‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



रविवार, 14 अप्रैल 2024

आफ द रिकार्ड - राजकीय सम्मान बनाम 'गले का तौंक'

 आफ द रिकार्ड


  राजकीय सम्मान  साहित्यकारों             

        के 'गले का तौंक' बना


एक मुहावरा है 'जीते जी मार डालना' इससे लोक नायक जयप्रकाश नारायण से लेकर राष्ट्र कवि सोहन लाल द्ववेदी तक नहीं बच सके। लोक नायक जय प्रकाश नारायण की मृत्यु की अफवाह  पर संसद तक ने  खड़े होकर दो मिनट का मौन रखा और श्रद्धांजलि अर्पित कर दी वहीं उत्तर प्रदेश सरकार ने अखबार की एक खबर पर राष्ट्र कवि सोहन लाल द्विवेदी को राजकीय सम्मान के साथ अंत्येष्टि करने का फरमान देडाला ।

   हुआ यह कि लोक नायक जय प्रकाश नारायन कि मृत्यु की अफवाह जब दिल्ली पहुंची। संसद चल रही थी। जे पी की मृत्यु की खबर ने पूरी संसद को गमगीन कर दिया। आनन फानन में शोक प्रस्ताव लिखा गया और संसद का सारा कार्य स्थगित करके शोक प्रस्ताव पढा गया। श्रद्धांजलि हो जाने के बाद जब संसद से निकल कर जे पी के निधन की पूरी जानकारी सांसदों को मिली तो उनके हाथों के तोते उड़ गए। जे पी जीवित थे। उनकी मृत्यु की खबर मात्र अफवाह थी। मुझसे इस पर टिप्पणी करने को कहा गया तो मैने काँव काँव में लिखा-उनके सिर पर कौव्वा बैठ गया था। जनता पार्टी के लोगो ने राहत की सांस ली। और सफाई में कहा भी-सिर पर कौव्वा बैठने पर झूठी मत्यु की अफवाह फैलाने का टोटका  गांव घरों में किया ही जाता है ताकि जिसके सिर पर कौव्वा बैठा हो उसकी उमर और बढ़ जाये।

इसी तरह का हादसा राष्ट्रकवि सोहन लाल द्विवेदी को झेलना पड़ा। हुआ यह कि राजधानी के एक प्रमुख दैनिक अखबार ने फतेहपुर के संवाददाता को निकाल दिया लेकिन खबरों को भेजने के लिये टेलीग्राफिक अथॉरिटी उसी संवाददाता के पास थी। उसने एक तीर से दो शिकार किये और उस दैनिक को खबर भेज दी कि "राष्ट्र कवि सोहन लाल द्विवेदी नहीं रहे।"

  जैसे ही तार से सोहन लाल द्विवेदी के निधन की खबर उस समाचार पत्र को लगी। एक  साहित्य प्रेमी सहसंपादक ने सायकिल उठाई और अपने बच्चे की आठवीं कक्षा की किताब का वह पेज फाड़ा जिसमे सोहनलाल द्विवेदी का जीवन परिचय छपा था और दफ्तरपहुंच कर "राष्ट्र कवि सोहन लाल द्विवेदी नही रहे "का शीर्षक लगा कर पहले पन्ने पर बॉक्स में छपने भेज दिया। सुबह होते ही सोहन लाल द्विवेदी की मृत्यु की खबर फैल गयी। मुख्यमंन्त्री के आदेश पर राष्ट्र कवि सोहन लाल द्विवेदी को राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार  करने की राजाज्ञा जारी हो गयी।

      राजकीय आदेश से पीएसी का एक कमांडेंट पीएसी बैंड और सिपाहियों को लेकर सोहन लाल द्विवेदी के बिंदकी (उन्नाव) स्थित निवास पहुंचकर शोक ध्वनि बजवाने लगा। उन्होंने अपनी मृत्यु को झूठी खबर से क्षुब्ध होकर पी ए सी कमांडेंट का डपटा-बन्द करो यह बाजा। मै तो अभी जीवित हूँ।

राजकीय सम्मान के साथ उनकी अंत्येष्टि के लिए भेजे गए कमांडेंट ने कहा-मुझे सरकार के आदेश का पालन करना है ,जब तक राजाज्ञा वापस नही होती मैं जा नही सकता।

  लाचार होकर सोहनलाल द्विवेदी जी घर के पीछे के रास्ते से निकल कर टेलीफोन एक्सचेंज पहुंचे जो एक छोटी सी कोठरी में चल रहा था। इत्तिफाक से उन्हें मेरा ही नम्बर याद था। उन्होंने अपना सारा गुस्सा मुझ पर उतारा और कहा- यह तमाशा बन्द कराइये। मै जीवित हूँ फिर भी मेरे घर पर शोक धुनि बज रही है।

मैने घबराकर मुख्यमंन्त्री नारायण दत्त तिवारी जी से सम्पर्क किया।सुनकर वे भी हतप्रभ थे। राजाज्ञा वापस हुई और सरकार के खाते में राष्ट्रकवि सोहन लाल द्विवेदी एक बार पुनः जीवित हो गए। 

इसके कुछ दिनों बाद द्विवेदी जी लखनऊ मेरे गुलिस्ता कॉलोनी आवास पर आए और अखबार वालों पर बरस पड़े- तुम लोगों ने मुझे जीते जी मार डाला। ऐसा कोई दुश्मन भी नहीं करता । मै मुस्कराता हुआ उनका गुस्सा पीता रहा। मैने उन्हें छेड़ते हुए कहा दद्दा इसमे भी  आपकी भलाई भी छिपी है।  कविसम्मेलनों के मंच पर आपने जाना बंद कर दिया है। लोग भूलने लगे थे।खबर ने आपकी उपस्थित फिर से दर्ज करा दी।है कि नहीं?

हम्मम!

लेकिन आपकी कविताओं में फ्रस्ट्रेशन बहुत है!

मतलब?

 जी दद्दा !आपकी वह कविता चिड़ियों वाली-मुझे आता हुआ देखकर चिड़ियां क्यों उड़ जाती हैं?

तो इसमे ऐसा क्या?

जी ,यही तो!  चिड़िया बैंक बैलेंस के अलावा उमर भी देखती हैं!

सुनते ही उन्होंने मुक्का दिखाया और बोले तुम सब बदमाश हो,पीटे जाने के लायक हो,तभी ठीक होंगे।

       सोहन लाल द्विवेदी जी यूं तो बच्चों के कवि के रूप में प्रसिद्ध थे बाद में  वीर रस की राष्ट्रीय कविताओं ने उन्हें राष्ट्रीय कवि का सम्बोधन दे दिया!लेकिन जैसे जैसे कविसम्मेलनों में उन्होंने जाना कम किया ।ऊब और अकेलेपन ने उन्हे आ घेरा। घर परिवार होते हुए भी

खामोशी ने उन्हें ढक लिया।

     उनसे कोई सम्पर्क करे, बाहरी बात करे। आसान नहीं था। दूरदर्शन के कार्यक्रम अधिकारी और कवि लेखक आलोक शुक्ल को जब दूरदर्शन की ओर से उनकी

आर्काइव रिकॉर्डिंग के लिये उनके बिंदकी (उन्नाव)जाना पड़ा तो उनसे मिलाने के लिए कानपुर में मानस मंदिर वाले बद्रीनारायण तिवारी भी साथ थे। सोहन लाल द्विवेदी रजाई ओढ़े लेटे थे। बद्रीनारायण जी ने उनके पैर छुए और कहा -ये आलोक शुक्ल हैं ।दूरदर्शन के,आपके दर्शन करने आये हैं। सोहन लाल द्विवेदी जी ने सुनकर रजाई ओढ़ ली । फिर रजाई हटा कर बोले-लीजिए दर्शन कर लीजिये। इसके बाद फिर  रजाई ओढ़ ली -इशारा था अब जाइये। 

बद्री नारायण जी ने फिर बात बढ़ाई-आलोक शुक्ल दूरदर्शन के लिए आपकी रिकॉर्डिंग करना चाहते हैं।

-दूरदर्शन वाले बदमाश हैं मुफ्त में करना चाहते हैं।

 नहीं बाबा ! पैसा देंगे

उनकी पतोहू आगे आयी -कितना देंगे?

आलोक शुक्ल ने इशारा किया-दस हजार ! 

सोहन लाल द्विवेदी-हजार बस ?

पतोहू -नही बाबा जी ,दस हजार!

दस हजार रूपये सुनते ही वे उठकर बैठ गए,पतोहू से बोले-

फिर से पूछो?

बाबा पूरे दस हजार देंगे !

 बात तय हो गई अगले महीने की।

      एक महीने बाद साक्षात्कार के लिए राजेन्द्र राव जी से सम्पर्क किया गया तो उन्होंने यह कहके टाल दिया -हमारा उनसे क्या मतलब ?लेकिन बाद में राजी हो गए। दूरदर्शन के कैमरे के साथ सात लोगों की टीम राजेंद्रराव सहित आलोक शुक्ल एक महीने बाद बिंदकी पहुँचे। द्विवेदी जी तब भी अनमने थे।

साक्षात्कार शुरू हुआ। राजेन्द्र राव जी की सवालों से भरी लम्बी सूची थी। ढाई घण्टे की शूटिंग में भी बात नही बनी । हर सवाल पर उनका संक्षिप्त सवाल था-

ऐसा हो सकता है!

ऐसा नही भी हो सकता है !!

ऐसा होना तो नही चाहिए !!!

ऐसा ही हुआ होगा!!!!

