’ उन्होंने ‘ज़रूर’  कहते हुए, खुशी से हामी भर दी कि कविता तो कविता है - किसी  भी भाषा में हो, क्या फर्क पड़ता है ! कवि का हृदय      हर भाषा की कविता का सम्मान करता है और मैं उन्हें आभार देती नही थकी ! 

ठीक दस दिन बाद मेरे पास  उनका 'पाँच पेज' का आशीर्वाद  आ गया, जो बाद में, टाइपिस्ट की लापरवाही की वज़ह से, टाइप होने बाद, फ़ाइल में से उसके बच्चे ने खेल-खेल में खत के पन्नें निकालकर, कागज़ की नाव बनाने के चक्कर में मोड-तोड़ कर फाड़ डाले !  बाद में जब पता चला तो, मुझे  लगा कि मेरा तो कीमती खजाना लुट गया ! गुस्सा तो मुझे बहुत आया,  पर क्या करती  ! बच्चे की कोई गलती नहीं थी, सारी गलती उस टाइपिस्ट की थी, जो फाइल खुली छोडकर दूसरे कमरे में थोड़ी देर के लिए आराम करने चला गया था ! 

  दो दिग्गज कवियों  के इतने खूबसूरत और विस्तार से लिखे आशीष-वचनों को पाकर मैं धर्म-संकट पड़ गई कि ‘दो’ आशीर्वचन छपवाने चाहिए कि नही ? किसे छपवाऊँ और किसे छोडूँ ? कहाँ तो आशीर्वचनों के लाले पड़ते नज़र आ रहे थे और  अब जब मिले तो, छप्पर फाडकर  मिले ! सोचा, सोचा, और खूब सोचा ! अन्तत:  दोनों को ही  ससम्मान पुस्तक में संजोने का  निर्णय लिया ! दोनों ने इतने स्नेह  और दिल से लिखकर भेजा था, तो मैं किसी के भी लिखे को ‘न छपवाने का अपराध नहीं कर सकती थी !’ दोनों ही मेरे लिए सम्माननीय  और स्तुत्य कवि थे ! 

खैर,  इस  तरह  खुशी और उत्साह में भरे हुए, दिन बीतते गए  ! पुस्तक भी  मई के अन्त  तक छप कर आ गई !  तब तक मैंने उसके लोकार्पण पर कोई  सोच-विचार इसलिए नही किया था क्योंकि मैं किताब पर परिचर्चा कराना, उससे बेहतर समझती थी !

    तभी  एक बहुत आत्मीय परिचित परिवार का फोन आया ! पढ़ने की शौकीन भाभी जी को मेरी हर गतिविधि  की खबर रहती थी और उनको नीरज दादा और बालकवि जी के खतों के बारे में भी पता था ! इतना ही नहीं, उनसे उनके कवि-पति को भी सारी कहानी मालूम थी ! सो उन दोनों ने  सुझाया, बल्कि सुझाया नहीं, जिद सी करते हुए कहा__

 जब  नीरज जी और बालकवि जी ने  आपकी पुस्तक के लिए  इतना  सुन्दर  लिख कर भेजा है, तो दोनों में जो वरिष्ठ  हैं, यानी नीरज जी से आप  विमोचन क्यों नहीं करा लेती ?  परिचर्चा को छोडिए और विमोचन कराइए !


मैंने कहा - 'अरे आप लोग क्या बात कर रहे  हैं !  राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय स्तर  के प्रतिष्ठित कवि, नीरज जी  जैसी महान कवि, भला  क्यों आयेंगे  और वो भी ऐसे  छोटे से काम के लिए ?  कोई बड़ा कवि-सम्मेलन होता, जिससे उन्हें ‘काव्यं यशसे अर्थकृते...’ की उपलब्धि भी होती तो, वे निश्चित ही आते !’

मेरी विशिष्ट सलाहकार भाभी जी बोली  - 

 अच्छा  आप  फ़ोन तो  करके  देखें -  हद से हद  ‘हाँ’  या  ‘ना’  ही तो करेगें !

मुझे उन  दोंनो  की  यह  बात समझ  आ  गई और  लगा कि पूछने में क्या    हर्ज  है ! लेकिन  मेरे  मन  में दोनों  भाव रहे  कि  आ जाएँ, तो उनके  दर्शन  हो जाएगें  और  उनके  सुरीले  कंठ से कविताएँ सुनने का                सुअवसर मिलेगा सो अलग  - साथ  ही यह विचार भी मन में कौंधता  रहा  कि  न भी आए तो,  मैं  ढेर इंतज़ाम और  तैयारी  की भागदौड से बच जाऊँगी    और परिचर्चा कराऊँगी !

