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सोमवार, 21 अगस्त 2023

निश्छल व्यक्तित्व : हिमांशु जोशी


हिन्दी-साहित्य का आठवां दशक कई मायने में अपनी प्रासंगिकता लिए  है। यह दशक कहानी आन्दोलन के लिए विशेष चर्चित कहा जा सकता है जब कहानीकार कई खेमों में बंटकर हिन्दी कहानी के नये-नये कथ्य-शिल्प में  प्रस्तुत  कर रहे थे--सचेतन कहानी, अकहानी, समकालीन आदि। इन्हीं आन्दोलन  के एक स्तम्भकार थे हिमांशु जोशी। जोशी जी उन दिनों हिन्दुस्तान टाइम्स  की प्रमुख  पत्रिका 'हिन्दुस्तान' में सहायक सम्पादक थे।

इस पत्रिका के अतिरिक्त  अन्य पत्रिकाओं में जोशी जी कहानियां छपती थीं। आम आदमी की जिन्दगी से जुड़ी हिमांशु जोशी की कहानियां अपने अलग अक्स- अंदाज़ में विशेष रुचिकर लगती थीं।

मैं 1976 में दिल्ली आ गया था। 

हिमांशु जोशी ही 'हिन्दुस्तान'  में प्रकाशित  कहानियों कभी-कभार पढ़ता था। अचानक  एक दिन  हिन्दुस्तान टाइम्स के आफिस में गया तो वहां आदरणीय मनोहरश्याम जोशी के दर्शन हुए। वे इस पत्रिका के मुख्य  सम्पादक थे। मैंने अपनी एक कविता प्रकाशनार्थ दी तो बोले, हिमांशु को दे दो। तब मुझे लगा कि वही हिमांशु जोशी हैं। उसके बाद से अक्सर  भेंट होती रही--कभी उनके आवास मयूर विहार, दिल्ली तो कभी किसी साहित्यिक समारोह में। यद्यपि वे साहित्यिक समारोहों में ही जाते थे। आवास पर जब भी जाता, साहित्यिक चर्चाएं होती थीं। साहित्यकारों के गुटों से वे दूर ही रहते थे। उनका कहना था कि कुल गुटबाज अपनी पाठशालाएँ चला रहे हैं। कविता, कहानी कैसे लिखी जाती है, इसके बारे में लिखने का हुनर बताते हैं, किन्तु बताने से नहीं, साधना से आता है। साहित्य एक साधना है। वह बहुत मधुर स्वर  में बोलते थे। उनकी वाणी में  मिठास थी। उनमें किसी तरह की बनावट  नहीं थी। उनका इकहरा व्यक्तित्व साफ-सुथरा था। उनके व्यक्तित्व की तरह ही उनके लेखन में ईमानदारी थी। 'इस बार फिर बर्फ गिरी तो' 31-8-2001 को भेंट की।

    दरअसल  'इस कृति की कहानियों में एक ऐसी चिन्गारी है जो मन-मस्तिष्क ही नहीं, पूरे शरीर  में विद्युत-तरंग पैदा  कर देती है।कथ्य-शिल्प अलगअक्स-अंदाज़ में अपना वैशिष्ट्य लिए  है।'

इस टीप ने उन्हें इतना प्रभावित  कर दिया कि जब भी कोई  नयी प्रकाशित होकर आती थी, भेंट होने पर देते थे।

