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हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



बुधवार, 21 जून 2023

शब्दों की आत्मा से साक्षात्कार (कृष्णा सोबती)


बात उन दिनों की है जब मैं दिल्ली में कृष्णा सोबती जी से मिली थी। उनसे मिलना एक आत्मीयता में बंध जाना था। वे पूछ रही थीं-" क्या लिख रही हो आजकल?" मन हुआ कहूं ,पीछे छूट गए रास्तों को ढूंढ रही हूं ।

अतीत ही तो है जो परछाई की तरह पीछा करता है। जब उस अतीत को याद कर कलम उठाती हूँ तो कभी मित्रो, कभी बालो ,कभी जया ,कभी रतिका...... उनकी रचनाओं के पात्र मेरे मन को  झंझोड़ते रहते हैं।

उनका उपन्यास "मित्रो मरजानी" एक ऐसा उपन्यास है जिसने प्रकाशित होते ही कई सवाल खड़े कर दिए ।नायिका मित्रो ने एक विवादास्पद नारी चरित्र की तरह हिंदी साहित्य में प्रवेश किया कि पूरे शिक्षित समाज में इसके प्रति एक जिज्ञासा जागृत हो गई ।यह न टैगोर की ओस जैसी नारी थी न शरतचन्द्र या जैनेंद्र कुमार की विद्रोहिणी नारी ।इसे आदर्श का कोई मोह न था ।न समाज का भय न ईश्वर का ।इसीलिए मित्रो हमें चौकाती है, डराती है क्योंकि वह खुलकर वह सब कहती है जिसे आम और खास लड़कियां कहते डरती हैं।

"सूरजमुखी अंधेरे के "उपन्यास एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसके फटे बचपन ने उसके सहज भोलेपन को असमय चाक कर दिया और उसके तन मन के गिर्द दुश्मनी की कटीली बाड़ खेंच दी। अंदर और बाहर की दोहरी लड़ाई लड़ती नायिका रत्ती का जीवन वृत्त चाहत और जीवट भरे संघर्ष का दस्तावेज है ।बचपन में रत्ती यानी  रतिका बलात्कार की शिकार होती है ।यह घटना एक गांठ की तरह उसके मन में जड़ जाती है। बड़ी होते-होते यह गांठ उसके भीतर चल रहे युद्ध में उसे कई मोर्चों पर तैनात कर देती है । पुरुष के प्रति वह हीन भावना से ग्रसित है।

वह पुरुष के द्वारा ही तो समाज में लांछित की गई ।शारीरिक अत्याचार के कटु अनुभव से गुजरी रतिका अपनी आंखों में दाम्पत्य जीवन की मधुर तस्वीर भी सँजोए  है ।वह मां बनने को भी आतुर है। रीमा के घर परिवार का भरापूरा ऊष्मा से भरा माहौल उसे बेचैन कर देता है ।आखिर वह भी तो एक स्त्री है। ये कामनाएं पालना स्वाभाविक ही है ।एक खास उम्र के बाद औरत इस अकेलेपन को महसूस करती है ।वह अकेलापन रतिका को भी परेशान करता है।

इन दोनों उपन्यासों का जिक्र करते हुए मैं कह सकती हूं कि उनकी लेखनी शब्दों की मानसिकता से नहीं खेलती शब्दों की आत्मा से साक्षात्कार करती चलती है और इसीलिए असीमित प्रभाव की सृष्टि करने में सक्षम है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी ।अपनी रचना यात्रा के दौरान उन्होंने लगभग हर मोड़ पर कोई न कोई सुखद विस्मय  दिया है। "डार से बिछुड़ी "से लेकर "सूरजमुखी अंधेरे के" तक एक से एक सधी कृतियाँ ।

"हम हशमत "के जीवंत आलेख और औपन्यासिक संरचना शिल्प का नया प्रतिमान "जिंदगीनामा।" जिंदगीनामा तक आते-आते उनकी रचना बगिया के अंकुरित बीज जमीन से सिर उठा विशाल वृक्ष बन गए हैं।

 विद्रोही तेवर, खुले आसमान में अपने परों को पसारने ,आंधियो  से लड़ने की ताकत रखने वाली उनकी कहानियों के महिला चरित्र आज समाज के सामने चुनौती हैं। जो घर की चौखट पार न कर सकने की मजबूरी को धता बता रहे हैं।

उनसे मेरी पहली और आखिरी मुलाकात में चाय पीते हुए वे कहती हैं -" तुम्हारा लेखन जैसे मेरी लेखनी का वारिस है। "

मैं कहती हूं -"कृष्णा दी, मैं हर बार अपनी लेखनी के जरिए आपके लेखन ही से तो रूबरू होती हूँ।" 

- संतोष श्रीवास्तव की स्मृति से


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