  सब पसीने पसीने हो गए। साक्षात्कार पांच मिनट भी आगे नही बढ़ा। सवाल जवाब कदम ताल करते रहे। दूरदर्शन की टीम  सभी को लेकर अतिथि गृह लौट आयी।

सभी उधेड़बुन में थे तभी अवस्थी जी  (शायद धनन्जय अवस्थी) ने

 यह कहकर हिम्मत लौटाई कि कल इंटरव्यू में पंडित जी बोलेंगे।

     दूसरे दिन जब दूरदर्शन की टीम राजेन्द्र राव को लेकर पहुची तो पंडित सोहन लाल द्विवेदी कुर्ता ,टोपी लगाए बैठे थे। उनके हाथ मे ठंडाई  का बड़ा गिलास था। दिव्य जलपान के बाद साक्षात्कार प्रारम्भ हुआ। लगता था कि किसी जादू ने माहौल बदल दिया था। पंडित सोहन लाल द्विवेदी ने साक्षात्कार में अपनी काव्य यात्रा के अलावा गांधी जी के बारे में, देश भक्ति से जुड़े सवालों पर जम कर बात की। अपनी कविताएं सुनाई, बाल साहित्य पर खुलकर चर्चा की। कवि सम्मेलनों के संस्मरण रिकॉर्ड कराए। सभी आश्चर्यचकित थे। बोल कर ही नहीं

चलकर भी दिखाया अपने आप।किताबो को दिखाया।

  शाम को अतिथिगृह में जब अवस्थी जी से पूछा गया -पंडित जी अचानक बदल कैसे गए। कौन सी जादू की छड़ी आपने घुमा दी?

    अवस्थी जी ने मुस्कराते हुए कहा -किसी से कहिएगा नहीं, हमने आपके पहुंचने के पहले ही उनकी ठंडाई में भांग कुछ ठीक से मिला दी थी।

                  क्रमशः


अनूप श्रीवास्तव की स्मृति से


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सदी के महानायक से भेंट

महाकवि हरिवंशराय बच्चन और मेरे पिताजी प्रख्यात कवि व साहित्यकार प्रोफेसर स्व  दिनकर सोनवलकर जी घनिष्ठ मित्र थे।इन दोनों कवियों की पहली मुलाकात का प्रसंग भी बहुत मार्मिक है।1960 के आसपास जबलपुर में एक कविसम्मेलन सेठ गोविन्ददास जी के सौजन्य से आयोजित किया गया था।इसमें 53 वर्षीय बच्चन जी और 28 वर्षीय पिता स्व दिनकर जी एक ही मंच पर थे।बच्चन जी ने उनकी पहली पत्नी स्व श्यामाजी की याद में एक दुखांत कविता "साथी अंत दिवस का आया;"लिखी थी।दिनकरजी ने उसी मंच पर यही कविता गीत रूप में स्वरबद्ध कर अपने स्वर में हारमोनियम पर ऑंखे बन्द कर तल्लीनता से प्रस्तुत की।जैसे ही गीत समाप्त कर दिनकर जी ने आंखें खोली ,देखा बच्चन जी की आँखों से अविरल अश्रुधारा बह रही है ओर वे दिनकर जी को एकटक देख रहे हैं।दिनकर जी अपराधबोध से ग्रस्त हो गए कि मैंने ये गीत सुनाकर महाकवि को दुखी कर दिया।अगले ही पल बच्चन जी उठे और दिनकरजी को गले से लगाकर कवि सम्मेलन के बाद अपने साथ होटल में ले गये जहाँ वे ठहरे हुए थे।वहां परिचय हुआ और पतों व एक दूसरे के काव्य संग्रहों का आदान प्रदान हुआ। उस समय दिनकरजी विवाह के बाद खण्डवा कॉलेज की शासकीय नौकरी दमोह के मोह में छोड़कर दमोह के निजी स्कूल में अध्यापक हो गए थे।ओशो उनके सहपाठी थे ही। अब बच्चन जी और दिनकरजी में पत्रों के नियमित आदान प्रदान का सिलसिला जो आरम्भ हुआ वो 2000 तक दिनकरजी की मृत्यु के कुछ साल पहले तक चलता रहा।बच्चन जी दिनकरजी के पैतृक घर दमोह भी आये और 1966 में रतलाम कॉलेज के गेदरिंग में दिनकरजी के अनुरोध पर मुख्य अतिथि बतौर शामिल हुए व मधुशाला सुनाई।इस कार्यक्रम में हारमोनियम दिनकर जी ने बजाई।बालकवि बैरागी इस कार्यक्रम में उपस्थित थे।दिनकर जी रतलाम कॉलेज में 64 से 70 तक रहे व 70 से 2000 तक मृत्यु पर्यंत जावरा में रहे जहां कॉलेज की लाय ब्रेरी,विश्राम गृह मार्ग दो स्कूल एक तालाब उनके नाम पर है।रतलाम में 67 में पुनः बच्चन जी एक रात 12 बजे दिनकरजी के स्टेशन रोड निवास पर ट्रेन लेट होने से आये और उनकी पत्नी का नाम मीरा से मीनाक्षी रखा व दो वर्षीय बिटिया प्रतीक्षा के स्लेट पर चिड़िया बनाकर 51 रुपए आशीर्वाद स्वरूप दिये। उसी समय अमिताभ के निर्माणाधीन घर का नाम भी संयोगवश प्रतीक्षा रखा गया।एक बार दिनकरजी72 में चकल्लस कार्यक्रम के दौरान  बच्चन जी के निवास पर गए तब भोजन उपरांत बच्चन जी के निर्देश पर अमिताभ ने सितार पर कुछ धुन सुनाई।

बच्चनजी ने अपने समस्त संग्रह दिनकरजी को भेंट किये व पत्रों में अपनी भावनाएं व वेदना भी व्यक्त करते थे।यहाँ तक कि तत्समय अमिताभ और रेखा के प्रेम प्रसंग को लेकर उतपन्न परिस्थितियों पर भी बच्चन जी पिता दिनकरजी से पत्रों में शेयर करते थे।उस समय फोन दुर्लभ व मोबाइल तो थे ही नहीं।कुछ े पत्र दुष्यंत स्मृति संग्रहालय भोपाल में देखे जा सकते हैं।

ये पीठिका इसलिये आवश्यक थी ताकि अमिताभ जी से मेरी मुलाकात की प्रस्तावना स्पष्ट हो सके।बचपन से ही मैं भी महानायक की फिल्मों का मुरीद था अब भी हूँ और गर्व से मित्रों परिचितों को उनसे और उनके पिता से अपने पिता के सम्बन्धों को बताया करता था।एक स्वाभाविक इच्छा थी कि महानायक से इन सम्बन्धों,स्मृतियों ,संस्मरणों ,पुराने पत्रों फोटोज के साथ भेंट की जाए।महाकवि बच्चन  के 2003 में अवसान पर मैंने संवेदना पत्र के साथ दिनकरजी व महाकवि के कुछ पत्र व फोटोज अमिताभ जी को प्रसंगवश भेजे।आश्चर्यजनक रूप से 15 दिन बाद अमिताभ जी का प्रिंटेड उत्तर आया जिसमें उन्होंने अपने हाथ और हस्ताक्षर से पुनश्चः करके ये लिखा कि आपके पिताजी और आपके 


सम्बन्ध बाबूजी और मेरे परिवार से थे ये स्मरण कर मन भर आया।पुरानी स्मृतियां छवियाँ साकार हो गई।कभी मुम्बई आएं तो मिलें।

पत्र के साथ बच्चन जी का फोटो जिस पर उनकी पंक्तियाँ लिखी थी "मैं खुद को छुपाना चाहता तो जग मुझे साधु समझता।शत्रु मेरा बन गया है छल रहित व्यवहार मेरा ",

इस पत्र के बाद महानायक से मिलने की उत्कंठा अधिक बढ़ गई  2009 में उज्जैन पदस्थापना के बाद लगभग 2014से मैंने महानायक के पते पर मिलने की तिथि हेतु सतत पत्राचार आरम्भ किया।कहीँ से उनके निवास का नम्बर मिलने पर कई बार फोन भी लगाए ।हमेशा उनकी सचिव रोज़ी यही बोलती कि आपके पत्र सर को भेज दिये हैं जैसे ही वे समय देंगे आपको सूचित करेंगे।ऐसा लगातार महीनों तक चलता रहा।इसी बीच उज्जैन में स्व शिव शर्मा जी के निवास पर व्यंग्यकार स्व शरद जोशी के छोटे भाई लेखक स्व रोमेश जोशी जी से 2017 में भेंट हुई।वे भी दिनकरजी के मित्रवत थे।उन्होंने मुझे उनका और शिव शर्मा जी द्वारा लिखित उपन्यास हुजु रे आला भेंट किया।अनायास इसके कुछ दिन बाद फेसबुक पर महानायक को ये उपन्यास भेंट करते हुए रोमेश जी का फोटो देखा।मैंने उनसे ये रहस्य पूछा कि आप किस माध्यम से अमिताभ जी से मिल लिये।उन्होंने बमुश्किल बताया कि मेरे दामाद श्री पराग चाफेकर अमिताभ जी के फ़िल्म वितरण के पार्टनर हैं और उनके कारण ही ये सम्भव हुआ।बहुत प्रार्थना के बाद उन्होंने पराग जी का नम्बर दिया ।बस बातों बातों में पराग जी से अनुनय विनय अनुरोधों की लंबी श्रृंखला के बाद दो साल बाद जनवरी 2018 में पराग जी का संदेश आया कि अब आपकी मुलाकात का स्वप्न साकार होने के आसार दिख रहे है।मैं प्रफुल्लित हो गया।जनवरी के बाद अक्टूबर2018 आ गया।मैं पराग जी को परेशान करता रहा कि दादा कब मुलाकात होगी।यही रोज़ी मेडम उन्हें भी टालती रही।आखिर एक दिन 26 आकटूबर को पराग जी ने अमिताभ जी को उलाहना देते हुए बोल दिया कि आपको प्रतीक सोनवलकर से नहीं मिलना है तो साफ मना कर दीजिये।बस महानायक ने बोला तुम नाराज मत हो ।30 अक्टूबर को शाम साढ़े छह बजे उन्हें बुला ही लो। पराग जी का जब फोन आया मैं सिंहस्थ मेला भवन में विधानसभा चुनाव की मीटिंग में था। मेरी बाँछें खिल गई।खिलती भी क्यों नहीं बरसों पुराना स्वप्न जो साकार हो रहा था।मैं और मेरा बेटा एडवोकेट व कवि सार्थक सोनवलकर 30 अक्टूबर को विमान से ढाई बजे मुम्बई पहुंचे। पराग जी के साथ  सवा 6 बजे जलसा में प्रवेश किया।वहाँ का सारा स्टाफ पराग जी से परिचित है ।कक्ष में बैठते ही चाय आई और सहायक ने बताया कि साहब का कोई विदेशी मेहमान इंटरव्यू ले रहे हैं और साहब आते हैं। ये कहकर वह चला गया।हमें लगा कम से कम 15 मिनिट तो लगेंगे ही। महानायक के समय की पाबंदी और अनुशासन देखिये कि हमारी चाय भी खत्म नहीं हुई और वे अकेले ही कक्ष में तीन मिनिट यानी 6बजकर 29 मिनिट पर इन्टरव्यू छोड़कर दिये समय के एक मिनिट पहले आ गये।

