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मंगलवार, 20 जून 2023

पद्मश्री रमेश चंद्र शाह से मुलाकात

मुंबई में 38 वर्ष के मेरे निवास के दौरान दिव्या जैन से दोस्ती बहुत मायने रखती है दिव्या का पूरा परिवार ही साहित्य से जुड़ा रहा। पिता वीरेंद्र कुमार जैन पहले भारती और फिर नवनीत पत्रिका के संपादक रहे ।दिव्या स्वयं पत्रकार है। अंतरंग संगिनी नामक महिला पत्रिका की संपादक और उसकी कवयित्री, कथाकार बड़ी बहन ज्योत्सना मिलन और क्योंकि बाद में यह परिवार रमेश चंद्र शाह का ससुराल हुआ तो मुलाकातें प्रगाढ़ता में बदलती गईं।
जेजेटी यूनिवर्सिटी मुंबई में शोध प्रबंधक के पद से सेवानिवृत होकर मैंने भोपाल को शेष जीवन निवास के लिए चुना लेकिन तब तक ज्योत्सना दी दुनिया से विदा हो गई थीं।
बहुत समय तक तो दादा रमेश चंद्र शाह  से मिलने की हिम्मत ही नहीं हुई। उनके लिए ज्योत्स्ना दी एक रोमांटिक जुनून था जो उन्हें प्रथम मिलन में ही नितांत उनकी अपनी कृति ,कल्पना सृष्टि सी लगती रही ।हर दृश्य और यथार्थ को लांघ कर उस पर अंततः हावी हो जाती कल्पना सृष्टि मानो कल्पना ही एकमात्र स्थायी सच हो बाकी  यथार्थ नियंत्रण से बाहर।
बातों बातों में बताया दादा ने कि पहली मुलाकात ही उसकी कविता के ज़रिए हुई । यदि वह कविता सामने न पड़ी होती तो हम दोनों एक दूसरे के अस्तित्व से बेखबर कोई दूसरा ही जीवन जी रहे होते।"
"यानी कविता मेघदूत बनकर आई और आपका मन लुभा लिया।  दादा , वह कविता हमें भी सुनाइए।"
"ज्ञानोदय के नवोदित लेखिका विशेषांक में छपी थी वह कविता। सभी  कवयित्रियों की कविता पठनीय। मगर मेरी नजर ज्योत्सना की कविता पर ही जाकर ठहरी।"
अब स्मृति साथ नहीं देती उनका। लेकिन वह कविता तो उनकी स्मृति की शिलालेख हो गई
जब हर दिशा में /अंधकार गहराये थे/ तब मेरी पुतलियों के/ कंदील जल उठे थे/ मूक आलोक छिटक गया था /क्योंकि तुम जा रहे थे/ आज/ अनंत के हर कोने में/ दीप जल उठे हैं /आंखों से छलकते ताल में/ पुतलियों के दो कमल/ काँपकर खिल गए हैं/ क्या/ सच ही तुम लौट आए हो /
और कविता के अंत में छपे पते को देख मैं विस्मय से अवाक रह गया। इस पते पर तो जाने कितनी चिट्ठियां वीरेंद्र जी को लिख चुका हूं। यह कैसा संयोग था कि वयस्क जीवन में जिस पहले साहित्यकार को मैंने अपने इतने निकट पाया ज्योत्सना उन्हीं की पुत्री थी।"
" फिर कैसे उन्हें आप अपनी डिस्कवरी,अपनी खोज बता पाए ?"
