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महापंडित राहुल सांकृत्यायन जी, कमला सांकृत्यायन जी और रामशरणशर्मा मुंशी जी। |
कुछ लोग हैं जो राहुल जी को देवत्व के ऊंचे आसन पर बैठा कर, उनका स्तुति-गान करके ही इस लेखक के प्रति अपने कर्तव्य से मुक्ति पा लेना चाहते हैं | न मालूम क्यों मुझे इन लोगों से घृणा-सी होती है और मुझे एक प्रकार के ढोंग का आभास होता है | कुछ दूसरे लोग हैं जो राहुल जी को स-शरीर दैत्य समझते हैं | इन लोगों का बस चले तो वे एक बड़ा- सा अलाव बनवाकर उसमें राहुल जी को झोंक दें और फिर सत्यनारायण की कथा पढ़वा कर देश-भर में ‘पंजीरी’ बांटे | इन लोगों के लिए, बहुत खोज करने पर, एक ही उपयुक्त शब्द हिन्दी में मुझे मिला | वह शब्द है : ‘टुच्चे’ |
कुछ और लोग भी हैं जो काफी दूर से राहुल जी की और दो-चार अक्षत-पुष्प फेंक कर संतोष कर लेते हैं, फिर मुस्कुरा कर दूसरी ओर देखते हैं,शायद जनता की ओर, और सुनना चाहते हैं कि उनके तटस्थ और न्याय-परायण होने की डुगडुगी पिटी या नहीं |
ईश्वर इन सभी श्रेणी के लोगों को शांति प्रदान करे, - मानसिक शांति |
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राहुल जी - सब कुछ होकर – एक मात्र कुछ है तो लेखक | यदि वह और सब कुछ होते – बौद्ध-भिक्षु, घुमक्कड़, महापंडित, जन-नेता – और लेखक न होते तो शायद कुछ और ही होते – अपने राहुल बाबा न होते |
राहुल जी में पिछली अर्धशताब्दी का हिन्दी लेखक अपनी समस्त दीनता, विनम्रता, निर्धनता, पांडित्य और सहिष्णुता सहित पूर्ण रूप से परिलक्षित है |
उन की लेखनी में भारतवासी होने का दर्प और टीस दोनों एक साथ मिलती है |
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मेरे घर में कहीं–न-कहीं से किताबों के आते रहने का रिवाज शुरू से ही रहा है | सबसे बड़े भाई साहब (भगवान दिन शर्मा) की प्रिय पुस्तकों में बापू की आत्मकथा और नेहरू जी की मेरी कहानी के बाद राहुल जी की पुस्तकें ही थीं | ये पुस्तकें वे पब्लिक लाइब्रेरी से लाते थे | स्वाभाविक ही था कि इन पुस्तकों को मैं भी पढ़ता | और इन्हें पढ़ने के बाद इनके रचयिताओं को देखने की इच्छा होती |
बापू को नहीं देखा | हाँ, जवाहरलाल जी को पहली बार लखनऊ के कान्यकुब्ज कालेज में विद्यार्थियों की एक सभा में भाषण देने को जाते हुए देख कर और फिर उनका भाषण सुन कर संतोष किया | नेहरू जी खद्दर का कुर्ता और बास्कट पहने थे शायद और चूड़ीदार पाजामे की जगह खद्दर का नेकर मात्र | बाद में, प्रधान मंत्री बन जाने पर, दूर से बहुत बार देखा, पर जवाहरलाल को उस वेशभूषा में देखने का दुबारा सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ | इसके कुछ दिन बाद सुना कि राहुल जी लखनऊ आये हैं | कैसे हो सकता था कि उन्हें देखने के अवसर का लाभ न उठता | अस्तु, भागा उनकी तलाश में | मालूम हुआ कि केसरबाग के निकट पुस्तकों की एक दूकान पर गोष्ठी है | राहुल जी वहां बोलेंगे |