आते ही पराग जी को मुस्कुराते हुए धौल जमाई कि तू बहुत परेशान करता है। पराग जी ने मेरी ओर इशारा किया बोले इन्हीं के लिये आपको परेशान किया।मैंने और पुत्र ने उनके  चरण स्पर्श किये और महाकाल का प्रसाद,भस्मारती की भस्म,हरिओम जल ,पीला दुशाला ,उज्जैन का नमकीन मिठाई उन्हें भेंट की।उनकी विनम्रता देखिए प्रत्येक वस्तु ध्यान से अपने हाथों में ली और ससम्मान ग्रहण कर मेज पर रखी।मैंने बच्चन जी की वही कविता जिसे सस्वर सुनकर  वे पिता दिनकरजी से प्रभावित हुए थे,अपने स्वर में स्वरबद्ध कर उपरोक्त  तमाम संस्मरणों सहित उन्हें भेंट की।वे भी अभिभूत हुए और यादों में खो से गये। प्रत्येक संस्मरण महानायक ने बिना हड़बड़ी के धैर्यपूर्वक सुना और गुना।महाकाल का दुशाला उन्होंने इसलिये नहीं पहना क्योंकि ठग्स ऑफ हिंदुस्तान की शूटिंग के स्टंट में उनके हाथ  में चोट लगने से प्लास्टर बंधा था।फ़ोटो की बारी आई तो उन्होंने अपने तरीके से मेरा और सार्थक का हाथ पकड़कर अलग अलग कोणों से फ़ोटो खिंचवाए।पुत्र सार्थक ने जब मधुशाला की दो प्रतियों पर उनके ऑटो ग्राफ चाहे तो बोले दो पर क्यों ?पुत्र ने कहा एक मेरी और एक मित्र के लिये।उन्होंने सहर्ष ऑटो ग्राफ दिये और बेटे से पूछा तुम कहाँ रहते हो ,क्या कर रहे हो,क्या इरादा है आदि। इसी बीच मैंने उन्हें महाकाल व मध्यप्रदेश यात्रा का निमंत्रण दिया और स्मरण कराया कि कुली फ़िल्म की शूटिंग में आपके घायल होने पर महाकाल में भी प्रार्थना की गई थी।वे श्रद्धा से  भावुक हो गये। इसके बाद उन्होंने पूछा और कुछ आप कहना चाहते हैं?हमें भी लगभग 25 मिनिट हो गए थे हमने कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए इजाजत ली और पराग जी को विशेष धन्यवाद देकर गौरवपूर्ण यादों के साथ मुंबई एयरपोर्ट पहुंचे और रात साढ़े ग्यारह बजे उज्जैन लौटे।

कुल मिलाकर महानायक से मिलना असम्भव जैसा ही है और यदि पिता दिनकरजी के संदर्भ व पराग जी की पहल न  होती तो मिलना असम्भव ही था।पराग जी ने बताया कि 77 वर्ष की अवस्था में भी महानायक सुबह  साढ़े चार  बजे उठकर योगा जिम के बाद काम पर निकल जाते हैं और देर  रात 12 बजे के बाद आकर प्रशंसकों के कमेंट पर उत्तर देते हैं और नियमित स्वाध्याय के बाद ही केवल चार घण्टे विश्राम करते हैं।उनकी ऊर्जा व जीवटता दुर्लभ है।आगामी तीन वर्षो तक इतना काम है कि कोई डेट उपलब्ध नहीं है।महानायक को उनके 78 बसन्त पूर्ण होने पर बधाई शुभकामनाएं अभिनन्दन।वे इसी प्रकार स्वस्थ सक्रिय रहें और अपने अभिनय से देश और विश्व को आल्हादित आनन्दित करते रहें।

प्रतीक सोनवलकर की स्मृति से

 संयुक्त आयुक्त क्षेत्रीय ग्रामीण विकास व पंचायत राज प्रशिक्षण केंद्र इंदौर 


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परसाई जी की हठ

 जबलपुर में परसाई के उस खस्ता हाल मकान के चलते एक घटना और याद आई। परसाई जी के जन्म दिन पर उनके सम्मान में आयोजित संगोष्ठी में आयोजकों का आग्रह था कि परसाई जी भी वहां चलते लेकिन परसाई जी ने कहा -वे उठकर चलने के लायक नही हैं।कृपया हठ न करें। लोगो ने कहा हम आपको इसी  चारपाई सहित उठाकर ले चलेंगे।  कहकर उन लोगो ने परसाई जी समेत पलंग उठा लिया।

परसाई जी भी कम हठी नही थे,,उन्होंने बिस्तर को अपने हाथों से जकड़ लिया। हुआ यह कि दरवाजा छोटा था और पलंग कुछ ज्यादा ही चौड़ा था। पलंग उठाने वालों ने उसे थोड़ा टेढ़ा किया और परसाई जी भूलुंठित हो गए। यह देखके ठाकुरप्रसाद सिंह और मैने उन लोगो को बरजा तब जाकर परसाई जी सहज हुए। 

यहॉ नही ,उस बार ठाकुर प्रसाद सिंह परसाई जो को अट्ठहास शिखर सम्मान देने के निर्णय पर उनकी स्वीकृति लेने के लिए मुझे लेकर गए थे। परसाई जी ने अट्टहास सम्मान के बारे में पूछतांछ शुरु कर दी।कैसे करोगे, आगे बन्द तो नही होगा?

जब उन्हें बताया गया कि हम लोगो ने पांच लाख रु बैंक में जमा कर दिए है ।उसी के ब्याज से हर वर्ष दिया जाएगा। कितना?21000रु और 5100 रु। तो  उन्होंने कहा -आश्वस्त हुआ। लेकिन इसे पहला सम्मान शरद जोशी को दो। मुझे बाद में यही आकर दे देना। शरद जोशी जी ने हामी भरने के बाद मनोहर श्याम जोशी को 1990 का अट्टहास शिखर सम्मान  देने का निर्देश दिया और खुद जोशी जी को लखनऊ लेकर आये । शरद जोशी को बाद में दिया गया जबकि उनके निधन पर उनकी बेटी नेहा लेने आई।अट्टहासयुवा सम्मान प्रेम जनमेजय को दिया गया


अनूप श्रीवास्तव की स्मृति से 


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बिलखतीं टूटी ईंटों के वेदनामय स्वर"

व्यंग्य पितामह हरिशंकर परसाई जी जबलपुर के नेपियर टाउन में किराए से जिस मकान में जीवन भर रहे, वो मकान टूट गया है और फोटो की टूटी ईंटें गवाह हैं कि इन्ही टूटी ईंटों की दीवार के बगल में टूटी टांग लिए व्यंग्य को लोकोपकारी स्वरूप प्रदान करने में परसाई ने भागीरथ प्रयास किए थे। नेपियर टाउन में किराए का यह मकान इतना चर्चित था कि  बाहर से आया कोई व्यक्ति स्टेशन से उतरकर परसाई का नाम लेने भर से रिक्शेवाला यहां पहुचा देता था, दुनिया के किसी भी कोने से 'परसाई जबलपुर' लिखा लिफाफा बिना ढूंढे यहां पहुंच जाता था, और इस मकान में प्रतिष्ठित पुरस्कार/ सम्मान चलकर उनकी खटिया तक आते थे। ऐसी हस्ती जिनके व्यंग्य की परिधि आम आदमी से घूमते घूमते राष्ट्रीय सीमा लांघ अंतरराष्ट्रीय क्षितिज पर स्थापित हो गयी हो। जिनकी दिनों-दिन बढ़ती लोकप्रियता, चकित करने वाली उनकी रचनाओं की प्रासंगिकता, उनके चाहने वालों की बढ़ती संख्या को देखकर ये टूटी ईंटों को छूते हुए आंखें नम हैं, ये टूटी ईंटें विलाप करते हुए उलाहना दे रहीं हैं कि वाह रे परसाई तुम इस धरती पर अपने नाम से एक इंच जमीन पर कब्जा नहीं कर पाए,न ही थोड़ी सी ईंटें लेकर टूटा फूटा एक कमरा भी नहीं बनवा पाए। जीवन भर किराए के टूटे फ़ूटे मकान के छोटे से कमरे में पड़ी खटिया पर पड़े पड़े पूरी दुनिया को देखते रहे और अपनी कलम से समाज /मनुष्य को बेहतर बनाने के काम में लगे रहे।अनेकानेक कालजयी व्यंग्य रचनाएं लिखकर व्यंग्य की बहुमंजिला इमारत तो खड़ी कर दी,पर अपना सर छुपाने के लिए अपने नाम की एक छोटी सी छत का भी इंतजाम नहीं कर पाए ।