"यह काम तो हमारे भाग्य ने किया ।संयोग ने किया ।बड़े विस्मय और उल्लास से बता दिया न अपनी डिस्कवरी को। रहा सहा काम ज्योत्सना के द्वारा मुझे लिखे पत्र ने किया।" और यह बताते हुए उनके चेहरे की खुशी मैं साफ महसूस कर रही थी।
जल्द ही वे ज्योत्स्ना दी से मिले। बार-बार मिलते रहे। उन अक्षर कुंजों में जहां उन दोनों की लेखनी के फूल खिले थे ।उस सुवासित कुंज में मिलते हुए ही उनके जीवन की किताब के कोरे पन्ने भरते गए। विवाह उपरांत रमेश दादा जब ज्योत्सना दी को लेकर अपने पैतृक निवास अल्मोड़ा गए तो यह सोच कर कि उनका परिवार खासकर उनकी माँ  इस विवाह के पक्ष में नहीं हैं वे ज्योत्सना दी को लेकर चिंतित हो उठे। जानते थे ज्योत्सना दी को बहुत कुछ अनभ्यस्त और विचित्र लगेगा और ऐसा होना लाजमी भी है ।
"मुझे तो मां और ज्योत्सना को एक दूसरे की पसंद का बनाना था ।दोनों ही स्त्रियां, शक्ति का स्वरुप। 3 वर्ष लगे मुझे मां का क्रोध शांत करने में। ज्योत्सना के पक्ष में लाने में। ज्योत्स्ना को भी उनकी अनुकूलता में ढालना था और ऐसा करने में मैं सफल हुआ। मां के लिए नई बहू के तेवर अनपेक्षित थे। धीरे-धीरे उन पर ज्योत्सना का जादू चल गया और देखते ही देखते वह क्या छोटे ,क्या बड़े सबके स्नेह का पात्र बन गई ।यहां तक कि उस बड़े परिवार के रसोई घर में भी उसका प्रवेश हो गया ।"
रमेश दादा ने कभी भी ज्योत्सना दी के किसी भी गुण को दबाया नहीं ।यह वह जमाना था जब स्त्री पितृसत्ता की आंच से पूरी तरह उबर नहीं पाई थी ।घरों में सामंती आदेशों का पालन करते हुए वह अपने मन को घोटते  हुए खत्म तक हो जाती थी। पर रमेश दादा ने ज्योत्सना दी के साथ ऐसा होने नहीं दिया।
रमेश दादा ज्योत्सना दी की यादों में खोए रहते हैं ।जैसे दिन के 24 घंटे आसपास ही हो कहीं ।उनका घर भी ज्योत्सना दी की उपस्थिति दर्ज कराता है। उनसे जिस दिन मिलने का तय था मैं नहीं जा सकी। मेरा ब्लड प्रेशर हाई हो गया था। दूसरे दिन गई तो रास्ता भटक गई ।जब पहुंची तो वे दीवान पर बैठे मेरे लिए चिंतित थे
" एक तो तुम्हारा ब्लड प्रेशर ठीक नहीं फिर भटकती रहीं जाने कहां-कहां" मैं अभिभूत थी उनकी मेरे प्रति आत्मीयता से। मैंने देखा एक साहित्यकार दंपति का ड्राइंग रूम
सादगी भरा......किताबों की खुशबू वाला....... एहसास हो रहा था जैसे अभी ज्योत्सना दी आएंगी..... लेकिन .....बिटिया शंपा तुलसी अदरक की चाय और बिस्किट रख गई ।पिता की देखभाल वही करती है ।सुबह 4:30 बजे उठा कर घुमाने ले जाती है ।चढ़ाई तक गाड़ी से फिर पैदल 2 किलोमीटर आना जाना, 85 की उम्र में। मैंने उन्हें प्रणाम किया
" आप की जिजीविषा को प्रणाम।" "तुम भी स्वास्थ्य पर ध्यान दो। स्वस्थ तन, स्वस्थ मन ।तभी तो एकाग्र चित्त लिख सकोगी। ज्योत्सना इस मामले में बहुत मूडी थी ।वह अपने इस पक्ष को भी बगैर किसी संकोच के तुरंत तत्काल अभिव्यक्त होने देती थी। किंतु उसके अंतर्मन में या कहें स्वभाव में एक ऐसी जबरदस्त उछाल थी कि वह पलक मारते ही किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया से उबर जाती थी। बिल्कुल अल्मोड़े के आसमान की तरह ।जो कभी एकदम नीला निरभ्र होता और कभी एकदम बादलों से घिर जाता और मिनटों के अंदर तड़ातड़ बरस कर फिर उसी पारदर्शी निर्मलता से जगमगा उठता ।अन्याय चाहे वह जिसका भी जिसके भी प्रति हो उसे कतई नागवार था ।उसकी अनदेखी करना उसके प्रति तटस्थ भाव ओढ़ जाना नामुमकिन था। स्वभाव मेरा भी ऐसा ही है। अतः हम मिलकर अन्याय का विरोध करते।"
"आपके कवि पक्ष  से वे कितना जुड़ी थीं जबकि वे स्वयं कवयित्री थीं।"
