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हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



सोमवार, 14 अगस्त 2023

 आफ द रिकॉर्ड  (नौ )

    पत्रकारिता के खतरे


राष्ट्रकवि और उपराष्ट्रकवि !


       महात्मा !नेताजी !और राष्ट्रकवि ! जैसी उपाधियां कभी किसी संस्था या जन समारोह में नहीं दी गयी थी लेकिन प्रचलन में ये उपाधियां आम लोगों की जबान पर थीं. मोहन दास करमचंद गांधी को लोग महात्मा गांधी, सुभाष चन्द्र को नेता जी का सम्बोधन देने लगे थे. उसी तरह से मैथिलीशरण गुप्त को राष्ट्रकवि की उपाधि  इतनी भायी कि उन्होंने इसे अपने नाम के साथ चस्पा कर ली थी.यहां तक कि पत्रव्यवहार और परिचय वाचन में भी राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त लिखा और बोला जाने लगा.  

      कालान्तरण में जय प्रकाश नारायण को भी 'लोकनायक' सम्बोधित किया गया, लेकिन जय प्रकाश जी को जे पी कहलाना ज्यादा पसंद था इसलिए उनके नाम के साथ लोकनायक का सम्बोधन ज्यादा समय नहीं चला.

       मैथिलीशरण गुप्त को राष्ट्रकवि कहे जाने पर कवियों के एक समुदाय ने इस सम्बोधन को हाथों हाथ लिया।सच भी यही है कि किसी ने भौं तक नहीं टेढ़ी की. लेकिन जब रामधारी सिंह 'दिनकर' के नाम के आगे राष्ट्रकवि का सम्बोधन लगाया जाने लगा तो कुछ हंसोड़ साहित्यकारों ने दबी जबान से चुस्की लेना शुरू किया। यही नही,  जब एक ही मंच पर दोनों वरिष्ठ कवि मंचासीन होते तो वे चुटकी लेने से बाज़ नहीं आते-आज हमारे मंच पर दो-दो राष्ट्रकवि मंचस्थ हैं. यह देखकर दिनकर जी मंद-मंद मुस्कराते दिखते लेकिन मैथिलीशरण गुप्त जी का अनमनापन छिपाए नहीं छिपता.  पीठ पीछे हास परिहास चलता रहता. लोग बाग मजे लेते.

            मैथिलीशरण गुप्त जी को सभी दद्दा कहते थे. धीर गम्भीर होते हुए भी हम लोगों की चुहलबाजी पर उनकी निगाह बनी रहती थी.और राष्ट्र कवि के मुद्दे पर अंदर ही अंदर बेहद टची रहते थे.उन्हें छेड़ने के लिए हम लोगो ने एक बार कहा कि दद्दा !आप को सभी राष्ट्रकवि मानते है पर दिनकर जी को भी राष्ट्र कवि कहा जाए,  हमें यह स्वीकार नही है.

        सुनकर  गिरदे पर टिके हुए राष्ट्रकवि की मुद्रा थोड़ी चौकन्नी हुई उनका स्वर सुनाई दिया - हूँ ! इस बारे में दिनकर जी से बात हुई तो उन्होंने भी जवाब दिया कि मै तो किसी को राष्ट्रकवि बोलने को कहता नहीं.

दद्दा की आंखों में सवालिया निशान उभरा.

लेकिन एक रास्ता है अगर आप अनुमति दें तो?

क्या ?

- "यह  कि दद्दा आप  को राष्ट्रकवि और दिनकर जी को उपराष्ट्रकवि घोषित कर दिया जाए."

               मैथिलीशरण गुप्त जी ने अपनी आंखे बंद कर लीं और हमारी चुहलबाजी को वहीं पर ब्रेक लगाना पड़ा.

लेकिन हम सबने  बार बार दुहराकर इस प्रस्ताव की गम्भीरता बनाये रखी और अन्य वरेण्य साहित्यकार भी रुचि लेने लगे तो मैथिलीशरण जी को भी एक दिन बोलना पड़ा - ठीक है,आगे दिनकर भी चाहते हैं तो उनको उपराष्ट्रकवि घोषित करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है.

लेकिन दद्दा! तीन चार उपाधियां और भी फाइनल कर दें तो और बेहतर हो जाये.

वह क्या?

जैसे-बच्चन जी को "परराष्ट्रकवि", प्रभाकर माचवे जी को महाराष्ट्र कवि" और--

और ?

जी और...

गोपाल प्रसाद व्यास जी को "धृतराष्ट्रकवि"!

     अब दद्दा से न रहा गया,उन्होंने गिरदा खींच कर हम लोगों पर फेंका. और हम अदबदा कर भागे. पेट पकड़े . ठहाके पर ठहाके लगाते हुए.

       बाद में सोहन लाल द्विवेदी जी के  नाम में भी राष्ट्रकवि लगाया जाने लगा। कानपुर के श्री देवी प्रसाद राही भी यदा कदा राष्ट्रकवि से सम्बोधित किये जाते दिखे पश्चात वीर रस के कवियों में भी राष्ट्रकवि कहलाने की होड़ लग गयी.  लेकिन असली राष्ट्रकवि कहलाने वाले मैथिलीशरण गुप्त जी ही थे.

