‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



शुक्रवार, 15 नवंबर 2024

बोरूंदा, बिज्जी और मैं उर्फ 6 कोस का सफर

जब भी गांव आता हूं, पहली प्राथमिकता बिज्जी से मिलना ही होती है हालांकि घर के लोग पहले इसे उलाहने के तौर पर कहते थे, अब ये उन्होने भी मान लिया है,  गांव गए ज्यादा दिन हो जाए तो मजाक में यह जरूर कह देते हैं कि कभी केवल हमसे मिलने ही आ जाया करो या ’बिज्जी से मिलने ही आ जाओ।’ 

एक खास बात यह भी है कि मुझे लगता है बिज्जी भी मुझसे मिलने के उतने ही इच्छुक होते हैं जितना मैं उत्सुक। पता नहीं उनका ऐसा स्नेह सिर्फ मेरे लिए है या सबके लिए पर मैं ऐसा क्यों सोचूं। जी वो मेरे पहले साहित्यिक गुरु हैं और उम्र का फासला एक बार अलग रख दिया जाए तो बहुत अच्छे मित्र वे 82 बसन्त देख चुके हैं और मैने तो अभी 27 ही पार किए हैं।

अगर यह कहना मेरी धृष्टता न माना जाए तो बिज्जी से मेरा याराना हुए आठ बरस तो हो ही गए हैं। पर आज तक उनके लिए ‘दिनेश जी‘ ही हूं मेरे बीसियों बार कहने के बावजूद मुझे वे ‘दिनेश‘ नहीं कहते। इन आठ बरसों में कितनी मुलाकातें हुई खुद मुझे याद नही। पर इतना जरूर और जाहिर है कि जयपुर से जितनी बार घर गया लगभग हर बार उनसे मुलाकात हुई। मेरा गांव बिज्जी के गांव से 24 किलोमीटर की दूरी पर है बिज्जी के लोक की भाषा में कहूं तो सिर्फ 6 कोस।

पहली बार जब मैं उनसे मिला था तो उन्हे केवल नाम और उनके साहित्य के हवाले से जानता था शायद इसी तरह से किसी साहित्यकार को शुरूआत में जाना जाता है। फोन किया, एक आवाज आई ’हां भाई’, जवाब में पूछता हूं बिज्जी बोल रहे हैं?’  ’हां बिज्जी बोलूं हूं ’। अभिवादन के बाद मिलने का समय मांगता हूं तो कहते हैं ’आ जाओ’ और फोन रखने से पहले कह देते हैं ’हां सुनो, खाना खाकर मत आना’ । पहुंचता हूं तो बिज्जी बनियान और लुंगी में हैं तब से आज तक हमेशा इसी परिधान में मिलते हैं बशर्ते सर्दियां ना हां। उनसे मिलकर अपनी लिखने की ललक को प्रकट करता हूं और अपनी कुछ कच्ची-पक्की कवितानुमा पंक्तियां दिखाता हूं तो पढकर कहते हैं ’ये सब तो ठीक है, पर पहले पेट भरने के लिए नौकरी का बंदोबस्त कर लो,  उसके बाद लिखना’। आज भी याद है मुझे कि उसके बाद टैगोर, शरत् , चेखव,  टॉलस्टाय आदि को पढ़ने की सलाह भी दी थी। पहली मुलाकात में ही उन्होने कोई औपचारिकता नहीं बरती और फिर तो मुलाकातों का सिलसिला ही चल पड़ा।

13 जुलाई को इस बार मिलकर आया हूं। पिछले आठ सालों में पहली बार ऐसा हुआ कि मै बिज्जी के पास गया और वे लेटे हुए मिले। हमेशा लिखते या पढ़ते ही मिलते हैं। मुझे देखते ही उठ बैठे और मेरे हालचाल पूछने लगे वहीं बैठे-बैठे सिर्फ मेरे लिए चाय की आवाज लगाई क्योंकि खुद तो चाय पीते नहीं हैं कभी कॉलेज के दिनों में पीते थे बस। लेटे हुए देखकर मन में उनके स्वास्थ्य को लेकर शंका हुई पूछ लिया तब पता चला कि अभी चार दिन पहले ही आंखें चैक करवा कर आए हैं उनमें इन्फेक्शन हो गया था इसलिए अभी पढ़ना-लिखना जरा बंद है और वे आराम की मुद्रा में हैं।

चाय आई तब तक चर्चा चल पड़ी और उन्होने मुझसे हमेशा की तरह पूछा क्या पढ़ा है इन दिनों ? मैं राकेश कुमार सिंह की ‘महुआ मांदल और अंधेरा‘ सुधा अरोड़ा संपादित ‘औरत की कहानी‘ मीराकांत की ‘कागजी बुर्ज‘ आदि के बारे में बताने लगा। इत्तेफाक से राकेश कुमार सिंह से मेरा पहला परिचय उन्होने ही करवाया था। उनके उपन्यास ‘जो इतिहास में नहीं है‘ के जरिए। फिर तो वो मेरे प्रिय कथाकारों में शामिल हो गए।

जब मैने बिज्जी से ज्ञानपीठ से आ रहे उनके उपन्यास ‘अन्तस का उजास‘ पर मुझे ना बताने का उलाहना सा देते नए प्रकाशनों के बारे में पूछा कि मैं जब चार महीने पहले आया तब तो आप प्रेम कथाएं लिख रहे थे ! बोले- ‘अरे ! गलती से ज्ञानोदय के विज्ञापन में छप गया कि उपन्यास है, ये वही प्रेमकथाएं हैं,  इनका पहला भाग आ रहा है। उसके बाद छः भाग और आने हैं। रेमाधव प्रकाशन से संजीव मेरी कहानियों की किताब संपादित कर रहे हैं, वहीं साहित्य अकादमी से कैलाश (कैलाश  कबीर  उनके बेटे) द्वारा संपादित मेरी एक किताब आ रही है।‘