गोष्ठी शाम को होनी थी | जा धमका | देखा –एक आदमी उतना ही लम्बा-तगड़ा जितने निराला जी हैं | उन्ही के समान विरोधी प्रकृति का | उन्ही जैसा फक्कड़ मनमौजी | सर पर छोटे-छोटे बाल –देहातियों जैसे | आँखों में बिल्लौरी चमक | ओंठो का कटाव बहुत भोला | हां, निराला जी के कंठ में सदा ओज बसता है, यहां मिठास थी | यह आदमी बहुत मासूमियत से बातें कर रहा था | कोई प्रश्न पूछे जाने पर न-जाने किस अथाह सागर में अदृश्य हाथ डालता और कोई बहुमूल्य मोती चुन कर निकाल लाता ---गोताखोर की तरह | बौद्ध-भिक्षु होना कठिन काम नहीं था ; घुमक्कड़ी का शौक जो राहुल जी की पुस्तकें पढ़कर न कितने लोगों में चर्राया है—वह भी अतिं काम नहीं था, बहुत से ग्रन्थों का पारायण करना और महापंडित की पदवी पा लेना जरूर कठिन था, पर नितांत असम्भव नहीं | लेकिन इन सबके साथ इतनी मासूम और इतनी सरल प्रकृति का धनी होना अवश्य असाध्य जान पड़ा |
वह किसी छोटी-सी पुस्तक के कुछ छपे हुये फर्मे अपने मित्रों को दिखा रहे थे | इन मित्रों में राम विलास भी थे | पुस्तक में कुछ ऐसे लोगों की जीवनियाँ थीं जिनके नाम उन दिनों कम ही सुने गये थे | मुझे कुछ क्रोध भी हुआ | राहुल जी इतने बड़े आदमी, अपने से कम जाने-माने लोगों पर क्यों लिखें | समय का अपव्यय, शक्ति का अपव्यय |बड़े लगों को यह शोभा नहीं देता | मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई जब मेरे मन का प्रश्न एक अन्य उपस्थित सज्जन ने पूछ लिया |
‘राहुल जी, इस पुस्तक का नाम क्या है?’
क्षण-भर ख़ामोशी | फिर –
‘नये भारत के नये नेता !’
लौटा तो सिर खुजाता हुआ – ये नये नेता कौन से पैदा हो गये |
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दूसरा विश्व-युद्ध शुरू हो चूका था | राहुल जी बम्बई में थे |
सैंडहर्स्ट रोड | एक ईमारत के कमरे में लोग राहुल जी को घेरे हुए | राहुलोविच {राहुल जी के पुत्र जो रूस में हैं) के सम्बंध में प्रश्न पूछे जाते हैं | वह कहाँ हैं ? कैसे हैं ? सहसाएक प्रश्न पुछा जाता है |
‘राहुल जी, आप रूस नहीं जायेंगे ? यहाँ क्या करेंगे ?’
‘देश में करने को बहुत कुछ है, किसानों में काम करूंगा |’
‘पर लिखना ----?’
‘अपने लोगों से, अपनी जनता से दूर रह कर खिन लिखना होता है ?’ यहाँ रह कर और भी अच्छा लिखूंगा | पहले से ज्यादा लिखूंगा, ज्यादा अच्छा लिखूंगा |
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कुछ दिनों के बाद (शायद जुलाई १९४२) एक अखबार पर नजर पड़ी | पत्र का नाम याद नहीं | देखा, प्रथम पृष्ठ पर राहुल जी का चित्र है: कमीज, हाफ-पैंट पहने | हाथ में हथकड़ियाँ हैं | चेहरे पर वही मासूमी | दो पुलिसवाले पीछे खड़े एक दुसरे को देख रहे हैं---मानों अपने कृत्य पर अवसाद में डूबे हुये | साथ ही प्रसन्न भी कि राहुल जैसे व्यक्ति के निकट खड़े हैं | चित्र के निचे शब्द लिखे हैं : राहुल सांकृत्यायन ---- विश्व विख्यात पुरातत्व वेत्ता और किसानो के सर्वप्रिय नेता .......