इस डावांडोल  मन:स्थिति में मैंने नीरज  जी का  फोन घुमाया - उधर से  उनके ‘पुत्रवत सेवक’ 'सिंग सिंग'  (अजीब सा नाम)  ने फोन उठाया  और  मेरे द्वारा          नीरज दादा के बारे में  पूछने पर , वह नीरज  जी  से बोला__


 पूना से दीप्ति  दीदी का फोन  है !

मुझे उसका किसी अपरचित के लिए दीदी सम्बोधन बहुत भाया ! आखिर इतने कद्दावर कवि का सेवक था, तो पूरा सधा हुआ क्यों न होता !

फोन में नीरज  जी  की  आवाज़ स्पष्ट  आई कि  'ला  इधर फोन  दे,  वहाँ लिए क्यों  खड़ा है’......और उसने  नीरज जी को फोन थमा दिया !

मैंने  हिचकते हुए पूछा__

दादा ! एक बात पूछनी  है ! क्या आप  मेरे काव्य संग्रह  के लोकार्पण  के  लिए पूना आने  का समय निकाल सकेगें ?

सुनते ही नीरज  दादा  ने सोचने  का भी  समय  नहीं लिया और  खुशी ज़ाहिर करते हुए बोले - 

क्यों नहीं,  क्यों नहीं....! मैं तो सोच रहा था कि इस लड़की ने लोकार्पण वगैरा  की कोई बात क्यों नहीं की ?

पहले की तरह एक बार फिर  दादा ने मुझे अचरज में डाल दिया  !  मैं जिस तरह उनके पहली बार आए फोन पर निशब्द हो गई थी, तो, इस बार, लोकार्पण पर आने की स्वीकृति पाकर निशब्द हो गई ! विश्वास नहीं हुआ कि उन्होंने एकबार भी अपनी व्यस्तता  अथवा अपनी तबियत की बाबत मना करने की कोशिश की ! जैसा कि मैंने अक्सर सुना था और अखबारों में पढ़ा था कि उनकी व्यस्तता इतनी चरम पर होती थी कि ‘आज भोपाल,  तो कल  दिल्ली में, तो कुछ दिन बाद अमेरिका में!’

इसलिए मैंने सुनिश्चित किया_  

सच दादा,  पक्का आयेंगे  ?'

वे सहजता  से बोले -  'ऐसे  ही  नहीं कहा रहा  दीप्ति - पक्का आऊँगा और  अगले ही महीने  की तारीख़  रखना  पर, मुझ से पूछ कर  ! '

इस  बार मुझे  विश्वास हो गया कि वे तो आने के लिए  पक्की तरह से  तैयार  हैं !  मैं सोचने लगी कि ये क्या हुआ  और कैसे हुआ.... मिनटों में  प्रोग्राम तय भी हो गया !

इसके बाद  खुशी  तो  उड़न छू  हो गई और  उनके  ठहरने  आदि की,  विमोचन के लिए बढ़िया हॉल, अतिथियों के बैठने की उचित व्यवस्था आदि की  तैयारी की चिन्ता  और तनाव  ने मुझे घेर लिया !  पूना के  साहित्यिक समूह  से मैंने  राय मशवरा किया,  तो उनकी खुशी का  तो  ठिकाना  ही  नहीं था !


बहरहाल, एक सप्ताह के अंदर, नीरज जी के ठहराने  की सारी व्यवस्था  एक साहित्यकार साथी  की  मदद से कोरेगांव पार्क में हो गई ! उनका अपने  लिए  नया खरीदा हुआ  और पूरी तरह से  सजा-संवरा, खूब बड़ा अपार्टमेंट नीरज  दादा की आवभगत के लिए और अधिक तैयार कर दिया गया ! वे कवि-साथी इसलिए भी खुश थे कि उस नए घर में, उनसे पहले ख्यात कवि गोपालदास ‘नीरज’ जी  के चरण-कमल पड़ेगे ! उनकी किस्मत अच्छी थी, नीरज जी की  उनसे भी अच्छी कि उनके लिए एक ऐसे शान्त, सुरम्य और खूबसूरत ‘घर’ जैसे माहौल वाली जगह  में (होटल रूम में नहीं) ठहरने की व्यवस्था हो गई थी और मेरी किस्मत भी अच्छी थी कि मुझे बिना किसी परेशानी के इतनी बढ़िया मदद मिल गई थी !

