कृष्णा सोबती की बात हो रही है तो मुझे एक प्रसंग याद आया । दो दशक पहले मैं मराठवाडा विश्वविद्यालय , औरंगाबाद की एक छात्रा का पीएच. डी मौखिकी (viva- voce ) के लिए गयी थी । विषय कृष्णा सोबती जी के उपन्यासों के संदर्भ में था । मौखिकी हो गयी । मैं छात्रा के काम से प्रभावित हुई थी । भोजन भी हो गया था । मैं गेस्ट हाउस जाने ही वाली थी , वह छात्रा भागती मोबाइल लेकर आयी । उसने मोबाइल को हथेली में दबा कर रखा और कहा कि कृष्णा सोबती जी मुझसे बात करना चाहती हैं । मैं ने मोबाइल लिया और उन से बात करने लगी । उन्होंने छात्रा के शोधकार्य के बारे में पूछा और लगातार उन की उत्सुकता को महसूस कर रही थी । उन्होंने मेरेी प्रश्नावली के बारे में पूछा । वे खुश थीं - छात्रा की मौखिकी के बारे में मेरे विचार जान कर । उन्होंने कहा कि छात्रा लगातार उनके साथ अपने विषय के बारे में चर्चा करती थी मौखिकी के बाद भी फ़ोन किया तो मुझ (परीक्षक ) से बात करने का मन हुआ । उस के बाद मेरे बारे में भी जानना चाहा । बात हो कर इतना समय हो गया । फिर शब्दशः याद है । किसी विश्वविद्यालय की छात्रा को उन्होंने समय दिया , दिशा निर्देश दिया साथ ही इतना ममत्व दिया । उस दिन शोध छात्रा अभिभूत थी । शोध कार्य के दौरान उन के साथ वार्तालाप को साझा कर रही थी । ऐसा नहीं था कि उन पर पहला शोध था । दर्जनों शोधकार्य तब तक हो चुके थे । फिर भी उस छात्रा के प्रति कृष्णा सोबती जी का वात्सल्य के बारे में सुन कर उनके गरिमामय व्यक्तित्व का आभास हुआ था । व्यक्तिगत परिचय हमारे लिए नामुमकिन है । इस तरह अद्भुत क्षणों के साथ साहित्यकारों को जानने अवसर मिलता है । इस से युवाओं को महान् व्यक्तित्व के पास जाने का साहस मिलता है ।
- प्रो. माणिक्यम्बा "मणि" की स्मृति से
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