प्रेमचंद जी का शव पड़ा हुआ था। उस निर्जीव शरीर को गोद में चिपटाये भाभी शिवरानी आकाश का भी हृदय दहला देने वाला करुण क्रन्दन कर रही थीं। श्मशान जाने के लिये नगर के सैंकडों संभ्रान्त साहित्यिक उतावले हो रहे थे। कुछ अपने दु:ख का वेग नही सम्भाल पा रहे थे। कुछ को 'और भी बहुत से काम थे।' उन्हें जल्दी थी 'इस काम से निबट जाने की।' और कुछ ने मुझे बतलाया था कि वह रास्ते से ही अलग हो जायेंगे, श्मशान तक न जा सकेंगे।
और भाभी शिवरानी शव को किसी को छूने नहीं दे रही थीं। सबने 'प्रसाद' जी से कहा -- 'आप ही समझायें।' वे आगे बढ़े। भाभी से बोले -- 'अब इन्हें जाने दीजिये।'
वे क्रोध पूर्वक चीख़ उठीं --- 'आप कवि हो सकते हैं पर स्त्री का हृदय नहीं जान सकते। मैंने इनके लिये अपना वैधव्य खंडित किया था। इनसे इसलिये नहीं शादी की थी कि मुझे दुबारा विधवा बना कर चले जायें। आप हट जाइये।'
प्रसाद जी के कोमल हृदय को वेदना तथा नारी की पीड़ा ने जैसे दबोच लिया। उनका गला भर आया। नेत्रो मे आँसू छलछला उठे।
मैं ही सामने खड़ा दिखाई पड़ा। मुझसे भर्रायी आवाज में बोले -- ' परिपूर्णा, तुम्हीं सम्भालो। 'भाभी चिल्लाती चीखती रहीं और मैंने 'अब यह प्रेमचंदजी नहीं हैं, मिट्टी है'--- कहकर मुर्दा उनकी गोद से छीन लिया।
उस घटना के बाद मैंने प्रसाद जी को कभी हँसते नहीं देखा।
उनके शरीर मे क्षय घुस चुका था।
जब चिता की लपट उन्हे समेटने लगी, सब लोग इधर उधर की बातें भी कर रहे थे। प्रेमचन्द जी के सम्बन्ध में कलप रहे थे। पर एक व्यक्ति मौन, मूक, एकटक चिता की ओर देखता रहा। प्रेमचंद जी का शव उठाने के समय ऐसी घटना हो गई थी उसके साथ कि उसका मन रो रहा था और शायद वह देख रहा था -- छ: महीने के बाद अपनी चिता भी.......
वह थे श्री जयशंकर 'प्रसाद'।
(बीती य़ादें ~~ परिपूर्णानन्द वर्मा)
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