लोकार्पण के लिए मैंने पूना के इंजीनियरिंग  कॉलिज का  प्रसिद्ध फिरोदिया हॉल चुना ! इसी बीच, नीरज  जी ने  18  जुलाई  (2005) की तारीख़, पूना आने के लिए निश्चित की और मैंने इस तिथि के लिए फिरोदिया हॉल बुक करा लिया !  जुलाई के पहले सप्ताह में सभी साहित्यकारों को निमंत्रण-पत्रिका भी भेज दी गई थी ! लोकार्पण का बैनर  बन कर तैयार  हो रहा था !

    अठ्ठारह जुलाई खरामा-खरामा नज़दीक  आ रही थी ! निश्चित तारीख़ से, दो दिन पहले, नीरज दादा अलीगढ से, मुम्बई अपने  पौत्र ‘पल्लव’ के पास पहुँचे ! दादा का अपने प्यारे पौत्र के लिए ख्याल-दुलार उन्हें मुम्बई खीच ले गया ! उस समय पल्लव बम्बई की किसी  कम्पनी में कार्यरत था ! दादा  उसके साथ अठ्ठारह की  दोपहर  12.00 के लगभग  पूना पहुँच गए ! एक खास तिराहे पर, मेरी कार खडी हुई  थी और मैं मोबाइल पर पल्लव से थोड़ी-थोड़ी देर में पूछ लेती थी कि कहाँ तक  पहुँचे ! क़भी पल्लव मुझे  बता देता था कि उनकी टैक्सी मुम्बई-पूना हाइवे पर किस टर्न पर है ! दादा के लंच का समय हो गया था ! जैसे ही वे पहुँचे मैं अविलम्ब दोपहर के भोजन के लिए उन्हें एम, जी रोड ले गई ! वहाँ स्थित, ब्रिटिश काल के बने  प्रसिद्ध एवं शानदार ‘राम-कृष्ण होटल’ के वातानुकूलित डाइनिंग हॉल में दादा और पल्लव ने राहत की साँस ली ! सबसे पहले ठंडा पानी पिया ! फिर हम अपनी-अपनी पसंदीदा चीजों का ऑर्डर करके भोजन की प्रतीक्षा में, रोचक बातें करते हुए बैठे रहे ! दादा को खाना बहुत पसंद आया ! स्वीट डिश में उन्होंने वेनीला आइसक्रीम खानी पसंद की और पल्लव व मैंने भी आइसक्रीम ली, लेकिन दूसरे फ्लेवर की ! पल्लव को शाम को ही निकलना था ! मैंने उससे कहा भी कि रुक जाओ, कल चले जाना, लेकिन उसे ज़रूरी ऑफिस का कार्य था, सो वह रुक नहीं सका ! सो वह मुम्बई के लिए निकल गया और मैं दादा को  कोरेगाँव पार्क, उनके अपार्टमेंट में, हमारे साहित्यकार मराठी कवि यानी उस घर के मालिक के सुपुर्द करके (जो उस दिन नीरज दादा के लिए उस घर में पहले से विराजमान थे) घर आ गई ! माँ को देखना था, शाम के लोकार्पण की तैयारी करनी थी ! साथ ही, रात्रि-भोज की भी केटरर से खबर लेनी थी! मैंने रात्रि-भोज दो कारणों से रखा था कि पूना में वे (हिन्दी और इंगलिश की ) मेरी पहली पुस्तकें  थीं, जो प्रकाशित हुई थीं  और जिसका विमोचन मेरे परिचित परिवार के सुझाव पर जब तय हुआ था, तो वे  चाय-नाश्ते की बात कह रहे रहे थे ! पर, मैंने  सोचा  कि  हिन्दी, मराठी  और उर्दू  तीनों भाषाओं के साहित्यकार नीरज जी जैसी महान हस्ती के आगमन से बहुत खुश है और उनसे मिलने के लिए उत्साहित हैं, तो इस बहाने  तीनों भाषाओँ के साहित्यकारों का एक अच्छा सा Get-together  क्यों न हो जाए ! अतैव, नीरज जी के आगमन के इस खास मौके पर मुझे रात्रि-भोज  देना मुझे ज़रूरी लगा ! यह भी मुझे अंदाजा था कि जब दादा  की कविताएँ शुरू होंगी तो, कार्यक्रम 12 या  1.00 बजे से पहले तो समाप्त होगा नहीं ! सो मेरी यह भावना भी बलवती थी कि इतनी देर बैठे रहने वाले हमारे अदबी साथी बिना भोजन के घर न जाएँ !

