बिंदु-बिंदु जोड़कर जिन्होंने समूचा आकाश रच डाला l ऐसे भवानी दादा अर्थात भवानीप्रसाद मिश्र को वर्षों पहले मैंने दिल्ली के लाल किले के कवि मंच पर पहली बार कविता पाठ करते हुए सुना था l वे कह रहे थे :
न, निरापद कोई नहीं है
न मैं, न तुम, न वे
कोई है, कोई है, कोई है
जिसकी जिन्दगी दूध की धोई है
मंच से उठते स्वर लाल किले की बुलंदियों से टकराते हुए, ऊपर और ऊपर उठते हुए आकाश के विस्तार में समाते जा रहे थे l सचमुच, कौन कह सकता है दावे से, कि उसकी जिन्दगी दूध की धोई है l अपने ‘गीतफरोश’ होने का ऐलान उन्होंने भले ही कितने ही जोर-शोर से किया हो, पर सच तो यह है कि भवानी दादा कविता बेचते नहीं, लुटाते थे l जिस किसी ने भी मांग की, दो शब्द एक पोस्टकार्ड पर लिखकर भेज दिए और वही कविता होती थी l आधी सदी से भी अधिक समय तक निरंतर चलती रही उनकी काव्य-यात्रा l कितनी कविताएँ लिखीं, इसका भान उन्हें भी नहीं था l आपातकाल में तो हर दिन तीन कविताएँ लिखने का उन्होंने अपना नियम बना लिया था l
अक्सर मुझसे कहते थे, “इसको मैंने अनुष्ठान के रूप में लिया है – यह मेरी आत्मा का विरोध है आपातकाल के लिए l” बाद में, इनमे से कुछ कविताएँ ‘त्रिकाल संध्या’ नामक, संग्रह के रूप में प्रकाशित हुई l
एक बार मैंने ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के लिए उनसे एक कविता की मांग की l कई दिन हो गए, स्वीकार करने के बावजूद कविता नहीं आई l मैंने दोबारा फोन किया तो बोले, “शीला बहन, बस, एक शब्द पर अटक गया हूं l जैसे ही मिलेगा, कविता पूरी करके भेज दूंगा l”
भवानी दादा ठीक शब्द की तलाश में उसी तरह बेचैन रहते, जैसे किसी लापता बच्चे की तलाश में उसके माता-पिता रहते हैं l किंतु, ऐसा अवसर बहुत कम आता था l अन्यथा, सही शब्द तो उनकी कविता में क्रमबद्ध रूप से कतार-दर-कतार उतरते चले जाते थे l उनका कहना था :
शब्द टप-टप टपकते हैं फूल से
सही हो जाते हैं मेरी भूल से
उनके शब्दों की धार बहुत करारी थी, किन्तु उसके नीचे जाकर किसी शब्द पर खरोंच नहीं आती थी l हर शब्द एक तराशे हुए नग-सा अपनी जगह जड़ा हुआ होता था l उनके इसी भाषा कौशल से चकित होकर किसी समीक्षक ने एक बार लिखा था : ‘यह आदमी कविता ऐसे लिखता है, जैसे रस्सी बुनता हो l’
मैंने भवानी दादा को फोन किया , “दादा, ऐसी सुन्दर कविता की समीक्षा में समीक्षक ने क्या घटिया तंज कसा है !” दादा बोले, “कोई बात नहीं, नहले पर दहला लगाना तो मैं भी जानता हूं शीला बहन ”
कुछ समय बाद ही भवानी दादा का एक और नया संग्रह आया l इस संग्रह का नाम था – ‘बुनी हुई रस्सी’ l भवानी दादा के जाने-माने शिल्प में रस्सी जैसी लयबद्ध कविताएँ l इसी कृति ‘बुनी हुई रस्सी’ को सन १९७२ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया l
किशोरावस्था में, उनकी प्रसिद्ध कविता ‘गीतफरोश’ की पंक्ति ‘मैं गीत बेचता हूं’ से कवि के प्रति एक लगाव, जो पैदा हुआ था, वह जैसे-जैसे उनको जाना, उनके प्रति आदर और श्रद्धा में बदलता गया l उनके भीतर कविता की कोमल बेल कैसे बढती और फैलती थी, इसका रहस्य केवल वे ही जानते थे l
