‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



शुक्रवार, 31 मार्च 2023

गोपालदास नीरज और असली श्रोता

मेरा किसी भी बड़े साहित्यकार के साथ कोई निजी संस्मरण तो नहीं हैं, किंतु एक सामान्य श्रोता के रूप में मैंने कई महान कवियों को मंच पर कविता पाठ करते प्रत्यक्ष रूप में सुना है, जो आज तक स्मृति पटल पर ज्यों का त्यों अंकित हैं। अपनी टूटी-फूटी भाषा में लिखने की चेष्टा कर रहा हूँ। 

ये सत्तर के दशक के अंत और अस्सी के दशक के आरंभ के समय की बात है। हम लोग तब स्कूली छात्र थे।मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड प्रक्षेत्र में छतरपुर ज़िला मुख्यालय में वर्ष में कम से कम दो बार बड़े कवि सम्मेलन निश्चित रूप से हुआ करते थे। एक शारदीय नवरात्रि में दुर्गा जी के पंडाल के समक्ष और दूसरा दशहरा और दीपावली के मध्य कार्तिक मास में जलविहार के मेले में। दोनों ही कवि सम्मेलनों में उस समय देश के मूर्धन्य कविगण जैसे काका हाथरसी, निर्भय हाथरसी, ओम प्रकाश आदित्य, सुरेश चक्रधर, सरोजिनी प्रीतम, माया गोविंद, गोपालदास नीरज, शैल चतुर्वेदी, सुरेंद्र शर्मा इत्यादि भाग लिया करते थे। मुझे भी इन कवि सम्मेलनों में इन महान कवियों से उनकी रचनाएँ उनके द्वारा सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हल्की गुलाबी ठंड में श्रोता शाम ७ बजे से लेकर प्रातः ५ बजे तक पंडाल के नीचे बिछी दरियों पर जमें रहते, कविताओं के लगभग तीन दौर होते। मुझे याद है, गोपालदास नीरज जी अपनी सर्वश्रेष्ठ व नवीन कविताएँ/गीत अक्सर दूसरे या तीसरे दौर में सुनाया करते थे। पहले दौर में वे फिल्मों में आ चुके गीत व प्रचलित कविताएँ सुनाते थे, जब दूसरे या तीसरे दौर में मंच पर आते तो कहते, "अब दर्शक चले गए, असली श्रोता बचे हैं।" तब वे दर्शकों की नहीं, बल्कि अपनी पसंद की वास्तविक रचनाएँ सुनाते। प्रथम दौर में वे अक्सर चुहलबाज़ी भी किया करते, मंच पर उपस्थित कवियत्री को फ़िल्मी नायिका की उपाधि दी देते और खुद नायक बन जाते। दर्शकों को यह सब देख-सुन कर बड़ा मज़ा आता था। 

उन दिनों फ़िल्मों में परिवर्तन का दौर था। फ़िल्मी गीतों में बोलों के स्थान पर पाश्चात्य वाद्ययंत्रों से निकले कानफाड़ू संगीत को प्राथमिकता दी जाने लगी थी। इस दौर में नीरज जी जैसे गीतकारों को काव्यसृजन में कठिनाई का सामना करना पड़ता था। नीरज जी ने ही मंच से एक बार बताया था, कि फ़िल्म निर्माता गीत की धुन तैयार करके, उस पर बोल लिखे जाने की बात करते हैं, और यह ठीक वैसा ही होता है, जैसे कफ़न पहले तैयार कर लिया जाए और फिर उसके नाप का मुर्दा लाने को कहा जाए। वे कहते थे कि ऐसा वे ही गीतकार कर सकते हैं, जिन्होंने अपनी आत्मा को मार दिया हो, और ऐसे में जो गीत सृजित होगा वह मृत गीत ही होगा, गीत की आत्मा उसमें हो ही नहीं सकती। एक बार माया गोविंद भी उनके साथ मंच पर थीं, उन्होंने भी अपने फ़िल्मी दुनिया के साथ के संस्मरण साझा करते हुए एक बार बताया था कि उन्हें एक बार एक सिचुएशन पर गीत के बोल लिखने को कहा गया, कि फ़िल्म की नायिका सारी रात नायक की प्रतीक्षा में जागती रही है, भोर की किरण छज्जे की दरार से आकर उसकी बिंदिया पर पड़ती है, और तभी गीत शुरू होता है। उन्होंने बताया कि मैंने कुछ दिन बाद निर्माता को एक मुखड़ा सुनाया, जो कुछ इस प्रकार था,
"रात-रात भर नींद न आए,
तू ही समाया निंदिया में,
सूरज घुस गया बिंदिया में।"

कहना न होगा, निर्माता ने उन से अनुबंध समाप्त ही कर दिया। तो ऐसे थे उस समय के कवि-गीतकार जिन्होंने कभी भी लक्ष्मी उपासना के लिए सरस्वती पूजा को नहीं छोड़ा। वे अपने मूल्यों और आदर्शों पर अडिग रहे, देश की सभ्यता और संस्कृति को अक्षुण्ण रखे रहे। तभी वे रचनाएँ इतनी सच्चीं, इतनी मधुर, इतनी सार्थक होती थीं कि उन्हें सुनकर मन नहीं भरता था।

- अमित खरे की स्मृति से।

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विष्णु प्रभाकर, गोपालदास नीरज और मैं

सबका अभिवादन! 

यह सर्वविदित है कि एक साहित्यकार का परिचय हमें उनकी रचनाधर्मिता और कृतित्व के माध्यम से मिल पाता है। उनकी रचनाओं में उनके अंतर और बाह्य रूप के दर्शन होते हैं, पर इससे भी अधिक अंतरंग पहलू को हम तब जान पाते हैं जब हमें व्यक्तिगत अनुभव होते हैं। 

मैं आदरणीय गोपालदास नीरज जी से संबंधित एक ऐसा ही निजी अनुभव अपनी लेखनी की सामर्थ्यानुसार आप सबके समक्ष रख रही हूँ।

बात वर्ष २००२ या २००३ की है। मैं उस समय कनाडा, टोरोंटो में अपने छोटे भाई सुधीर के पास आई हुई थी। वहाँ के एक प्रसिद्ध लेखक श्याम त्रिपाठी जी मिलने आए। वे अहिंदी भाषी देश में हिंदी की त्रैमासिक पत्रिका 'हिंदी चेतना' निकालने का सराहनीय कार्य कर रहे थे और अभी भी कर रहे हैं। वे बच्चन जी के ऊपर एक विशेषांक निकालना चाह रहे थे। इसके लिए वे बराबर बच्चन परिवार और अमिताभ बच्चन से संपर्क करने की कोशिश करते रहे, पर बड़े दुखी होकर उन्होंने बताया कि किसी ने घास नहीं डाली। बच्चन जी पर सामग्री न मिलने के कारण पत्रिका निकालना उनके लिए संभव नहीं था, अतः बड़े हताश थे। मुझसे उन्होंने बड़ी आशा के साथ इस कार्य में सहयोग देने का अनुरोध किया। मैंने हँस कर कहा, "अमिताभ बच्चन को तो आप भूल जाइए, मैं भारत पहुँच कर उनके समकालीन लेखकों (हालाँकि अधिकतर अब संसार में नहीं हैं) से संपर्क करने का प्रयास अवश्य करूँगी, यह मेरा आपसे वादा है।" त्रिपाठी जी के चेहरे पर मुस्कुराहट छा गई। 

दिल्ली पहुँच कर दो महान साहित्यकार मेरे दिमाग़ में आए, आदरणीय विष्णु प्रभाकर और आदरणीय गोपालदास नीरज। एक बाबूजी पूज्य यशपाल जी से उम्र में बड़े और एक छोटे। पहले मैंने विष्णु ताऊजी को फ़ोन मिलाया और सब बात बताई। कहने लगे, "बेटी मेरा स्वास्थ्य इन दिनों ठीक नहीं है और कोई लिखने वाला मेरे पास नहीं है, अगर तू पास होती तो तुझे लिखवा देता।" मैं समझ गई कि उनसे बच्चन जी पर संस्मरण नहीं मिल पाएगा क्योंकि उनके अस्वस्थ होने की जानकारी मुझे पहले से थी। पर चार-पाँच दिन के बाद देखती हूँ कि उनका लेख आ गया। मैंने फ़ोन किया तो कहते हैं, "बेटी तेरी बात कैसे नहीं रखता।"

इस बीच मैंने नीरज चाचाजी को अलीगढ़ फ़ोन किया और बच्चन जी पर कुछ लिखने को कहा। एकदम बोले, "अन्नदा, तू एक काम कर। मेरी एक पुस्तक डायमंड पब्लिकेशन वाले छाप रहे हैं बच्चन जी के ऊपर, 'अग्निपथ का राही'।" पुस्तक पूरी नहीं हुई है पर डमी तैयार है। तू मेरा नाम लेकर वह मँगवा ले कि मैंने परमीशन दे दी है। उसमें अनेक लेखकों के संस्मरण हैं। त्रिपाठी जी को अच्छी सामग्री मिल जाएगी उसमें से।" 

मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि पुस्तक स्वयं के हाथों में पहुँचने के पहले कोई इस तरह से किसी और को देने की  उदारता दिखा सकता है। मैंने तत्काल डायमंड प्रकाशन को फ़ोन करके डमी की दो प्रतियाँ मँगवाईं और कनाडा रवाना कर दीं। त्रिपाठी जी ने इस पुस्तक की सामग्री के आधार पर पूरा विशेषांक छाप दिया। वे बहुत प्रसन्न थे कि उनका यह अब तक का सर्वश्रेष्ठ अंक बन गया था। वे समझ नहीं पा रहे थे कि कैसे इन दोनों दिग्गज लेखकों के प्रति कृतज्ञ भाव प्रकट करें। 

मैं अभिभूत और गर्वित थी कि दोनों मूर्धन्य साहित्यकारों ने मुझ अकिंचन की छोटी-सी याचना को इतना महत्त्व दिया। संबंधों के प्रति संवेदनशीलता और प्रतिबद्धता का यह अनुपम, अनुकरणीय व अविस्मरणीय उदाहरण है। दोनों महान विभूतियों को मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि!

आदरणीय नीरज चाचा जी का वह गले पर हाथ रखकर खाँसना, मधुर और मदिर कंठ का वह सुरूर जो बिना मदिरा पिए श्रोताओं पर चढ़ जाता था। शृंगार, आध्यात्म और दर्शन का अनोखा संगम उनके काव्य की प्रमुख विशेषता थी। जाते-जाते ऐसा स्थान रिक्त कर गए हैं कि उसकी पूर्ति होना तो संभव ही नहीं है, पर उनकी रचनाएँ अमर हैं और उनके स्वर की मधुर गूँज हमारे कानों में सदा गूँजती रहेंगी। 
मेरा शत शत नमन।

- अन्नदा पाटनी की स्मृति से।

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उपेंद्रनाथ 'अश्क' के साथ कुछ दिन

१९७६ की बात है। मैं नया-नया इलाहाबाद आया हुआ था। अल्लापुर में एक किराये के मकान में रहता था। वहाँ से इलाहाबाद विश्वविद्यालय और डॉ० रामकुमार वर्मा के आवास की दूरी करीब डेढ़ कि०मी० है। मैं कभी-कभी पैदल ही चला आता था आनंद भवन तक। फिर वहाँ से विश्वविद्यालय। उन दिनों डॉ० लक्ष्मीशंकर वार्ष्णेय इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष थे। मैं उनसे मिला। बहुत ही नेक स्वभाव के विमल व्यक्तित्व थे। अद्भुत सहृदयता थी उनमें। उनसे पहली बार मिलकर लगा ही नहीं कि वे अपरिचित हैं। मैं उन दिनों प्रकृति विषयक लघु 
कविताएँ लिखा करता था। एक नाट्य-रचना 'प्रतिशोध' जिसका सफल मंचन १९७४ में अपने गाँव खेवली, वाराणसी में किया था, डॉ० वार्ष्णेय जी को दिखाई तो उन्होंने कहा, ये दोनों रचनाएँ पंतजी और रामकुमार वर्मा को दिखाओ। उन्होंने ही डॉ० रामकुमार वर्मा का पता दिया। पंत जी उन दिनों आकाशवाणी इलाहाबाद में थे। एक दिन उनसे मिला और उसके तीन-चार दिन बाद डॉ० वर्मा जी से। दोनों महान साहित्यकारों के दर्शन कर मन आह्लादित हो उठा। वर्मा जी ने कहा, "तुम अच्छा लिखते हो। एक काम करो, मेरे मित्र अश्क जी ख़ुसरो बाग के पास रहते हैं। उनसे मिल लो। उन्हें तुम्हारे जैसे युवा लेखक की जरूरत है।"