इसी तरह मेरी तरह कहानियों की प्रथम प्रति मुझे 13-3-2004 को भेंट की थी। मैं उनका बड़प्पन ही मानता हूं कि इतने महत्वपूर्ण कथाकार होकर समीक्षार्थ प्रतियां देते रहें।और मैंने यथासमय अपने मन्तव्य से उन्हें अवगत कराया रहा। इस तरह एक पारिवारिक - सा सम्बन्ध-सरोकार  बन गया था।उन्होंने कभी किसी से कहकर अपने पर कुछ नहीं लिखवाया।उनका स्वाभिमान उन्हें रोकता रहा क्योंकि मुखापेक्षी लेखन रचना का सही मूल्यांकन नहीं कहा जा सकता। इससे वे हमेशा बचते रहे। इसीलिए जब जिसने लिखा निष्पक्षता से विवेचन किया--निस्पृह, बेबाक! यही उन्हें पसन्द भी था। वे कहते भी थे, 'जब कोई स्वेच्छापूर्वक लिखता है तो उसमें सही मूल्यांकन-दृष्टि होती है।' 

वे थोड़े संकोची स्वभाव के थे। कहने लगे, 'प्रकाशक किताबों की पाण्डुलिपियां मांगकर ले जाते हैं। शौक से छापते हैं। रायल्टी की बातें करते हैं पर न एग्रीमेंट करते हैं,और देते हैं। ऐसे ही वैचारिक शोषण होता है लेखक का।' मैंने बताया, ऐसा आपके साथ ही नहीं, अन्य बड़े लेखकों के साथ भी होता है। यशपाल जैन, विष्णु प्रभाकर और कइयों ने बताया है।

 खैर! मैंने उनसे कहा, आपका लेखन राष्ट्रीय ही नहीं, अन्तरराष्ट्रीय पहचान बनाने में सफल हुआ है। आपकी भाषा-शैली में कुछ  ऐसा आकर्षण है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। जीवन्तता आपके शब्द-शब्द में बरसती है।कथा-प्रवाह कहीं अवरुद्ध नहीं होता और आप जो शब्दों में दर्ज करते हैं वो जीवन और समाज के दायित्व का अहसास  कराता है।' सुनकर मुस्कुराते हुए  चाय  की  चुस्की लेने लगे। फिर धीरे से ओठ हिलाए-- 'आपकी टिप्पणी अच्छी लगी। बधाई।'

एक बार आकाशवाणी, दिल्ली में उनकी वार्ता थी। मैं जैसे ही उनके आवास पर पहुंचा, वे जाने के लिए तैयार हो रहे थे। वे कुर्ता-पायजामा पहनते थे। बोले,'चलें रास्ते में बातें कर लेंगे।'हम टैक्सी ले चल दिए। 20-25 मिनट में हम आकाशवाणी केन्द्र पहुंच गए। रिकार्डिंग के वक्त वे बिना लिखे विचार व्यक्त  करते रहे। उनके बोलने का अंदाज  भी बड़ा सधा -सन्तुलित था। कहीं विषयान्तर नहीं हुए। प्रोड्यूसर ने बड़ी प्रशंसा की और आभार जताया।

एक अन्य घटना याद हो आई। डॉ.जीवनप्रकाश जोशी  की "एक अधूरी आत्मकथा" को लोकार्पण समारोह हिन्दुस्तान अपार्टमेंट के सभा-कक्ष में रखा गया था। मैं कृष्णा सोबती को लिवाने पूर्वाशा अपार्टमेंट  में  गया था। उनके पैरों दर्द था। कहा, 'इस मौके पर मैं अवश्य आती लेकिन विवश हूं बुढ़ापे में घुटने के दर्द से। सो ये मेरा पत्र पढ़कर सुना देना।' इसके बाद पता चला कि हिमांशु जी भी बीमार होने के कारण नहीं आ रहें हैं। तो मैं उनके यहां गया। मुझे देखते हंसकर बोले, 'अब तो चलना ही पड़ेगा।'और तीसरी मंजिल से धीरे-धीरे उतर कर आयोजन  हाल  में  पहुंच  गए। उनको  देखकर उपस्थित सभी साहित्यकार प्रसन्नता से आह्लादित हो  उठे। यह थी उनकी आत्मीयता और जिजीविषा, जो उन्हें आजन्म सक्रिय बनाए हुए थी।


 प्रस्तुति : डॉ. राहुल 


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