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‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।
हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।
शुक्रवार, 31 मार्च 2023
गोपालदास नीरज और असली श्रोता
विष्णु प्रभाकर, गोपालदास नीरज और मैं
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उपेंद्रनाथ 'अश्क' के साथ कुछ दिन
कविताएँ लिखा करता था। एक नाट्य-रचना 'प्रतिशोध' जिसका सफल मंचन १९७४ में अपने गाँव खेवली, वाराणसी में किया था, डॉ० वार्ष्णेय जी को दिखाई तो उन्होंने कहा, ये दोनों रचनाएँ पंतजी और रामकुमार वर्मा को दिखाओ। उन्होंने ही डॉ० रामकुमार वर्मा का पता दिया। पंत जी उन दिनों आकाशवाणी इलाहाबाद में थे। एक दिन उनसे मिला और उसके तीन-चार दिन बाद डॉ० वर्मा जी से। दोनों महान साहित्यकारों के दर्शन कर मन आह्लादित हो उठा। वर्मा जी ने कहा, "तुम अच्छा लिखते हो। एक काम करो, मेरे मित्र अश्क जी ख़ुसरो बाग के पास रहते हैं। उनसे मिल लो। उन्हें तुम्हारे जैसे युवा लेखक की जरूरत है।"
सके। कहने लगे, "मैं एक उपन्यास लिख रहा हूँ, चाहता हूँ तुम दो घंटे के लिए रोज़ मेरे यहाँ आ जाया करो। मैं एक उपन्यास की कथा बोलता रहूँगा, तुम उसे लिखते रहना। इस तरह उपन्यास जल्द पूरा हो जाएगा। हाँ, प्रतिदिन लिखने का मानदेय दूँगा। मैंने मानदेय से अधिक महत्त्वपूर्ण उन जैसे महान साहित्यकार के दर्शन करने का सौभाग्य समझा। मैंने बड़ी विनम्रता से कहा, आदरणीय मुझे मानदेय नहीं चाहिए, मैं डॉ० वर्मा के कथन का पालन करने हेतु आपकी सेवा में प्रस्तुत हूँ। लेकिन उन्होंने बड़े साफ़ तौर से नकार दिया कि अगर मानदेय स्वीकार नहीं करोगे तो मैं तुमसे लेखन-कार्य नहीं कराऊँगा। ये मानदेय नहीं, मेरा आशीर्वाद है। वस्तुतः अश्क जी का उदार व्यक्तित्व बहुत ही विराट था। उनमें हर किसी के प्रति बड़ी आत्मीयता और सहृदयता थी जो एक बड़े व्यक्तित्व का विशिष्ट गुण होता है। मैंने उनके कथन के साथ ही अपनी सहमति दे दी। करीब डेढ़ महीने तक मैं नियमित रूप से चार बजे शाम को आता और दो घंटे तक लेखन-कार्य करता रहा। मैंने देखा, उपन्यास की कथावस्तु जैसे स्मृति में
इस तरह समाहित थी जिसे धीरे-धीरे वो स्मृति-पृष्ठ को खोलकर बोलते जा रहे थे। बड़ी तारतम्यता थी कथा में। कहीं-कहीं स्मृतियों में घटनाक्रम अजीब-सी अनुभूति के रूप में प्रकट होते थे और उन्हें वे बहुत ही बारीक़ी से बोलते थे। वे बोलते क्या थे, मानो माँ सरस्वती उनकी ज़ुबान पर आकर बैठ जाती थीं और स्वयं बोलती थीं। कितनी प्रखर थी उनकी प्रतिभा। उनकी चिंतनधारा में गंगा की जलधारा-सा प्रवाह था। वे वाक़ई अपने समय के एक महान कथाकार थे। मैंने महसूस किया कि एक महान सृजक की चिंतन-यात्रा कितनी सहज-स्वाभाविक रूप में होती है। तभी उनके सृजन का स्वरूप निखर पाता है। उनका सहज सान्निध्य पाकर मेरा लेखन और सुव्यवस्थित हो गया। मैं जब भी उनके यहाँ जाता उनकी सहधर्मिणी कौशल्या जी के दर्शन कर कृतार्थ हो गया। वे भी बहुत कुशल महिला थी। उनमें भी साहित्यिक प्रतिभा झलकती थी। मैंने कभी उनसे कोई संवाद नहीं किया। सिर्फ 'प्रणाम' शब्द के साथ वे खुद ट्रे में चाय लेकर अश्क जी के पास आती थी। उनके हाथ की बनी हुई चाय में मेरे लिए मातृत्व की मिठास थी।