             इस फोटो की टूटी ईंटें के वेदनामय स्वर कह रहे हैं कि इन्ही टूटी ईंटों की दीवार से टिककर परसाई ने कहा था कि मैं बहुत दुखी आदमी हूं,दुखी होकर लिखता हूं... मैं इसीलिए दुखी हूं कि देखो मेरे समाज का क्या हाल हो रहा है, मेरे देश का क्या हाल हो रहा है, मेरे लोगों का क्या हाल हो रहा है, मनुष्य का क्या हाल होता जा रहा है, ये सब दुख मेरे भीतर हैं, करुणा मेरे भीतर है.... मैं बहुत संवेदनशील आदमी हूं,इस कारण से करुणा की अन्तर्धारा मेरे व्यंग्य के भीतर रहती है।इस प्रकार जैसे मैं विकट ट्रेजेडी को व्यंग्य और विनोद के द्वारा उड़ा देता हूं,उसी प्रकार उस करुणा के कारणों को भी मैं व्यंग्य की चोट से मारता हूं या उन पर विनोद करता हूं।

             इसी दौरान एक टूटी ईंट उछल कर मेरे पैरों के पास गिर गई, मैंने बड़े आदर से उसे उठाया,वो रोते हुए कहने लगी - अभी अगस्त में जब परसाई जी की जन्मशती चालू हुई थी तो महापौर ने परसाई मार्ग और परसाई जी की प्रतिमा स्थापित करने की घोषणा की थी,शहर के सारे अखबारों और मीडिया कवरेज था, अब जब महापौर ने दल बदल कर लिया और जब वो घर ही गिरा दिया गया तो अब परसाई मार्ग कहां बनेगा,इस जगह पर तो मल्टी स्टोरी काम्प्लेक्स बनने की तैयारी चल रही है, जीवन भर परसाई के साथ रहने वालीं हम ईंटों का भरोसा नहीं हम कहां किस कचरे की शान बनेंगी । नम आंखों से हमने उन ईंटों को छू छू कर देखा, फिर सोचा कि अब जब परसाई प्रेमी जबलपुर आएंगे और हमसे कहेंगे कि परसाई जी का वो मकान दिखाओ जहां वे जीवन भर रहे,तब हम उन लोगों को क्या कह पाएंगे ?

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जय प्रकाश पाण्डेय की स्मृति से 


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निर्मल वर्मा प्रियदर्शन की स्मृति से


निर्मल वर्मा से कुछ मुलाकातों का सौभाग्य मेरा भी रहा। उनसे पहली मुलाकात को आधार बना कर एक संस्मरण लिखा था। संस्मरणों की मेरी किताब 'दुनिया मेरे आगे' का वह पहला लेख है। आज उनके जन्मदिन पर फिर से साझा कर रहा हूं।

निर्मल स्मृति का वह एक चिथड़ा सुख

उन सीढ़ियों की अब बहुत धुंधली सी याद है।

स्मृति और कल्पना के मिले-जुले रसायन के बीच एक जीना उभरता है जिस पर अपने ही सहमे पांवों की पदचाप सुन रहा हूं।

ऊपर जाता हूं- यह भी याद नहीं है कि घंटी थी या सांकल। 

लेकिन उस शख़्स का चेहरा साफ़-साफ़ याद है जिसने दरवाज़ा खोला था।

उसकी आंखों में एक अजब सी चमक थी- किसी आंतरिक शांति और करुणा के मेल से बनी हुई।

उसकी मृदु-कांपती आवाज़ ने पूछा था, किससे मिलना है।

मुझे उनसे नही मिलना था।

उनकी पत्नी से मिलना था।

यह सुनकर वे मुझे अपने साथ ड्राइंग रूम में ले गए।

हम दोनों पांच मिनट चुपचाप बैठे रहे।

न उन्होंने कुछ कहा, न मैंने।

उनकी पत्नी आईं तो वे चले गए।

यह 1994 का साल था।

वे निर्मल वर्मा थे- मेरे प्रिय लेखक।

लेकिन मैं उन दिनों  पंकज बिष्ट के संपादन में निकलने वाली प्रकाशन विभाग की पत्रिका 'आजकल' के लिए गगन गिल का इंटरव्यू करने गया था।

जब निर्मल वर्मा सामने आ गए तो मेरी समझ में ही नहीं आया कि मैं क्या कहूं।

तो हमारे बीच चुप्पी बैठी रही।

.......

बरसों बाद गगन गिल ने मुझसे कहा कि तुम उस पहली मुलाकात का संस्मरण लिखो।

उन्हें याद था कि उस दिन ख़ूब बारिश हुई थी। उसी बारिश में वे मेरे लिए समोसे लेकर आई थीं।

मुझे और भी बहुत कुछ याद था। 

वाकई उस दिन बहुत बारिश हुई थी- कई घंटे चली उस बारिश की वजह से मैं दो लोगों के उस परिवार में उस दिन फंसा रहा।

अजब हालत थी। बाहर के कमरे में मैं और गगन गिल क़रीब तीन घंटे बात करते रहे थे। इंटरव्यू ख़त्म हो चुका था, उसके बाद की बातचीत भी। हम दोनों शायद एक-दूसरे से ऊब चुके थे। इस ऊब में यह बेचैनी भी शामिल थी कि एक तीसरा आदमी चुपचाप भीतर किसी कमरे में बैठा है। इस पूरी बातचीत के दौरान निर्मल बाहर नहीं आए थे।

तीन घंटों बाद जैसे पानी छूटा, हम दोनों ने राहत की सांस ली। मैं तत्काल उठा, मैंने नमस्ते करते हुए विदा ली। 

लेकिन सीढ़ियों से नीचे उतरते ही मेरे होश उड़ गए। मेरे सामने पूरी गली में घुटनों से ऊपर तक पानी जमा था। आगे बढ़ना मूर्खता थी, लेकिन वापस ऊपर जाना ऐसी अभद्रता होती जो मुझे मंज़ूर नहीं थी।  

तो उसी पानी से मैंने गली पार करने का फ़ैसला किया। मैं धीरे-धीरे अपने पायंचे चढ़ा रहा था। लेकिन तभी अचानक सीढ़ियों से एक हड़बड़ाई सी मृदु आवाज़ आई- 'अरे, अरे। इस पानी में आप कैसे जाएंगे। ऊपर चलिए, ऊपर चलिए।'

मैंने मुड़़कर देखा, वही चमकती हुई करुण आंखें थी। निर्मल वर्मा हड़बड़ाए सीढ़ियां उतर रहे थे, जैसे मेरा हाथ थाम कर ले जाएंगे।

इसके बाद फिर मैं उसी ड्राइंग रूम में था। इस बार निर्मल जी के साथ भी। मैंने उन्हें बताया, मैं उनके लेखन का किस क़दर मुरीद हूं। 'एक चिथड़ा सुख' तब भी मेरा पसंदीदा उपन्यास था और अब भी है। बल्कि 1990 में जब मैं पहली बार दिल्ली आया था तो जैसे इस उपन्यास के किरदारों की उंगली पकड़ कर इस महानगर की सड़कें छानता रहा था। कनॉट प्लेस के प्लाजा के पास से निकलती, फिरोजशाह रोड के उन दिनों के सन्नाटे में एक पेड़ से लगकर रोती बिट्टी मुझे बार-बार याद आती। मॉल रोड पर विश्वविद्यालय के कैफे मे बैठे नित्ती भाई और इरा का खयाल आता। निजामुद्दीन की मस्जिद के पीछे की बसावट ध्यान खींचती। मंडी हाउस में कहीं होने वाले रिहर्सलों में चेखव और स्ट्रिनबर्ग के नाटकों का ज़िक्र याद आता। मेरे लिए यह गालिबो-मीर की नहीं, निर्मल वर्मा की दिल्ली थी- विश्वविद्यालय से मंडी हाउस और निजामुद्दीन से कनॉट प्लेस तक अपनी तलाश में भटकती हुई एक यात्रा की दिल्ली। 

तो शाम की ओर बढ़ती हुई उस दोपहर को मैं इस दिल्ली के वास्तुशिल्पी के साथ- अपने प्रिय लेखक निर्मल वर्मा के साथ- बैठा हुआ था। वह एक यादगार शाम थी- हम तीनों, निर्मल वर्मा, गगन गिल और मैं देर तक बात करते रहे। मेरे लिए समोसे लाए गए जो मिल कर खाए गए। फिर सड़क का पानी घटा, मैं नीचे उतरा, और बारिश से भरे उस दिन में अपने भीतर लबालब भरा लौटा। 

.......... निर्मल वर्मा जी को याद कर रहे हैं तो कुछ भाई प्रिय दर्शन जी की कलम से भी - 

निर्मल वर्मा से कुछ मुलाकातों का सौभाग्य मेरा भी रहा। उनसे पहली मुलाकात को आधार बना कर एक संस्मरण लिखा था। संस्मरणों की मेरी किताब 'दुनिया मेरे आगे' का वह पहला लेख है। आज उनके जन्मदिन पर फिर से साझा कर रहा हूं।

निर्मल स्मृति का वह एक चिथड़ा सुख

उन सीढ़ियों की अब बहुत धुंधली सी याद है।

स्मृति और कल्पना के मिले-जुले रसायन के बीच एक जीना उभरता है जिस पर अपने ही सहमे पांवों की पदचाप सुन रहा हूं।

ऊपर जाता हूं- यह भी याद नहीं है कि घंटी थी या सांकल। 

लेकिन उस शख़्स का चेहरा साफ़-साफ़ याद है जिसने दरवाज़ा खोला था।

उसकी आंखों में एक अजब सी चमक थी- किसी आंतरिक शांति और करुणा के मेल से बनी हुई।

उसकी मृदु-कांपती आवाज़ ने पूछा था, किससे मिलना है।

मुझे उनसे नही मिलना था।

उनकी पत्नी से मिलना था।

यह सुनकर वे मुझे अपने साथ ड्राइंग रूम में ले गए।

हम दोनों पांच मिनट चुपचाप बैठे रहे।

न उन्होंने कुछ कहा, न मैंने।

उनकी पत्नी आईं तो वे चले गए।

यह 1994 का साल था।

वे निर्मल वर्मा थे- मेरे प्रिय लेखक।

लेकिन मैं उन दिनों  पंकज बिष्ट के संपादन में निकलने वाली प्रकाशन विभाग की पत्रिका 'आजकल' के लिए गगन गिल का इंटरव्यू करने गया था।

जब निर्मल वर्मा सामने आ गए तो मेरी समझ में ही नहीं आया कि मैं क्या कहूं।

तो हमारे बीच चुप्पी बैठी रही।

.......

