यादों मे
श्रद्धेय भगवती चरण वर्मा
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भगवती बाबू यानी हिंदी साहित्य के छायावाद काल के एक शिखरपुरुष श्री भगवती चरण वर्मा से मेरा व्यक्तिगत परिचय महज़ एक इत्तिफ़ाक़ ही माना जाना चाहिए। वैसे तो लखनऊ, जहाँ मेरा जन्म हुआ और अधिकांश शिक्षा-दीक्षा भी हुई, की साहित्यिक पहचान पिछली सदी के मध्य में उस कालखण्ड के तीन दिग्गज लेखकों - अमृतलाल नागर , भगवती चरण वर्मा एवं यशपाल के कारण ही थी, किन्तु अपने विद्यार्थीकाल में मेरा निकट सम्पर्क केवल नागर जी से हो सका। हालाँकि भगवती बाबू के चतुर्थ एवं कनिष्ठतम सुपुत्र धीरेंद्र वर्मा लखनऊ विश्वविद्यालय में स्नातक स्तर पर एक प्रकार से मेरे सहपाठी रहे थे, किन्तु उन दिनों चित्रकला के प्रति मेरी गहरी रुचि के चलते मेरी हिन्दी साहित्य में रुचि महज़ पठन-पाठन तक ही सीमित थी। यह ज़रूर है कि मैं अपने साहित्यिक अध्ययन के दौरान हिंदी उपन्यास की इस बृहत्त्रयी की कृतियों से परिचित था। उन कृतियों में, जिसने मुझे सबसे अधिक आकर्षित एवं सम्मोहित किया था, वह थी भगवती बाबू की कालजयी रचना 'चित्रलेखा'। वैसे मैं इतिहास विषय का विद्यार्थी कभी भी नहीं रहा, किन्तु बचपन से ही पौराणिक एवं ऐतिहासिक गाथाओं में मेरी गहरी अभिरुचि रही थी। क्योंकि 'चित्रलेखा' की पृष्ठभूमि चन्द्रगुप्त मौर्य कालीन थी और उसकी भावभूमि एवं प्रस्तुति काव्यात्मक थी, उसके प्रति मेरा विशेष रूप से आकृष्ट होना स्वाभाविक था। मुझे याद है कि उसे पढ़ने के साथ ही मैंने प्रख्यात फ्रांसीसी उपन्यासकार अनातोले फ्रांस की नोबेल पुरस्कार से सम्मानित कृति 'थाया' भी पढ़ी थी और दोनों उपन्यासों के समानांतर वर्ण्य विषय, किन्तु उनमें प्रतिपादित पृथक जीवन-दृष्टि पर भी चिंतन-मनन किया था। वह कालखण्ड छायावाद युग के प्रभाव से अभी पूरी तरह उन्मुक्त नहीं हुआ था और प्रसाद-पंत-निराला मेरे प्रिय कवि थे। प्रसाद जी एक प्रकार से मेरे इष्ट कवि थे और स्नातक कक्षा में पढ़ा उनका 'आँसू' काव्य मुझे लगभग कंठस्थ था। बाद में हिन्दी कविता लेखन की ओर उन्मुख होने पर मुझे उस छायावादी सम्मोह से उबरने में काफी यत्न करना पड़ा था। भगवती बाबू की ख्याति छायावाद युग के एक प्रमुख कवि के रूप में भी थी और मैंने लखनऊ विश्वविद्यालय की टैगोर लायब्रेरी से लेकर उनकी प्रमुख कविताओं के संकलन को भी उन्हीं दिनों बाँचा था। अस्तु, भगवती बाबू एक लेखक के रूप में मेरे नितांत अपरिचित नहीं थे।
हुआ यों कि ईस्वी सन १९६१ में मैं अंग्रेजी के व्याख्याता के रूप में सुदूर पंजाब के जालंधर शहर में जा बसा और कालांतर में उधर का ही स्थायी वासी हो गया। बात ईस्वी सन १९६५ की है। ग्रीष्मावकाश में लखनऊ आने पर मुझसे छोटे भाई अतुल ने, जो इलाहांबाद बैंक की हज़रतगंज शाखा में कार्यरत थे, भगवती बाबू से बैंक कर्मचारी की हैसियत से परिचित होने की बात कही। तब तक मैं एक कवि के रूप में थोड़ा-बहुत जाना जा चुका था और 'धर्मयुग' -'साप्ताहिक हिंदुस्तान' आदि देश की अग्रणी पत्रिकाओं में अपनी रचनाओं को प्रकाशित करने हेतु लालायित था। भगवती बाबू का ज़िक़्र आने पर मैंने अपनी कुछ गीत-कविताएँ अतुल के माध्यम से उन्हें दिखाने हेतु भेजीं। भगवती बाबू ने मुझसे मिलने की इच्छा व्यक्त की। मुझे स्पष्ट याद है लगभग ग्यारह बजे अपराह्न में हम उनके महानगर स्थित आवास पर उपस्थित हुए। द्वार खोला धीरेंद्र ने ही - कुछ हिम्मत आई। इतने बड़े किसी साहित्यकार से मिलने का वह दूसरा प्रसंग था मेरे लिए।