मैं दूसरे दिन अश्क जी के निवास पर पहुँच गया। वर्मा जी का संदर्भ दिया। वे उन दिनों आँख का ऑपरेशन कराए हुए थे। उन्हें लिखने में परेशानी होती थी। यों भी ऑपरेशन के बाद कुछ दिनों तक लिखने-पढ़ने से डॉक्टर ने मना किया था। दरअसल उन्हें उन दिनों एक ऐसे सहायक की ज़रूरत थी जो उनके लेखन  में उनकी सहायता कर 
सके। कहने लगे, "मैं एक उपन्यास लिख रहा हूँ, चाहता हूँ तुम दो घंटे के लिए रोज़ मेरे यहाँ आ जाया करो। मैं एक उपन्यास की कथा बोलता रहूँगा, तुम उसे लिखते रहना। इस तरह उपन्यास जल्द पूरा हो जाएगा। हाँ, प्रतिदिन लिखने का मानदेय दूँगा। मैंने मानदेय से अधिक महत्त्वपूर्ण उन जैसे महान साहित्यकार के दर्शन करने का सौभाग्य समझा। मैंने बड़ी विनम्रता से कहा, आदरणीय मुझे मानदेय नहीं चाहिए, मैं डॉ० वर्मा के कथन का पालन करने हेतु आपकी सेवा में प्रस्तुत हूँ।  लेकिन उन्होंने बड़े साफ़ तौर से नकार दिया कि अगर मानदेय स्वीकार नहीं करोगे तो मैं तुमसे लेखन-कार्य नहीं कराऊँगा। ये मानदेय नहीं, मेरा आशीर्वाद है। वस्तुतः अश्क जी का उदार व्यक्तित्व बहुत ही विराट था। उनमें हर किसी के प्रति बड़ी आत्मीयता और सहृदयता थी जो एक बड़े व्यक्तित्व का विशिष्ट गुण होता है। मैंने उनके कथन के साथ ही अपनी सहमति दे दी। करीब डेढ़ महीने तक मैं नियमित रूप से चार बजे शाम को आता और दो घंटे तक लेखन-कार्य करता रहा। मैंने देखा, उपन्यास की कथावस्तु जैसे स्मृति में 
इस तरह समाहित थी जिसे धीरे-धीरे वो स्मृति-पृष्ठ को खोलकर बोलते जा रहे थे। बड़ी तारतम्यता थी कथा में। कहीं-कहीं स्मृतियों में घटनाक्रम अजीब-सी अनुभूति के रूप में प्रकट होते थे और उन्हें वे बहुत ही बारीक़ी से बोलते थे। वे बोलते क्या थे, मानो माँ सरस्वती उनकी ज़ुबान पर आकर बैठ जाती थीं और स्वयं बोलती थीं। कितनी प्रखर थी उनकी प्रतिभा। उनकी चिंतनधारा में गंगा की जलधारा-सा प्रवाह था। वे वाक़ई अपने समय के एक महान कथाकार थे। मैंने महसूस किया कि एक महान सृजक की चिंतन-यात्रा कितनी सहज-स्वाभाविक रूप में होती है। तभी उनके सृजन का स्वरूप निखर पाता है। उनका सहज सान्निध्य पाकर मेरा लेखन और सुव्यवस्थित हो गया। मैं जब भी उनके यहाँ जाता उनकी सहधर्मिणी कौशल्या जी के दर्शन कर कृतार्थ हो गया। वे भी बहुत कुशल महिला थी। उनमें भी साहित्यिक प्रतिभा झलकती थी। मैंने कभी उनसे कोई संवाद नहीं किया। सिर्फ 'प्रणाम' शब्द के साथ वे खुद ट्रे में चाय लेकर अश्क जी के पास आती थी। उनके हाथ की बनी हुई चाय में मेरे लिए मातृत्व की मिठास थी।

अश्क जी का सान्निध्य पाकर मुझमें औपन्यासिक लेखन के जो शिल्प-गुण का संचार हुआ, कथान्विति की कलात्मकता आई, वह अपने वैशिष्ट्य के साथ आज भी समाहित हो गई। निश्चय ही बड़े साहित्यकारों का सहज सान्निध्य पाकर नवसर्जक का लेखन नैसर्गिक रूप में गतिशील हो उठता है।

- डॉ० राहुल की स्मृति से।

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गुरुवार, 30 मार्च 2023

पंडित नरेंद्र शर्मा को याद करते हुए

प्रयाग विश्वविद्यालय के एक कवि-सम्मेलन में मेरी भेंट उन से हुई। 

उस समय वे अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी के कार्यालय में काम कर रहे थे और अँग्रेज़ी में एम०ए० कर चुके थे। मंच पर कविवर सुमित्रानंदन पंत, डॉक्टर रामकुमार वर्मा और 'बच्चन' जी विराजमान थे। पंत जी का व्यक्तित्व उस समय बहुत ही मनमोहक था। उनका केश-वेश-विन्यास अनन्य था और अब भी है, परंतु उन्हीं की बग़ल में एक सुकुमार युवक पर सबकी आँखें अटक-अटक जाती थीं। सुंदर तो वे अब भी हैं, पर यौवन की बात ही और होती  है। गौरवर्ण आभा, सुंदर तराशी हुई नासिका, सुघर कपोल, सफ़ेद कॉलरदार कमीज़ और चुनटदार धोती, सुनहले फ्रेम का चश्मा, जो कपोलों की लाली को विशेष आकर्षक बना देता था, बग़ल में माँग काढ़कर एक ओर बालों की आधी चौड़ी पट्टी; जिन्हें उस मनोरम आकृति को आत्मसात करने की  जिज्ञासा हो, वे भारती भंडार लीडर प्रेस में प्रकाशित 'प्रवासी के गीत' के १९३९ के संस्करण में उसकी झलक पा सकते हैं।

जब उनका नाम पुकारा गया तो कुछ ऐसी भावना हुई कि कोई नौसिखिया किशोर मंच पर प्रोत्साहन हेतु प्रस्तुत हो रहा है। परंतु जैसे ही अपनी वेदना विह्वल वाणी से उन्होंने 'सुमुखि तुमको भूल जाना तो असंभव है, असंभव' - की रागिनी छेड़ी कि सारा हॉल नयन-श्रवणमय हो गया। फिर तो श्रोता ऐसे भाव-विह्वल हो उठे कि कवि को मंच से हटने ही नहीं देते थे। एक के बाद एक सात रचनाएँ नरेंद्रजी ने पढ़ीं और बाद में जब पूर्णाहुति के रूप में 'आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे' की मंद-मधुर स्वर-लहरीं झंकृत हो उठी, तो श्रोता पगला-से उठे और एक-एक पंक्ति की तीन-तीन बार आवृत्ति करने के लिए कवि को विवश करने लगे। एक युग था, जब यह रचना युवकों और युवतियों का कंठहार बन गई थी। विश्वविद्यालय के युवक-युवतियाँ उनके गीतों को ऐसे गुनगुनाते फिरते थे, जैसे किसी मधुवन में मदमस्त भौंरों की गंजन डाल-डाल और पात-पात में मुखरित हो उठी हों। उनके लोकप्रिय गीत 'आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे' की प्रतिध्वनि तो सभाओं, छात्रावासों और कॉफी  हाउसों में आए दिन सुनी जा सकती थी। जैसा उनका सलोना, सुकुमार, सौम्य स्वरूप था, वैसी ही उनकी रचना भी मधुर और मर्मस्पर्शी थी। 'बच्चन' जी की 'मधुशाला' एक ओर और नरेंद्रजी की यह कविता एक ओर! इसके बाद तो जमने के लिए 'बच्चन' जी को भी कुछ प्रयत्न करना पड़ा था और जहाँ तक मुझे याद है, उन्होंने 'वह पगध्वनि मेरी पहचानी' बड़े मस्ताने तरन्नुम में सुनाई थी। 

उस संगोष्ठी में नरेंद्रजी कुछ ऐसे छा गए थे कि छायावादी नवोन्मेष के विदग्ध कवि डॉक्टर रामकुमार वर्मा और मधुशाला के मदमस्त गायक 'बच्चन' जी भी कुछ क्षणों के लिए हफ़्त दिखाई पड़े थे। मेरे जैसे नौसिखिए की तो औक़ात ही क्या थी! संगोष्ठी की समाप्ति पर तत्कालीन काव्यमर्मज्ञ डॉक्टर अमरनाथ झा ने अपनी माला नरेंद्रजी को पहना कर बड़े ममत्व से उन्हें झंझोर लिया था। उस समय का प्रयाग का वातावरण ही कुछ और था। एक ओर तो परम सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत की लाक्षणिक प्रकृति, प्रेरक रचनाओं का सम्मोहन था, तो दूसरी ओर महादेवी की वेदना-व्यंजक रचनाओं का स्पंदन! 'निराला' का बहुआयामी व्यक्तित्व अभी कलकत्ता और लखनऊ के परिवेश को ही चमत्कृत कर रहा था, यद्यपि काशी और प्रयाग में भी उसकी विद्युत तरंगें चकाचौंध की छटा यदा-कदा बिखेर जाती थी। प्रयाग में तो 'बच्चन' जी की मधुशाला की मादकता, नरेंद्रजी के 'प्रवासी के गीतों' की भावोच्छलता और भगवती बाबू की 'चित्रलेखा' उफनते यौवन के ज्वार की अलमस्ती छाई हुई थी। उस समय मैं काशी हिंदू विश्वविद्यालय में एम०ए० हिंदी का छात्र था। इस कवि-सम्मेलन में मेरी अच्छी ख़ासी दुर्गत हुई थी। ऐसे उदात्त आत्म विह्वल वातावरण में मैंने बड़ी हौंस-हुमस के साथ, 

"हम ले कर हृदय अधीर, प्राण में पीर, नयन में नीर  चले" 

नामक रचना प्रारंभ की, तो दूसरी पंक्ति पर ही श्रोताओं ने ठहाका लगा दिया। दूसरी आवृत्ति मैंने और जोश से की, तो उससे भी बड़ा ठहाका लगा। मैं समझ न पाया कि क्या बात है? किसी तरह बेशर्मी से पूरी कविता पढ़ गया और बीच-बीच में कहकहे लगते रहे। बाद में किसी ने बताया कि कविता पढ़ने के पहले मंच पर ही एक चाँदी के वर्क़ का पान खा लिया था और उसकी वर्क़ मेरे ऊपरी अधर पर चिपकी हुई थी, जो कविता पढ़ते  समय चमक-चमक जाती थी। तब से मैंने कवि-सम्मेलनों में पान खाना ही छोड़ दिया। ग़नीमत थी कि दूसरे दिन पत्रों में प्रशंसित कविताओं में उसका भी नाम गिनाया गया था और उक्त विद्रूपता को नज़रअंदाज़ कर दिया गया था।

- डॉक्टर शिवमंगल सिंह 'सुमन' (लावण्या शाह द्वारा प्रेषित)। 

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बाबूजी श्रद्धेय यशपाल जी जैन

मैं आज सबसे पहले अपने बाबूजी श्रद्धेय पद्मश्री यशपाल जी जैन का एक संस्मरण आप सबसे साझा कर रही हूँ। जैसे मैं आज भी भावुक हो रही हूँ आशा है आप के दिल को भी छू सके।

यह प्रसंग १९५४ का है। हम दो-तीन परिवार कश्मीर गए थे। बड़े-छोटे मिलाकर लगभग बारह लोग थे। सब लोग कृष्णा हठीसिंह जी के आग्रह पर उनके निवास पर ठहरे थे। कृष्णा हठीसिंह नेहरू जी और विजयलक्ष्मी पंडित की सबसे छोटी बहन व एक प्रसिद्ध लेखिका भी थीं। मैं ग्यारह वर्ष की थी और छोटा भाई साढ़े आठ वर्ष का था। हम दोनों ने पूरी यात्रा में बाबूजी को बहुत तंग किया। कभी भूख, कभी प्यास, कभी पेट में दर्द, कभी पैर में दर्द, कभी यह ज़िद तो कभी वह ज़िद। बाबूजी हँसते-हँसाते, हमें बहलाते फुसलाते, हमारी हर बात का समाधान करते रहे। लेकिन एक दिन अम्मा ग़ुस्से से चिल्लाकर बोलीं, "परेशान कर दिया है इन बच्चों ने। अब इन्हें कभी साथ नहीं लाऐगें।" अम्मा की यह बात मुझे चुभ गई।

अगले दिन जब सब घूमने के लिए रवाना होने लगे तो मैं अड़ गई कि हम तो परेशान करते हैं, हम नहीं जाऐगें। अम्मा ने पहले प्यार से ख़ूब समझाया, फिर डाँटा, पर मैं टस से मस नहीं हुई। किसी दूसरे के घर में तमाशा बनते देख, अम्मा झुँझलाती हुई बाबूजी से शिकायत कर आईं। बाबूजी कमरे में आए और मेरे कंधों को दबाते हुए इतना भर बोले, "क्या बात है? चलो।" मैंने उनकी आवाज में छिपी खीज भाँप ली और मेरे बालसुलभ मन पर उस अप्रत्याशित खीज का बड़ा असर हुआ क्योंकि बाबूजी ने कभी भी हम से ऊँची आवाज़ में बात नहीं की थी।