इन दिनों क्या लिख रहे हैं?  पूछता हूं तो कहते हैं कि जब से गिरा हूं लिखना कुछ कम हो गया है (पिछले बरस सितंबर में वो बाथरूम में गिर गए थे सिर मे चोट लगी थी और जिससे थोड़ी स्मृति कमजोर पड़ गई है) तभी आवाज लगाते हैं निसार कठै तक पहूंचगो? निसारजी कहते हैं ‘गुणवंती देखूं हूं।‘ बिज्जी पूछते हैं ‘खेजड़ी तक पहूंचगो? ‘अबै इज शुरू करी हूं‘ निसारजी बोले। निसारजी बिज्जी के पुराने सहायक हैं बरसों से साथ ही रहते हैं। दरअसल बिज्जी की बातां री फुलवाड़ी का पुनः प्रकाशन हो रहा है। उसके नवें खण्ड के प्रूफ देख रहे थे निसारजी। 

तभी हमारे लिए खाना आ गया था। बिज्जी के लिए सब्जी रोटी व दूध और मेरी थाली में दो सब्जी अचार दही और लापसी। लापसी राजस्थान का व्यंजन है जो मेहमानों के लिए विशेष रूप से बनाया जाता है। डायबिटीज के कारण बिज्जी मीठा नहीं खाते और लापसी मीठी होती ही है। इसे खास बात ही माना जाना चाहिए कि जो भी बिज्जी से मिलने आता है खाना उसे वहीं खाना होता है। मेरे लिए तो आने से पहले ही सख्त हिदायत होती है कि खाना साथ ही खाएंगे ताकि फिर कोई बहाना ना रहे कि खाकर आया हूं। कई बार देरी हो जाती है तो मुझ अकेले को खिलाते हैं और खुद बैठकर मेहमाननवाजी करते हैं। 

मैं तो एक तरह से उन पर उनके लेखन पर मोहित सा ही हूं और मुंबई की शायरा दीप्ति मिश्रा के शेर का तर्जुमा करते हुए कहूं कि ‘लोगों की नजर में ये गुनाह है तो है‘ और मुझे ये कुबूल है और मैं ये गुनाह बार-बार करना चाहूंगा। उनकी एक खासियत यह है कि वे लिखते-लिखते रुक जाते हैं और बात करने लगते हैं कुछ पढने लगते हैं और सो जाते हैं और फिर उठकर वहीं से लिखना शुरू कर देते हैं। यानी उन्हे क्रम टूटने जैसी कोई अनुभूति नहीं होती। मुझे ये जानकर भी सुखद आश्चर्य होता है कि उनकी दोस्ती या संपर्क नई पीढ़ी के लेखकों से भी उतना ही बेहतर है जितना अपने हमउम्रों से है। युवतर लेखकों में संजीव, राकेश कुमार सिंह,  उदयप्रकाश और अनामिका उनकी पसंद हैं। एक और खास बात बताता चलूं कि वे साक्षात्कार  देने से बचते रहते हैं। क्योंकि उन्हे लगता है जो मैं कहना चाहता हूं अपने लेखन के जरिए कह ही देता हूं। फिर साक्षात्कार का क्या मतलब।

बिज्जी को दुनिया उनके लोक केन्द्रित और लोक संबोधित सृजन के कारण जानती, मानती और पहचानती है। सच कहें तो वे इस कदर लोक में रचे बसे हैं कि उनकी हरेक कहानी उपन्यास में प्रथमतः और अंततः लोक ही दिखता है। वे अपनी कहानी सुनाने भी लगते हैं और एक बच्चे के से चाव के साथ। मैं हुंकारा भरता जाता हूं। बिज्जी से कहानी सुनने का आनंद ही कुछ और है चाहे कहानी उनकी हो या उनके लोक की और कैसे भूल जाऊं कि मेरा भी तो यही लोक है। मेरी बात निकली है तो याद आया कि मेरे गांव जालीवाड़ा के बारे में अपने पिता द्वारा रचित छंद वे हर बार सुनाना नही भूलते- 

ढबस्या भैते ढीमड़े पाणी लैस्यां पाय।

चारौ बळदा चारस्या जाळीवाड़े जाय।।

लोक की बात करते-करते फिल्मों की बात चल पड़ी मैने पूछा कि दोहरी जिंदगी का क्या हुआ? तो बोले- अमोल पालेकर से अनुबंध हो ही गया है, पैसा भी वो दे गया है, फुर्सत में बन जाएगी।

चार बज गए, पता ही नहीं चला। उन्होने निसारजी से मेरे और निसारजी के लिए चाय मंगवाने को कहा। निसारजी आवाज लगाते हैं ‘पिंकी भाभा चा रो कहियो है च्यार बजगी है।‘ पिंकी उनके यहां काम करने वाली लड़की है। जवाब देती है ‘गाय नै दूवे है दूध आवता ही चा बणावै।‘ तभी बिज्जी कहते हैं ‘निसार तो कब्र मैं पग लटकता व्है तो ही चाय पी लै।‘ रुक कर कहते हैं ‘क्यूं निसार!‘ और हंस देते हैं और कहते हैं ‘निसार तनै कब्रिस्तान मैं कुण चाय पाई रै!‘ ‘भाभा पछै चाय री काईं जरूरत हैं।‘ बिज्जी का कमरा हंसी से खिलखिला उठा। एक बार फिर वे निसारजी से पूछते हैं -‘कठै तक पहूंचगो !‘ जवाब मिला ‘गुणवंती थोड़ीक बची है।‘ 

तभी उनको याद आता है कि किसी को फोन करना है, निसारजी मोबाइल मिलाकर बिज्जी को देते है, वे बात पूरी करके मोबाइल निसारजी को देते हुए मुझसे कहते हैं- ‘राजीव गांधी सूचना क्रांति जोरदार ही लायौ। आदमी कठे ही व्है बात कर लै।‘ वे जब से गिरे हैं मोबाइल काम में लेने लगे हैं।

...और इतने में चाय भी आ गई।

बिज्जी फिर निसारजी को अलमारी में से किताबें ठीक करने को कहते हैं। उनमें कुछ उनकी पसंदीदा पुरानी किताबें और कुछ नई किताबें जिन्हें अभी वे पढ रहे हैं। किताबें पढ़ने का भी उनका अलग ही अंदाज है। हार्डबाउंड किताबों के कवर उतार कर पढ़ते हैं। पूरी किताब में पसंदीदा जगहों पर अंडरलाइन और टिप्पणी करते हुए पढ़ते हैं।