       मैथिलीशरण गुप्त जी का व्यक्तित्व प्रभावी और भव्य था. चूड़ीदार पैजामा, शेरवानी और सिर पर टोपी, हाथ मे छड़ी. हमेशा उनके साथ मुंशी अजमेरी झोले में गुप्त जी के लिखने के लिए स्लेट और पेंसिल लेकर चलते थे.  बाद में उसे कलमबद्ध करने की जिम्मेदारी मुंशी अजमेरी की हुआ करती थी. लेकिन रामधारी सिंह दिनकर  का व्यक्तित्व बेहद दबंग था. कवि सम्मेलनों के वे सिरमौर थे. दिनकर जी नेहरू जी के अत्यंत प्रिय थे. हमेशा लोकसभा से साथ साथ निकलते थे. एक बार सांसद की सीढ़ियों से उतरते समय प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू के कदम लड़खड़ा गए, दिनकर जी ने बढ़कर नेहरू जी को संभाल लिया. इसपर नेहरू जी ने दिनकर जी को धन्यवाद दिया.

      दिनकर जी ने तत्क्षण आभार प्रदर्शन पर उन्हें बरजते हुए चुटकी ली-"नेहरू भाई इसकी जरूरत नही है,राजनीति जब भी लड़खड़ाती है साहित्य हमेशा बढ़कर उसे सम्भाल लेता है । यह हमारा दायित्व है", नेहरू जी सुनकर मुस्करा दिए.

         दिनकर जी की कविताएं राष्ट्रीयता से ओतप्रेत होती थी। वीर रस के अद्भुत कवि थे दिनकर जी. जब मंच पर काव्यपाठ के लिए खड़े होते . तालियों की गड़गड़ाहट होती थी और जनता की निगाहों में सिर्फ दिनकर जी होते थे.उनके बाद काव्य पाठ करने की बड़े बड़ों की हिम्मत नहीं होती थी. लेकिन वे कितने बड़े रस मर्मज्ञ थे? कितने मंजे हुए गीतकार थे, बिहार के एक कवि सम्मेलन के बाद एक ऐसी घटना घटी जिसका चश्मदीद गवाह मैं भी बना.

      हुआ यह कि सासाराम के कवि सम्मेलन के बाद एक भव्य प्रसाद के भवन में पांच कवियों के रुकने की व्यवस्था थी - दिनकर जी, व्यास जी,नागार्जुन जी ,ठाकुर प्रसाद सिंह और उनके साथ सबसे युवा वय का मैं. अचानक आधी रात को दिनकर जी उठ खड़े हुए और उन्होंने पलंग को उलट दिया. सभी की आंख खुल गयी. पलंग पर खटमल बिछे पड़े थे. सभी ने अपनी-अपनी खाट खड़ी की और बरामदे में लगी कुर्सियों पर बैठ गए. पता चला कुर्सियों में भी खटमल भरे पड़े थे. दिनकर जी ने कहांज्ञज्ञज्ञज्ञ - उधर देखो, पलँगों से उतर कर खटमलों की कतार हमारी तरफ आ रही थी.

      एक मेज पर स्टोव रखा था और कई बाल्टियां पानी  भरी थी. स्टोव जलाकर एक बाल्टी का पानी गर्म करने का आदेश मिला. लोटे से पलँगों और कुर्सियों पर गर्म पानी डाला गया.फिर सारी रात कुर्सियों पर जगते बीती, बतकही के अलावा कोई चारा नहीं था. दिनकर जी के संकेत पर ठाकुर प्रसाद सिंह जी ने वंशी और मादल के कई नव गीत गाकर सुनाए.नागार्जुन जी को मंत्रमुग्ध होकर हम सबने सुना. बगल के हाल में ठहरे कवियों का भी यही हाल था . वे भी आ गए.सबसे अंत मे खटमली-रात रतजगे में बदल गयी. दिनकर जी ने  एक नहीं, अनेक श्रैंगारिक गीतों का सस्वर पाठ किया. कंठस्थ श्लोकों का वाचन किया, अपभ्रंश के घोर श्रैंगारिक छंदों, दोहों को सव्याख्या सुनाया. अद्भुत रात्रि गीत थे उनके. चमत्कृत थे हम उन्हें सुनकर. दिनकर जी के पास श्रैंगारिक गीतों का अद्भुत जखीरा था .

    इसी तरह पटना में  हिंदी प्रचार सभा के राष्ट्रीय अधिवेशन में एक अलग खेल हो गया. अधिवेशन में मुख्य अतिथि के रूप में राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने भी स्वीकृति दे दी थी. देश भर से दिग्गज साहित्यकारों का जमावड़ा लगने का अनुमान था. महाधिवेशन के लिए प्राप्त राष्ट्रपति के भाषण, विशिष्ट अतिथियों के लिखित वक्तव्यों, अधिवेशन में पारित किए जाने वाले प्रस्तावों आदि की प्रतियां भी अखबारों को देने के लिए तैयार कर ली गयी थी.

   उस समय  बनारस से छपने वाले एक प्रमुख अखबार का बिहार में भी दबदबा था. जिस दिन अखबार नही पहुंचता था,लोग कहते थे-आज बनारस का 'अखबार' नहीं आया! उस अखबार ने महाधिवेशन की विशेष कवरेज के लिए अपने सांस्कृतिक संवाददाता को पटना भेज रखा था.

    अखबार के संवाददाता ने बेढब जी से मिलकर प्रेस नोट की तैयार सामग्री पहले ही हथिया ली थी और फटाफट लीड, बॉक्स आइटम, साक्षात्कार, महाधिवेशन की झलकियां बना कर अखबार को भेज दी और साथ मे नोट लगा दिया - 'मेरा फोन  पहुचते ही लगा दें'. संवाददाता ने फोन कब भेजा,पता नही, पर बनारस के उस अखबार में पटना महाधिवेशन की शानदार कवरेज थी.लेकिन बाकी अखबारों में वरेण्य साहित्यकार के निधन के चलते महाधिवेशन के स्थगित किये जाने की मात्र एक "सिंगल" कालम में खबर छपी थी.

अनूप श्रीवास्तव की प्रस्तुति


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