बरसों बाद गगन गिल ने मुझसे कहा कि तुम उस पहली मुलाकात का संस्मरण लिखो।

उन्हें याद था कि उस दिन ख़ूब बारिश हुई थी। उसी बारिश में वे मेरे लिए समोसे लेकर आई थीं।

मुझे और भी बहुत कुछ याद था। 

वाकई उस दिन बहुत बारिश हुई थी- कई घंटे चली उस बारिश की वजह से मैं दो लोगों के उस परिवार में उस दिन फंसा रहा।

अजब हालत थी। बाहर के कमरे में मैं और गगन गिल क़रीब तीन घंटे बात करते रहे थे। इंटरव्यू ख़त्म हो चुका था, उसके बाद की बातचीत भी। हम दोनों शायद एक-दूसरे से ऊब चुके थे। इस ऊब में यह बेचैनी भी शामिल थी कि एक तीसरा आदमी चुपचाप भीतर किसी कमरे में बैठा है। इस पूरी बातचीत के दौरान निर्मल बाहर नहीं आए थे।

तीन घंटों बाद जैसे पानी छूटा, हम दोनों ने राहत की सांस ली। मैं तत्काल उठा, मैंने नमस्ते करते हुए विदा ली। 

लेकिन सीढ़ियों से नीचे उतरते ही मेरे होश उड़ गए। मेरे सामने पूरी गली में घुटनों से ऊपर तक पानी जमा था। आगे बढ़ना मूर्खता थी, लेकिन वापस ऊपर जाना ऐसी अभद्रता होती जो मुझे मंज़ूर नहीं थी।  

तो उसी पानी से मैंने गली पार करने का फ़ैसला किया। मैं धीरे-धीरे अपने पायंचे चढ़ा रहा था। लेकिन तभी अचानक सीढ़ियों से एक हड़बड़ाई सी मृदु आवाज़ आई- 'अरे, अरे। इस पानी में आप कैसे जाएंगे। ऊपर चलिए, ऊपर चलिए।'

मैंने मुड़़कर देखा, वही चमकती हुई करुण आंखें थी। निर्मल वर्मा हड़बड़ाए सीढ़ियां उतर रहे थे, जैसे मेरा हाथ थाम कर ले जाएंगे।

इसके बाद फिर मैं उसी ड्राइंग रूम में था। इस बार निर्मल जी के साथ भी। मैंने उन्हें बताया, मैं उनके लेखन का किस क़दर मुरीद हूं। 'एक चिथड़ा सुख' तब भी मेरा पसंदीदा उपन्यास था और अब भी है। बल्कि 1990 में जब मैं पहली बार दिल्ली आया था तो जैसे इस उपन्यास के किरदारों की उंगली पकड़ कर इस महानगर की सड़कें छानता रहा था। कनॉट प्लेस के प्लाजा के पास से निकलती, फिरोजशाह रोड के उन दिनों के सन्नाटे में एक पेड़ से लगकर रोती बिट्टी मुझे बार-बार याद आती। मॉल रोड पर विश्वविद्यालय के कैफे मे बैठे नित्ती भाई और इरा का खयाल आता। निजामुद्दीन की मस्जिद के पीछे की बसावट ध्यान खींचती। मंडी हाउस में कहीं होने वाले रिहर्सलों में चेखव और स्ट्रिनबर्ग के नाटकों का ज़िक्र याद आता। मेरे लिए यह गालिबो-मीर की नहीं, निर्मल वर्मा की दिल्ली थी- विश्वविद्यालय से मंडी हाउस और निजामुद्दीन से कनॉट प्लेस तक अपनी तलाश में भटकती हुई एक यात्रा की दिल्ली। 

तो शाम की ओर बढ़ती हुई उस दोपहर को मैं इस दिल्ली के वास्तुशिल्पी के साथ- अपने प्रिय लेखक निर्मल वर्मा के साथ- बैठा हुआ था। वह एक यादगार शाम थी- हम तीनों, निर्मल वर्मा, गगन गिल और मैं देर तक बात करते रहे। मेरे लिए समोसे लाए गए जो मिल कर खाए गए। फिर सड़क का पानी घटा, मैं नीचे उतरा, और बारिश से भरे उस दिन में अपने भीतर लबालब भरा लौटा। 

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तब मैं दिल्ली नया-नया आया था। पांडव नगर के एक छोटे से घर में अपने तीन दोस्तों के साथ रहा करता था। अपना शहर छोड़कर एक नए शहर को अपना बनाने के संघर्ष में जो एक खुशनुमा सी उदास रुमानियत होती है, उससे हम सब भरे रहते। घर में एक दोस्त के लाए टेप रिकॉर्डर पर जगजीत सिंह की ग़ज़लें बजा करतीं और हम अपनी शामों को तरह-तरह के खयालों से आबाद रखते। महज 23 साल पहले का वह ज़माना याद कर अब हैरत होती है।  वह मोबाइल फोन का दौर नहीं था। फोन मतलब वह लैंडलाइन होता था जिसके लिए तब भी नंबर लगा करते और एक नए शहर के संघर्षशील बाशिंदों के तौर पर फोन न सिर्फ़ हमारी कल्पना से बाहर था  बल्कि शायद उसकी आज की तरह ज़रूरत भी महसूस नहीं होती थी। फोन करने के लिए बिल्कुल अगल-बगल की सारी दुकानों पर सुविधा थी। बेशक, बाहर से फोन नहीं आ सकते थे. लेकिन हमें कौन फोन करता? 

मगर यह सवाल मुझे तंग करता था। मैं नया-नया फ्रीलांसर था और इस ख़ुशफहमी में था कि अगर कोई संपादक मुझसे संपर्क करना चाहे तो किस नंबर पर करेगा। तो मैंने पड़ोस के एक दुकानदार का नंबर जुटा रखा था। वह उन दिनों बस फोन रिसीव करके जानकारी देने के तीन रुपये ले लिया करता था। मगर वे फोन महीने में एक-दो से ज़्याादा नहीं हुआ करते थे. इसलिए यह बहुत चुभने वाला अन्याय नहीं था। तो वही नंबर उस मुलाकात के बाद मैंने निर्मल वर्मा के घर भी छोड़ा था- ऐसी कोई उम्मीद नहीं थी कि उनका फोन आएगा, मगर अपनी पेशेवर तैयारी के भ्रम में यह काम किया।

मगर एक दिन फोन आ गया। मुझे उस दुकानदार ने नाम याद करते हुए बताया- किसी गगन गिल का फोन है। मैंने तत्काल फोन किया। पता चला कि हिंदी में किताबों के एक प्रतिष्ठित प्रकाशक को एक संपादक की ज़रूरत है और निर्मल वर्मा और गगन गिल ने मेरा नाम प्रस्तावित किया है। मैं बेहद खुश था- इसलिए नहीं कि एक नौकरी की संंभावना खुली थी- ऐसी कई संभावनाओं के दरवाजे अपनी उस फ्रीलांसिंग के काल में मैं ख़ुद बंद कर चुका था। बस इसलिए कि यह ऐसी नौकरी होने जा रही है जिसके लिए निर्मल वर्मा ने मुझे योग्य माना। निर्मल वर्मा के कहने पर मैंने प्रकाशक से बात की। लेकिन अंततः बात कहीं नहीं पहुंची। प्रकाशक मुझे रखने को तैयार ते, मैं रहने को तैयार नहीं था क्योंकि पैसा मुझे मेरी अपेक्षाओं के मुताबिक नहीं मिल रहा था। मैं फ्रीलांसिंग में कहीं ज़्यादा पैसे कमा लिया करता था। निर्मल वर्मा को मैंने जब यह बताया तो वे दुखी हुए। उन्होंने यह बात मानी कि वाकई प्रकाशक की पेशकश पेशेवर नहीं है।

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बहरहाल, आने वाले वर्षों में मुझे नौकरी मिल गई। 1996 में मैं जनसत्ता में कनिष्ठ सहायक संपादक हो चुका था। यह ख़बर हमने आपस में साझा की। वे खुश हुए। इसके बाद की मुलाकातें किन्हीं कार्यक्रमों में होने वाली मुलाकातें रहीं। कभी-कभार मेरे कुछ लेखों और संपादकीयों पर भी उन्होंने प्रशंसा के अंदाज़ में टिप्पणी की। इस बीच उनका उपन्यास 'अंतिम अरण्य' भी प्रकाशित हुआ। पता नहीं क्यों मुझे इस उपन्यास से एक अजब सी हूक होती रही। लगा कि कभी मेरी कल्पनाओं का युवा लेखक उम्र के उस पड़ाव की कहानी लिख रहा है जहां ठहर कर पीछे देखने के दिन शुरू हो जाते हैं। इत्तिफाक से लगभग उन्हीं दिनों कृष्णा सोबती का 'समय सरगम' भी प्रकाशित हुआ था। इन दोनों उपन्यासों में वार्धक्य और मृत्यु की जो छाया थी, वह मुझे हिंदी के बदलते दौर की पहचान की तरह याद आती रही। 'अंतिम अरण्य' पर मैंने दूरदर्शन के एक कार्यक्रम के लिए नामवर सिंह और अशोक वाजपेयी के साथ बातचीत की थी। इसी आसपास निर्मल वर्मा को ज्ञानपीठ सम्मान देने की घोषणा हुई। हालांकि इस सम्मान में निर्मल वर्मा के साथ पंजाबी लेखक गुरदयाल सिंह भी साझा कर रहे थे। गुरदयाल सिंह भी मेरे प्रिय उपन्यासकारों में रहे। ख़ासकर उनका उपन्यास परसा मुझे बेहद पसंद था और मैंने हंस में इसकी एक समीक्षा भी लिखी थी। लेकिन जनसत्ता मेें इस पुरस्कार पर बहस चली, यह सवाल भी उठा कि कहीं यह निर्मल वर्मा के साथ अन्याय तो नहीं।