मैं चल तो दी पर बाबूजी से रूठी रही। रास्ते भर बाबूजी ने मुझे हर तरह से हँसाने का प्रयत्न किया पर मैं जानबूझ कर अपनी उदासी जताती रही। बाद में डल झील में सैर की बात आई। दो शिकारे किए गए। यूँ मैं हमेशा बाबूजी के साथ रहती थी पर इस बार अलग शिकारे में बैठी। बाबूजी यह सब भाँप रहे थे। थोड़ी देर में बाबूजी वाला शिकारा हमारे शिकारे से सट कर चलने लगा और मैंने हैरत से बाबूजी को अपने एकदम सामने बैठा पाया। उनकी तरफ़ नज़र पड़ी तो हक्की-बक्की रह गई। वे दोनों हाथों से अपने कान पकड़कर मुझसे जैसे कह रहे हों कि मुझसे ग़लती हो गई, मुझे क्षमा कर दो। मेरी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई।आज भी उस पल को यादकर मेरी आँखें भर आती हैं।

मुझे याद है जब यह संस्मरण मैंने बाबूजी की ६०वीं वर्षगाँठ पर दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन हॉल में बड़े नेताओं और वरिष्ठ लेखकों के सामने सुनाया तो श्री जगजीवन राम जी ने मुझसे कहा, "बेटी, तूने तो हमें रुला दिया।" 

डॉ० प्रकाशवीर शास्त्री, डॉ० क्षेमचंद सुमन, डॉ० लक्ष्मीमल्ल सिंघवी तथा अन्य गणमान्य अतिथियों ने मुझे बहुत सराहा। डॉ० सिंघवी ने तो यहाँ तक कहा कि "अन्नदा, तुझे तो लेखिका होना चाहिए।" मुझे पता नहीं था कि उनकी भविष्यवाणी सच हो जाएगी। यह प्रसंग बेटी के प्रति वात्सल्य की बड़ी मिसाल है, ऐसा मैं महसूस करती हूँ। 

आश्चर्य होता है कि बाबूजी के कारण मुझे उच्च राजनयिकों का भी स्नेह मिला। महामहिम भैरोंसिंह शेखावत जी का स्नेह याद करके तो मैं आज भी अभिभूत हो उठती हूँ। बाबूजी के विचारों का संकलन जो मैंने प्रकाशित करवाया था, उसका लोकार्पण उन्होंने ही किया था। फिर तो मुझे जहाँ मिलते एकदम गले लगा लेते। दूसरे उपराष्ट्रपति गोपाल स्वरूप पाठक जी पूरी गंगोत्री यात्रा उनके साथ की। 

- अन्नदा पाटनी की स्मृति से।

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आप खुशबू हैं किताबों में मिलेंगे!

नब्बे वर्ष का लंबा जीवन, लगभग छह दशक का रचनाकर्म! संभवतः कुछ अधूरी कहानियाँ और संस्मरण! दुनिया में किस व्यक्ति को ज़िंदगी में सबकुछ मिला है? मन्नू जी, आपका लिखना रुका, पर कम लिखकर यश भी तो खूब मिला - यह क्या कम है?

मन्नू भंडारी, कथाकार से भी पहले अध्यापिका के रूप में मेरे मन की स्मृतियों में बसती हैं। विद्यार्थी जीवन में उन्हें मैडम अधिक और कथाकार कम - इस रूप में जानती रही। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध कॉलेज मिरांडा हाउस में बी०ए० की कक्षाओं में उनसे हिंदी पढ़ना, फिर एम०ए० करते हुए समकालीन कथा साहित्य पर उनसे संवाद .. ये स्मृतियाँ भुलाए जाने के लिए नहीं हैं।

अच्छी तरह याद है.. बी०ए० ऑनर्स हिंदी के दूसरे साल में, मन्नू जी के साथ गोदान पर वह पहली क्लास .. छोटी छोटी नाजुक उँगलियों वाले उनके हाथों से बनती वे नाज़ुक आकृतियाँ.. और वह रोचक अभिव्यक्ति तो कभी भुलाई ही न जा सकी, जब कथासाहित्य के पेपर में कहानी विशेष पर टिप्पणी करते हुए मन्नू जी ने कहा -
"ज्यों केले के पात पात में पात, त्यों सज्जन की बात बात में बात!"

कड़क कलफ़ वाली सुंदर सूती साड़ियाँ और छोटे से माथे पर गहरे मेहरून रंग की बड़ी सी सिंदूर बिंदिया .. यह शिल्पा की चिपकू बिंदी बाज़ार में आने से पहले की बात ज़रूर है मैडम, पर आपसे पढ़ते थे, यह बहुत पहले की बात नहीं! आपसे पढ़कर, जब हम खुद पढ़ाने लगे, तब आपकी अस्वस्थता के बीच हमने आपको कई बार ढूँढा, आग्रह-मनुहार की, आपको अपने बीच पाना चाहा, उस आत्मीय गहन स्वर को फिर सुनना चाहा। लेकिन आप नहीं मिली तो नहीं मिली। आप काले मोतियाबिंद और बाद में न्यूरोल्जिया से जूझ रही थी।

आपकी रचनाओं के बहाने आपसे मिलना, हमेशा सार्थक लगता रहा, इतना कि यह प्रिय शे'र भी कुछ बेमानी सा लग रहा है ..
अबके बिछुड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें!

मैंने इसमें एक नया मानी तलाशने की कोशिश की, उसे आपके साथ की स्मृतियों को समर्पित करती हूँ...
न तो बिछुड़े हैं न ख्वाबों में मिलेंगे
आप खुशबू हैं, किताबों में मिलेंगे!

साहित्य की आरंभिक समझ देने के लिए आपका आभार मैडम!

- विजया सती की स्मृति से।

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मंगलवार, 28 मार्च 2023

सरल, सहज और स्नेही - हजारी प्रसाद द्विवेदी

एम० ए० में पाश्चात्य नाट्यशास्त्र की कक्षा के बाद डॉक्टर कैलाशपति ओझा जी ने बताया कि उनके श्वसुर आचार्य द्विवेदी जी उनके घर ठहरे हुए हैं,उनसे मिलना हो तो मुझे फ़ोन कर देना।

मैं, सुरेश ऋतुपर्ण और राकेश जैन 'मित्रत्रयी' नाम से साप्ताहिक हिंदुस्तान में लिखा करते थे। हमने संपादक मनोहर श्याम जोशी जी को द्विवेदी जी के दिल्ली में कुछ दिन उपलब्ध होने के विषय में बताया। वे प्रसन्न हुए और हमें कहा कि हम आचार्य जी से संस्कृति और सभ्यता विषयक एक दीर्घ साक्षात्कार ले लें।

कहाँ परम विद्वान द्विवेदी जी और कहाँ हम तीन तिलंगे! इतने गहन विषय पर उनसे क्या बातचीत करें; क्या सवाल पूछें? अवसर बड़ा था, हमने खूब तैयारी की 'साहित्य कोश' खंगाल डाला, दिनकर जी के 'संस्कृति के चार अध्याय' को उलटा-पलटा और मिशन को पूरा करने पहुँच गए।

मित्रत्रयी का आत्मविश्वास जागृत करने में आचार्य द्विवेदी जी का अत्यंत सहयोग मिला। हमारे प्रश्नों के उत्तर देने में उन्होंने कोई समय नहीं लगाया, ऋतुपर्ण और मैं पूछ रहे थे, राकेश लिखते जा रहे थे। द्विवेदी जी के वक्तव्यों में बहुत से संस्कृत श्लोक भी थे। बीच-बीच में उन्होंने राकेश से पूछा कि सब ठीक लिखा जा रहा है न? राकेश स्वीकृति सूचक सिर हिला देता था।

साक्षात्कार पूरा हुआ, डेढ़ घंटे का निचोड़ राकेश की कापी में समेट कर हम ले गए। जब साप्ताहिक के लिए सारे नोट्स फ़ेयर करने लगे तो पाया कि राकेश पूरे-पूरे श्लोक न लिख पाया था.. सभी अपूर्ण थे। संस्कृत में हम तीनों में केवल राकेश का हाथ खुला था, किंतु उस दिन उसकी कलई खुल गई। अब क्या कैसे करें, कॉलेज में संस्कृत के एक प्राध्यापक को हमने दिखाए, उन्होंने दो तो पूरे कर दिए किंतु शेष के सिरे उनकी पकड़ में नहीं आए।

साक्षात्कार साफ़-साफ़ लिख लिया गया और अधूरे श्लोकों का स्थान रिक्त छोड़ दिया। अब क्या हो? हम राकेश पर झल्ला रहे थे कि सब मटियामेट कर दिया, तभी पूछ लेते आचार्य जी से, वे कह भी रहे थे! क्षुब्ध हो रहे राकेश ने अचानक कहा कि वह आचार्य द्विवेदी जी के पास जाकर क्षमा माँग लेगा और पुनः ध्यान से लिख लेगा।

अंततः हम तीनों अगले दिन ओझा जी को फ़ोन करके उनके घर बड़ी हिम्मत कर आचार्य प्रवर से मिले। हमारे आने का प्रयोजन डॉक्टर ओझा उन्हें बता चुके थे। हम क्षमा याचना हेतु अस्फुट कुछ बोलने लगे परंतु वे द्विवेदी जी की उन्मुक्त हंसी में उड़ गए। उन्होंने और ओझा जी  ने सब सही-सही लिखवा दिए और लॉन में हम तीनों के साथ एक फ़ोटो भी खिंचवाया। फ़ोटो में राकेश का मुखमंडल खूब खिला हुआ है जैसे मनों बोझ उसके सिर से उतरा हो।

साक्षात्कार और आचार्य जी के साथ का हमारा वह चित्र साप्ताहिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ जिसने मित्रत्रयी का भाव बढ़ाया।

- हरीश नवल की स्मृति से।

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शनिवार, 25 मार्च 2023

कामिल बुल्के जी के व्यक्तित्व की पुण्य स्मृति में

सुदूर दक्षिण में रहनेवाली मुझे भी पुण्यात्मा कामिल बुल्के जी के दर्शन का सौभाग्य मिला। यह १९७२-७३ की बात है। मैं उस्मानिया विश्वविश्वविद्यालय में एम०ए० हिंदी की छात्रा थी। "एशिया के देशों में राम कथा" के संदर्भ में उन्होंने व्याख्यान दिया। प्रशांत मुद्रा में उनके भाषण के साथ उनका व्यक्तित्व भी झलक रहा था। तब मुझे समझ में आया कि किसी भी भाषा पर कोई अन्य भाषा-भाषी भी साधिकार बोल सकता है, बशर्ते परिश्रम के साथ उस भाषा के प्रति प्रेम हो। प्रेम के कारण परिश्रम का समय भी आनंददायक होता है। 

हिंदी विभाग में थोड़ी सहमी सकुचायी-सी रहती थी। मेरे आचार्य बनारस हिंदू विश्वविद्यालय एवं लखनऊ विश्वविद्यालय के थे। विवाह के बाद मैं हैदराबाद आई। मैं गोदावरी किनारे पर बसे राजमहेंद्री नगर की हूँ। फादर कामिल बुल्के मेरे प्रेरणास्रोत रहे। आज से पचास साल पहले उन्होंने मुझमें साहस जगाया। 

ख़ैर, व्याख्यान का दिन आज मेरी स्मृति में फ़ोटो जैसे सुरक्षित है। बड़ा हॉल पचास-साठ विद्यार्थी एवं अन्य विशिष्ट व्यक्तियों से भरा था। व्याख्यान के बाद मैंने भी प्रश्न पूछा था। राम के संदर्भ में उनका यह उद्धरण आज भी मुख-मुद्रा के साथ याद है -  
"अवनि हिमाद्रि समुद्र जनि करहु वृथा अभियान  
शांत धीर गंभीर तुम सम राम सुजान।।" 

- प्रोफ़ेसर पी० मणिक्याम्बा 'मणि' की स्मृति से।

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कामिल बुल्के से मैं भी मिला था!

डॉ० फ़ादर कामिल बुल्के से मैं भी मिला था! बेल्जियम से थे! उनके हिंदी शब्दकोश से अधिक प्रामाणिक शायद ही कोई दूसरा हो!

वे रामायण पर रिसर्च करना चाहते थे, परंतु मृत्यु ने उन्हें हम सबसे छीन लिया!

