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सोमवार, 3 अप्रैल 2023

इलाहाबाद की वह शाम : पंत जी के नाम

१९७७ की गर्मियों में इलाहाबाद जाना हुआ। वहाँ मेरी बहन हिमांशु और उनके पति मेजर रमेश का घर था। उनके घर में मैं और मेरी पत्नी स्नेह सुधा पाँच दिन रहे।

दूसरे दिन मैंने सोचा कि आचार्य रघुवंश जी से मिलूँ, वे वहाँ विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफ़ेसर थे। मैं एक रिक्शा से उनके घर पहुँचा। मैंने आचार्य जी से पूछा कि "क्या आप मुझे सुमित्रानंदन पंत जी से मिलवा सकेंगे?" इस पर उन्होंने बताया कि वे भी कई दिनों से पंत जी के घर जाना चाह रहे थे। वे झटपट तैयार हुए और हम दोनों रिक्शा में बैठकर पंत जी के घर चल दिए।

मुझे बहुत सुखद अनुभूति हो रही थी कि मैं अपने लोकप्रिय कवि से मिलने वाला हूँ और वह भी एक प्रख्यात विद्वान के साथ।

पंत जी के घर के द्वार के बाहर हनुमान जी की छोटी सी प्रतिमा लगी हुई थी और कुछ पुष्प चढ़े हुए थे। मैंने मूर्ति को प्रणाम कर आचार्य जी के साथ भीतर प्रवेश किया अपने समक्ष छायावाद के एक महाकवि को पाकर मैं रोमांचित हो उठा और उनके संकेत से एक कुर्सी पर बैठ गया। मैं अभिभूत था जब आचार्य रघुवंश और पंत जी अत्यंत आत्मीयता से आपस में मिले।

रघुवंश जी ने मुझे पंत जी से मिलवाते हुए बताया कि मैं एक नवोदित लेखक हूँ जो दिल्ली से पधारा हूँ। पंत जी ने बड़े प्रेम से मुझे निहारा और पूछा "क्या लिखते हो?" 
मैंने कहा, "जी मैं व्यंग्य लिखता हूँ" 
"गद्य या पद्य?" पंत जी ने पूछा था। 
मेरे 'गद्य में' बताने पर उन्होंने कहा, "यह तो बहुत कठिन है।"
पंत जी और आचार्य जी बातें करते रहे और मैं पंत जी के मोहक और दिव्य चेहरे को निहारता रहा। पुस्तकों में, पत्र-पत्रिकाओं में और टेलीविजन में जिनको बड़ी श्रद्धा से देखता रहा था वही पंत जी मेरे सम्मुख बैठे थे। तीखे नैन-नक्श, उज्ज्वल गौर वर्ण और प्रभावित कर देने वाली छवि उनके साथ शिकंजी पीने और आटे के बिस्किट (संकोच से) खाने में जो आनंद आया, वह बड़ी-बड़ी पार्टियों के व्यंजनों में भी कभी नहीं आया था।

वे दोनों बातें करते रहे और मैं उन दोनों बड़े साहित्यकारों को सुनता रहा और मन में अनेक भाव बुनता रहा। थोड़ी देर बाद बाहर से किसी कार के हॉर्न बजने की आवाज़ आई, पंत जी बोले, "अरे अमृतराय आए हैं।" दोनों खड़े हो गए, मैं भी खड़ा हो गया और सोचने लगा कि कितनी विनम्रता और उदारता इन विद्वानों में है कि अपने से छोटे श्री अमृत राय के लिए वे खड़े हो गए ...। वे दोनों द्वार की ओर बढ़े तो मैं भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। मैं खुश था कि अमृत राय जी मुझे पहचानते हैं।

दरवाज़ा खुला, बाहर सफेद कुर्ता-पायजामा में हाथ जोड़े अमृत राय जी दिखे और दिखी उनकी पुराने मॉडल की फिएट कार। पंत जी ने उनका स्वागत किया और भीतर चलने को कहा। अमृतराय ठहरे अमृतराय, उन्होंने पंत जी से व्यंग्य मिश्रित भंगिमा से पूछा, "आप हनुमान जी की पूजा करते हैं, आप तो इन बातों को नहीं मानते। फिर भी द्वार पर हनुमान जी को फूल चढ़ाते हैं?", कहकर वे अपने पिता मुंशी प्रेमचंद की शैली में ज़ोर से हंसे।

पंत जी ने उत्तर दिया, "मैं उन हनुमान जी पर फूल चढ़ाता हूँ, जो आम लोगों के प्रतिनिधि हैं जिन्हें राम भी मानते थे। तुम भी तो आम जनता और पिछड़े हुओं को प्रश्रय देते हो।"

अमृत राय ने हाथ जोड़ दिए और उनसे कुछ बोला न गया। वे भीतर आए, मुझे देखा और बोले, "नौजवान तुम भी यहाँ?" 
मेरे उत्तर देने से पहले रघुवंश जी ने उनसे पूछा, "तुम हरीश नवल को कैसे जानते हो?" 
"नागपुर के विश्व हिंदी सम्मेलन में मिले थे ये। विजयेंद्र स्नातक जी के दामाद हैं न" अमृत जी ने कहा।

अब मेरे समक्ष हिंदी साहित्य के तीन विद्वान आपस में बतिया रहे थे और मैं अपने कानों और नेत्रों में सुख महसूस कर रहा था और जानता था, जानता हूँ कि पंत जी के घर में बिताए वे चंद क्षण कभी नहीं भूल पाऊँगा।

- हरीश नवल की स्मृति से।

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