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इन सारी साहित्यिक-संस्कृतिक हलचलों और बहसों के बीच निर्मल वर्मा से बातचीत होती रही, लेकिन एक यादगार मुलाकात का बहाना इसके बाद निकला। साल 2000 में अचानक मेरे पास ज़ी टीवी से फोन आया। आकृता नाम की एक प्रोड्यूसर ने फोन किया था। ज़ी टीवी वाले अपनी एक प्रतिष्ठित शृंखला 'विज़न बियॉन्ड फ़िफ्टी' के लिए निर्मल वर्मा का एक इंटरव्यू करना चाहते थे। आकृता ने मुझसे अनुरोध किया कि मैं यह इंटरव्यू लूं। मुझे नहीं मालूम कि मेरा नाम आकृता को किसने सुझाया था। ये वे दिन थे जब निर्मल वर्मा पर उनकी वैचारिकता को लेकर लगातार हमले हो रहे थे। यह आरोप लगाया जा रहा था कि वे भारतीय जनता पार्टी के क़रीब  हैं और आडवाणी के पक्ष में उन्होंने अपील की है। दूसरी तरफ निर्मल वर्मा अपनी जानी-पहचानी मृदु मगर दो टूक शैली में अपने विरोधियों का प्रत्युत्तर दे रहे थे। इसमें शक नहीं कि वामपंथ विरोध की उनकी वैचारिकी में बहुत सारे तत्व ऐसे थे जो दक्षिणपंथी राजनीति को अपने लिए उपयोगी लग सकते थे, लेकिन यह सच है कि राजनीति दक्षिण की हो या वाम की- दोनों का उस गहन वैचारिकता से कोई सरोकार नहीं रह गया है जो उनके लेखकों के लेखन में दिखती है। निर्मल वर्मा का अपना पक्ष जो भी हो- बीजेपी के लिए वे शोभा और इस्तेमाल की वस्तु भर थे- निर्मल की वैचारिकी से उनको लेना-देना नहीं था। खैर, उनसे इंटरव्यू लेने से पहले मैंने तय किया कि अगर असुविधाजनक भी हों तो ये सवाल मैं पूछूंगा। मैंने पूछा और उन्होंने शालीन दृढ़ता से इसका उत्तर दिया- इस बात से इनकार करते हुए कि भारतीय जनता पार्टी या किसी भी राजनीतिक दल को लेकर उन्होंने कोई अपील जारी नहीं की है। 

इस इंटरव्यू से जुड़़ी एक बात और याद हैं। यह इंटरव्यू ज़ी टीवी पर उस दिन आया जब बिहार चुनावों के नतीजे आ रहे थे। अचानक वह बहुत सारे लोगों द्वारा देख लिया गया। मुझे कई फोन आए, ज्यादातर लोग उसे एक समृद्ध इंटरव्यू मान रहे थे। लेकिन राजेंद्र यादव ने कहा कि मुझे कुछ और सख्त सवाल करने चाहिए थे। मैंने कहा कि एक पेशेवर साक्षात्कारकर्ता की तरह किसी एक सवाल पर जितनी बार मुझे कुरेदना चाहिए था, उतना भर मैंने किया। मेरा काम उनका पक्ष जानना था, अपनी राय के हिसाब से सच उगलवाना नहीं। राजेंद्र यादव अपनी आदत के मुताबिक इस पर ठठा कर हंसे। 

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इंटरव्यू वाले दिन एक और मार्मिक प्रसंग घटा था। इंटरव्यू ख़त्म होने के बाद ज़ी टीवी की टीम निकल गई। मुझे निर्मल वर्मा ने रोक लिया- 'गगन बाहर गई हुई हैं। आप रुकिए हम लोग गप करेंगे। मैं आपको अपने हाथ की बनी चाय पिलाता हूं।' मेरे लिए ना करने के सवाल ही नहीं था। तो हम कम से कम दो घंटे बैठे रहे, निर्मल जी ने एक बार नहीं, दो बार चाय बनाई। एक लंबे से कप से उठती हुई वह भाप जैसे उस पूरे कमरे की ऊष्मा को प्रतिबिंबित कर रही थी। वे अपनी मृदु-मंथर शैली में धीरे-धीरे बोल-सुन रहे थे और मुझे उनकी कहानियों की कुहरीली सुबहें-शामें याद  आ रही थीं। इस बातचीत के दौरान अचानक उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या ज़ी टीवी वाले इस इंटरव्यू के लिए उन्हें कोई भुगतान करेंगे? मैंने उन्हें बताया कि मुझे तो वे भुगतान करेंगे, उनको करेंगे या नहीं, यह नहीं मालूम। दरअसल फ्रीलांसिंग के दिनों की बची-खुची आदत के तहत मैंने आकृता से पहला सवाल यही पूछा था कि क्या इस इंटरव्यू के लिए ज़ी टीवी वाले मुझे कोई भुगतान करेंगे। उसने बताया था कि आने-जाने की व्यवस्था के अलावा मुझे और भी पैसे मिलेंगे। निर्मल जी ने कहा कि कायदे से भुगतान तो उन्हें भी होना चाहिए। मैंने सहमति जताई। करीब 15 दिन बाद मुझे ढाई हज़ार रुपये का चेक आया। मैं बड़ा प्रसन्न हुआ। मैने तत्काल निर्मल वर्मा को फोन कर जानकारी दी। फिर मैंने आकृता से पूछा। आकृता ने बताया कि जो इटरव्यू करता है, उसको भुगतान होता है, जिसका इंटरव्यू लिया जाता है, वह तो बड़ा आदमी माना जाता है। निर्मल वर्मा को मैंने बताया तो वे मुस्कुरा भर दिए।

अब मैं सोचता हूं कि हिंदी के इतने बड़े लेखक को एक इंटरव्यू के लिए भुगतान की अपेक्षा क्यों करनी पड़ती है?  हिंदी का समाज उसे अपनी किताबों से इतने पैसे क्यों नहीं देता कि वह पुरस्कारों और ऐसे भुगतानों का मोहताज रहे? दरअसल वह एक करुण दृश्य था जिसे निर्मल वर्मा के व्यक्तित्व की उदात्तता ने ढंके रखा। निस्संदेह वे गरीब नहीं थे और दिल्ली में  सलीके का मध्यवर्गीय जीवन जी सके, लेकिन हममें से कितने लोग हैं जो किसी नौकरी के बिना, सिर्फ लिखकर गुजारा करने का हौसला रख सकें?

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ये छोटे-छोटे सुख थे जो निर्मल वर्मा की टुकड़ा-टुकड़ा मुलाकातों से हासिल होते रहे- हमारे हिस्से का एक चिथड़ा सुख- जो दिल्ली में रहने के बहुत सारे दुखों पर भारी पड़ा। 2002 के बाद जब मैं एनडीटीवी चला आया तो एक नए माध्यम की आंधी में जैसे सारे पुराने पुल टूट गए। उन्हीं दिनों राजेंद्र यादव ने कभी अपने विनोदी लहजे में यह शिकायत भी की- लोग अल्लाह को प्यारे होते हैं, तुम टीवी को प्यारे हो गए हो। लेकिन बीच-बीच में किन्हीं समारोहों और आयोजनों में निर्मल जी पुरानी आत्मीयता से मिलते और मेरा हालचाल लेते। कायदे की आखिरी भेंट शायद 2003 में ओम थानवी के घर हुई जब उन्होंने जनसत्ता से मंगलेश डबराल और मेरी विदाई के उपलक्ष्य में एक छोटी सी पार्टी रखी थी। उसमें निर्मल वर्मा और गगन गिल के अलाव राजेंद्र यादव, कुंवरनारायण और विष्णु खरे सहित हिंदी के कई मूर्द्धन्य लेखक शामिल थे। बातचीत इसके बाद भी चलती रही।

लेकिन एक दिन सब कुछ रुक गया। यह मालूम था कि निर्मल वर्मा बीमार हैं। अस्पताल में भर्ती हैं। लेकिन कभी उनको देखने गया नहीं। दूसरों से ख़बर लेता रहा। 25 अक्टूबर 2005 को इसकी भी ज़रूरत नहीं रह गई। निर्मल वर्मा अपने अंतिम अरण्य के पार चले गए। दिल्ली के सह विकास अपार्टमेंट के उनके घर से लेकर लोदी रोड के शवदाहगृह तक शोकाकुल लेखकों-पत्रकारों और पाठकों का हुजूम बताता रहा कि लोग उनको कितनी शिद्दत से चाहते थे। एनडीटीवी इंडिया पर हमने उन पर आधे घंटे के कार्यक्रम का कार्यक्रम भी किया। अपने भीतर उमड़ते-घुमड़ते दुख को स्थगित रख कर मैं वह सब जोड़ने-संजोने की कोशिश करता रहा जो निर्मल जी स्मृति के तौर पर मेरे लिए छोड़ गए थे। यह बहुत छोटी सी पोटली है, लेकिन बहुत बेशक़ीमती है। उस दिन अपने न्यूज़ रूम में खड़ा मैं चारों तरफ लगे टीवी सेट्स को देख रहा था जिन पर निर्मल वर्मा की श्रद्धांजलियां जारी थीं। अचानक किसी ने मुझे कहा, अरे यहां तो आप दिख रहे हैं। मेरी नज़र पड़ी। ज़ी टीवी पर मैं निर्मल वर्मा से सवाल पूछ रहा था। यह वही पुुराना इंटरव्यू था जो इस मौके पर चैनल ने रिपीट किया। जाते-जाते जैसे एक संवाद को पुनर्जीवित कर गए निर्मल वर्मा।

भाग प्रियदर्शन जी की कलम से 'निर्मल वर्मा' जी पर कुछ और ....