बीआइटी रांची में भी कई बार आए थे। दो बार तो स्वयं मैं उन्हें लेकर आया काॅलेज में समारोह के लिए। (इंजीनियरिंग के चौथे वर्ष में मैं अपने काॅलेज में भारतीय साहित्य परिषद के संपादन विभाग का अध्यक्ष रहा, और कई वर्षों के बाद वार्षिक पत्रिका रचना १९८४ छापी, जो श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा उद्घाटित भारतीय विज्ञान कांग्रेस का विशेष संस्करण थी, और पहली बार रंगीन फोटो छपे थे, श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा उद्घाटन के भी)।

डॉ० फ़ादर कामिल बुल्के चर्च और मंदिर, दोनों जगह समान सम्मान पाते थे और दो-तीन बार उनके मुंह से मैंने सुना था, कि राम सबके हैं, और रामायण किसी एक धर्म विशेष का धर्म ग्रंथ नहीं है बल्कि विश्व ग्रंथ है।

डॉ० फ़ादर कामिल बुल्के के व्यक्तित्व के आस-पास भी अगर कोई रहा, तो धार्मिक सहिष्णुता उस व्यक्ति के मन में स्थिर हो गई। उनकी बुराई करने वाला मुझे आज तक कोई मिला ही नहीं।

मुझे ठीक से याद नहीं पर उनकी मृत्यु संभवतः १९८२ अथवा १९८३ में हुई।

- अशोक शुक्ल की स्मृति से।

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फ़ादर कामिल बुल्के

१९६८ की बात रही होगी, मैं विज्ञान स्नातक के प्रथम वर्ष का छात्र था, हिंदी हमारा विषय नहीं थी, केवल फिजिक्स, केमिस्ट्री और मैथमेटिक्स। जमशेदपुर की कोऑपरेटिव कॉलेज बनफ कॉलेज मानी जाती थी, छात्रों की संख्या के अनुसार और क्षेत्रफल के अनुसार भी। एक विभाग से दूसरे विभाग में हम साईकल से जाया करते थे। फिर लाइब्रेरी, कैंटीन, कॉमन रूम इत्यादि इत्यादि सब अलग। हमारी कॉलेज रांची विश्वविद्यालय का हिस्सा थी और कॉलेज के हिंदी के विभागाध्यक्ष डॉ० सत्यदेव ओझा थे, पतले-दुबले लंबे, हर छात्र उनकी बहुत इज्जत करता था, मेरे जैसा छात्र भी। रांची विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ० फादर कामिल बुल्के थे, वे सेवियर रांची के भी विभागाध्यक्ष थे। उनका शब्द कोश नया-नया आया था और पूरे भारत में चर्चा का विषय था। तभी एक नोटिस लगी कि फलां तारीख को थिएटर नंबर ४ में उनका व्यक्तव्य होगा, जो विद्यार्थी सुनना चाहें समय से पहले स्थान ग्रहण करें। हम कुछ विज्ञान के विद्यार्थी जिन्हें हिंदी से प्रेम था, वे भी गए। अच्छा रौबीला चेहरा, दाढ़ी युक्त, बोलने का अंदाज़ इतना प्रभावी कि व्यक्ति बरबस ही आकर्षित हो जाए। रुक-रुककर शब्दों को चबा-चबाकर बोलने का तरीका कि हर शब्द स्पष्ट हृदय में उतरता जाए। उन्होंने बाल्मीकि रामायण और राम पर एक घंटा अपना व्यक्तव्य दिया। कोई भ्रम नहीं कि क्या बोल रहे हैं। आज भी वह व्यक्तव्य कानों में गूँजता है। बहुत से आख्यान तदपुरांत सुने, कई महात्माओं के भी सुने, पर सीधे विषय केंद्रित वैसे एक या दो ही सुने होंगे। कहते हैं विष्णुकांत शाष्त्री जी का भी यही अंदाज़ है, पर मैंने उन्हें सामने कभी नहीं सुना, हाँ रिकॉर्डिंग ज़रूर सुनी है।

कुछ व्यक्तित्व जो नयनों के झरोखों में बस जाते हैं, उनमें निस्संदेह फादर कामिल बुल्के सर्वोच्च थे।

- सुरेश चौधरी की स्मृति से।

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खरगौन में कवि सम्मेलन

सबसे अलग मेरी एक आपबीती भी सुन लीजिए।

बात सन १९८२ की है। खरगौन में कवि सम्मेलन था। जिसमें बालकवि बैरागी जी, नीरज जी, हास्य कवि शैल चतुर्वेदी जी सहित कई कवि शामिल थे। नीरज जी उस दिन कुछ ज्यादा ही मूड में थे। भारी भीड़ में लोगों ने शोर मचाना शुरु कर दिया। स्थिति गंभीर होती देखकर आयोजक भाग गए। लोग स्टेज पर चढ़कर हुल्लड़ करने लगे। व्यवस्था को बिगड़ता देखकर मैं अपने फ़ोर्स सहित स्टेज पर गया और इन महानुभावों को सुरक्षित निकालने के लिए लगभग डाँटता हुआ सा उठाया और सबको अपनी गाड़ी में बैठाकर लेकर भागा। पीछे-पीछे लोगों की भीड़। मैं बड़ी मुश्किल से लोगों को समझा पाया कि इन सब को गिरफ्तार किया जाएगा। मैं इन सब को लेकर सर्किट हाउस आया जहाँ मैं उन दिनों रहता था। एक कमरे में इन्हें बंद कर मैं तुरंत घटना स्थल पर वापस गया और भीड़ को नियंत्रित किया। फिर उस दिन कार्यक्रम नहीं हो सका। उपद्रव करने वाले कुछ लोगों को भी गिरफ्तार किया गया। करीब सुबह चार बजे मैं लौटकर आया।अपनी यूनीफ़ॉर्म उतारकर मैंने आदरणीय नीरज जी से माफी माँगी और कहा कि यह नाटक करने के अलावा आपकी सुरक्षा का कोई चारा नहीं था। बालकवि बैरागी जी बोले मुझे, कुछ मामला गड़बड़ है अंदर, आपने हम लोगों को बचाया क्यों? उन दिनों बैरागी जी भी प्रसिद्धि की ऊँचाइयों पर थे। मैंने उन्हें बताया कि आपकी नर्मदा वाली कविता मुझे बहुत पसंद हैं और आदरणीय नीरज जी की कविताएँ पढ़ते रहता हूँ। कभी-कभी खुद भी कुछ कविताएँ लिख लेता हूँ। उनके अनुरोध पर मैंने उन्हें अपनी कुछ कविताएँ सुनाई। सबसे अपनी विवशता के लिए क्षमा माँगते हुए खंडवा से सबको ट्रेन से रवाना किया। रवाना होने से पहले आदरणीय वैरागी जी ने मेरी डायरी में लिखा "अच्छी कविताओं के लिए बधाई"। यह मेरे जीवन का अविस्मरणीय प्रसंग बन गया है।

आनंद पचौरी की स्मृति से।

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सुबह की आरती में गूँजती चौपाई हैं नीरज

हाँ, वो क़िस्सा भी मज़ेदार था। हुआ यूँ कि नीरज जी सब से पहले तो अमेरिका में हमारे घर ही आए (वही उनका 'base' होना था। उन के १० कार्यक्रम पहले से तय थे। वाशिंगटन डीसी हमारे घर से क़रीब ३ घंटे की ही दूरी पर है, वहाँ के श्रोता भी जाने-पहचाने हुए हैं। कई बार वहाँ कवि सम्मेलनों में जाना होता रहा है। वहाँ हमारे मित्र और गीतों के राजकुमार राकेश खंडेलवाल जी भी रहते हैं। इसलिए यह तय हुआ कि पहला कवि सम्मेलन वहीं होगा। यह भी तय हुआ कि हम सब हमारे घर से सुबह नाश्ते के बाद चल कर दोपहर तक राकेश खंडेलवाल जी के घर पहुँचेंगे, वहाँ दोपहर का भोजन होगा और फिर कुछ आराम के बाद शाम को कवि सम्मेलन। मैंने एक दिन पहले राकेश जी को अपने घर के रास्ते के निर्देश भेजने को कह दिया था। राकेश जी बेहद अच्छे आशु कवि हैं, खड़े-खड़े किसी भी विषय पर छंदबद्ध कविता लिखे देते हैं। माँ सरस्वती का उन पर वरद्हस्त है। उन्होंने हमारे घर से अपने घर तक के निर्देश (कहाँ बाएँ लेना है, कहाँ दाएँ ….) पूरी छंदबद्ध कविता के रूप में ईमेल से भेज दिए। मैंने उसे ऐसे ही मज़ाक़ के तौर पर प्रिंट कर किया लेकिन फिर कंप्यूटर से सही निर्देश भी ले लिए। जब हम घर से चलने लगे तो हड़बड़ी में कंप्यूटर वाले निर्देश घर पर रह गए और राकेश जी की कविता वाला पृष्ठ साथ आ गया। यह बात रास्ते में पता चली। उन दिनों मोबाइल फ़ोन तो हुआ नहीं करते थे। हमने सोचा कि कहीं रुककर पब्लिक फ़ोन ढूँढने की बजाय क्यों न राकेश खंडेलवाल जी की कविता का सहारा लिया जाए उन्हीं के घर पहुँचने के लिए। मैंने वह पर्चा नीरज जी को थमाया। मैं गाड़ी चला रहा था, नीरज जी ने बड़े आनंद के साथ उस कविता को लय में पढ़कर मुझे राकेश जी के घर पहुँचने के निर्देश दिए। आप विश्वास कीजिए कि उस कविता के निर्देशों का अनुसरण करते हुए हम सही सलामत बिना कहीं रुके राकेश जी के घर पहुँच गए। हाँ, इस पूरी कसरत का फ़ायदा यह हुआ कि जब हम घर पहुँचे तब मुझे राकेश जी का परिचय नीरज जी से नहीं करवाना पड़ा। नीरज जी रास्ते में ही राकेश जी के फ़ैन हो गए थे। 

दुर्भाग्य से राकेश जी की कविता तो साथ नहीं है लेकिन एक मुक्तक जो उन्होंने उसी दिन नीरज जी के लिए लिखा था और जिसे मैंने नीरज जी को मंच पर आमंत्रित करते हुए प्रयोग किया वह मुझे अभी तक याद है,

मचलती शोखियों की एक मृदु अंगड़ाई है नीरज
नदी की धार में इठला रही जुनहाई हैं नीरज
ग़ज़ल हैं गीतिका है एक मुक्तक हैं रुबाई हैं
सुबह की आरती में गूँजती चौपाई हैं नीरज 

- अनूप भार्गव की स्मृति से।

'क़िस्से साहित्यकारों के' की परिचर्चा में यह कविता आगे एक मित्र अभिनव द्वारा उपलब्ध होती हैं,

उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम सभी दिशा मिश्रित हो लेंगी,
जिधर चल पड़े गाड़ी प्रियवर, उसी तरफ़ को चलने दीजे,

वैसे टर्नपाईक पर दक्षिण दिशा आपको चलना होगा,
डैलावेयर और बाल्टीमोर पार फिर करना होगा,
कैलवर्टन का एक्जिट नंबर ट्वन्टी नाईन फिर ले लेना,
तीजा सिग्नल चैरी हिल का, उस पर आकर दाएँ मुड़ना,

पार कीजिए ट्वेन्टी नाईन यूएस का पुल, आगे बढ़ लें,
तीजा सिग्नल न्यू हैम्पशायर उससे भी आगे बढ़ लेना,
उसके बाद तीसरा सिग्नल, लेक टिवोली बुलेवार्ड का,
उसी मार्ग पर आकर प्रियवर, अपने दाएँ को मुड़ लेना,

पहला मोड़ बाएँ को जो है,नाम वही विलकाक्स लेन है,
उस पर नंबर सत्रह तेरह,मेरी छोटी सी कुटिया का,
वहीं आप आ जाएँ, दुपहरी भर विश्राम करें भोजन कर,
संध्या को फ़हरानी होगी फिर भाषा की हमें पताका।

- राकेश खंडेलवाल।

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नीरज की याद

नीरज जी साहित्य की दुनिया में एक आधारशिला सदृश्य थे। उन्होंने अपने साहित्य कर्म के कारण देश और समाज को गीतों के माध्यम से एक नया युग दिया। अविस्मरणीय उनकी हर रचना है, हर गीत है।

एक छोटा-सा ही किस्सा है, हमारे अपने साथ का...