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गुरुवार, 30 मार्च 2023
पंडित नरेंद्र शर्मा को याद करते हुए
प्रयाग विश्वविद्यालय के एक कवि-सम्मेलन में मेरी भेंट उन से हुई।
उस समय वे अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी के कार्यालय में काम कर रहे थे और अँग्रेज़ी में एम०ए० कर चुके थे। मंच पर कविवर सुमित्रानंदन पंत, डॉक्टर रामकुमार वर्मा और 'बच्चन' जी विराजमान थे। पंत जी का व्यक्तित्व उस समय बहुत ही मनमोहक था। उनका केश-वेश-विन्यास अनन्य था और अब भी है, परंतु उन्हीं की बग़ल में एक सुकुमार युवक पर सबकी आँखें अटक-अटक जाती थीं। सुंदर तो वे अब भी हैं, पर यौवन की बात ही और होती है। गौरवर्ण आभा, सुंदर तराशी हुई नासिका, सुघर कपोल, सफ़ेद कॉलरदार कमीज़ और चुनटदार धोती, सुनहले फ्रेम का चश्मा, जो कपोलों की लाली को विशेष आकर्षक बना देता था, बग़ल में माँग काढ़कर एक ओर बालों की आधी चौड़ी पट्टी; जिन्हें उस मनोरम आकृति को आत्मसात करने की जिज्ञासा हो, वे भारती भंडार लीडर प्रेस में प्रकाशित 'प्रवासी के गीत' के १९३९ के संस्करण में उसकी झलक पा सकते हैं।
जब उनका नाम पुकारा गया तो कुछ ऐसी भावना हुई कि कोई नौसिखिया किशोर मंच पर प्रोत्साहन हेतु प्रस्तुत हो रहा है। परंतु जैसे ही अपनी वेदना विह्वल वाणी से उन्होंने 'सुमुखि तुमको भूल जाना तो असंभव है, असंभव' - की रागिनी छेड़ी कि सारा हॉल नयन-श्रवणमय हो गया। फिर तो श्रोता ऐसे भाव-विह्वल हो उठे कि कवि को मंच से हटने ही नहीं देते थे। एक के बाद एक सात रचनाएँ नरेंद्रजी ने पढ़ीं और बाद में जब पूर्णाहुति के रूप में 'आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे' की मंद-मधुर स्वर-लहरीं झंकृत हो उठी, तो श्रोता पगला-से उठे और एक-एक पंक्ति की तीन-तीन बार आवृत्ति करने के लिए कवि को विवश करने लगे। एक युग था, जब यह रचना युवकों और युवतियों का कंठहार बन गई थी। विश्वविद्यालय के युवक-युवतियाँ उनके गीतों को ऐसे गुनगुनाते फिरते थे, जैसे किसी मधुवन में मदमस्त भौंरों की गंजन डाल-डाल और पात-पात में मुखरित हो उठी हों। उनके लोकप्रिय गीत 'आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे' की प्रतिध्वनि तो सभाओं, छात्रावासों और कॉफी हाउसों में आए दिन सुनी जा सकती थी। जैसा उनका सलोना, सुकुमार, सौम्य स्वरूप था, वैसी ही उनकी रचना भी मधुर और मर्मस्पर्शी थी। 'बच्चन' जी की 'मधुशाला' एक ओर और नरेंद्रजी की यह कविता एक ओर! इसके बाद तो जमने के लिए 'बच्चन' जी को भी कुछ प्रयत्न करना पड़ा था और जहाँ तक मुझे याद है, उन्होंने 'वह पगध्वनि मेरी पहचानी' बड़े मस्ताने तरन्नुम में सुनाई थी।