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निर्मल वर्मा को लेकर चर्चा जारी है। तीन साल पहले शंपा शाह के कहने पर 'कथादेश' के निर्मल वर्मा विशेषांक के लिए मैंने अपने पसंदीदा दो बिल्कुल अलग तरह के उपन्यासों को लेकर एक कुछ बेढब सी टिप्पणी लिखी थी। मैंने यह समझने की कोशिश की थी कि दो बिल्कुल भिन्न तरह के उपन्यास 'एक चिथड़ा सुख' और 'परती परिकथा' मुझे समान रूप से प्रिया क्यों हैं? हालांकि लेख के केंद्र में 'एक चिथड़ा सुख' ही था। फिर यह लेख साझा कर रहा हूं।


यह एक चिथड़ा सुख की तलाश नहीं है


जिन दो उपन्यासों ने एक दौर में मेरे भीतर अपनी बहुत गहरी छाप छोड़ी- और जिन्हें बार-बार पढ़ने की इच्छा होती है- उनमें एक फणीश्वर नाथ रेणु का ‘परती परिकथा’ है और दूसरा निर्मल वर्मा का ‘एक चिथड़ा सुख’। हालांकि ये दोनों एक-दूसरे से नितांत भिन्न आस्वाद की कृतियां हैं- एक में आंचलिक आभा है तो दूसरे में महानगरीय वैभव। एक की कथा पूर्णिया के परानपुर नाम के पिछड़े गांव में घूमती है तो दूसरे के चरित्र दिल्ली के संभ्रांत ठिकानों में भटकते हैं। एक में सामूहिकता के उत्सव के बीच भविष्य की कल्पना है तो दूसरे में अपनी एकांतिकता की अपने वर्तमान से मुठभेड़ का यथार्थ। एक में पचास के दशक में देखा गया विकास का नेहरूवादी सपना है तो दूसरे में ऐसा कोई सपना नहीं है, बस एक कशमकश है और एक बेचैन पड़ताल- एक चिथड़ा सुख की स्मृति की, या उसकी तलाश की। 

लेकिन दो नितांत भिन्न कृतियों में वह कौन सी एक समान चीज़ होती है जो किसी पाठक को फिर भी आकृष्ट करती है? इस सवाल का जवाब आसान नहीं है। इस पर विचार करते हुए मुझे यह खयाल आता है कि रेणु और निर्मल वर्मा दोनों व्यक्ति के अंतर्जगत के भी अद्भुत चितेरे हैं। बल्कि अपनी जड़ों से टूटने और फिर उन्हें खोजने की कसक उनके किरदारों को भटकाती रहती है। ‘परती-परिकथा’ का नायक जित्तन मिश्र ऐसा ही किरदार है- देश और समाज को बदलने की चाहत और इसे बदलने निकले लोगों की हक़ीक़त उसे जड़ों से भी काट देती है और बाक़ी दुनिया से भी। अलग-अलग ग्राम प्रांतरों में घूमते हुए, सितार बजाने से लेकर पत्रकारिता करते हुए, अंततः वह जड़ों की तलाश में गांव लौटा है। गांव वाले उसे पागल कहते हैं। इरावती भी विभाजन की चोट खाई भटकती हुई एक लड़की है जो अपने परती-पुत्तर को खोज रही है। बल्कि विकास की हवा में गांव की चूलें भी उखड़ गई हैं। सर्वे की आंधी में सब उड़ रहे हैं- रिश्ते-नाते, भरोसा और सरोकार और वह जीवन जो सामूहिकता से बना है। इस टूटन के बीच अलग-अलग चरित्र तरह-तरह की छटपटाहटों से भरे हैं- ताजमनी, मलारी, लुत्तो- सबके अपने-अपने दुख हैं- जितने सामाजिक, उतने ही निजी भी-बल्कि सारी खरोचें देह से ज़्यादा चेतना पर पड़ी हुई हैं। अपनी सारी आंचलिकता और सामाजिकता के बावजूद यह व्यक्तिगत छटपटाहट न होती तो ‘परती परिकथा’ हमारे भीतर किसी ‘तीरे नीमकश’ की तरह धंसी हुई न होती। 

निर्मल वर्मा के यहां तो जैसे सारे के सारे चरित्र अपनी जड़ों से उखड़े हुए हैं। इलाहाबाद से आई बिट्टी अपनी बेख़याली में दिल्ली के रंगमंच में अपना ठिकाना खोज रही है। उसका भाई दर्शक भी है, भोक्ता भी और एक तरह से लेखक भी- जो सबकुछ देख और झेल रहा है। 

इस मोड़ पर एक बात और विचार करने लायक है। यह जो जड़ों से कटे रहने की त्रासदी है, क्या वह कोई निजी त्रासदी है जो किन्हीं चरित्रों की आंतरिक उलझनों या मजबूरियों से पैदा हुई है? दरअसल ठीक से देखें तो अपने दूसरे हिस्से में बीसवीं सदी विस्थापित लोगों की सदी है। तरह-तरह के दबावों में गांव-घर छूटे हैं और नए इलाकों में अपनी पुरानी पहचान खोजते लोग यह जान कर ठिठके हुए हैं कि वे तो वे नहीं रहे जो वे हुआ करते थे।

निर्मल वर्मा इस सामाजिक त्रासदी के बीच पैदा हुई व्यक्तिगत विडंबना को लगभग एक अस्तित्ववादी बेचैनी के चरम पर ‌ले जाते हैं। 'एक चिथड़ा सुख' का पाठ इसलिए एक अविस्मरणीय अनुभव बन जाता है। इस अविस्मरणीयता की वजहें और भी हैं। इन वजहों में उतरते हुए हम यह भी समझ पाते हैं कि बड़ी कृतियां अंततः अद्वितीय ढंग से मौलिक होती हैं, कि ‘परती-परिकथा’ और ‘एक चिथड़ा सुख’ के बीच के समान तत्वों की खोज या उनकी प्राप्ति के बावजूद दोनों एक-दूसरे से नितांत भिन्न रचनाएं हैं।

निर्मल वर्मा के चरित्र जैसे आधुनिक सभ्यता के बियाबान में छटपटाते चरित्र हैं। वे सब ख़ुद को खोज रहे हैं, अपनी जगह खोज रहे हैं। ‘एक चिथड़ा सुख’ की नायिका बिट्टी इलाहाबाद से दिल्ली आई है। वह रंगमंच के अलग-अलग चरित्रों को जीती हुई जैसे अपने ही जीवन के मायने तलाश रही है। उसे एहसास है कि कुछ है जो खो गया है। इस एहसास को निर्मल वर्मा जिस सहजता और संवेदनशीलता के साथ उपन्यास में जगह देते हैं, वह भी दृष्टव्य है। बिट्टी और उसका कजिन सोने से पहले चुप्पी और संवाद के बीच आवाजाही कर रहे हैं- कुछ स्मृतियों का सिरा पकड़ कर और कुछ वर्तमान के दुखों के रेशे खोलते हुए। निर्मल वर्मा ने इसका वर्णन कुछ इस तरह किया है:

"कुछ देर बाद स्लीपिंग बैग हिला, मुंह बाहर निकला, छोटी सी आवाज़ आई, 'मुन्नू?'

'हूं', उसने करवट ली।

'तुम क्या सोचते हो, अगर वह ज़िंदा होतीं, तो मुझसे बहुत निराश हो जातीं?'

'बिट्टी,' उसका स्वर न जाने क्यों बहुत रुंधा सा हो आया। 'वह तुम्हें बहुत मानती थीं।'

'मुझे नहीं... वह लड़की कोई और थी।'

'और तुम... तुम कौन हो?'

'मैं'...-उसने बहुत धीमे से कहा। 'मैं उसे ही ढूंढ़ने दिल्ली आई थी।' "


यह त्रासदी है जो उपन्यास में जैसे हर किसी के साथ घटित हो रही है। लंदन से हिंदुस्तान के लिए चली इरा पा रही है कि वह हिंदुस्तान में नहीं थिएटर में है। वह लौट जाना चाहती है। यह भी साफ नहीं है कि वह क्यों आई थी। क्या उसे शादीशुदा नित्ती भाई का प्रेम खींच लाया था? और नित्ती भाई? वे जैसे खुद कई दुनियाओं में, कई किरदारों में बंटे‌ हुए हैं।

इसी तरह डैरी हैं- दिल्ली में एक रईस बाप के बेटे जो बिहार से भटकते हुए रंगमंच में चेखव और स्ट्रिनबर्ग के बीच भटक रहे हैं।

निर्मल वर्मा ने यह कहानी बहुत मनोयोग से लिखी है। कुल चार-पांच मुख्य किरदारों के बीच घूमती इस कहानी में छठा किरदार दिल्ली नाम का वह शहर है जहां ये सब अपने-अपने हिस्से की भूमिकाएं खोजने इकट्ठा हुए हैं। वैसे तो दिल्ली बहुत सारे लोगों की है- एक दौर में हुए बादशाहों की है, एक दौर में हुए शायरों की है, लेकिन एक दिल्ली निर्मल वर्मा भी बनाते हैं- वह दिल्ली जहां सब अपनी-अपनी पहचान और अपना-अपना मक़सद ढूढ़ने आए हैं। मंडी हाउस, बाराखंबा रोड, निजामुद्दीन, ओडियन सिनेमा, माल रोड- ये दिल्ली के नक़्शे पर दर्ज जगहों के नाम भर नहीं हैं, निर्मल वर्मा के उपन्यास के भीतर इनके किरदारों के वे ठिकाने भी हैं जहां से गुज़रते हुए ये सब खुद को बार-बार खो देते, खोजते और फिर पहचानने की कोशिश करते हैं। 