इतने में देखता हूं कि छः बजने वाले हैं। देखिए, उनके गांव से मेरे गांव के लिए आखिरी बस का समय होते पता भी नहीं चला। मैं  बिज्जी से विदा लेता हूं। 

 [2008 में बिज्जी से एक मुलाकात]

दिनेश  चारण की स्मृति से 



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महाप्राण निराला के अंतिम दिन

हिंदी कविता के आधुनिक युग के सबसे बड़े कवि निराला जी के जीवन के आख़िरी वर्षों में उनकी अस्वस्थता को लेकर कई तरह की कहानियां हैं।रूस के प्रसिद्ध हिंदी विद्वान ई.पी.चैलिशेव 1959 में निराला जी से मिलने आये थे।वे कवि सुमित्रानंदन पंत और गिरिजा कुमार माथुर के साथ उनके दर्शनों के लिए पहुंचे जिसके बारे में उन्होंने अपने संस्मरण में निम्न प्रसंग लिखा है।इस प्रसंग को पढ़कर जाना जा सकता है कि हमारी हिंदी के गौरव  निराला अपनी भयंकर अस्वस्थता की स्थिति में भी भीतर से जाग्रत रहते थे।शांत और ध्यानमग्न रहते थे फिर भी उनसे मिलने वाला हर कोई निगाह मिलाते ही उनकी दिव्यता और असाधारणता का स्पष्ट अनुभव करता था।यह अत्यंत पठनीय और हृदयस्पर्शी संस्मरण है।


" मैं अनेक वर्षों से भारत के इस महान कवि के काव्य का अध्ययन करता रहा हूँ और चिरकाल से मेरी यह उत्कट अभिलाषा थी कि मैं इस महान व्यक्ति के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त करूँ ,जिसे उसके देशवासी 'महाकवि' के नाम से पुकारते हैं।मुझे इलाहाबाद में एक ही दिन रहना था।अतः संध्या समय में अन्य सब कार्यों से छुट्टी पाकर नगर की इस प्राचीन बस्ती की ओर जा सका।हिंदी के प्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत,रामकुमार वर्मा और गिरिजा कुमार माथुर ने मुझे अपने साथ ले जाने का प्रस्ताव रखा।उन्होंने मुझे पहले ही बता दिया था कि आजकल कवि निराला अपनी भयंकर बीमारी के कारण रोगशय्या पर पड़े हैं।उनकी बीमारी पहले से अधिक विषम हो गयी है जिसके कारण वह कभी-कभी बेहोश हो जाते हैं।

देर तक पुराने प्रयाग की तंग, टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में भटकने के बाद अंत में हम एक छोटे से पुराने मकान पर पहुंचे।द्वार पर ही निराला साहित्य समाज के एक नवयुवक सदस्य ने हमारा स्वागत किया।वह हमें शय्याग्रस्त रुग्ण कवि के पास ले गया।हम कमरे में पहुंचे जो दीपक के मंद,पीले प्रकाश से आलोकित था।पास में एक छोटी सी तिपाई पर पीतल का एक जलकलश रखा था,बराबर में कुछ पुरानी कुर्सियां पड़ी थीं।दीवार के बराबर एक आलमारी में बीस या तीस के करीब पुस्तकें रखी थीं और एक नीची चौड़ी सी खाट कोने में बिछी थी।बस, ले-देकर कमरे में यही सीधा-सादा सामान।खाट पर अपने बड़े-बड़े हाथों को आड़े रखे और छाती पर सिर ढलकाये एक व्यक्ति बैठा था।यही महाकवि निराला थे।

कवि के चेहरे से परम शांति और क्लान्ति टपक रही थी।परंतु जैसे ही उन्होंने अपना उन्नत ललाट और सुंदर,सुघड़ , सघन केश-राशि युक्त ग्रीवा ऊपर उठाकर हमारी ओर देखा, हमारे ऊपर भयंकर रोग ग्रस्त व्यक्ति का पहला पड़ा प्रभाव सहसा विलुप्त हो गया।उनकी विस्मयपूर्ण और गंभीर अभिव्यक्तिपूर्ण बड़ी-बड़ी आंखें हमारे ऊपर जादू कर रही थीं और अपनी अदम्य शक्ति और तारुण्य से हमारे हृदय को आर-पार बेधती हुई हमें परास्त कर रही थीं।

हमने अभिवादन किया और उनकी शय्या के निकट पहुंचे।अभिवादन के उत्तर में उन्होंने सिर हिलाकर हमें कुर्सियों पर बैठने के लिए संकेत किया।हम सब बैठ गए।मैंने कवि निराला को बताया कि पिछले वर्षों में सोवियत संघ में उनका नाम विख्यात हो गया है और उनकी अनेक कृतियों के रूसी भाषा में अनुवाद अनेक संस्करणों में प्रकाशित हुए हैं तथा निकट भविष्य में उनकी चुनी हुई दो गद्य और दो पद्य की कृतियां पुनः प्रकाशित होने वाली हैं।मैंने उन्हें यह भी बताया कि उनके देशवासियों की तरह सोवियत संघ की जनता भी भारत के प्रगतिशील साहित्य में उनके योगदान का बड़ा आदर करती है।निराला के स्थिर चेहरे पर मुस्कुराहट की एक लहर दौड़ गयी।उनकी रुग्ण शय्या पर उनके मित्र और सहयोगी सुमित्रानंदन पंत  साथ ही बैठ गए।पंत ने उनके कंधों पर हाथ रख कर उनसे कहा कि 'कुछ सुनाओ '। 'मैं तो आजकल बहुत थोड़ा लिखता हूँ ' निराला ने उत्तर में कहा परंतु कुछ क्षण में ही उन्होंने अपने अर्धनिमीलित नयनों से मंद-मंद मधुर स्वर में अपना कविता पाठ शुरू किया।कविता के शब्दों से मैं समझ गया कि यह 'राम की शक्ति पूजा' में से है।मुझे गिरिजा कुमार माथुर ने बताया कि यह निराला जी की प्रियतम कविता है और वह इसका अपनी मित्र मंडली में प्रायः पाठ किया करते हैं।मैंने देखा कि इससे निराला जी बिल्कुल रूपान्तरित हो उठे।उन्होंने अभिमान से अपना उन्नत मस्तक उठाया और जब उन्होंने महान पौरुष और उदात्तता के शब्द उच्चारण किए,उनकी आंखें उत्साह से दीप्त हो उठीं।