शाम को  पूना के फिरोदिया  सभागृह  में  नीरज  जी की  'मुख्य अतिथि'  के रूप में उपस्थिति  में  मेरी  दो पुस्तकों  अंतर्यात्रा  और  Ocean In The Eyes  का विमोचन बहुत  ही मनोहर और  काव्यमय वातावरण में हुआ ! कार्यक्रम  के  'अध्यक्ष'  पूना -निवासी और  साहित्यकार अज्ञेय जी  के 'तारसप्तक' काव्य समूह के  प्रख्यात कवि  'हरिनारायण  व्यास'  जी थे !  दामोदर खडसे, शरदेन्दु शुक्ल  और प्रेमा स्वामी वक्ता थे ! पूना के हिन्दी, उर्दू  और मराठी  के  सभी साहित्यकार  कार्यक्रम में आए थे !  मैंने कार्यक्रम  का सञ्चालन  ऑल इंडिया रेडियों, पुणे  के हिन्दी अधिकारी 'सुनील देवधर  जी' से करवाया था !  उन्होंने  बहुत  ही सुन्दर  सञ्चालन किया !  लोकार्पण कार्यक्रम  सम्पन्न हो जाने  पर, नीरज  जी  की  कविताओं का जो दौर चला तो  काफी देर बाद  थमा  !  बाहर  पानी बरस रहा था और सभागृह  में नीरज की मधुर- मदिर कविताएँ बरस रही थीं ! 


1) अब के सावन में….


अब के सावन में ये शरारत मेरे साथ हुई,

मेरा घर छोड़ के, कुल शहर में बरसात हुई


आप मत पूछिए क्या हम पे सफ़र में गुजरी?

था लुटेरों का जहाँ गाँव, वहीं रात हुई


ज़िंदगी-भर तो हुई गुफ़्तगू गैरों से मगर,

आज तक हमसे न हमारी मुलाक़ात हुई


हर गलत मोड़ पे टोका है, किसी ने मुझको,

एक आवाज़ जब से, तेरी मेरे साथ हुई


मैंने सोचा कि मेरे देश की हालत क्या है,

एक कातिल से तभी, मेरी मुलाक़ात हुई



श्रोताओं की मांग पर दादा ने अपना सिग्नेचर गीत सुनाया......


2) कारवां गुज़र गया…..


स्वप्न झरे फूल से,

मीत चुभे शूल से,

लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,

और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे

कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!



3) मेरा नाम लिया जाएगा…..


आँसू जब सम्मानित होंगे, मुझको याद किया जाएगा

जहाँ प्रेम का चर्चा होगा, मेरा नाम लिया जाएगा


मान-पत्र मैं नहीं लिख सका, राजभवन के सम्मानों का

मैं तो आशिक़ रहा जन्म से, सुंदरता के दीवानों का

लेकिन था मालूम नहीं ये, केवल इस ग़लती के कारण

सारी उम्र भटकने वाला, मुझको शाप दिया जाएगा



4)  तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा….



तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा ।

सफ़र न करते हुए भी किसी सफ़र में रहा ।


वो जिस्म ही था जो भटका किया ज़माने में,

हृदय तो मेरा हमेशा तेरी डगर में रहा ।


तू ढूँढ़ता था जिसे जा के बृज के गोकुल में,

वो श्याम तो किसी मीरा की चश्मे-तर में रहा ।


इस तरह एक के बाद एक  कविताओं की झड़ी लगती रही  !  नीरज जी  क्षीणकाय  तो थे ही,  सो  उन्होंने  देर  होती देख, श्रोताओं से करबद्ध निवेदन कर, कार्यकम को  12:30  बजे  विराम दिया !  मंच पर लोगों  की  बेतहाशा  भीड़ लग  गई !  सब नीरज  जी को प्रणाम और चरण स्पर्श  करते रहे और मुझे  पुष्पगुच्छ व बधाई  देते रहे !