हमें अपना गीत-संग्रह प्रकाशित करना था और हम चाहते थे कि हमारे इस गीत-संग्रह के गीतों की समीक्षा कोई बहुत बड़ा गीतकार अपनी प्रस्तावना के रुप में लिखें।

हमारी फिल्म इंडस्ट्री की गीतकार माया गोविंद जी से अक्सर बात होती रहती थी, वे बात बहुत अच्छे से बात करती थी। हमने उनसे अपने एक दो दिवसीय साहित्य सम्मेलन में आने का आग्रह किया जो कि जलगाँव में प्रतिवर्ष आयोजित होता था,पर उनका कहना था कि वे ट्रेन मैं सफ़र नहीं कर पाएँगी क्योंकि उस समय उनकी कमर में बहुत ज्यादा प्रॉब्लम हुआ था। उनका कहना था कि हम फ्लाइट में आ सकते हैं। लेकिन हमारे शहर में फ्लाइट एयरपोर्ट नहीं होने के कारण यह बात हुई कि मुंबई से सरगाँव हालांकि ७ घंटे का रास्ता है लेकिन उन्होंने सिरे से मना कर दिया। काफ़ी दिनों बाद हमारा गीत संग्रह जब प्रकाशित होना था, हमने उनसे समीक्षा हेतु निवेदन किया, इस बार वे तुंरत राजी हो गई। प्रस्तावना लिखने पर हमें मुंबई के कुछ लोगों ने कहा कि प्रियंका जी कभी फ़िल्म लाइन से जुड़े लोगों को अपना लिखा कुछ भी नहीं देना चाहिए ये सब कब आपका लिखा अपने नाम से दुनिया के सामने पेश कर देते हैं हमें पता ही नहीं चलता। तो हम भी लोगों की कही-सुनी बातों में आ गए कि कहीं हमारे गीतों के साथ भी तो ऐसा हो गया तो? फिर हमने अपने गीत की पूरी कॉपी नहीं भेजी ही नहीं। ये २०१३ के आसपास की बात है।

फिर एक मित्र ने कहा कि आप नीरज जी से लिखवा लिजिए। हमने कहा नेकी और पूछ पूछ! आश्चर्य हुआ कि इतने बड़े व्यक्ति हमारे गीत संग्रह के लिए समीक्षा लिखेंगे! उन्होंने कहा कोशिश करने में तो कोई समस्या नहीं है। उनका नीरज जी के पास आना-जाना लगा रहता था। एक दिन उन्होंने नीरज जी से हमारी फोन पर बात कराई। पहले तो औपचारिक बातें हुई जैसे आप कहाँ रहती हैं?, क्या करती हैं?, कौन कौन सी विधा में लिखती हैं? हमने सभी बातों का बहुत ही अच्छे से खुशी-खुशी जवाब दिए। क्योंकि हमारे लिए ये ही बहुत बड़ी बात थी कि नीरज जी से हमारी बात हो रही है। उस समय उन्होंने हमारे कुछ गीतों को भी सुना और बहुत तारीफ़ की। हाँ उस समय भी उनकी तबीयत बहुत ख़राब थी। थोड़ी-थोड़ी देर में बात करते-करते खाँस रहे थे। बीच में किसी से पानी भी लाने को कहा। हमारे गीत सुनने के बाद उन्होंने कहा भी कि गीत बहुत अच्छे हैं, हम जरूर समीक्षा लिखकर देते पर तबीयत नासाज़ लग रही है। हम आपके गीत संग्रह समीक्षा हेतु मंगवालें और ना जाने कितने समय तक हमारे पास पड़े रहें, हम नहीं लिख पाए तो ऐसी स्थिति में आप किसी और से लिखवा लें। हमारा मन मायूस हो गया। पर उनकी एक बात ने हमारे मन में अनोखी ऊर्जा का संचार किया कि
"अरे बेटा, किसी से अपने लिखे पर क्या समीक्षा लिखवानी, हमारे अपने लिखे पर क्या कोई समीक्षा कर पाएगा हमारे अपने ज़ज्बात है, हमारी अपनी भावना है, हमारी भावनाओं को कोई नहीं समझ पाता। जो हम लिखते हैं और जिस समय हम लिखते हैं उस वक्त हम किस परिस्थिति से गुज़रते हैं, वह कोई नहीं समझ पाता है। तो बेहतर यह होता है कि हमें अपने लिखे की समीक्षा अक्सर अपने द्वारा ही लिखनी चाहिए।

हमारे दिल पर उनकी बातों का बहुत-बहुत असर हुआ और हमने अपने गीत संग्रह जिसका नाम 'झील का दर्पण' है, उसमें किसी से भी समीक्षा नहीं लिखवाई। उसके बाद एक और काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ, 'सिगरेट' नाम से उस पर भी किसी की समीक्षा नहीं ली।

नीरज जी ने शायद एक-एक शब्द सच कहा था। पर अब समय ऐसा हो गया है कि हमारी लिखी किताबों पर कोई बड़ा व्यक्ति अगर समीक्षा कर देता है, तो हमारी किताबों के मायने बहुत बढ़ जाते हैं।

नीरज जी के लिए

वो हिम्मत करके पहले अपने अंदर से निकलते हैं,
बहुत कम लोग है जो घर को फूंक के घर से निकलते हैं।
जो मोती है वो धरती पे कहीं पाए नहीं जाते,
हमेशा कीमती मोती समंदर से निकलते हैं।

- डॉ० प्रियंका सोनी "प्रीत", जलगाँव की स्मृति से

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लिखना तुम्हें साँसे देगा - नीरज (एक छोटी सी मुलाकात)

नीरज जी वास्तव में बहुत सरल व्यक्ति थे। उनसे अचानक हुई एक मुलाकात याद आती है। यह छोटा सा संस्मरण नीरज जी के प्रयाण पर दैनिक जागरण में भी प्रकाशित हुआ था......

लगभग ३० वर्ष पहले जब मैं मैत्रेयी कॉलेज में अँग्रेज़ी ऑनर्स पाठ्यक्रम की द्वितीय वर्ष की छात्रा थी, तब एक दिन बस में मिले थे नीरज। एक सीट पर सफे़द कुर्ते-पाजामे में कुछ उम्रदराज से व्यक्ति को शांत अकेले बैठे देखा तो हैरत सी हुई। संयोग से और कोई सीट खाली ना होने के कारण मुझे उन्हीं के साथ बैठना पड़ा। उन्होंने सहज ही पूछा, यह बस कितनी देर में चलेगी। मैंने उत्तर दिया, "बस अभी भर गई है, तो जल्दी ही चल पड़ेगी।"  कुछ और सामान्य से उनके प्रश्न, "यहाँ पढ़ती हो?, कौन से कोर्स में? कौन सा साल? आदि। बता दिया, और फिर मैंने भी पूछ लिया, "आप यहाँ कैसे?" तो वे बोले, तुम्हारी प्रिंसिपल से मिलने आया था, "ओह!" संक्षिप्त सा उत्तर देकर मैं चुप हो गई, अब प्रिंसिपल के परिचित से छात्र क्या कहे! ज़रा रुककर वे बोले - "मेरा नाम नीरज है, गीत लिखता हूँ।"
मैं हतप्रभ थी, नीरज!!!  मैं चेहरे से वाकिफ़ नहीं थी क्योंकि उस ज़माने में चित्रहार में फिल्म और गीतकार के नाम दिए जाते थे सो नाम से तो मैं भली-भांति परिचित थी। यकीन नहीं हो रहा था कि जिनके गीत हम बचपन से सुनते-पसंद करते रहे थे, मेरे सामने थे, कभी कल्पना भी नहीं की थी कि वे इस तरह रास्ते में मिल जाएँगे। हम यही सोचते थे कि जिस तरह हीरो-हीरोइन और फिल्मों के अन्य कलाकार, बड़े-बड़े व्यक्तित्व हुआ करते हैं, गाड़ियों में घूमते हैं, उसी प्रकार गीतकार भी होते होंगे। मैंने कहा मुझे पके गीत पसंद हैं। वे मुस्कुराए और मेरा अगला प्रश्न सुनकर हंस पड़े थे क्योंकि मैं उनसे पूछ बैठी थी - "आप नीरज हैं तो आप बस में सफ़र क्यों कर रहे हैं?" मुस्कुराकर उन्होंने कहा था, "क्योंकि बसें सफ़र करने के लिए होती हैं।"  हैरानी व संकोच में ज्यादा कुछ कह नहीं पाई फिर भी बैग से रजिस्टर निकालकर उनके हस्ताक्षर लिए थे। हस्ताक्षर करते हुए उन्होंने कहा था, मेरे हस्ताक्षर लेकर क्या करोगी? मैं कोई बड़ा आदमी थोड़े ना हूँ।

फिर भी उन्होंने शायद मेरा दिल रखने को शुभकामनाओं सहित लिखकर हस्ताक्षर किए थे। वे हस्ताक्षर भी उस घर से इस घर के सफ़र में कहीं गुम हो गए। बहुत संकोच से मैंने उन्हें बताया मैं भी थोड़ा-थोड़ा लिखती हूँ..। उन्होंने कहा था, "लिखते रहना, लिखना कभी छोड़ना मत, ये तुम्हें साँसे देगा...।" १९ की वय में उस समय शायद यह समझ नहीं आया था, आज आता है। ये वाक़या न जाने कितनी बार लिखने की सोची पर लिखा नहीं...। कल उनके जाने के समाचार से अब तक मन में गूँज रहे हैं शब्द, ये तुम्हें साँसें देगा...।

लेखन की राह पर चलने को प्रेरित करने के लिए मैं सदा उनकी आभारी रहूँगी।

सच नीरज, लिखने ने ही शायद आपको साँसें दी और हमें ऐसे गीत जो हमारी साँसों में बस गए। यही होता है अमर हो जाना। गीतकार तुम्हें नमन है!

- भावना सक्सैना की स्मृति से।

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कवि गोपालदास नीरज

नमस्कार साथियों, 

कवि नीरज से जुड़ा अपना एक संस्मरण साझा कर रहा हूँ। मुझे अनायास ही काफ़ी पुराना एक प्रसंग याद आ रहा है। अपनी नौकरी के शुरुआती बरसों में, सन सत्तर के दशक के पूर्वार्द्ध तक मैं चित्तौड़ में पदस्थापित रहा। उस ज़माने में चित्तौड़-भीलवाड़ा में कवि सम्मेलन खूब ही हुआ करते थे। बहुत बड़े-बड़े कवि सम्मेलन, दस-पंद्रह हज़ार की उपस्थिति और सारी-सारी रात चलने वाले। नीरज, काका हाथरसी, बालकवि बैरागी, सोम ठाकुर, संतोषानंद  आदि उन दिनों कवि सम्मेलनों के सुपरस्टार हुआ करते थे। अगर कोई कवि लालकिले पर आयोजित होने वाले कवि सम्मेलन में काव्य पाठ कर आता था तो जैसे उसके सुर्खाब के पर लग जाया करते थे।

तो हुआ यह कि किसी कवि सम्मेलन में नीरज जी हमारे शहर में आए। तब तक फ़िल्मों में भी वे काफ़ी कामयाब हो चुके थे और हर कवि सम्मेलन में उनसे 'मेरा नाम जोकर', 'शर्मीली', 'प्रेम पुजारी', 'छुपा रुस्तम' वगैरह के उनके लिखे लोकप्रिय गीतों को सुनाने की फरमाइश की जाती थी और वे भी खुशी-खुशी उन फरमाइशों को पूरा करते थे। ज़ाहिर है कि इस तरह की रचनाओं और कुछ और लोकप्रिय गीतों जैसे 'कारवाँ गुज़र गया' वगैरह में ही सारा समय बीत जाता और वे  नया कुछ तो कभी सुना ही नहीं पाते। मैं उनसे मिलने गया और बातों का सिलसिला कुछ ऐसा  चला कि मैं उनसे यह कह बैठा कि कवि सम्मेलनों में उनसे फ़िल्मी गाने सुनकर मुझे बहुत निराशा होती है। और भी काफ़ी कुछ कह दिया मैंने उनसे। उन्होंने बहुत धैर्य से मेरी बातें सुनी और फिर बड़ी शालीनता से मुझसे दो बातें कही। एक तो यह कि इन सब बातों से वे भी परिचित हैं, लेकिन यह उनकी मज़बूरी है कि जिन लोगों ने अच्छे-खासे पैसे देकर उन्हें बुलाया है, उन्हें वे खुश करें और दूसरी यह कि उनके पास भी अच्छी और नई कविताएँ हैं, लेकिन उन्हें सुनने वाले कहाँ हैं? इसके जवाब में मैंने उनसे कहा कि सुनने वाले तो हैं लेकिन उनके पास आपको देने के लिए बड़ी धन राशि नहीं है। नीरज जी ने कहा कि अगर सच्चे कविता सुनने वाले मिलें तो वे बिना पैसे लिए भी उन्हें अपनी कविताएँ सुनाने को तैयार हैं। उनके इस प्रस्ताव को मैंने तुरंत लपक लिया और उन्हें अपने कॉलेज में काव्यपाठ के लिए ले गया। विद्यार्थियों से मैंने कहा कि नीरज जी बिना एक भी पैसा लिए हमारे यहाँ केवल इसलिए आए हैं कि हम उनसे सिर्फ़ और सिर्फ़ कविताएँ सुनना चाहते हैं, इसलिए आप उनसे कोई फरमाइश न करें। जो वे सुनाना चाहें वह सब उन्हें सुनाने दें। 

आज मैं इस बात को याद करके चमत्कृत होता हूँ कि नीरज जी ने लगभग दो घंटे अपनी बेहतरीन कविताएँ सुनाईं, और मेरे विद्यार्थियों ने पूरी तल्लीनता और मुग्ध भाव से उन्हें सुना। इसके बाद मैंने ही नीरज जी से अनुरोध किया कि हमारे विद्यार्थियों ने इतने मन से आपको सुना है, अब अगर आप इनकी पसंद के दो-एक गीत भी सुना दें तो बहुत मेहरबानी होगी। नीरज जी की उदारता देखिए कि उन्होंने विद्यार्थियों की फ़रमाइश पर अपने सारे लोकप्रिय फ़िल्मी गीत भी एक-एक करके सुना दिए! लेकिन उस दिन मुझे महसूस हुआ कि 'छुपे रुस्तम हैं हम क़यामत की नज़र रखते हैं' और 'ओ मेरी शर्मीली'  जैसे गाने लिखने और सुनाने वाले नीरज के भीतर एक कवि उदास और इस इंतज़ार में बैठा है कि कोई आए और उससे कुछ सुनने की इच्छा ज़ाहिर करे!