निराला जी के इस कविता पाठ को सुनकर मेरी समझ में आया कि जीवन और संघर्ष की उनकी इच्छा को कोई शक्ति भंग और परास्त नहीं कर सकती।हमने निराला जी से विदा ली।भारतीय रीति के अनुसार उन्होंने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और पुनः छाती पर सिर ढलका कर अपने विचारों में डूब गए।"

                            ★★★★★



पुस्तक :  महाप्राण निराला

प्रकाशक : सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय,भारत सरकार प्रकाशन वर्ष : 1961

पृष्ठ : 37-38


प्रकाश चंद्र गिरी के सौजन्य से 


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बुधवार, 13 नवंबर 2024

सावित्री बाजपेयी

 आज 7 अक्टूबर आदरणीय माँ की पुण्यतिथि है । ना जाने कितनी यादें चलचित्र की भांति घूम रही हैं ।मैं सबसे छोटी थी और हर समय उनके पीछे पीछे लगी रहती थी ।हमारे घर में राजनेताओं, कवियों ,लेखकों व साहित्यकारों का आना जाना लगा रहता था । कुछ तो मुझे याद आ रहे हैं,श्रीमान जवाहरलाल जी नेहरू,श्रीमती इंदिरा गांधी जी ,श्रीमान द्वारिका प्रसाद जी मिश्र , पंडित श्री शंभूनाथ जी शुक्ला , पंडित श्री गोविंद बल्लभ जी पंत ,श्रीमान गोविंद नारायण सिंह जी, श्रीमान गोपाल शरण सिंह जी, श्रीमान श्यामाचरण जी शुक्ल, श्रीमान कमलापति त्रिपाठी जी ,डॉ श्रीमान राजेंद्र प्रसाद जी ,श्रीमान कामराज नाडर जी, श्रीमान अर्जुन सिंह जी ,श्रीमान शंकर दयाल जी शर्मा,श्रीमान सवाई सिंह जी सिसोदिया ,सुश्री डॉ सुशीला नैयर जी,आदरणीया सुचेता कृपलानी जी,श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित,श्रीमान जगजीवन राम जी ,श्रीमान बिनोबा भावे जी, श्रीमान भगवान दास जी माहौर (जो श्रीमान चन्द्रशेखर जी के बचपन के मित्र व काकोरी कांड में उनके साथ थे। मेरे विवाह के एक वर्ष पहले सपत्नीक आये थे व दिन भर रहे थे मेरे विवाह में आने के लिये  कहकर गये थे पर कुछ महीने बाद ही उनकी मृत्यु हो गयी थी )श्रीमान हरिदेव जोशी जी,श्रीमान कुम्भा राव जी आर्य ,श्रीमान सुखाड़िया जी, और भी ना जाने कितने लोगों का आना हुआ करता था । आदरणीय डैडी जी बताते थे कि आपके विवाह के पहले जब मैं जयपुर जाता था तब जोशी जी या कुम्भाराव जी का मेहमान होता था ।पंडित बनारसीदास जी चतुर्वेदी ,पंडित विद्यासागर मिश्रा जी, श्रीमान डॉ शिवमंगल  सिंह सुमन जी,  श्रीमान डॉ धर्मवीर भारती जी , श्रीमान मैथिलीशरण  जी गुप्त ,सुश्री महादेवी वर्मा जी ,श्रीमान वृंदावन लाल जी वर्मा , श्रीमान हजारी प्रसाद जी द्विवेदी,श्रीमान सूर्यकांत निराला जी,श्रीमान कमलेश्वर जी,श्रीमान इंदीवर जी(आप डैडी जी के साथ स्वतंत्रता संग्राम में जेल में साथ भी रहे और साल में एक बार डैडी जी मिलने घर आया करते थे।),श्रीमान मनहर उधास जी(वो एक बार ही आदरणीय इंदीवर जी के साथ आये थे)।घर में सदैव चार पांच भोजन बनाने वाले लगे रहते थे व कई सहायक लोग भी रहते थे फिर भी माँ कुछ व्यंजन अपने हाथ से बनाती थी व आग्रह कर खिलाती थी ।हमारे गांव में एक लंगड़े भैया थे जो मांग कर खाते थे दोनों समय भोजन बनते ही उनकी थाली लेकर कोई भी सहायक देकर आता था और भी ना जाने ऐसे कितने लोग थे जिनकी मां को चिंता होती थी वे उनकी हर जरूरत पूरा करने की कोशिश करती थी । अभी मैंने आदरणीय डैडी के 100 वर्ष पूर्ण होने पर जो किताब निकाली गई थी( हमारे परिवार की तरफ से नहीं) उसमें मैंने पढ़ा कि आदरणीय डैडी जब गृह मंत्री थे और बंगला नंबर 2 में रहते थे उस समय भी कार्यकर्ताओं का व अन्य लोगों का तांता लगा रहता था । सभी के खाने-पीने की समुचित व्यवस्था माँ खुद करती थी । किताब के हवाले से वर्ष में 2 दिन 15 अगस्त व 26 जनवरी पर मां ने ऐसा नियम बना रखा था जिसमें वे डैडी के निजी सचिव ,निजी सहायक ,अंगरक्षक, चौकीदार ,चपरासी, बागवान ,सुरक्षाकर्मियों को अपने हाथ से बनाकर व स्वयं परोस कर खिलाती थीं और अपनी बनाई इस परंपरा को उन्होंने हमेशा निर्वाह किया।मैं सिर्फ 13 साल की थी तभी कैंसर ने मुझसे माँ को छीन लिया था । पर 13 वर्षों में जो मैंने  (हजारों लोगों ने देखा )देखा व महसूस किया उससे एक पूरा ग्रंथ लिख जाये । तभी तो उनकी पुण्यतिथि हो या कोई त्यौहार उनकी समाधि पर हम लोगों के जाने से पहले ही फूल मालाये , दीपक जल जाते थे । वह जाने कितने गांव की मम्मी थी ।कभी किसी को डांटते या अपशब्द बोलते नहीं देखा । घर में काम करने वाले सहायक लोगों को हमेशा जी कहकर बुलाती थी । और हम भाई बहनों को भी उन लोगों को जीजी भैया जी कहने के लिए कहा जाता था । एक घटना मुझे याद आ रही है उपन्यासकार श्रीमान वृंदावन लाल जी वर्मा अक्सर हमारे घर रुका करते थे वह अपना लेखन कार्य भी करते थे । सहायकों के होने के बाद भी मां एक रोटी हम से भी आग्रह कर परोसवाती थीं ।वह जाते वक्त तांबे की गोल इकन्नी हम दोनों बहनों को दे जाते थे ।ऐसे ही एक बुंदेलखंड के क्रांतिकारी महान पुरुष परम पूज्य पंडित परमानंद जी (चाचा जी )जिन्होंने अपनी 32 साल की सजा में 22 साल काले पानी की सजा काटी थी हमारे घर ही रुकते थे । हम लोग उनसे कहानियां सुनते थे उन्हें भोजन कराते समय माँ हमसे भी एक ना एक चीज परोसवाती थीं । माँ-बाप के दिये संस्कार और अच्छी आदतें ऐसे रच-बस जाती हैं कि हम चाहकर भी नहीं छोड़ पाते ।अब कई बार हमसे उम्र में छोटे कहते हैं आप हमें जी मत बोला करिये ,आप मत बोलिये आप बहुत बड़ी हैं हमसे पर चाह कर भी जी लगाये  बिना नहीं बोल पाते।

