एक बार हापुड़ में त्रिदिवसीय जनवादी लेखक संघ की गोष्ठी थी
बाबा नागार्जुन भी आए हुए थे तो एक दिन दोपहर के खाने के बाद हमसे बोले " चलो सुरेन्द्र पान खाया जाए "
हमने कहा " चलिए "
थोड़ी दूर चलने के बाद हमने कहा कि " बाबा वो देखिए पान की दुकान " उन्होंने दुकान देखी और बोले " यहाँ नहीं आगे चलते हैं "
आगे बढ़े फिर एक दुकान दीखी हमने कहा कि
" बाबा ये एक और दुकान "
उन्होंने दुकान देखी और बोले
" यहाँ नहीं आगे चलते हैं "
आगे बढ़े इस तरह से कई दुकान छोड़ते गए काफ़ी दूर चलने के बाद एक दुकान पर रुके और बोले " यहाँ खाते हैं " फिर कुछ देर तक वहाँ खड़े रहे वहाँ पान खाकर वापस आए हमने रास्ते में पूछा कि " बाबा इतनी दुकान छोड़ने के बाद उस दुकान पर ही पान क्यों खाया तो बोले
" उस दुकान पर शीशा था पान खाकर अगर रचे हुए होठ शीशे में न देखे जाएँ तो पान खाने का मज़ा ही क्या है "
ऐसे थे हमारे सीधे सरल निष्कपट बाबा।
-सुरेंद्र सुकुमार की स्मृति से
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