- दुर्गाप्रसाद अग्रवाल की स्मृति से।


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शुक्रवार, 24 मार्च 2023

ममता कालिया

मैं भी ममता जी से जुड़ी एक याद साझा करना चाहती हूँ, जो शायद उन्हें याद भी न हो।

बात सन १९९८ के आसपास की है। कुछ समय पहले ही मैंने अपने विवाहित जीवन में प्रवेश किया था। इलाहाबाद में अपनी गृहस्थी की शुरुआत के लिए मकान की तलाश में हम ममता जी के घर की तरफ़ भी गए।
उन दिनों मुझे पढ़ने के महत्व, चयन या उसके व्यापक रूप की जानकारी के बगैर सिर्फ पढ़ने से प्रेम था।
प्रतिष्ठित अख़बार में कार्यरत मेरे पति 'शहर के विशिष्ट परिचय' पर एक शृंखला कर रहे थे, उन्होंने मुझे इस शानदार दंपत्ति से मिलवाया।

बहुत अफ़सोस के साथ इसे मेरी अज्ञानता ही कहूँगी कि इन दोनों के सुंदर व्यक्तिव से प्रभावित होते हुए भी मेरा सारा उत्साह सिर्फ इस बात पर था कि मेरी मम्मी ममता जी की छात्रा रही हैं। उनके लेखन, उनकी विशिष्टता, किसी भी बात को मैं एक प्रशंसक, पाठक या अमूल्य निधि पाने वाले व्यक्ति की तरह नहीं निभा पाई।

आज बार-बार लगता है कि उस समय को जाकर पकड़ लाऊँ और पूरी तरह से अपने लिए जी लूँ, जब मेरे सामने हँसते-मुस्कुराते हुए रवींद्र जी और उनकी ढेर सारी बातें थीं।

उनके स्नेह में भीगी ममता जी की वह दृष्टि और भाव मुझे अभी तक याद हैं जब उन्होंने रविंद्र जी के लेखन की तारीफ़ करते हुए कहा था कि ये इतना अद्भुत लिख कर भी उसे जिस सरलता में छुपा लेते हैं, उसके लिए शिकायत करूँ या सराहना पता नहीं।

मेरे कहने पर भी ममता जी ने बिना मेरी मदद लिए ज़िंदगी के भरपूर स्वाद से भरी चाय तो पिलाई ही, साथ ही हमारी नई ज़िंदगी की समझ के लिए दोनों ने मिलकर अपने बहुत सारे खट्टे-मीठे अनुभव और सीख बाँटी।
खिलखिलाते हुए उन कुछ घंटो की सभी बातें तो नहीं याद है लेकिन उन दोनों के स्नेह की उस छाप को मैं कभी भुला नहीं पाई हूँ।



- अर्चना उपाध्याय की स्मृति से।

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हरिशंकर परसाई जी के साथ

मैं होम साइंस कॉलेज जबलपुर में पढ़ती थी। शनिवार को मेरे लोकल गार्जियन बुआ के बेटे मुझे लिवाने आ जाते थे। वहीं दो घर छोड़कर नेपियर टाउन में बाबूजी किराए के मकान में रहते थे। वे अख़बार में लिखते थे। उन दिनों फिल्म फे़यर में अँग्रेज़ी में I.S. Johar (बॉलीवुड एक्टर और मेरे मामा) का question box और हिंदी समाचार पत्र "देशबंधु" में पाठकों के प्रश्नों के उत्तर देते थे परसाई जी! इन दोनों का ही मुझे और मेरी सहेलियों को या कहो, लोगों को भी बेसब्री से इंतजार रहता था।

मैं जब भी बाबूजी को मिलने जाती तो वे तख़्त पर बाहर बरामदे में लेटे होते थे, सीधे-साधे से कुर्ता पजामा पहने हुए। मेरे कॉलेज के हाल-चाल पूछते तो मैं उन्हें बहुत उत्साह से सब सुनाती थी। उसके बाद उठते और कहते चलो भीतर नाश्ता करते हैं।

कभी-कभार वे जनसाधारण की रुचि की ऐसी तीखी बातें करते कि मुझे लगता, ये quick witty हैं। व्यंग्य लेखन से मैं अपरिचित थी, लेकिन रीडर्स डायजेस्ट पढ़ने के कारण, satire समझती थी। एक बार मालूम हुआ कि उनके व्यंग्य से जल-भुनकर कुछ लोगों ने उनकी पिटाई कर दी थी। वे कहने लगे, "मतलब साफ़ है कि मेरा लिखा बढ़िया सार्थक रहा!" चोटें लगी, उसकी कोई परवाह नहीं थी। आत्मसंतुष्टि थी उन्हें। वे कहा करते थे जो जीवन के मूल्य हैं वही साहित्य के मूल्य भी हैं। साहित्य का सृजन जीवन से ही होता है इसीलिए स्पष्ट कथन और स्वाभाविक ओज के बिना साहित्य अपनी सार्थकता खो देता है। तभी तो अपने तीखे व्यंग्य से उन्होंने आम जनता के शत्रुओं को खू़ब घायल किया था। शादी के बाद भी जब कभी बुआ के घर जाती तो उनसे मिलने पहुँच जाती थी। तब तक मेरे बाबूजी विख़्यात हो चुके थे। लेकिन मैं अभी साहित्य की ओर नहीं मुड़ी थी। मेरा लेखन मेरी डायरियों तक सीमित था। मैं नाटक व नृत्य में अभिरुचि रखती थी। उस ज़माने में फोटो तो नहीं खींचे जाते थे लेकिन स्मृतियाँ मस्तिष्क में घर कर जाती थीं, जो आज तक बनी हुई हैं।

- डॉ० वीणा विज 'उदित' की स्मृति से।

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स्व० विष्णु प्रभाकर

स्व० विष्णु प्रभाकर जी का पत्र आज पुराने रिकॉर्ड से प्राप्त हुआ। जब कभी उनके साथ पत्राचार होता था तो वे हमें पत्र द्वारा प्रोत्साहित करते थे। 

हिंदी के महान लेखक स्व० विष्णु प्रभाकर जी से पत्र व्यवहार होता था। हिंदीतर नव लेखक होने के नाते हिंदी भाषा प्रचार-प्रसार के बारे में उनसे हमेशा मार्गदर्शन मिलता था। सामान्य पाठक के साथ आत्मीय रिश्ता बनाकर रखते थे। आश्चर्य होता था कि किस तरह अपने व्यस्त कार्यक्रम से समय निकालकर पत्र लिखते थे! 

स्व० विष्णु प्रभाकर जी का पत्र
















- विजय नगरकर की स्मृति से।

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गुरुवार, 23 मार्च 2023

ममता कालिया - पहाड़ की छांह में

प्रिय लेखिका से फिर मिलना
वह भी एक पत्र के बहाने!

ममता कालिया अचानक मेरी प्रिय लेखिका नहीं बन गईं। उनका उपन्यास 'बेघर' पढ़ने के बाद एक लंबा अंतराल रहा। जब मैं हिंदी पढ़ाने विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में हंगरी के विख्यात ऐलते विश्वविद्यालय के भारत अध्ययन विभाग में पहुँची, तब मेरे कक्ष की अलमारी में ममता कालिया बहुविध बिराजी हुई थीं। मैं एक सिरे से उन्हें पढ़ती चली गई, उनके लेखकीय व्यक्तित्व से गहरे जुड़ती चली गई, इतना कि विभाग के इकलौते एम०ए० हिंदी के छात्र पीटर को सुझाया कि शोध के लिए ममता कालिया के कथा साहित्य पर विचार करो, उन्हें पढ़ने के बाद। 
 
ठीक याद है कि 'बेघर' पढ़ने के बाद एक पत्र मैंने ममता जी को लिखा था - एक पाठक का प्रशंसा पत्र...। जो उनकी बेशुमार फैन मेल में से एक रहा होगा।
लेकिन मेरे लिए, उस पत्र का उत्तर एक अकेला ही रहा।
नहीं मालूम था कि आने वाले समय में ममता जी से साक्षात्कार होगा, कई रूपों में कई बार मिलना होगा और उनकी कृतियों से जी भरकर प्यार होगा...। इतना कि बहुतों से ललक कर कहूँ - ममता कालिया को पढ़ना! तुम्हें अच्छा लगेगा।

आज ममता जी का वह पत्र साझा कर रही हूँ, जिसने पुख़्ता किया कि ममता जी नहीं बदली! वही हैं, मस्त मगन अल्हड़ मुक्त और बेहतरीन स्मरण शक्ति की मालकिन!

पत्र के अंत में वे लिखती हैं कि आप पढ़ती रहें तो लिखने में क्या है हम लिखते रहेंगे!
और वे लिख रही हैं तब से अब तक   ...अनवरत!

शुभकामनाएँ अनंत प्रिय लेखिका!!

ममता कालिया का पत्र पाठक विजया सती को (पृ० १)
(पृ० २)



















प्रिय विजया, 
आपका पत्र कई स्तरों पर आल्हादित कर गया। इतनी जिज्ञासा कि मेरी रचनाएँ ढूँढ-ढूँढकर पढ़ी, मुझे अभिभूत कर गई। दूसरी बात, आप मेरे पुराने व प्रिय कॉलेज से जुड़ी हैं। १९६१-६३ में जब हिंदू कॉलेज में मैं एम०ए० की छात्रा थी, महिला लेक्चरर्स नहीं रखी जाती थीं। इतनी प्रगति प्राप्त की कॉलेज ने। आँखों के आगे कॉलेज के गलियारे, कैंटीन, क्लासरूम सब घूम गए। पता नहीं मेरे विभाग के प्रोफ़ेसर वहीं हैं कि बदल गए, प्रोफ़ेसर कँवर, सूद, देसाई, रैना, बहुत कुछ याद गया आपके पत्र से।
आप पढ़ती रहें तो लिखने में क्या है, हम लिखते रहेंगे।

ममता कालिया
१७-१०-७९

- विजया सती की स्मृति से।

ममता कालिया इस समृति पर कहती हैं,

"प्रिय विजया सती, इतने अरसे में पत्ते पेड़ से झड़ जाते हैं पर आपने मेरे पत्र का पन्ना संभाल कर रखा। आप नहीं जानती कि कितना जीवन सिंचन कर दिया आपने मेरे अंदर। कोई दूर बैठा हमें पढ़ रहा है, यह एक विरल, विलक्षण प्रेम अनुभूति है।"

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गुरुवार, 16 मार्च 2023

चित्रा मुद्गल - एक स्नेहमयी विदुषी...!