चित्र में माँ, कामराज जी व सुश्री डॉ सुशीला नैयर जी । माँ व पंडित द्वारिका प्रसाद जी,।माँ, कामराज जी व डैडी ।


रजनी मिश्रा की स्मृति से

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यादों के गलियारों से – काशी (वाराणसी)

 
अभी कुछ समय पहले काशी जाने का सुअवसर मिला तो यादों के गलियारों की अनेक खिड़कियाँ मन पर दोबारा दस्तक देने लगीं।  काशी के इतिहास, अध्यात्म, साहित्य, संस्कृति,कला, लोगों की जीवन पद्धति, परम्पराओं के  बारे में जो पढ़ा, देखा और सुना उसके चित्र ज़ेहन में उतरने लगे तो सोचा क्यों न इसे आपके साथ साझा करूँ।
काशी की एक परंपरा है। यहाँ पर बाहर से जो भी आया उसे काशी धर्म, जाति वर्ग और स्थिति को देखे बगैर अपनी कसौटी पर कसती है तथा उत्तीर्ण होने पर उस व्यक्ति को अपने में समाहित करके महिमामंडित कर देती है। इसी कारण दक्षिण से आये एक सन्यासी शंकर को काशी ने जगद्गुरु बना दिया, नेपाल में जन्में एक राजपूत को गौतम बुद्ध तथा प्रयागराज इलाहाबाद से आये एक वकील, मदन मोहन मालवीय को भारत रत्न उपाधि से महामंडित किया। काशी में जन्मी बालिका मणिकर्णिका छबीली, झाँसी पहुंच कर वीरांगना लक्ष्मी बाई बन जाती है। गायिका गिरजा देवी स्वर साम्राज्ञी कहलाती हैं। 
                मेरा जन्म कानपुर में हुआ, ससुराल पक्ष राजस्थान से आया, और कानपुर में ही रहा – किन्तु संयोग देखिये उस काल में जब आज की तरह विवाह स्थलों का चुनाव दूर दराज के नगरों – यहाँ तक कि विदेशों में भी होने का चलन हो रहा है, मेरा विवाह बनारस में हुआ और विवाह के दूसरे दिन ही प्रातः बेला में सर्वप्रथम काशी विश्वनाथ मंदिर में भगवान शिव का आशीर्वाद मिला। इस प्रकार से बनारस मेरी ससुराल हुई। अब 98 वर्ष की आयु में एक बार फिर बाबा विश्वनाथ का आशीर्वाद लेने का सौभाग्य मिला। 
                ऐसा नहीं है कि इस बीच काशी से मेरा सम्बन्ध टूटा रहा। एक साहित्यकार, एक पत्रकार होने के नाते काशी से कोई अलग कैसे रह सकता है। काशी अपनी धार्मिक, पौराणिक और आध्यात्मिक मान्यताओं के कारण सदैव ही विश्व प्रसिद्ध रही है। एक से बढ़कर एक मनीषी और श्रेष्ठ विद्वान यहाँ हुए हैं। बल्लभाचार्य, स्वामी रामानंद, योगदर्शन के प्रणेता पतंजलि तथा तंत्र विद्या के महान आचार्य महा महोपाध्याय गोपीनाथ कविराज आदि का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता है। अघोराचार्य बाबा कीनाराम की अनादि काल से प्रज्वलित आग्नेय रूद्र की धूनी काशी की विशिष्ट पहचान हैं। 
                वेद, वेदांग, छंद, उपनिषद, ज्योतिष शास्त्र, खगोलशास्त्र, व्याकरण तो काशी की पहचान है। काशी साहित्यिक, सांस्कृतिक, संगीत तथा सौन्दर्य की अद्भुत नगरी है। पहली बार पंचांग काशी में बना और आज तक चल रहा है। संगीत परंपरा में तो काशी का कोई जवाब नहीं है। संगीत के स्वर यहाँ की गलियों में उसी प्रकार गूंजते हैं जिस प्रकार घाटों और मंदिरों में घंटे की ध्वनि गूंजती हैं। संगीत के सबसे उच्चतम सप्तम सोपान पर यहाँ के भजनों को संगीतकारों ने संगीतबद्ध किया है। काशी ने बड़े-बड़े संगीतकारों को जन्म दिया है। पं. रविशंकर, हरिप्रसाद चौरसिया, उस्ताद विस्मिल्लाह खान। स्वर साम्राज्ञी गिरिजा देवी, यहाँ की शान हैं तो कला क्षेत्र में रामकृष्ण दास का कला भवन बेजोड़ है। 
                काशी को हम केवल एक दृष्टि से महिमामंडित नहीं कर सकते। साहित्य के क्षेत्र में काशी का वर्णन, कविता, कहानी, निबंध, आलोचना, यात्रा वर्णन, उपन्यास सभी में हुआ है। कबीर, तुलसीदास, भारतेंदु हरिशचंद्र, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, देवकीनंदन खत्री, रामचंद्र शुक्ल, राहुल साँसकृवाथन, श्यामसुन्दर दास, हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि एक से बढ़कर एक साहित्यकार काशी की धरोहर हैं। 
                काशी की विरासत की बात करें तो बरबस भारतेंदु हरिशचंद्र का नाम सामने आ जाता है। उसके साथ ही ‘बुड़वा मंगल’ मेले की याद ताजा हो जाती है। भारतेंदु के पिता फूलों का व्यापार करते थे – घर का मंदिर हो या बाबा विश्वनाथ का प्रांगण रंगबिरंगे फूलों विशेषकर गेंदे की चमक से सज जाता था। 
                उन्होंने ही बुड़वा मंगल मेले की शुरुआत की – प्रारंभ में इस मेले में व्यापारी ही आते थे – धीरे-धीरे समाज का जुडाव बढ़ता गया – भारतेंदु हरिशचंद्र ने बुड़वा मंगल मेले को एक नई पहचान दी – क्योंकि वे स्वयं कविता, नाटक साहित्य की सभी विधाओं से परिचित थे – धीरे-धीरे मेला साहित्य, संस्कृति का केंद्र बन गया। फूलों की प्रदर्शनी के साथ वहां कविता पाठ, कहानी चर्चा, रामायण मंचन, नौटंकी आदि के मंचन से लोगों का मनोरंजन होता था तो साहित्यिक सामाजिक जुडाव भी बढ़ता गया। मेले में प्रवेश की पहचान थी – गुलाबी रंग की पगड़ी, गले में फूलों की माला – और मुख में बनारसी पान की गिलोरी – जिसके द्वारा प्रवेश द्वार पर ही आने वालों का स्वागत होता था। 
                बुड़वा मंगल मेले के माध्यम से भारतेंदु हरिशचंद्र ने समाज, संस्कृति और साहित्य को एक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया। काशी की विरासत के सन्दर्भ में, उन्होंने यह एक नई संरचना की। यह एक बहुत महत्वपूर्ण योगदान था। 