अगले  दिन पिम्परी  के  राकेश श्रीवास्तव साहब ने,  पूना में मेरी  पुस्तकों  के लोकार्पण पर नीरज जी के आगमन का  सदुपयोग करते  हुए 

          'एक  शाम : नीरज-निदा के नाम ' 

से एक खूबसूरत रात्रि  कार्यक्रम  रखा लिया था !  इससे पहले,  दिन में  नीरज  दादा,  मेरे घर  दोपहर के खाने पर आए !  मैं  तो खाना बनाने में लगी रही  और वे बीबी (माँ)  को अपने  जीवन और  फिल्मी दौर  की ढेर बातें  सुनाते रहे ! बीच-बीच में  सुनने  के लिए  मैं भी लिविंग रूम में  पहुँच जाती थी ! एस.डी.बर्मन,  देवानन्द  साहब  और नीरज  जी की  टीम ने  काफी लम्बे  समय तक साथ काम किया !  जब दादा ने फिल्म-इंडस्ट्री में कदम रखा,  उन  दिनों  ‘प्रेम-पुजारी’  फिल्म  बन रही थी ! नीरज  जी  को एस. डी. बर्मन ने  एक सीन की सिचुएशन बता कर,  अगली सुबह  तक  गाना लिख कर,  देने के लिए कहा ! दूसरी ओर  देवानन्द साहब को बुलाकर,  नीरज जी  के  वापिस  जाने  लिए  एक हवाई टिकिट  का इंतजाम  करने के लिए कहा, 

यह सोच कर कि  नीरज जी मंच के कवि भले ही कितने मशहूर हों और

बढ़िया लिखते हों, लेकिन  फिल्मों के लिए क्या  गाने लिख  पाएगें !  नीरज  दादा  ने  रात भर गाने के  बोल बार-बार लिखे-मिटाए ! जब तसल्ली

हो गई तो गीत फाइनल किया ! अगले दिन  दस बजे, जब  बर्मन  दा  को

नीरज  जी ने __

'रंगीला रे ! तेरे रंग में.....'      (वहीदा रहमान औत देवानंद पर फिल्माया गया लोकप्रिय गीत)

सुनाया तो,  बर्मन दा उछल पड़े  और तुरंत देवानन्द साहब  को फोन किया कि  जो फ्लाइट बुक कराई थी, उसे कैंसिल  किया जाए  !  बस, तब से जो नीरज  जी, बर्मन टीम का हिस्सा बने, तो  लम्बे समय तक वहीं रहे !  इतना  ही नहीं, दादा  इस टीम से अलग  अन्य  फिल्मों के लिए भी गीत लिखते रहे ! राज कपूर साहब की फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ का  यह गीत ‘ऐ भाई, ज़रा देख के चलो, आगे ही नहीं, पीछे भी...’ नीरज दादा का ही लिखा हुआ है !  उनके अन्य गीतों की सूची मैं नीचे दे रही हूँ ! नीरज जी ने यह बात बेहिचक बताई  कि वे जिस फिल्म  के लिए भी वे अपने गीत देते, वह  फ्लॉप हो जाती थी, पर, उनके गाने खूब लोकप्रिय होते थे ! इसलिए फिल्म जगत के निर्माता-निर्देशक उन्हें मनहूस मानने और कहने लगे थे ! यह जानकार भी, वे कुछ और साल तक गीत लिखते रहे, लेकिन अन्तत:  फिल्मों की असफलता से दुखी होकर, फ़िल्मी दुनिया को विदा कहकर, वापिस अलीगढ चले गए !

   