इस सोच में हैं कि सुप्रसिद्ध साहित्यकारा सुश्री चित्रा मुद्गल के व्यक्तित्व को किस दृष्टिकोण से प्रस्तुत करें, 
एक नौ साल की बच्ची की दृष्टि से, जो पहली भेंट में ही उस विदुषी महिला को अपलक देखती रह गई थी। वह कौनसा आकर्षण था, जिसने उसे प्रथम दृष्टि से ही बाँध लिया लिया था! या उस युवती के दृष्टिकोण से जिसने उन्हें बहुत ही करीब से देखा, उनके सुख-दुख में उनके साथ रही, उनकी खूबियों से बहुत कुछ सीखा! देखा कि वास्तव में फलों से लदे पेड़, झुके होते हैं, यह केवल उक्ति नहीं है। 

आदरणीया चित्रा जी भी ऐसा ही एक वृक्ष हैं, जो सब पर अपनी ममता खुलकर बाँटती हैं। उनके घर से कभी कोई व्यक्ति भूखा नहीं गया। तब भी, जब महीने की पंद्रह तारीख के बाद सामान चुकने लगता था; तब भी जब घर में समृद्धि थी।

बचपन की ओर ही चलते हैं। बचपन, जीवन का वह अविस्मरणीय दौर होता है, जब दुनिया बहुत खूबसूरत लगती है। जब चिंताएँ नहीं होती, जब गुल्लक-भर खुशियाँ होती हैं, जेब-भर दोस्त, और अंजुरी-भर सहेलियाँ। सारी शैतानियों में बराबर की साझेदार। फिर चाहे वह छत पर पढ़ाई के बहाने जाकर सूखने के लिए रखी इमली चुराकर खाना हो, या फिर पड़ोस के दीदी और भैया लोगों के आँख मटकके के चर्चे चटखारे ले एक दूसरे को सुनाना हो। इस उम्र में दोस्त ही जीवन की धुरी होते हैं। 

ऐसे में जब अचानक एक दिन वे सारे बचपन के दोस्त, सहेलियाँ छिन जाएँ, तो कभी सोचा है, 'उस' बच्ची पर क्या बीतेगी? 'उसके' बड़ों ने भी नहीं सोचा, बस एक दिन फ़रमान सुना दिया, कि अब हम लोग यहाँ नहीं रहेंगे। हम लोग बांद्रा शिफ्ट हो रहे हैं। 'उसे' लगा जैसे सारी खुशियाँ किसी ने एक झटके में छीन लीं। नया स्कूल, अजनबी दोस्त, सब कुछ पराया। रह-रहकर पुराने घर की, दोस्तों की, मस्तियों की याद आती और मायूसी छा जाती, जो उसके पिता से छिपी न थी। ऐसे में एक दिन उन्होंने कहा चलो तुम्हें एक आंटी से मिलाएँ, तो 'वह' बेमन से अपना दुख ढोकर चल दी। घर से कोई पाँच-दस मिनट की दूरी पर पत्रकार नगर था, जहाँ सभी पत्रकार रहा करते थे। वहीं नीचे गेट पर कुछ लोग खड़े थे। कुछ देर बातें होती रहीं। फिर अचानक जैसे पिताजी को कुछ याद आया, उन्होंने मिलवाया, ये हैं चित्रा आंटी। वही तो थीं, जिन्हें वह बड़ी देर से सम्मोहित-सी, ताक रही थी। वे उसे देखकर मुस्कुरा दीं। वह अचानक झेंप गई जैसे कोई चोरी पकड़ी गई हो। झेंप से उबरकर उसने नमस्ते किया और उन्होंने प्यार से उसके गाल पर हाथ फेरा। उसी क्षण उस विदुषी मुस्कुराहट ने, उन खूबसूरत आँखों ने, उस स्नेहिल स्पर्श की ऊष्मा ने 'उसे' एक कभी न टूटने वाले पाश में बाँध लिया। 
"बहुत प्यारी बिटिया है। क्या नाम है बेटा?"
"सरस", उसने झिझकते हुए कहा। 
"घर आना। कुमार दा, इसे अपने साथ ज़रूर लाइएगा। आना बेटा", कहकर वे सभी चले गए। 

यह थी उस बच्ची की उनसे पहली मुलाकात। 'वह' अपना दुख भूल गई। घर लौटते हुए उसके पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। 

इस बात को करीब ५२ वर्ष बीत चुके होंगें। पर स्मृतियों की तो कोई उम्र नहीं होती। आज भी ऐसे याद है जैसे कल ही की घटना हो। एक चुंबकीय आकर्षण था उनके व्यक्तित्व में। उनसे बार-बार मिलने को जी करता। और हर बार वे उतने ही स्नेह, उतने ही अपनेपन से मिलतीं। उनके इसी अपनेपन ने उस ग्यारह-बारह साल की बच्ची के मन का ख़ालीपन भर दिया। पुरानी यादें धूमिल होने लगीं, दोस्तों की कमी भी अब नहीं खलती थी। चित्रा आंटी का सम्मोहन समय के साथ बढ़ता गया और दोनों परिवारों में घनिष्ठता भी। 

फिर एक दिन 'उसने' एक कविता लिखी और उन्हें पढ़ाई। उसे आज भी याद है वह दिन। दिल धुकपुका रहा था। उन्होंने पढ़ी, बार-बार पढ़ी और चौंककर उसकी तरफ़ देखा। "अरे सरस, बहुत बढ़िया लिखा है, लिखा करो।" उस दिन भीतर कहीं आत्मविश्वास का पहला अंकुर फूटा और धीरे-धीरे उनके लगातार प्रोत्साहन से उसकी जड़ें और मजबूत होतीं गईं।

समय बीतता गया। उम्र के साथ घनिष्ठता भी बढ़ती गई। अब वे दोनों दोस्त थे। हर छोटी-बड़ी समस्या का समाधान दोनों मिलकर खोजते। उन्हीं दिनों वह कुछ कठिन परिस्थितियों से गुज़र रही थीं। वह एक मुश्किल दौर था। उन्होंने अनुवाद करना शुरू कर दिया। उसके रहते बहुत व्यस्त रहतीं। फिर फ्री-लांसिंग शुरू की। उन दिनों टाइम्स ऑफ इंडिया पब्लिकेशन से माधुरी नाम से एक फिल्मी पत्रिका छपा करती थी। उसमें वे एक नियमित कॉलोमिस्ट थीं। उसमें उनके द्वारा लिए फिल्मी हस्तियों के साक्षात्कार नियमित छपा करते। उन्हें अकेले जाने में संकोच होता और बोरियत भी। तो 'उसे' भी साथ ले जातीं। महीने में दो बार उन्हें इंटरव्यू के लिए जाना होता। उसी दौरान कुछ मीठे, कुछ कड़वे अनुभव हुए। अच्छे अनुभव तो जहाँ चेहरे पर एक स्मितहास बिखेर देते, वहीं कड़वे अनुभव एक कसैलापन छोड़ जाते। कई बार बुलाकर भी लोग कहला देते, कह दो घर पर नहीं है। परीक्षित साहनी ने ऐसा ही किया। उसने समय तै किया और जब जुहू पहुँचकर उसके घर फोन किया कि हम पहुँच गए हैं, तो उसने कहला दिया घर पर नहीं हैं। वे दोनों बिल्डिंग के नीचे भुन्नाए हुए खड़े थे कि उसकी गाड़ी तेज़ी से सामने से निकल गई। वह क्षण उनके लिए बहुत भारी था, पीड़ा दायक था। इंटरव्यू न हुआ तो लेख तैयार नहीं हो पाएगा। और लेख नहीं तो मेहनताना नहीं। किराए के पैसे जो खर्च हुए सो अलग, समय का भी इतना नुकसान। समय जो बहुत ज़रूरी था उस वक़्त। देर रात तक लिखा करतीं, अनुवाद किया करतीं। कई बार पूरा-पूरा उपन्यास, सिर्फ इसीलिए दोबारा लिखना पड़ा क्योंकि लेखक की शिकायत थी कि "यह हमारी शैली नहीं है। आपने तो हमारा पूरा स्टाइल ही बदल दिया। इसे दोबारा लिखिए।" ऐसे में उनपर क्या गुज़रती होगी, इसका सिर्फ़ अनुमान ही लगाया जा सकता था। महीनों का परिश्रम मिट्टी में मिल जाता। खून का घूँट पीकर रह जातीं, पर कोई चारा भी नहीं था। फिर पूरा उपन्यास लेकर बैठ जातीं। 

यह उनके जीवन का वह कठिन समय था, जब कोई औसत व्यक्ति हार मान जाता, पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। कमर कसकर जूझती रहीं। दोनों बच्चे छोटे थे, रात-दिन कड़ी मेहनत कर उन्होंने उस तूफ़ान को भी मात दे दी।
'वह' उस पूरे दौर की गवाह रही। मुफ़लिसी के दिनों में भी आंटी के हाथ का खाना बहुत अच्छा लगता। बगैर छुंकी अरहर की दाल, रोटी और लहसुन और हरी मिर्च की चटनी। 'वह' कॉलेज से लौटते हुए सीधे उनके घर जाती, आंटी बगैर पूछे ही खाना परोस देतीं। उस खाने का स्वाद कभी नहीं भूला। उनके स्नेह के स्वाद से भरपूर... ! वह कहा करतीं, "महीने के शुरू के पंद्रह दिन जब राशन भरा रहता हैं, हम अपना शौक पूरा कर लेते हैं, बाकी पंद्रह दिन आशा को माथा-पच्ची करनी पड़ती हैं। कभी तेल खत्म, तो कभी मसाले। बेचारी झेलती है, उसी के बस का है, हम तो फिर चौके में झाँकते भी नहीं", कहकर खिलखिलाकर हँस पड़तीं। वह हँसी उस वेदना को ढाँप देती, जिससे वे हर दिन, हर पल गुज़र रही थीं। शायद यह ज़िंदादिली ही उनकी ताक़त थी। आम तौर पर जिन परिस्थितियों में लोग सेल्फ पिटी, और दुखों में सराबोर रहते हैं, वहाँ हँसकर उन बातों को उड़ा देना, उनमें भी खुश रहने के बहाने खोज लेना, अपनी वेदना को निजी रखना ही उनका संबल था। 

उनकी खूबियों की फेहरिस्त तो बहुत लंबी है। रिश्तों का उनके जीवन में सदा ही विशेष महत्व रहा है। उन्होंने रिश्तों का सदा मान रखा, जीवनभर उन्हें निभाया और आज भी निभा रही हैं। बचपन से ही उनके घर एक लड़की रहा करती थी, आशा। उसकी माँ उनके मायके में काम किया करती थी। उसी ने कहा था, "ताई, इसे अपने पास रख लो, ज़िंदगी सुधर जाएगी इसकी, वहाँ झोपड़-पट्टी में नहीं रखना चाहती उसे।" आंटी ने उसे रख लिया। धीरे-धीरे आशा बड़ी होती गई, काम सीखती गई। एक समय आया, जब उसने पूरा घर संभाल लिया। खाना बनाना, बच्चों का टिफ़िन बनाना, उन्हें नाश्ता करवाकर स्कूल भेजना, सारे काम करती। वे बस अपने लेखन में व्यस्त रहतीं। आशा थी, तो वे निश्चिंत थीं। वे साक्षात्कार करतीं रहीं, अनुवाद करती रहीं, इस बीच उनका अपना लेखन भी जारी रहा। 

परिस्थितियाँ सुधर रहीं थीं। समय बीत रहा था। जब आशा विवाह योग्य हुई, तो उन्हें उसकी चिंता सताने लगी। आशा उनका दाहिना हाथ थी, उसके जाने से उन्हें सबसे ज़्यादा असुविधा होती, उनके लेखन पर भी असर पड़ता। कोई और उनकी जगह होता तो अपने स्वार्थ की सोचता, पर वे यहीं तो सबसे अलग थीं। उन्हें आशा के भविष्य की चिंता थी। सबने कहा, उसके जाने से तुम्हें बहुत असुविधा हो जाएगी। उनका एक ही उत्तर था। "जो होगा देखा जाएगा, अपनी ज़रूरत के पीछे, उसे बिठाए रखेंगे क्या।" उन्होंने किसी की एक न सुनी, और वे ज़ोर-शोर से उसके विवाह की तैयारियों में लग गईं।

नंदन जी के यहाँ कार्यरत एक घरेलू नौकर से उसका विवाह तै हो गया। बहुत ही धूमधाम से उन्होंने उसका विवाह किया। अपनी तरफ़ से व्यवहार में कोई कोर कसर नहीं छोडी। कोई कह नहीं सकता था, कि एक नौकरानी की शादी हो रही है। पर जो उन्हें जानते थे, उनके लिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। बारात का भव्य स्वागत हुआ। पूरी कॉलोनी, सभी परिचितों को न्योता गया। वे पूरी तरह विवाह में लिप्त रहीं। जब विदाई की बेला आई तो उनका दिल हौलने लगा। विदा होकर आशा को दिल्ली जाना था। उसे विदा करने सब स्टेशन गए थे। आशा गाड़ी में बैठ चुकी थी। उनका रो-रोकर बुरा हाल था। ट्रेन चली तो वे खिड़की की रेलिंग पकड़कर साथ-साथ चलने लगीं।ज़बरदस्ती उनका हाथ छुड़ाया गया। उस दिन उन्हें बड़ी मुश्किल से सबने संभाला था। उनका हाल देखकर सभी चिंतित थे, कैसे संभलेंगी वे? कई दिन लग गए थे उन्हें उबरने में।  

उसके पश्चात उसका(सरस का) विवाह हो गया। चित्रा आंटी भी अपना पत्रकार कॉलोनी का घर बेचकर दिल्ली शिफ्ट हो गईं। मिलना ही नहीं हो पाता। फोन की भी इतनी सुविधा न थी। फिर एक बार किसी काम से दिल्ली जाना हुआ। चित्रा आंटी के घर ही ठहरना हुआ। उस दिन उनके घर कुछ मेहमान आए थे। पता चला आशा के ससुर और पतिदेव थे। वे बड़ी तन्मयता से उनकी आवभगत में लगी थी। खुद खड़े होकर खाना बनाया था और बहुत आग्रह से खिला रही थीं। उनकी पूरी खातिर करने के बाद, जाते-जाते सास के लिए साड़ी, बच्चों और आशा के लिए कपड़े दिए। जब वे चलने लगे तो आंटी ने दोनों के पैर छूए। यह सब देखकर 'वह' अवाक रह गई। उसने पूछा, यह क्यों आंटी? बोलीं, "अरे भाई, बेटी ब्याही है उस घर में। रिश्तों का मान नहीं रखेंगे..!"