" जब मैं कक्षा नवमी में था तबसे कविताएं लिख रहा हूं। कविता से ही कलम को विस्तार मिला। उन दिनों अल्मोड़ा से निकलने वाला पहला साप्ताहिक पत्र शक्ति में यह कविता छपी थी ।अब यह मत कहने लगना कि सुनाओ कविता। उपन्यास ,कहानी, ललित निबंध सब विधाओं पर कलम चली। तुम्हारे भी ललित निबंध पढ़े हैं। तसल्ली होती है कि कोई महिला साहित्यकार ललित निबंध भी लिख रही है।"
जी, फागुन का मन मेरा ललित निबंध संग्रह है। डॉ विद्यानिवास मिश्र मुझसे हमेशा कहते थे लिखा करो महिला ललित निबंधकार कम ही हैं ।"
मैं तो ललित निबंध को आत्म निबंध कहता हूं ।बड़ा कठिन होता है इसका सृजन। खुद से मुठभेड़ करना कोई मामूली बात नहीं है। बड़ी दर्दनाक प्रक्रिया है यह सृजन की।  ज्योत्सना कहती थी कि "आप मूलतः कवि ही हैं। अन्य विधाओं में आप नाहक उलझे रहते हैं। "
अब क्या करूं ।मन नहीं मानता। मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि भी तो साहित्य अकादमी पुरस्कार का मिलना है। 78 किताबें लिखने के बाद कहीं जाकर विनायक उपन्यास को साहित्य अकादमी के लिए चुना गया । छह बार साहित्य अकादमी के लिए मेरी किताबें शॉर्टलिस्ट की गईं।
38 साल पहले जब मेरा उपन्यास 'गोबर गणेश' प्रकाशित हुआ था, तब पहली बार मुझे साहित्य अकादमी दिये जाने की चर्चा हुई थी। "
"ये 78 किताबें सभी विधाओं में लिखी होंगी आपने ।"
" हाँ संतोष ,मेरी किताबें कम से कम छह अवसरों पर साहित्य अकादमी के लिये शार्टलिस्ट की गईं, लेकिन मुझे सुख केवल इस बात का है कि जिस 'विनायक' उपन्यास के लिये अंतत: मुझे साहित्य अकादमी मिला, वह मेरे पहले उपन्यास  'गोबर गणेश' का ही विस्तार है।"
"तुमने डायरी पढ़ी  है मेरी  'अकेला मेला'  । उसमें १९८० से ८६ तक की घटनाओं का वर्णन है। 
कई लोगों का कहना है कि इस डायरी को पढ़ते हुए सहसा उन्हें मेरा यात्रा-संस्मरण 'एक लम्बी छांह याद' हो आता है। इंग्लैंड और आयरलैंड के छवि-अंकन से बढ़कर वह पुस्तक एक बौद्धिक सहयात्रा का आनंद देती है। इस डायरी में भी अपने पाठकों को वैसी ही यात्रा पर ले जाने का प्रयास है।
ये वर्ष मेरे लेखन के सबसे महत्वपूर्ण वर्ष सिद्ध हुए। मेरा मन जो इतना खुला और समावेशी है, जो लिखे हुए का प्रभाव ग्रहण करता है, उसकी व्याख्या करता है और उससे जब-तब जिरह कर कृतज्ञ भी होता है।
सच में लेखन का आनंद ही कुछ और है।"
मेरी पुस्तक जो 18वीं सदी से अब तक की मुंबई का महत्वपूर्ण दस्तावेज है "करवट बदलती सदी आमची मुंबई "के लोकार्पण की अध्यक्षता करते हुए रमेश चंद्र शाह दादा ने कहा था कि " मुंबई मेरी ससुराल है ।कई बार मुंबई जाना हुआ , घूमा भी लेकिन तुम्हारी किताब पढ़कर लगता है अब मुंबई फिर से जाना होगा क्योंकि इस रूप में तो मुंबई को मैंने जाना ही नहीं।"
उनके घर पर हुई मुलाकात के दौरान जब मैंने इस किताब और इस पर दिए उनके उद्बोधन की चर्चा की तो कहने लगे
"मुंबई भारत का सर्वाधिक कॉस्मोपॉलिटन महानगर है । वही कॉस्मोपॉलिटन संस्कार ज्योत्सना के भीतर कहीं गहरे बिंधे हुए थे। यह उसकी कविताओं में स्पष्ट झलकता है ।उसकी छोटी सी कविता है
पैदा होने के दिन से/ हरदम कूदने को /झुका शहर /समुद्र पर । स्वभाव की छोटी-छोटी बातें मुंबई से उसको जोड़े रखती थी। जैसे मुझे अल्मोड़ा से। तुम भी महसूस करती हो न ऐसा। तभी तो लिख सकीं आमची मुंबई ।"
अद्भुत बात है। स्मृति भले ही काफी कुछ अतीत का भूलने का कहती है पर सब कुछ को याद रखने की उनकी मजबूरी भी दिखाई देती है।
शायद उसी रौ में वे बताते रहे
"मुंबई के कॉस्मोपोलिटन संस्कारों की वजह से ही वह जीवन की तमाम तरह की परिस्थितियों परिवेशों को सहज अपना लेती थी। विवाह के बाद मैं सीधी जो विंध्य प्रदेश का सर्वाधिक पिछड़ा इलाका है वहां प्राध्यापक नियुक्त हुआ ।