एक बार हमारे घर पर करीब दो घंटे उन्होंने लगातार कविता पाठ किया l वह संध्या आज भी मुझे भुलाए नहीं भूलती l गांधीजी में उनकी आस्था उतनी ही प्रबल थी, जितनी ईश्वर में किन्तु, वे व्यथित भी बहुत होते थे यह देखकर कि गाँधी के मूल्यों की ओर देखने की किसी को फुरसत नहीं है l हिन्दी की दुर्दशा से भी वे विचलित हो उठते थे l फिर भी उनके शब्दों में कहीं निराशा की झलक नहीं थी l वे उदासी के नहीं, पल-पल धड़कती जिन्दगी के कवि थे - जीवन्त कवि थे l उत्साह और उर्जा के कवि थे l आम आदमी के कवि थे l
ह्रदय में पेसमेकर लगाए वे आयु के समूचे उतरार्द्ध में हैदराबाद, मद्रास, बम्बई और दिल्ली – जैसे महानगरों में रहे किन्तु, मानसिक रूप से वे यहाँ के प्रदुषण-भरे जीवन से सामंजस्य नहीं बिठा पाए थे l एक बार उन्होंने मुझसे कहा था, “शीला बहन, मेरा तन दिल्ली में रहता है किन्तु, मन सतपुड़ा के घने जंगलों, ऊंघते अनमने बियाबानों में घूमता रहता है l इसीलिए अपरिचय के विंध्याचल को समतल करते, नर्मदा की लहरों में डूबते, जब भी मौका मिलता है, मैं दिल्ली छोड़कर उन ग्राम्य अंचलों में पहुँच जाता हूं और वहां से प्राणवायु लेकर लौटता हूं l”
आदमी के जीवन का कोई ऐसा पक्ष नहीं, कोई घटना नहीं, जिसके बारे में उन्होंने न लिखा हो l आज भी जब व्यक्तिगत दुखों के कारण कभी आँखें नम होती है और मन में शून्य-सा महसूस होता है, तब भवानी दादा के स्वर याद आते हैं :
दर्द जब घिरे बहाना करो
ना ना ना ना ना ना ना करो l
और मैं दर्द की चादर झटककर उठ खड़ी होती हूं, उनके ही शब्दों से प्रेरणा पाते हुए कि :
कब तक पड़े रहोगे ऐसे
रत्ती-भर दुख का नशा लिए l
और मैं चल पड़ती हूं दोबारा अपनी कर्मयात्रा पर l
- शीला झुनझुनवाला की स्मृति से
न, निरापद कोई नहीं है
न मैं, न तुम, न वे
कोई है, कोई है, कोई है
जिसकी जिन्दगी दूध की धोई है
मंच से उठते स्वर लाल किले की बुलंदियों से टकराते हुए, ऊपर और ऊपर उठते हुए आकाश के विस्तार में समाते जा रहे थे l सचमुच, कौन कह सकता है दावे से, कि उसकी जिन्दगी दूध की धोई है l अपने ‘गीतफरोश’ होने का ऐलान उन्होंने भले ही कितने ही जोर-शोर से किया हो, पर सच तो यह है कि भवानी दादा कविता बेचते नहीं, लुटाते थे l जिस किसी ने भी मांग की, दो शब्द एक पोस्टकार्ड पर लिखकर भेज दिए और वही कविता होती थी l आधी सदी से भी अधिक समय तक निरंतर चलती रही उनकी काव्य-यात्रा l कितनी कविताएँ लिखीं, इसका भान उन्हें भी नहीं था l आपातकाल में तो हर दिन तीन कविताएँ लिखने का उन्होंने अपना नियम बना लिया था l
अक्सर मुझसे कहते थे, “इसको मैंने अनुष्ठान के रूप में लिया है – यह मेरी आत्मा का विरोध है आपातकाल के लिए l” बाद में, इनमे से कुछ कविताएँ ‘त्रिकाल संध्या’ नामक, संग्रह के रूप में प्रकाशित हुई l
एक बार मैंने ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के लिए उनसे एक कविता की मांग की l कई दिन हो गए, स्वीकार करने के बावजूद कविता नहीं आई l मैंने दोबारा फोन किया तो बोले, “शीला बहन, बस, एक शब्द पर अटक गया हूं l जैसे ही मिलेगा, कविता पूरी करके भेज दूंगा l”
भवानी दादा ठीक शब्द की तलाश में उसी तरह बेचैन रहते, जैसे किसी लापता बच्चे की तलाश में उसके माता-पिता रहते हैं l किंतु, ऐसा अवसर बहुत कम आता था l अन्यथा, सही शब्द तो उनकी कविता में क्रमबद्ध रूप से कतार-दर-कतार उतरते चले जाते थे l उनका कहना था :