उस संगोष्ठी में नरेंद्रजी कुछ ऐसे छा गए थे कि छायावादी नवोन्मेष के विदग्ध कवि डॉक्टर रामकुमार वर्मा और मधुशाला के मदमस्त गायक 'बच्चन' जी भी कुछ क्षणों के लिए हफ़्त दिखाई पड़े थे। मेरे जैसे नौसिखिए की तो औक़ात ही क्या थी! संगोष्ठी की समाप्ति पर तत्कालीन काव्यमर्मज्ञ डॉक्टर अमरनाथ झा ने अपनी माला नरेंद्रजी को पहना कर बड़े ममत्व से उन्हें झंझोर लिया था। उस समय का प्रयाग का वातावरण ही कुछ और था। एक ओर तो परम सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत की लाक्षणिक प्रकृति, प्रेरक रचनाओं का सम्मोहन था, तो दूसरी ओर महादेवी की वेदना-व्यंजक रचनाओं का स्पंदन! 'निराला' का बहुआयामी व्यक्तित्व अभी कलकत्ता और लखनऊ के परिवेश को ही चमत्कृत कर रहा था, यद्यपि काशी और प्रयाग में भी उसकी विद्युत तरंगें चकाचौंध की छटा यदा-कदा बिखेर जाती थी। प्रयाग में तो 'बच्चन' जी की मधुशाला की मादकता, नरेंद्रजी के 'प्रवासी के गीतों' की भावोच्छलता और भगवती बाबू की 'चित्रलेखा' उफनते यौवन के ज्वार की अलमस्ती छाई हुई थी। उस समय मैं काशी हिंदू विश्वविद्यालय में एम०ए० हिंदी का छात्र था। इस कवि-सम्मेलन में मेरी अच्छी ख़ासी दुर्गत हुई थी। ऐसे उदात्त आत्म विह्वल वातावरण में मैंने बड़ी हौंस-हुमस के साथ,
"हम ले कर हृदय अधीर, प्राण में पीर, नयन में नीर चले"
नामक रचना प्रारंभ की, तो दूसरी पंक्ति पर ही श्रोताओं ने ठहाका लगा दिया। दूसरी आवृत्ति मैंने और जोश से की, तो उससे भी बड़ा ठहाका लगा। मैं समझ न पाया कि क्या बात है? किसी तरह बेशर्मी से पूरी कविता पढ़ गया और बीच-बीच में कहकहे लगते रहे। बाद में किसी ने बताया कि कविता पढ़ने के पहले मंच पर ही एक चाँदी के वर्क़ का पान खा लिया था और उसकी वर्क़ मेरे ऊपरी अधर पर चिपकी हुई थी, जो कविता पढ़ते समय चमक-चमक जाती थी। तब से मैंने कवि-सम्मेलनों में पान खाना ही छोड़ दिया। ग़नीमत थी कि दूसरे दिन पत्रों में प्रशंसित कविताओं में उसका भी नाम गिनाया गया था और उक्त विद्रूपता को नज़रअंदाज़ कर दिया गया था।
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बाबूजी श्रद्धेय यशपाल जी जैन
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आप खुशबू हैं किताबों में मिलेंगे!
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मंगलवार, 28 मार्च 2023
सरल, सहज और स्नेही - हजारी प्रसाद द्विवेदी
एम० ए० में पाश्चात्य नाट्यशास्त्र की कक्षा के बाद डॉक्टर कैलाशपति ओझा जी ने बताया कि उनके श्वसुर आचार्य द्विवेदी जी उनके घर ठहरे हुए हैं,उनसे मिलना हो तो मुझे फ़ोन कर देना।
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शनिवार, 25 मार्च 2023
कामिल बुल्के जी के व्यक्तित्व की पुण्य स्मृति में
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कामिल बुल्के से मैं भी मिला था!