    शाम को  नीरज  दादा को पूना के सबर्ब ‘पिम्परी’ जाना था !  राकेश भाई ने मुझसे कहा था कि आपको अरूर आना है ! ऐसा न हो कि  आप टाल जाएँ ! दूर सबर्ब में एक तो रात का कार्यक्रम, कब शुरू होगा  और कब समाप्त, इसका  कुछ भरोसा नहीं  था ! ! दूसरे मैं माँ को अकेला  छोडकर जाने के लिए अनिच्छुक  थी ! उससे एक दिन पहले, मेरा तीन घंटे का कार्यक्रम छह  घण्टे में यानी रात्रि के एक बजे समाप्त हुआ था !  लेकिन, नीरज दादा की कविताओं की प्रशंसक मेरी माँ बोली कि इनको  लाइव सुनने का मौका  कहाँ जल्दी से मिलेगा, इसलिए जरूर जाना चाहिए ! तब,  मैं  और मेरी पहचान  का  एक परिवार  'नीरज-निदा  शाम '  के लिए दादा के साथ ही पिम्परी गए  ! वहाँ का  'रामकृष्ण मोरे 'सभागार बहुत विशालकाय है, वह खचाखच  भरा हुआ था !  पहले हम  सब  निदा साहब से  नीरज  जी के साथ  लता मंगेशकर  जी  के  होटल में मिले ! काफी देर बातें होती  रहीं !  सात बजते ही हम सब सभागार में पहुँच गए !  उससे पहले एक छोटी सी बैठक में फोटोग्राफरों की भीड़ ने घेर लिया और नीरज जी के साथ अनेक लोगों ने फोटो खिंचवाए ! नीरज दादा बच्चों की तरह, तस्वीरे खिंचते समय, सोफे पर बैठी, मुझसे उनके पास खड़े होकर फोटो खिचवाने को कहते, तो  एक दो बार तो मैंने उनका कहा  मान लिया, पर फिर बाद में मैंने विनम्रता से, उनसे चुचाप कहा कि वे बार-बार मुझे न बुलाएं ! उस उबाऊ  फोटो-सेशन से किसी तरह मुक्ति पाकर मैं और मेरी सहेली, नीरज दादा के साथ हॉल में  पहुँचीं और हमें स्वागत टीम ने अगली पँक्ति में बैठाया ! कुछ पल बाद ही दादा मंच पर पहुँच गए, जहाँ निदा साहब पहले से ही बैठे हुए थे और नीरज जी की प्रतीक्षा कर रहे थे !

  नीरज जी और निदा साहब  मंच पर  ऐसे जमे कि लोग उठने का नाम ही नहीं ले रहे थे !  उस भीड़ में नीरज दादा की  मांग बहुत अधिक़ थी ! रात के दो बज गए  जो, मेरे लिए  प्रतिकूल समय था, लेकिन  ऐसे कार्यकम  कभी-कभी ही सुनने को मिलते  हैं,  सो मैं उस  प्रतिकूलता को  झेल गई !  तदनन्तर हम सबको ससम्मान रात्रि भोज  के  लिए डायनिंग  हाल  में ले जाया गया !  नीरज  दादा  ने,  मैंने और हमारी सहेली ने  कुछ नहीं खाया !  सबके कहने पर  और साथ देने के लिए  बस  जूस ले लिया ! फिर  इतनी  दूर से  घर आते-आते  सुबह  के चार बज गए ! लेकिन दो दिन नीरज जी को और अगले दिन  साथ में निदा  साहब को सुनना हमेशा  के लिए यादगार बन गया !


नीरज  जी की कविताएं तो हम सबने बार-बार सुनी ही हैं,  लेकिन कुछ  फ़िल्मी  गीतों  को छोड़ कर, शायद सब  गीत  आप सबको याद न हों,        तो उनकी  सूची  आप  देख सकते हैं __

गीत     फिल्म     गायक

लिखे जो खत तुझे     कन्यादान     रफी


ऐ भाई ज़रा देख के चलो     मेरा नाम जोकर     मन्ना डे

       

दिल आज शायर है

मेरा मन तेरा प्यासा                        गैम्बलर     किशोर कुमार

जीवन कि बगिया महकेगी     तेर मेरे सपने     किशोर- लता

मैंने कसम  ली     तेरे मेरे  सपने        किशोर-लता

मेघा छाए आधी रात ...    शर्मीली     लता

       

ओ मेरी शर्मीली .    शर्मीली     किशोर

फूलों के रंग से दिल कि कलम से     प्रेम पुजारी     किशोर

रंगीला रे .........    प्रेम पुजारी     लता- किशोर

राधा ने माला जपी श्याम की     तेरे मेरे सपने     लता

कांरवां गुज़र गया ...    नई उम्र की नई फसल     रफी

सुबह  न आई, शाम न आई     चा  चा चा     रफी

वो हम ना थे, वो तुम न थे .    चा चा चा     रफी

आज मदहोश हुआ जाए रे      शर्मीली     किशोर-लता

खिलते  हैं गुल यहाँ      शर्मीली     किशोर

एक मुसाफिर हूँ मैं, एक मुसाफिर है   तू- गुनाह



   दीप्ति की स्मृति से


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