यह सिर्फ़ चित्रा आंटी ही कर सकती थीं। उस दिन उनके जीवन में रिश्तों की अहमियत को 'उसने' जाना। उनके व्यक्तिव की भव्यता को पहचाना। उनकी सदाशयता के आगे वह नत-मस्तक हो गई।  

जब वह मुंबई में फ्री लांसिंग करतीं थीं, तब कई बार बड़े कटु अनुभव हुए थे। उसने खुद देखा था, जब आंटी को किसी से काम होता तो वह घंटों अपने ऑफिस में बिठाए रखता। इस पर भी कई बार काम हो पाता, कभी नहीं भी। पर जैसे ही वे प्रसार भारती की एक महत्वपूर्ण पोस्ट पर आसीन हुईं, वही लोग दिल्ली जा-जाकर उनके आगे-पीछे घूमने लगे। वही लोग अब बहुमूल्य उपहार लाकर, अपना काम निकालने की कोशिश करते। वे व्यस्त होतीं, तो घंटों प्रतीक्षा करते। ऐसे में कोई और होता तो अपनी इस पोज़ीशन का पूरा लाभ उठाता। पर उन्होंने ऐसा कभी नहीं किया। लोग अपना काम करवाने के एवज में उनके लिए बहुमूल्य उपहार लाते, पर उनका यह उसूल था कि किसी भी किस्म की भेंट किसी से नहीं लेनी है। लोग उनके पास पहुँचते और वे बहुत ही शालीनता से उन उपहारों को यह कहकर लौटा देतीं, कि "योग्यता उपहारों की मोहताज नहीं। आपके पक्ष में आपकी कृति स्वयम बोलेगी। आप डिज़र्व करते हैं, तो आपका काम ऐसे ही हो जाएगा। कृपया इस तरह की भेंट आगे से मत लाइएगा। सादर लौटा दी जाऐंगी।"

उनका यह रूप देख, उनके लिए श्रद्धा और बढ़ जाती। उन्होंने अपने बच्चों, अपने पोते-पोतियों को भी यही संस्कार दिए।

जब तक वे मुंबई में थीं, हमने जीवन के अनगिनत वर्ष उनके सानिध्य में बिताए। न जाने कितने संस्मरण उनसे जुड़े हैं। होली-दिवाली का तो बड़ी बेसबरी से इंतज़ार रहता। होली पर माँ, कांजी और दही-बड़े बनातीं। पत्रकार के पास साहित्य सहवास था, जहाँ कई साहित्यकार रहते थे। सबकी टोलियाँ आतीं। चित्रा आंटी, अवध अंकल, मनमोहन सरल जी, डॉ० धरमवीर भारती जी, पुष्पा जी, और भी कई लोग आया करते। खूब रंग होता, फिर सब बगिया में बैठते, गाना-बजाना होता, फाग गाया जाता, जैंट्स बीयर पीतें और लेडिज़ कांजी का लुत्फ उठातीं।

दिवाली पर अवध अंकल और चित्रा आंटी घर की पूजा निबटाकर आ जाते। उस दौरान अवध अंकल, सारिका के उप-संपादक थे, तो टाइम्स ऑफ इंडिया में कार्यरत कई पत्रकारों का आना-जाना था। कभी-कभी वे भी दिवाली पर आ जाते। ताश भी होता। चित्रा आंटी को तीन पत्ती बिलकुल नहीं आती थी। हर साल उन्हें ज़बरदस्ती बैठाया जाता और खेल शुरू होने से पहले उन्हें पंद्रह मिनिट तक खेल के नियम समझाए जाते। जब खेलने बैठतीं, और अगर अच्छे पत्ते आ जाते, तो उनसे अपनी खुशी छिपाए न छिपती, सब जान जाते इस बार तो बढ़िया हाथ है। बस मुसकुराती रहतीं। आधे लोग तो ऐसे ही फेंक जाते। एक दिन लगातार जीत रहीं थीं। पत्ते फिर बटें। छूटते ही उन्होंने चाल चल दी। जब वह तीन-चार चालें चल गईं तो सभी की हिम्मत जवाब दे गई। "लगता है, बहुत ही ज़ोरदार पत्ते हैं। वह खेल रहीं हैं, तो पैक हो जाओ भाई।" जवाब में वे हर बार बस मुस्कुरा देतीं। धीरे-धीरे सब पत्ते फेंक गए। हमने आंटी के पत्ते देखे, दुक्की का पेअर लेकर खेल रहीं थीं। और लोग बड़े बड़े पत्ते फेंक गए थे। सबने माथा पीट लिया। उस दिन अपनी रेपुटेशन की वजह से वे जीत गईं। लेकिन ताश खेलने से अधिक उन्हें बैठकर खेल देखने में मज़ा आता था। 

चित्रा आंटी से जुड़ी न जाने कितनी बातें हैं। उनके घर लोगों का जमावड़ा लगा रहता। और जो कोई आता, बिना भोजन किए नहीं जाता। उन हालातों में कितना मुश्किल रहा होगा उनके लिए, पर उनके चेहरे पर शिकन...!
कभी नहीं...!  

सन २००० में, जब हमारी माँ का देहांत हुआ तब वे उन्हीं के घर ठहरी हुईं थीं। मम्मी उनकी समधन थीं, पर चित्रा आंटी ने उन्हें हमेशा बड़ी बहन का दर्जा दिया और आखिर तक निभाया। मम्मी के देहावसान की खबर सुनकर, हमारा पूरा ददिहाल और ननिहाल वहाँ पहुँचा हुआ था। घर रिशतेदारों से भरा पड़ा था। मम्मी को ले जाने का समय हो रहा था। जब घाट पर जाने की बात हुई, तो चित्रा आंटी बोलीं "हम तो घाट पर जाऐंगे। जीजी के साथ सारी उम्र रहे अब उनकी अंतिम यात्रा में भी हम उनके साथ रहेंगे।" रिश्तेदारों के बीच खुसुर-पुसुर शुरू हो गई, कि औरतें घाट पर नहीं जातीं। कुछ बुज़ुर्गों ने कहा भी कि घर की स्त्रियाँ घाट पर नहीं जातीं। पर वे अपने निश्चय पर अटल थीं। उन्होंने कहा, "हम तो जा रहे हैं, हमारे साथ जो चलना चाहे चले।" अंततः चित्रा आंटी, हमारी भाभी, छोटी बहन शैली जो उनकी बहू है, और हम मम्मी की अंतिम यात्रा में उनके साथ थे। ढकोसलों से उन्हें हरदम से सख्त चिढ़ रही है। उन्होंने सदा अपने मन की सुनी और की। उनके अपने नियम, अपनी सोच, अपनी इच्छाशक्ति है, वे वही करतीं हैं जो उन्हें सही लगता है। और वे जब कुछ ठान लें तो उन्हें अपने निश्चय से डिगा पाना संभव नहीं। घाट पर जाने के पहले, उनको यह भी चिंता थी, कि वहाँ से लौटकर जो रिश्तेदार घर पर रुके हैं, उनके खाने का इंतजाम करना होगा। घर में चूल्हा नहीं जलना था। उनकी भांजी रंजू ने, जिसे ९ महीने का गर्भ था, अपने घर से इतने लोगों का खाना बनवाकर भेजा। सबने खाया। उनमें एक-दो ऐसे भी रिश्तेदार थे जिन्होंने सब्जी में मीन-मेख निकालकर खाना प्लेट में छोड़ दिया। आंटी को बहुत बुरा लगा पर चुप रहीं। सब के खाने के बाद बची खुची सब्जी से उन्होंने भोजन किया, पर इस बात की उनके चेहरे पर कोई शिकन न थी। बस जीजी का अंतिम कार्य, ठीक से हो गया, इस बात से तृप्त थीं। उनका यह रूप देखकर लगा कहाँ छिपा रखी है उन्होंने इतनी सहनशीलता। मन में उनके लिए इज्ज़त और भी बढ़ गई थी।

दिल्ली विश्व पुस्तक मेला में पहली बार उन्हीं के साथ जाना हुआ। वहाँ उनका वैभव और लोकप्रियता देखकर बहुत खुशी हुई। लोग उन्हें हाथों-हाथ ले रहे थे। इत्तिफाक़ से उन्हें जिस काव्य-संग्रह का लोकार्पण करना था, उसमें हमारी भी कुछ कविताएँ संग्रहीत थीं। अद्भुत अनुभव था वह। जैसे ही लोगों को खबर हुई  कि वे आई हैं, उन्हें सबने घेर लिया। हर तरफ़ से खींचा-तानी मची हुई थी। सबमें होड़ लगी थी, कि उनकी किताब का लोकार्पण वे करें। हर कोई चाह रहा था, कि वे उनके स्टॉल पर आएँ। उनका व्यक्तित्व है ही ऐसा। नवोदित पीढ़ी में तो वे अत्यधिक लोकप्रिय हैं। युवा रचनाकार अक्सर यह शिकायत करते हैं  कि बड़े साहित्यकार नए लेखकों को नहीं सेठते। उनकी कृतियों को यह कहकर एक सिरे से खारिज कर देते हैं कि अभी तुम्हें लिखना नहीं आता, पहले बड़े लेखकों को पढ़ो, तब कुछ लिख पाओगे। पर चित्राजी, उन्हें हमेशा प्रोत्साहित करती हैं। वे साधारण से साधारण व्यक्ति में भी कोई न कोई गुण खोजकर उसकी इतनी प्रशंसा करती हैं, कि वह व्यक्ति अपनी ही नजर में और ऊँचा उठ जाता है। अपने व्यक्तित्व के आगे दूसरे की लकीर को बड़ा बनाना उनके स्वभाव की विशिष्टता है। इसलिए जो कोई भी उनसे एक बार मिल लेता है, पुनः पुनः मिलने को लालायित रहता है। उस दिन पुस्तक मेला में दिनभर उनके साथ रहने पर हमने जाना कि लोग उन्हें कितना चाहते हैं...! एक अद्भुत अनुभव था वह। न जाने कितने छात्र उनपर पीएचडी कर रहे थे। हर छात्र से उतनी ही आत्मीयता से मिलतीं रहीं। कोई उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं। सतत घिरी हुई, थककर चूर होतीं हुईं, फिर मुस्कुराकर सबका मन रखतीं हुईं। 

अभी पिछले माह, जब वे कोरोना से ग्रस्त हो एम्स में भरती थीं, तो सोश्ल नेटवर्किंग साइट्स पर सभी उनकी सलामती की दुआ माँग रहे थे, उनके लिए प्रार्थना कर रहे थे। जब वे स्वस्थ होकर लौटीं, तो बधाइयों की जैसे बाढ़ आ गई। शैली बताया करती कि "दीदी, दिनभर फोन आते हैं, उन्हें आराम की ज़रूरत है, पर वह किसी को मायूस भी नहीं करना चाहतीं, कहतीं हैं, लोगों को चिंता है,तभी तो फोन करते हैं, एक मिनट बात कर लेते हैं। और फिर थक कर निढाल हो जाती हैं।" 

मना न कर पाने की उनकी आदत अब उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही है। अभी भी देश-विदेश के कार्यक्रमों में उन्हें आमंत्रित किया जाता है और वह हिम्मत जुटाकर पहुँचने का प्रयास करतीं हैं। फिर वही बात, "इतने आत्मीय मनुहारों को मना कैसे करें।" उनकी इस हिम्मत के सब कायल हैं।

सन २०१५ में अवध अंकल के निधन के बाद, जीवन के खालीपन को उन्होंने अपने लेखन से पूरा किया है। सन २०१८ का साहित्य अकादमी सम्मान उन्हें अपने उपन्यास पोस्ट बॉक्स न० २०३ नालासोपारा के लिए प्राप्त हुआ। उन्होंने लेखन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को कायम रखा है। कोविड के बाद वे काफ़ी अशक्त हो गई हैं, पर अपने उपन्यास नकटौरा के समापन की ओर प्रतिबद्ध रहीं और कमजोरी के बावजूद उसे पूरा किया। कुछ रोज़ पहले उनसे फोन पर बात हो रही थी, "बोलीं बताओ ७९ साल की आयु में सिर्फ ६० ही किताबें लिखीं हैं। जल्दी-जल्दी लिखना चाहती हूँ, पता नहीं कब बुलावा आ जाए," कहकर हँस दीं।

उनका यही स्वभाव, उनकी उपलब्धियाँ सदा प्रेरित करतीं रही है, करती रहेंगी। उनकी यह जीवटता सदा बनी रहे ईश्वर से यही प्रार्थना है।

- सरस दरबारी की स्मृति से।

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