धूमिल जी जब शहर में रहते तो अक्सर त्रिलोचन शास्त्री जी से मिलते। यह मिलना कभी त्रिलोचन जी के आवास पर होता या गोदौलिया, लंका पर या फिर इन्हीं किसी रास्ते में। त्रिलोचन जी बहुधा पैदल चलते थे और धूमिल जी के साथ उनकी साइकिल अवश्य रहती थी। कभी मन में आया तो नवाबगंज अपने किराए के घर में रहते,नहीं तो गांव खेवली चले आते थे। त्रिलोचन जी पिता जी के साइकिल के डंडे पर या फिर कैरियर पर सवार हो लेते थे।इसकी सहज चर्चा वे अपनी डायरी में किए हैं। जिसे अब पढ़ा जा सकता है।यदि पिता जी के पास साइकिल नहीं होती तो कभी -कभी वे दोनों लोग रिक्शे से चलते थे।एक बार गोदौलिया से लंका जाते समय, त्रिलोचन जी अकेले रिक्शे से जा रहे थे। रिक्शा चालक ने त्रिलोचन जी से पूछा ,'बाबू ,ऊ मूंछ वाले बाबू जी आज आप के साथ नहीं हैं ?कहां चले गए? त्रिलोचन जी ने रिक्शे वाले से पूछा --'क्यों, क्या बात है। उनकों क्यों पूछ रहे हो?'रिक्शे वाले ने कहा -- 'बाबू, जब वे रहते हैं। आप लोगों में बातें, बहुत अच्छी होती हैं।हम सुनते - सुनते गोदौलिया से लंका कब पहुंच जाते हैं,पता ही नहीं चलता। बाबू आप तो कम बोलते हैं लेकिन मूंछ वाले बाबू की बातें बहुत अच्छी लगती हैं!'त्रिलोचन जी ने सोचा कि धूमिल भाषा में जीत गए।हम लोगों को बहुत पीछे छोड़ गए !
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रत्नशंकर पाण्डेय की स्मृति से
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