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फ़ादर कामिल बुल्के
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खरगौन में कवि सम्मेलन
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सुबह की आरती में गूँजती चौपाई हैं नीरज
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नीरज की याद
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लिखना तुम्हें साँसे देगा - नीरज (एक छोटी सी मुलाकात)
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कवि गोपालदास नीरज
नमस्कार साथियों,
कवि नीरज से जुड़ा अपना एक संस्मरण साझा कर रहा हूँ। मुझे अनायास ही काफ़ी पुराना एक प्रसंग याद आ रहा है। अपनी नौकरी के शुरुआती बरसों में, सन सत्तर के दशक के पूर्वार्द्ध तक मैं चित्तौड़ में पदस्थापित रहा। उस ज़माने में चित्तौड़-भीलवाड़ा में कवि सम्मेलन खूब ही हुआ करते थे। बहुत बड़े-बड़े कवि सम्मेलन, दस-पंद्रह हज़ार की उपस्थिति और सारी-सारी रात चलने वाले। नीरज, काका हाथरसी, बालकवि बैरागी, सोम ठाकुर, संतोषानंद आदि उन दिनों कवि सम्मेलनों के सुपरस्टार हुआ करते थे। अगर कोई कवि लालकिले पर आयोजित होने वाले कवि सम्मेलन में काव्य पाठ कर आता था तो जैसे उसके सुर्खाब के पर लग जाया करते थे।
तो हुआ यह कि किसी कवि सम्मेलन में नीरज जी हमारे शहर में आए। तब तक फ़िल्मों में भी वे काफ़ी कामयाब हो चुके थे और हर कवि सम्मेलन में उनसे 'मेरा नाम जोकर', 'शर्मीली', 'प्रेम पुजारी', 'छुपा रुस्तम' वगैरह के उनके लिखे लोकप्रिय गीतों को सुनाने की फरमाइश की जाती थी और वे भी खुशी-खुशी उन फरमाइशों को पूरा करते थे। ज़ाहिर है कि इस तरह की रचनाओं और कुछ और लोकप्रिय गीतों जैसे 'कारवाँ गुज़र गया' वगैरह में ही सारा समय बीत जाता और वे नया कुछ तो कभी सुना ही नहीं पाते। मैं उनसे मिलने गया और बातों का सिलसिला कुछ ऐसा चला कि मैं उनसे यह कह बैठा कि कवि सम्मेलनों में उनसे फ़िल्मी गाने सुनकर मुझे बहुत निराशा होती है। और भी काफ़ी कुछ कह दिया मैंने उनसे। उन्होंने बहुत धैर्य से मेरी बातें सुनी और फिर बड़ी शालीनता से मुझसे दो बातें कही। एक तो यह कि इन सब बातों से वे भी परिचित हैं, लेकिन यह उनकी मज़बूरी है कि जिन लोगों ने अच्छे-खासे पैसे देकर उन्हें बुलाया है, उन्हें वे खुश करें और दूसरी यह कि उनके पास भी अच्छी और नई कविताएँ हैं, लेकिन उन्हें सुनने वाले कहाँ हैं? इसके जवाब में मैंने उनसे कहा कि सुनने वाले तो हैं लेकिन उनके पास आपको देने के लिए बड़ी धन राशि नहीं है। नीरज जी ने कहा कि अगर सच्चे कविता सुनने वाले मिलें तो वे बिना पैसे लिए भी उन्हें अपनी कविताएँ सुनाने को तैयार हैं। उनके इस प्रस्ताव को मैंने तुरंत लपक लिया और उन्हें अपने कॉलेज में काव्यपाठ के लिए ले गया। विद्यार्थियों से मैंने कहा कि नीरज जी बिना एक भी पैसा लिए हमारे यहाँ केवल इसलिए आए हैं कि हम उनसे सिर्फ़ और सिर्फ़ कविताएँ सुनना चाहते हैं, इसलिए आप उनसे कोई फरमाइश न करें। जो वे सुनाना चाहें वह सब उन्हें सुनाने दें।
आज मैं इस बात को याद करके चमत्कृत होता हूँ कि नीरज जी ने लगभग दो घंटे अपनी बेहतरीन कविताएँ सुनाईं, और मेरे विद्यार्थियों ने पूरी तल्लीनता और मुग्ध भाव से उन्हें सुना। इसके बाद मैंने ही नीरज जी से अनुरोध किया कि हमारे विद्यार्थियों ने इतने मन से आपको सुना है, अब अगर आप इनकी पसंद के दो-एक गीत भी सुना दें तो बहुत मेहरबानी होगी। नीरज जी की उदारता देखिए कि उन्होंने विद्यार्थियों की फ़रमाइश पर अपने सारे लोकप्रिय फ़िल्मी गीत भी एक-एक करके सुना दिए! लेकिन उस दिन मुझे महसूस हुआ कि 'छुपे रुस्तम हैं हम क़यामत की नज़र रखते हैं' और 'ओ मेरी शर्मीली' जैसे गाने लिखने और सुनाने वाले नीरज के भीतर एक कवि उदास और इस इंतज़ार में बैठा है कि कोई आए और उससे कुछ सुनने की इच्छा ज़ाहिर करे!