शब्द टप-टप टपकते हैं फूल से
सही हो जाते हैं मेरी भूल से
उनके शब्दों की धार बहुत करारी थी, किन्तु उसके नीचे जाकर किसी शब्द पर खरोंच नहीं आती थी l हर शब्द एक तराशे हुए नग-सा अपनी जगह जड़ा हुआ होता था l उनके इसी भाषा कौशल से चकित होकर किसी समीक्षक ने एक बार लिखा था : ‘यह आदमी कविता ऐसे लिखता है, जैसे रस्सी बुनता हो l’
मैंने भवानी दादा को फोन किया , “दादा, ऐसी सुन्दर कविता की समीक्षा में समीक्षक ने क्या घटिया तंज कसा है !” दादा बोले, “कोई बात नहीं, नहले पर दहला लगाना तो मैं भी जानता हूं शीला बहन ”
कुछ समय बाद ही भवानी दादा का एक और नया संग्रह आया l इस संग्रह का नाम था – ‘बुनी हुई रस्सी’ l भवानी दादा के जाने-माने शिल्प में रस्सी जैसी लयबद्ध कविताएँ l इसी कृति ‘बुनी हुई रस्सी’ को सन १९७२ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया l
किशोरावस्था में, उनकी प्रसिद्ध कविता ‘गीतफरोश’ की पंक्ति ‘मैं गीत बेचता हूं’ से कवि के प्रति एक लगाव, जो पैदा हुआ था, वह जैसे-जैसे उनको जाना, उनके प्रति आदर और श्रद्धा में बदलता गया l उनके भीतर कविता की कोमल बेल कैसे बढती और फैलती थी, इसका रहस्य केवल वे ही जानते थे l
एक बार हमारे घर पर करीब दो घंटे उन्होंने लगातार कविता पाठ किया l वह संध्या आज भी मुझे भुलाए नहीं भूलती l गांधीजी में उनकी आस्था उतनी ही प्रबल थी, जितनी ईश्वर में किन्तु, वे व्यथित भी बहुत होते थे यह देखकर कि गाँधी के मूल्यों की ओर देखने की किसी को फुरसत नहीं है l हिन्दी की दुर्दशा से भी वे विचलित हो उठते थे l फिर भी उनके शब्दों में कहीं निराशा की झलक नहीं थी l वे उदासी के नहीं, पल-पल धड़कती जिन्दगी के कवि थे - जीवन्त कवि थे l उत्साह और उर्जा के कवि थे l आम आदमी के कवि थे l
ह्रदय में पेसमेकर लगाए वे आयु के समूचे उतरार्द्ध में हैदराबाद, मद्रास, बम्बई और दिल्ली – जैसे महानगरों में रहे किन्तु, मानसिक रूप से वे यहाँ के प्रदुषण-भरे जीवन से सामंजस्य नहीं बिठा पाए थे l एक बार उन्होंने मुझसे कहा था, “शीला बहन, मेरा तन दिल्ली में रहता है किन्तु, मन सतपुड़ा के घने जंगलों, ऊंघते अनमने बियाबानों में घूमता रहता है l इसीलिए अपरिचय के विंध्याचल को समतल करते, नर्मदा की लहरों में डूबते, जब भी मौका मिलता है, मैं दिल्ली छोड़कर उन ग्राम्य अंचलों में पहुँच जाता हूं और वहां से प्राणवायु लेकर लौटता हूं l”
आदमी के जीवन का कोई ऐसा पक्ष नहीं, कोई घटना नहीं, जिसके बारे में उन्होंने न लिखा हो l आज भी जब व्यक्तिगत दुखों के कारण कभी आँखें नम होती है और मन में शून्य-सा महसूस होता है, तब भवानी दादा के स्वर याद आते हैं :
दर्द जब घिरे बहाना करो
ना ना ना ना ना ना ना करो l
और मैं दर्द की चादर झटककर उठ खड़ी होती हूं, उनके ही शब्दों से प्रेरणा पाते हुए कि :
कब तक पड़े रहोगे ऐसे
रत्ती-भर दुख का नशा लिए l
और मैं चल पड़ती हूं दोबारा अपनी कर्मयात्रा पर l
- शीला झुनझुनवाला की स्मृति से
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