अब बात करते हैं साहित्य के बारे में – 
मुंशी प्रेमचंद जी की जन्मभूमि बनारस होने के कारण उनके उपन्यास ‘रंगभूमि’ में बनारस की झलक साफ़ दिखाई पड़ती है। स्वतंत्रता पूर्व बनारस की स्थिति को ‘रंगभूमि’ के बहाने उन्होंने स्थापित किया।रंगभूमि’ को प्रेमचंद जी का आशावाद, जीवन दर्शन और गाँधी जी के प्रति उनकी आस्था और विचारों की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति कहा जा सकता है जबकि ‘गोदान’ को उन्होंने अपनी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति दी है। 
                गोदान’ का होरी और ‘रंगभूमि’ का सूरदास आजीवन दोनों संघर्ष करते हैं किन्तुगोदान’ का होरी दया का पात्र बन कर उभरता है जबकि ‘रंगभूमि’ का सूरदास बनारस के संघर्षशील जीवन को उद्घाटित करता है। 
                जयशंकर प्रसाद जी का जन्म बनारस में सुंघनी साहू के परिवार में हुआ। वे किशोरावस्था से ही कविता, कहानी, नाटक लिखने लगे थे। अपनी सांस्कृतिक अभिरुचि और भाव विपुलता के कारण शीघ्र ही वे सफल साहित्यकार, कवि और कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित हो गए – सभी उनके साहित्य से परिचित हैं – 
मुंशी प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद – हिंदी के दो महान साहित्यकारों की मित्रता तो सर्वविदित है। 
जयशंकर प्रसाद जी रात के अँधेरे में साहित्य रचना करते थे। कामायनी की रचना भी रात के अँधेरे में ही हुई। अक्सर वे प्रातः 5 बजे टहलने के लिए बनिया बाग़ की ओर निकल जाते थे और कामायनी की पंक्तियाँ गुनगुनाते रहते थे। 
मुन्शु प्रेमचंद की भी यही आदत थी। टहलते-टहलते दोनों की आपस में भेंट हो जाती। धीरे-धीरे यह मित्रता गहराती गई। 
इस सम्बन्ध में मुझे एक संस्मरण याद आ रहा है जो परिपूर्णानन्द जी ने मुझसे साझा किया था। परिपूर्णानन्द जी, प्रख्यात हिंदी लेखक और राजनेता सम्पूर्णानंद जी के भाई थे। उन्होंने एक बार मुझे बताया था - “बड़ा मार्मिक था वह क्षण जब प्रेमचंद जी की मृत्यु हुई। उनके निर्जीव शरीर को गोद में चिपटाये उनकी पत्नी शिवरानी करुण क्रूदन कर रही थीं। किसी को भी प्रेमचन्द जी के शरीर को अपने से अलग नहीं करने दे रही थीं। तब सबने प्रसाद जी से आगे बढ़ने के लिए कहा। प्रसाद जी आगे बढ़े और शिवरानी जी से कहा – “भाभी अब आप इन्हें जाने दीजिए।शिवरानी जी एकदम क्रोधपूर्वक चीख पड़ीं और बोलीं “आप कवि हो सकते हैं पर स्त्री का ह्रदय नहीं जान सकते – मैंने इनके लिए अपना वैधन्य खंडित किया था – इसलिए शादी नहीं की थी कि दोबारा मुझे विधवा बना कर चले जायेंगे।
शिवरानी जी के इन शब्दों को सुनकर प्रसाद जी के कोमल ह्रदय को, नारी की पीड़ा ने जैसे झकझोर लिया – उनके नेत्रों में आंसू भर आये – गला मरमरा गया। परिपूर्णानन्द जी ने बताया, ‘लेकिन उस घटना के बाद मैंने प्रसाद जी को कभी हँसते नहीं देखा। उनके शरीर में क्षय बीमारी घुल चुकी थी। 6 महीने बाद ही प्रसाद जी ने भी शरीर छोड़ दिया। 
आगे चलकर साहित्य की इसी परंपरा को अन्य विद्वान साहित्यकारों ने समृद्ध किया। प्राचीन परम्पराओं के साथ-साथ आधुनिकता की ओर भी काशी बढती गई – अनेक विद्वान साहित्यकार उभरकर सामने आये। 
प्रसिद्ध कथाकार शिव प्रसाद सिंह का ऐतिहासिक उपन्यास ‘नीला चाँद’ (1988) में प्रकाशित हुआ। काशी केन्द्रित उनका दूसरा उपन्यास ‘वैश्वानर’ उसके बाद ‘गली आगे मुडती है’ तीसरा उपन्यास प्रकाशित हुआ – जो आधुनिक जीवन की गाथा कहता है। 
काशीनाथ सिंह का ‘काशी का अस्सी’ काशी का जीवन्त उपन्यास है। इसमें उन्होंने काशी के वैविध्य को पूर्ण रूप से दर्शाया है। 
उन्हीं के शब्दों में – “अस्सी बनारस का मुहल्ला नहीं है। अस्सी अष्टाध्यायी है और बनारस उसका भाष्य – वर्षों से पूंजीवाद के पगलाए अमरीकी यहाँ आते हैं, बार-बार आते हैं और दुनिया में इसका बखान करते हैं”
झीनी झीनी बीनी चदरिया’ अब्दुल बिस्मिल्लाह द्वारा लिखा गया उपन्यास बनारस के बुनकरों के जीवन पर आधारित है। वे स्वयं कहते हैं – “दिल्ली में बहुत भीड़ है, बहुत शोर शराबा है, पर बनारस में अमन है, चैन है, सुख शांति है। काशी साहित्य को जानने, समझने तथा बुनने, गुनने की अद्भुत नगरी है।
काशी की बात करें और कबीर की चर्चा न हो, यह संभव नहीं हो सकता।विरले दोस्त कबीर के’ उपन्यासकार कैलाश नारायण तिवारी ने कबीर के जीवन को अपने उपन्यास में बारीकी से उकेरा है। 
वे लिखते हैं - एक बार कबीरदास जी भजन गाते-गाते बनारस की एक गली से निकल रहे थे। उनके आगे कुछ लड़कियां जा रही थीं। उनमें से एक लड़की की शादी कहीं हाल ही में तय हुई थी। उसके ससुराल वालों ने शगुन स्वरुप लड़की के घर पर ‘नथनी’ भेजी थी। 
सहेलियों की छेड़छाड़ के दौरान वह बार-बार अपनी नथनी के बारे में बता रही थी। कबीर ने लड़कियों की बात सुनी, तेजी से कदम बढ़ाते वे लड़कियों के पास पहुंचे और कहा
                नथनी दीनी यार ने तो चिंतन बारम्बार 
                नाक दीनी करतार ने, उनको दिया बिसार
 