- दुर्गाप्रसाद अग्रवाल की स्मृति से।
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शुक्रवार, 24 मार्च 2023
ममता कालिया
उन दिनों मुझे पढ़ने के महत्व, चयन या उसके व्यापक रूप की जानकारी के बगैर सिर्फ पढ़ने से प्रेम था।
प्रतिष्ठित अख़बार में कार्यरत मेरे पति 'शहर के विशिष्ट परिचय' पर एक शृंखला कर रहे थे, उन्होंने मुझे इस शानदार दंपत्ति से मिलवाया।
खिलखिलाते हुए उन कुछ घंटो की सभी बातें तो नहीं याद है लेकिन उन दोनों के स्नेह की उस छाप को मैं कभी भुला नहीं पाई हूँ।
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हरिशंकर परसाई जी के साथ
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स्व० विष्णु प्रभाकर
स्व० विष्णु प्रभाकर जी का पत्र आज पुराने रिकॉर्ड से प्राप्त हुआ। जब कभी उनके साथ पत्राचार होता था तो वे हमें पत्र द्वारा प्रोत्साहित करते थे।
हिंदी के महान लेखक स्व० विष्णु प्रभाकर जी से पत्र व्यवहार होता था। हिंदीतर नव लेखक होने के नाते हिंदी भाषा प्रचार-प्रसार के बारे में उनसे हमेशा मार्गदर्शन मिलता था। सामान्य पाठक के साथ आत्मीय रिश्ता बनाकर रखते थे। आश्चर्य होता था कि किस तरह अपने व्यस्त कार्यक्रम से समय निकालकर पत्र लिखते थे!
स्व० विष्णु प्रभाकर जी का पत्र |
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गुरुवार, 23 मार्च 2023
ममता कालिया - पहाड़ की छांह में
वह भी एक पत्र के बहाने!
लेकिन मेरे लिए, उस पत्र का उत्तर एक अकेला ही रहा।
नहीं मालूम था कि आने वाले समय में ममता जी से साक्षात्कार होगा, कई रूपों में कई बार मिलना होगा और उनकी कृतियों से जी भरकर प्यार होगा...। इतना कि बहुतों से ललक कर कहूँ - ममता कालिया को पढ़ना! तुम्हें अच्छा लगेगा।
और वे लिख रही हैं तब से अब तक ...अनवरत!
ममता कालिया का पत्र पाठक विजया सती को (पृ० १) |
(पृ० २) |
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गुरुवार, 16 मार्च 2023
चित्रा मुद्गल - एक स्नेहमयी विदुषी...!
एक नौ साल की बच्ची की दृष्टि से, जो पहली भेंट में ही उस विदुषी महिला को अपलक देखती रह गई थी। वह कौनसा आकर्षण था, जिसने उसे प्रथम दृष्टि से ही बाँध लिया लिया था! या उस युवती के दृष्टिकोण से जिसने उन्हें बहुत ही करीब से देखा, उनके सुख-दुख में उनके साथ रही, उनकी खूबियों से बहुत कुछ सीखा! देखा कि वास्तव में फलों से लदे पेड़, झुके होते हैं, यह केवल उक्ति नहीं है।
"बहुत प्यारी बिटिया है। क्या नाम है बेटा?"
"सरस", उसने झिझकते हुए कहा।
"घर आना। कुमार दा, इसे अपने साथ ज़रूर लाइएगा। आना बेटा", कहकर वे सभी चले गए।
जब तक वे मुंबई में थीं, हमने जीवन के अनगिनत वर्ष उनके सानिध्य में बिताए। न जाने कितने संस्मरण उनसे जुड़े हैं। होली-दिवाली का तो बड़ी बेसबरी से इंतज़ार रहता। होली पर माँ, कांजी और दही-बड़े बनातीं। पत्रकार के पास साहित्य सहवास था, जहाँ कई साहित्यकार रहते थे। सबकी टोलियाँ आतीं। चित्रा आंटी, अवध अंकल, मनमोहन सरल जी, डॉ० धरमवीर भारती जी, पुष्पा जी, और भी कई लोग आया करते। खूब रंग होता, फिर सब बगिया में बैठते, गाना-बजाना होता, फाग गाया जाता, जैंट्स बीयर पीतें और लेडिज़ कांजी का लुत्फ उठातीं।
कभी नहीं...!
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