यह चित्र काट कर मैने अपने पास रख लिया |
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सब कुछ होता है, राहुल जी का लिखना बंद नहीं होता | अपने एक मित्र के लिए मैं राहुल जी की पुस्तकों की सूची बनाने बैठता हूँ : दर्शन-दिग्दर्शन, मेरी यूरोप यात्रा, रूस में पच्चीस मॉस, किन्नर देश में, गढ़वाल, यात्रा के पन्ने, यात्रावली, घुमक्कड़-शास्त्र, विश्व की रूपरेखा. इस्लाम धर्म की रूपरेखा, पुरातत्व निबन्धावली, हिन्दी काव्य धारा (अपभ्रंश), दक्खिनी हिन्दी, काव्य धारा, बौद्ध संस्कृति, तिब्बत में बौद्ध धर्म, मज्झिम निकाय, दिघ निकाय, विनय पीटक, प्रमाणवर्तिकम, प्रमाण-वार्त्तिक-वृत्ति, प्रमाण-वार्त्तिक-स्व्वृत्ति टिका, सिंह सेनापति, जय यौधेय,सतमी के बच्चे, वोल्गा से गंगा, बहुरंगी मधुपुरी, मानव समाज, भागो नहीं दुनिया को बदलो, राजस्थानी रनिवास, मेरी जीवन यात्रा, कार्ल मार्क्स, लेनिन, मध्य एशिया का इतिहास.....’
अन्त में मैने सूची बनाना बन्द कर दिया और सोचने लगा | सोचने लगा कि क्या बात है कि जो इतना कार्य करने पर भी यह लेखक इतना उपेक्षित है | ऊपर जैसी तीन पुस्तकें लिख कर भी कोई अन्य पाँच पसेरी का अभिनन्दन ग्रन्थ ले मरता | पर राहुल जी.......
‘बात यह है कि राहुल जी की विचारधारा जरा........’ एक महान विभूति ने मेरी शंका का समाधान किया |
‘जरा दूसरी होती तो....!’
और दिग्गज ने अपना विचार-बोझिल कुम्भ जिसे मस्तिष्क कहते हैं –नेत्र बंद किये हुये दो बार हिलाया | फिर बोले :
‘जी हाँ, जरा दूसरी होती तो वह संसद सदस्य होते—अभिनन्दनीय संसद सदस्य !
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राहुल जी की एक छोटी सी पुस्तक छपी है : रामराज्य के किसी महान प्रतिपादक के महातर्कों का संक्षिप्त-सा उत्तर | पुस्तक बड़े चाव से, रस ले-लेकर पढ़ी जाती है | मेरे हाथ एक पोस्टकार्ड लगा | पत्र में एक बिधु ने राहुल जी को स्मरण किया है | शब्द कुछ इस प्रकार हैं :
‘तू धूर्त है, अधर्मी है | विदेशियों के पैसों पर चला है | तुझे न अपने धर्म का ज्ञान है, न दर्शन का | तू देश के लिए कलंक है.....’
पोस्टकार्ड मेरे पास सुरक्षित रहता है | राहुल जी से दुबारा मुलाकात होती है | धूर्तता से कुछ मुस्कराता हुआ मैं पोस्टकार्ड उन्हें देता हूँ | राहुल जी पोस्टकार्ड को आद्योपांत पढ़ते हैं | हल्की-सी मुस्कराहट उनके होंठों पर नाच जाती है | वह कहते हैं :
‘अच्छा लिखा है | पुस्तक पढ़ी है |’
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मैं अपने घर धर्मयुग भी ले जाता हूँ | बच्चे पहले तस्वीरों को देखते हैं, फिर बाल स्तम्भ पढ़ते हैं | बाल स्तम्भ में ‘सोने की ढाल’ के चित्रों के साथ राहुल जी का नाम देखा | पूछा : ‘यह कौन हैं, तुम इन्हें जानते हो ?’
और मैं उन्हें राहुल जी के सम्बन्ध में बताता हूँ | पर यह क्या ? अब तो उनका आग्रह राहुल जी का चित्र देखने का भी है | विवश होकर मैं चित्रों की फाइल पलटता हूँ | राहुल जी का चित्र मिलता है – वही हथकड़ियों वाला | बच्चे देखते हैं, फिर पूछते हैं :
‘ये पुलिस वाले कौन हैं ?’
इस ‘हैं’ पर मैं चौंक उठता हूँ | पर शायद उनका वह ‘हैं’ काफी लाक्षणिक है, काफी सन्दर्भपूर्ण | सोच कर मैं उत्तर देता हूँ :
‘कुछ आपने ही लोग |’ आगे मैं कुछ नहीं कह पाया |
हिन्दी टाइम्स, २४ सितम्बर १९६०
- रामशरण शर्मा मुंशी की स्मृति से