इससे पूर्व नागर जी से मैं भारतीय साहित्य परिषद की लखनऊ शाखा के साहित्य मंत्री के रूप में दो-तीन बार मिल चुका था। उस प्रशस्त ड्राइंग रूम में बैठा मैं भगवती बाबू के विशाल साहित्यिक व्यक्तित्व के आतंक से अपने को कुछ हद तक मुक्त करने की प्रक्रिया में ही था कि वे सामने के दरवाज़े से दाख़िल हुए। मैं अभी उन्हें प्रणाम करने की मुद्रा में ही था कि हल्के स्मित के साथ उन्होंने कहा - 'रवीन्द्र, तुम्हारी कविताएँ मैंने पढ़ीं हैं। उन्हें 'धर्मयुग' में प्रकाशित होने के लिए भेजो। मैंने धर्मवीर भारती को पत्र लिख दिया है। उसे कविताओं के साथ भेज दो। इतनी सहजता से उन्होंने मेरे संकोच को सहेज दिया था। मैं चकित था, अभिभूत था। थोड़ी देर तक कुछ और बातें हुईं - मैंने 'चित्रलेखा' की ऐतिहासिकता के विषय में छात्र जीवन में उपजीं अपनी आशंकाओं को, 'थाया' से उस उपन्यास की समानता पर प्रश्न किये। उन्होंने मेरी राय का कहीं समर्थन किया तो कहीं प्रतिवाद भी। किन्तु उसमें कहीं भी कोई बड़े लेखक का न तो अहंकार था और न ही मेरी अनधिकार चेष्टा के प्रति कोई तिरस्कार का भाव। थोड़ी देर में जब हम उनके आवास से बाहर आये, मैं एक गहरी आश्वस्ति के भाव से भरा हुआ था। उस बार तो मेरी कविताएँ भगवती बाबू के पत्र के बावजूद 'धर्मयुग' में नहीं प्रकाशित हो पाईं, किन्तु उसके कई वर्षों बाद हिसार आने पर जब मेरी रचनाएँ 'नया प्रतीक' एवं 'कल्पना' जैसी लब्धप्रतिष्ठ पत्रिकाओं के साथ 'धर्मयुग', 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' में भी प्रकाशित हुईं तब मुझे भगवती बाबू के आशीर्वचनों का स्मरण हो आया। उसका भी एक रोचक प्रसंग है। उनसे भेंट होने के दो वर्ष के बाद ग्रीष्मावकाश के उपरान्त मैं परिवार सहित पंजाब मेल से जालंधर वापस जा रहा था। मेरे सौभाग्य से भगवती बाबू भी सपरिवार उसी बोगी में थे - वे लोग किसी विवाह-प्रसंग में सम्मिलित होने के लिए पटियाला जा रहे थे। मेरी पत्नी सरला का उनकी बड़ी सुपुत्री शकुन्तला जी से मायके की ओर से निकट का पारिवारिक संबंध था। वे भी उनके साथ थीं - धीरेंद्र भी थे। वह भेंट बड़ी ही आत्मीय रही। कुछ सहज पारिवारिक चर्चा के बीच भगवती बाबू ने 'धर्मयुग' में मेरी रचनाओं के प्रकाशन विषय में पूछा। यह जानने पर कि मेरी रचनाएँ उनके पत्र के बावजूद प्रकाशित नहीं हुईं, वे चुप हो गए। मुझे लगा कि वे इस बात से कुछ खिन्न हुए हैं। कुछ ठहर कर उन्होंने कहा -'रवीन्द्र, एक प्रकार से यह ठीक ही हुआ। सिफारिश के आधार पर व्यक्ति की प्रगति, विशेष रूप से एक लेखक की प्रगति कई बार बड़ी ही खोखली साबित होती है। तुममें प्रतिभा है; उससे अपने को वंचित मत होने देना। एक दिन निश्चित ही तुम्हें अखिल भारतीय पहचान मिलेगी। सहज होकर अपना कार्य करते रहो। वही तुम्हारी उपलब्धि होगी।' उनके वे आशीर्वचन बाद में मेरा सौभाग्य बने।
भगवती बाबू से मेरी यही दो संक्षिप्त भेंटें हुईं, किन्तु उनका स्नेह निरंतर मुझे प्रेरित करता रहा।
-- कुमार रवीन्द्र की स्मृति से (प्रस्तुति : आचार्य संजीव वर्मा)
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