सीधी तो बिल्कुल अंडमान जैसा, न पार्क, न थिएटर, न सिनेमाघर। कायदे का एक बाजार तक नहीं और तो और हमारा निवास भी एक के भीतर एक धँसे तीन डिब्बा नुमा कमरों का था जहां सुबह शाम चूल्हे सुलगते ही पड़ोसी घरों का सारा धुआं घर के अंदर भर जाता था। बुरादे की अंगीठी से ही अक्सर काम चलाना पड़ता था। ऐसे माहौल में गृहस्थी की शुरुआत, आंखों में ढेर सारे सपने और एक-एक करके गुजरते पूरे 8 वर्ष। लेकिन ज्योत्सना ने खूब साथ दिया। किसी भी असुविधा के लिए उफ नहीं किया। हमारे बीसियों सहकर्मी तो एक डेढ़ बरस में ही तौबा करके चले गए। हम दोनों अपवाद सिद्ध हुए जो बिना किसी शिकायत और कुंठा के मस्त रहे अपने इस अरण्यकांड में ।उसी को अपना राज्याभिषेक मानते रहे। प्रतिदिन प्रातःकाल 3 किलोमीटर स्थित शोणभद्र के दर्शन करना वह भी टेकरी पर चढ़कर हमारा रूटीन था ।उन दिनों अजीब सा नशा था। सप्ताह में 1 दिन घर में संगीत की बैठकी होती जो हमें सप्ताह भर की ऊर्जा जुटा देती ।साल में दो-तीन बार इलाहाबाद के चक्कर लगाते ।इलाहाबाद साहित्यकारों का तीर्थ। खूब मन भी रमता वहां और यह सब संभव होता ज्योत्सना की बदौलत ।सोचता हूं कैसे लांघी होगी मुंबई से सीधी के बीच की दुर्लंघ्य खाईयाँ उसने।
वह तो नौकरी करने की भी जिद करती । वे तंगहाली के दिन थे। मुझे अपने वेतन का एक तिहाई हिस्सा अपने माता-पिता को भेजना पड़ता था ।जिसमें वह मेरा सहयोग करना चाहती थी। पर मैं यह कहकर रोक देता कि क्या घर चलाने की आठों प्रहर की नौकरी कम है जो तुम एक और बोझ अपने सिर पर लादना चाहती हो। थोड़ी सी जो मोहलत तुम्हें नसीब है अपनी अंतरातमिक्चर्या को जीने की उसे भी क्यों गवा देना चाहती हो।"
इस घटना के 20 बरस बाद जब वे भोपाल स्थानांतरित हुए तब वह दिन भी आया जब सेवा संस्था की संस्थापक और विश्व प्रसिद्ध समाज सेवी इलाबेन भट्ट भोपाल पधारीं और उन्होंने अपने पाक्षिक मुखपत्र अनुसूया को हिंदी में निकालने संपादित करने का प्रस्ताव ज्योत्सना के सामने रखा। यही तो चाहती थी वह। लिहाजा वह जुट गई इलाबेन के साथ विभिन्न कार्यों में।
उसने इला भट्ट के ऐतिहासिक उपन्यास ‘लॉरी युद्ध’ का हिंदी अनुवाद किया, साथ ही उनकी स्त्री-चिंतन की पुस्तक का अनुवाद ‘हम सविता’ नाम से किया।
अनुसूया ज्योत्सना के जीवन में उतने ही महत्व की जगह घेरी रही जितनी उसकी कविता और कहानी। स्वरोजगार स्त्रियों को समर्पित यह भारत ही क्या विश्व भर की इकलौती अनूठी संस्था और उसकी गतिविधियों में ज्योत्सना सहर्ष रमी रहती। यह सच्चे अर्थों में सेवा थी। इला बेन उसकी प्रेरणा स्रोत थीं। उसका अंतरंग संबंध इंदौर ,लखनऊ, भागलपुर इत्यादि तमाम सेवा केंद्रों में कार्यरत स्त्री शक्ति के प्रतिनिधियों से रहा।
यह सिलसिला चलता रहता , अगर इंदौर से लौटना उसके लिए अंतिम सिद्ध न होता।
"अंतिम !वो कैसे ?"
"नहीं संतोष, मत पूछो ।उस तकलीफ से मैं प्रतिदिन गुजरता हूं।वह स्मृति नहीं कृति है मेरी, शिलालेख जो मेरे हृदय में अंकित है। भोपाल के चिरायु में उसने अंतिम सांस ली ।क्या इससे भी अधिक वाहियात और विडंबना पूर्ण किसी अस्पताल का नाम हो सकता है ।उसकी अचेतन जीवन यात्रा 3 दिन 3 रात का सफर तय कर हमेशा के लिए लुप्त हो गई। मेरी अर्द्ध विक्षिप्त हुई चेतना पर उसकी कविताओं की दस्तक मेरी कलम को विस्तार देती रहती है।"
मैंने उनसे विदा ली तो गहराती शाम में इस महान लेखक का, महान प्रेमी का ,अपनी सहचरी के महान सहचर का बड़ा सा सितारा जगमगाते पाया।


 - संतोष श्रीवास्तव की स्मृति से

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