सोचिये यदि नाक ही न होती तो लड़की नथनी कहाँ पहनती। यही तो जीवन भर हम करते हैं। भौतिक वस्तुओं का तो हमें ध्यान रहता है परन्तु जिस परमात्मा ने यह दुर्लभ मनुष्य देह दी – सम्बंधित सारे रिश्ते नाते दिये – उसी में हम फंसे रहते हैं। परमात्मा को याद करने के लिए हमारे पास समय ही नहीं होता। 
                कबीर की यही सूक्तियां आज भी हमारे साहित्य की, आध्यात्म की – थाती हैं जो काशी को महिमामंडित करती है। 
काशी के बदलते नामों का रहस्य ?
काशी का नाम कई बार बदला गया – कभी वाराणसी – कभी बनारस और कभी काशी। भगवान शंकर के त्रिशूल पर टिकी वाराणसी इसलिए नाम पड़ा कि इस क्षेत्र में एक नदी थी जिसका नाम था वरुणा तथा पास में ही एक नाला था जो पहले एक नदी थी – कालांतर में घटते-घटते वह नाले के रूप भर रह गया – उस नदी का नाम था अस्सी। इन दोनों का संगम बनारस में ही होता था, इसके कारण वरुणा और अस्सी मिलकर वाराणसी शब्द बना जहाँ आज अस्सी घाट है। इसी कारण इस पुण्य क्षेत्र को ‘वाराणसीकहते हैं। बाद में अपभ्रंश के रूप में ‘बनारस’ नाम पड़ गया। बनारस के बारे में कहा जाता है कि जो मजा बनारस में, न पेरिस में, न फारस में। 
                बनारस नाम इस कारण भी पड़ा कि यहाँ सब रसों का रंग प्रवाहित होता रहता   है। धार्मिक, आध्यात्मिक, संगीत, साहित्य, काव्यधारा आदि। रसों की गंगा जहाँ बहती हो वह कहलाया बनारस। 
                ऐतिहासिक काशी नाम क्यों पड़ा इसका भी एक इतिहास है। प्रसिद्ध कथाकार शिव प्रसाद सिंह ने अपने महत्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास ‘नीला चाँद’ में १८६० ईसवी की काशी को उसके पूरे संदर्भ में प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं - उस समय काशी पर दो राजवंशों का शासन था – व्यावहारिक रूप से कलचुरी राजा कर्णदेव के हाथ में शासन की बागडोर थी – कर्णदेव एक अत्याचारी शासक था। कालांतर में दूसरे राजवंश के ‘काशा’ नाम के राजा ने इस क्षेत्र को बसाया – इसलिए नगर का नाम ‘काशी’ पड़ा। 
                एक किवंदती यह भी है कि गंगा और यमुना के किनारे ‘काशिका’ नाम की एक घास बहुतायत से होती है – इसकी बहुतायत होने के कारण ‘काशी’ नाम पड़ा। 
                काशी में मृत्यु को सुखद माना गया है। किवंदती है कि जो बनारस में अंतिम गति को प्राप्त करता है यानी मरता है, वह सीधा स्वर्ग जाता है। कहते हैं एक बार भगवान शंकर और पार्वती संवाद कर रहे थे। तभी शिव जी ने पार्वती से कहा “हे अन्नपूर्णे मुझसे वायदा करो कि जो भी काशी में आये उसे कभी भूखा न रहना पड़े। उसे तुम अन्न का दान करना – मैं उसे मोक्ष का वरदान दूंगा”। इसी कारण परंपरा चली कि वर्ष में एक दिन होली के अवसर पर, एक रात शमशान में उत्सव का माहौल होता था। एक ओर जहाँ शवों की अग्नि जलती – तांत्रिक अपनी तांत्रिक क्रियाओं, अनुष्ठानों के करने में व्यस्त रहते - वहीँ दूसरी ओर नृत्य, गान और संगीत की महफ़िल सजतीं। प्रसिद्ध संगीतकार छन्नू महाराज के संगीत के स्वर ‘मसाने में दिगम्बर खेलें होली’ फिजाओं में आज भी गूंजने लगते हैं। नगर के प्रतिष्ठित लोग इन आयोजकों में सम्मिलित होते थे। 
काशी के निवासी 
बनारस की सुबह और अवध की शाम मशहूर है। बनारस में सूर्योदय से 2 घंटे पूर्व से ही गंगा स्नान प्रारंभ हो जाता है। पूरा बनारस चल पड़ता है गंगा स्नान के लिए कंधे पर गमछा डाले। गमछा, लंगोट, लूंगी धोती और जनेऊ आम आदमी की पोशाक है। उस समय वहां केवल दो ही वर्ग होते हैं। एक जो गंगा स्नान करके आ रहा है। वह पूरे अभिमान के साथ चौड़ा होकर चलता है। और जो स्नान करने जा रहा है, वह अपने को संकुचित करते हुए सड़क के किनारे चलता है कि कहीं वह स्नान करके आने वाले व्यक्ति को छू न ले। गंगा घाट पर दबे पांव बाहर आ जाती है। पानी की छप छप, श्रद्धालुओं के कलरव और पंडों की पुकार से वातावरण गूँज जाता है। इसके उपरांत मंदिरों में पूजा उपासना का क्रम प्रारम्भ हो जाता है। यह सारा उत्सव 10-11 बजे दिन तक ही चलता है। 
काशी के निवासी बहुत संतोषी प्रकृति के होते हैं। यहाँ के लोगों के बारे में एक कहावत प्रसिद्ध है। 
                चना, चबैना औ गंगाजल जो पूरवे भरतार 
                काशी रहन न छोड़िये जहाँ विश्वनाथ दरबार  

दूसरी ओर अभिजात्य वर्ग के लोग होते हैं – खुशमिजाज, कुछ हद तक आरामतलब, सुविधाभोगी 

उनके लिए भी एक कहावत मशहूर है – 
                                खान के भंग, नाहन के गंग 
                                चढ़न को तुरंग, उढ़न को दुशाला 
                                पान पुरान, सुहागिनी नार 
                                साथ लिए नंदलाला 
                                इतनी चीजें देव तो देव 
                                या तो मृगनयनी 
                                नहीं तो देव मृग छाला

ऐसी है काशी निवासियों की अलमस्ती – फक्कडपन। यहाँ की गलियाँ, भांग और पान यहाँ जीवन के अंग हैं। जीवन्त संस्कृति के प्रतीक जगह-जगह गरमागरम चाय सुड़कते, राजनीतिक बहसों में उलझते – दुनिया भर की विचारधाराओं पर बहस करते लोग यहाँ आज भी दिख जायेंगे। 

काशी में यदि कोई कुछ दिन, कुछ माह, कुछ समय के लिए ही आता है तो वह भी उसके रंग में रंग जाता है। 
ऐसे ही बात उन दिनों की है जब मिर्जा ग़ालिब दिल्ली से कलकत्ता जाते समय करीब 6 महीने बनारस में रुके थे। एक दिन वह बनारस के बाहर कहीं जा रहे थे – जब वह चलते चलते थक गये थे तो एक छायादार पेड़ के नीचे सुस्ताने के लिए लेट गये – अपनी शेरवानी वहीँ पेड़ पर टांग दी – थोड़ी देर में उन्हें झपकी आ गई। उन्हें बेखबर देखकर एक चोर ने उनकी शेरवानी पर हाथ साफ कर  दिया। जब मिर्जा ग़ालिब की आँख खुली उन्होंने शेरवानी को नदारद पाया तो बरबस उनके मुंह से निकला 
लुटता दिन को तो 
कब रात में बेखबर सोता 
खटका न चोरी का 
दुआ देता हूँ रहजन को 
अर्थात हे ईश्वर तू चोर की लम्बी उमर कर, उसने मुझे दिन में ही लूट लिया है अब कम से कम रात में तो मैं पैर पसार कर सो सकूँगा। 

ऐसी है काशी की अलमस्ती और आध्यात्मिकता जिसका असर मिर्जा ग़ालिब पर इस रूप में हुआ कि उन्हें अपने नुकसान की चिंता से ज्यादा इस बात की संतुष्टि थी कि रात को चैन से सो सकूँगा। 
काशी की और विशेषता है। काशी एक सांस्कृतिक प्रयोगशाला है। यहाँ कोई किसी को सहज रूप में स्वीकार नहीं करता है। यहाँ सबकी परीक्षा हुई है। तुलसीदास की परीक्षा हुई, शंकराचार्य की भी परीक्षा हुई। 

                एक बार जो काशी आया वह काशी से जुड़ जाता है अजातशत्रु जैसा अत्याचारी क्रूर राजा काशी आकर हिंसा त्याग सका यह महादेव की महिमा का प्रभाव था। काशी में शैव, वैष्णव, अघोरी, तंत्र मन्त्र, भूत प्रेत सब समाहित हो जाते हैं क्योंकि शिव उदार हैं। 
                और इस सबसे ऊपर हैं गंगा। जिसके किनारे “गंगा तरंग रमणीय जटा कलापं, गौरी निरंतर विभूषित वाम भागम” का अद्भुत उद्घोष सुनाई देता है। एक पंथ दो काज को चरितार्थ करती हुई गंगा जहाँ एक तरफ नयनों को सुख की अनुभूति कराती है, वहीँ दूसरी तरफ गंगा के किनारे बैठकर उपन्यासकार लेखक अपनी साहित्यिक प्रतिभा दिखाते हैं। 
                                                                                                                                                                    

शीला झुनझुनवाला की समृति से

 



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