यही वह मोड़ है जहां ‘एक चिथड़ा सुख’ फिर से ‘परती परिकथा’ की याद दिलाता है। यह सवाल पूछने की इच्छा होती है कि अगर ‘परती-परिकथा’ एक आंचलिक उपन्यास है तो ‘एक चिथड़ा सुख’ क्यों नहीं। क्या इसलिए कि दिल्ली देहात जैसी नहीं लगती और इस उपन्यास के किरदारों की भाषा में वह भदेसपन नहीं है जिसे हम अमूमन आंचलिकता के साथ जोड़ने के आदी हो गए हैं? लेकिन अगर अपने इस अभ्यास को कुछ देर के लिए स्थगित कर सकें तो हम पाएंगे कि निर्मल वर्मा का उपन्यास भी ठेठ आंचलिक उपन्यास है- बस इसलिए नहीं कि इसमें दिल्ली का भूगोल या नक़्शा मिलता है, बल्कि इसलिए कि यह उपन्यास बस दिल्ली में ही घट सकता था- एक ऐसे महानगर में जो बाहर से इतना समृद्ध और संवेदनशील दिखाई पड़ता है कि किसी को अपने खोए हुए वजूद की तलाश के लिए बुला सकता है और भीतर से इतना तंगदिल और खोखला साबित होता है कि वह हर किसी को ख़ाली हाथ लौटा सकता है।

लेकिन क्या वाकई यही सच है? क्या निर्मल वर्मा ने जो दिल्ली रची है वह इतनी हृदयहीन है कि सबको ख़ाली हाथ लौटा देती है? इस मोड़ पर निर्मल वर्मा फिर उस्ताद लेखक साबित होते हैं। यह उनके लेखन का करिश्मा है कि यह दिल्ली जैसे हमारे भीतर भी धंसती-बसती चली जाती है, हम इस दिल्ली से मोहब्बत करने लग जाते हैं। दरअसल यहां पता चलता है कि इस शहर ने आपको जितना ख़ाली कर दिया है उससे कहीं ज्यादा भर दिया है। बिट्टी के नाटक का मंचन छोड़कर मुन्नू जब इलाहाबाद लौटेगा तो एक भिन्न व्यक्ति होगा जिसके भीतर बहुत सारी यादों का एक आबाद संसार होगा, जीवन की बहुत गहरी समझ होगी, सुख और दुख उसके जीवन में यंत्रवत आएंगे-जाएंगे नहीं, बल्कि उन्हें वह ठीक से महसूस कर सकेगा, बेशक वह उन्हें बार-बार खोजता और खोता भी रहेगा। अंततः निर्मल वर्मा की दिल्ली वह किरदार है जो आपको चोट भी पहुंचाती है और सहारा भी देती है। उसकी वजह से जीवन व्यर्थ लगता है और उसी के साए तले जीवन के मायने खोजने की व्याकुलता भी पैदा होती है। अब 'एक चिथड़ा सुख' को दिल्ली के संदर्भ में निर्मल वर्मा का आंचलिक उपन्यास न कहें तो क्या कहें।

रंगमंच वह धागा है जो इस पूरी कथा को पिरो रहा है। निर्मल इसी रंगमंच की मार्फ़त कला में जीवन के पुनर्वास का स्वप्न भी देखते हैं और उसके बिखरते जाने की सच्चाई भी महसूस करते हैं। 500 बरस पहले शेक्सपियर का मैकबेथ अपनी छटपटाहट में चीखता है- ‘जीवन एक चलती हुई छाया है, एक कमज़ोर कलाकार जो अपने तय समय तक मंच पर ऐंठती-इठलाती है और फिर किसी को सुनाई नहीं पड़ती। यह किसी मूर्ख द्वारा सुनाई जा रही कथा है जिसमें शोर और हंगामा बहुत है, लेकिन अर्थ नहीं।‘

लेकिन जीवन के इस विराट आख्यान के समानांतर निर्मल के चरित्रों की छटपटाहट मैकबेथ के इस वक्तव्य की उदात्तता से कुछ भिन्न है। बल्कि शायद वे ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस’ के ऐंटोनियो की याद दिलाते हैं- ‘मैं दुनिया को एक रंगमंच की तरह देखता हूं ग्रैटियानो जिसमें हर कोई अपनी भूमिका अदा कर रहा है, और मेरे हिस्से एक उदास किरदार है।‘ यह उदासी निचाट अकेलेपन से, या किसी अन्य संशय से पैदा हुई उदासी नहीं है- यह फिर इस आकुलता से जन्मी है कि उनके भीतर कुछ है जो बाहर नहीं आ रहा है, कुछ है जो अव्यक्त रह जा रहा है, कुछ है जिसे दूसरे ढंग से जिया जाना था। रिहर्सल के दौरान वे कुछ से कुछ हो जाते हैं। मुन्नू न बिट्टी को ठीक से पहचान पाता है न इरा को। उसे लगता है- वे तो कोई और हैं जो बिल्कुल एक अलग जीवन जी रहे हैं। 


लेकिन इस कथा का असली नायक किशोर मुन्नू है- बिट्टी का कजिन- जिसे मां‌ ने मरने से पहले एक डायरी दी है, साथ में हिदायत भी- कि जो देखना वही लिखना। लेकिन क्या जो दिखाई पड़ता है वही सच होता है? क्या दृश्य के भीतर बहुत सारे अदृश्य नहीं होते हैं? और जो अदृश्य होता है क्या वह भी तरह-तरह के दृश्यों में बंटा नहीं होता? मुन्नू कहीं भोक्ता है कहीं दर्शक और कहीं सब कुछ का लेखक- वही है जो उपन्यास के भीतर चल रहा नाटक भी देख रहा है और ज़िंदगी के भीतर चल रहा नाटक भी। मुन्नू जैसे लेखक की आंख से इसे देख रहा है- जीवन की समूची गतिमयता को, उसके एक-एक क्षण में छुपी निरीहता को। वह लिखता है- ‘तुम देखे को न समझो, यह बात दूसरी है, लेकिन एक बार देख लेने पर दुनिया एक कीड़े की तरह सुई की नोक पर बिंध जाती है, तिलमिलाती है, लेकिन कोई उसे छुड़ा नहीं सकता। देखना तभी ख़त्म होता है, जब मरना होता है, और मरने पर भी आंखें खुली रहती हैं- जैसे मां की आंखें थीं- कांच के दो कंचे- जिन पर दुनिया एक पथराई छाया की तरह चिपकी रहती है।‘ कहना न होगा, दुनिया को इस तरह की सूक्ष्मता के साथ देखते हुए निर्मल वर्मा लगभग महाकाव्यात्मक हो उठते हैं। 

अपने पसंदीदा लेखकों में निर्मल वर्मा एकाधिक बार टॉमसमॉन जेम्स ज्वायस आदि का ज़िक्र करते रहे हैं। लेकिन ‘एक चिथड़ा सुख’ पढ़ते हुए मुझे सबसे ज़्यादा अल्बेयर कामू की याद आती है- उसके ‘आउटसाइडर’ की। कामू का नायक लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के मारे यूरोप में पैदा हुई व्यापक अनास्था की संतान था जिसके लिए जीवन के मायने ही मायने नहीं रखते थे। निर्मल वर्मा के किरदारों की यातना लगभग वैसी ही वेधक है, लेकिन वह एक दूसरी त्रासदी से पैदा हुई है। वह शायद उस अकेलेपन से पैदा हुई है जो इस विस्थापित सभ्यता का अपरिहार्य सह-उत्पाद है। 

क्या निर्मल या उनके किरदार इस अकेलेपन से मुठभेड़ की कोई राह प्रस्तावित करते हैं? क्या उनमें किसी मुक्ति की कामना है? इसका कोई स्पष्ट उत्तर नहीं है। लेकिन एक बात समझ में आती है- डैरी से नित्ती भाई तक, इरावती और बिट्टी से उसके कजिन तक- जैसे सब यह समझ रहे हैं कि जीवन तलाश में है, प्राप्ति में नहीं, शायद इस तलाश से कुछ लम्हों की निजात में भी है जब बिट्टी की बरसाती पर सब जमा होते हैं, रिकॉर्ड बजाते हैं, बीयर पीते हैं, बहस करते हैं और कभी लड़-झगड़ कर, एक दूसरे को चोट पहुंचा कर, फिर पछताने और सहलाने का ज़रूरी काम भी करते हैं। अगर वह छटपटाहट निकाल दी जाए जो इन सबको भटका रही है तो फिर एक बड़ा शून्य बचेगा, जिसमें शेक्सपियर के मुताबिक शोर और हंगामा भले हो, लेकिन अर्थ नहीं होगा। सारी व्यर्थता के बीच यह अर्थ अनुभव करके मुन्नू लौट रहा है। उसे अब नाटक नहीं देखना है जब वह मंचित होने वाला है। अर्थ और व्यर्थ के बीच घूमती, इस कुछ भटकी हुई टिप्पणी के बीच उपन्यास के आख़िरी हिस्से का एक लंबा उद्धरण देने की इच्छा हो रही है- ‘नहीं, सच, कहीं जाने के लिए टिकट का होना ज़रूरी है। यह एक तरह का सिग्नल है जैसे घड़ी का होना, डायरी का होना, कैलेंडर का होना- वरना एक रात हमेशा के लिए रात रहेगी, एक शहर हमेशा के लिए एक शहर, एक मृत्यु हमेशा के लिए एक मृत्यु, उसके जाने के बाद भी बारहखंबा रोड की सड़क चलती रहेगी, मंडी हाउस के आगे वह पेड़ खड़ा रहेगा जिसे पकड़ कर एक रात अंधेरे में नित्ती भाई खड़े रहे थे; सप्रू हाउस की झाड़ियां, सिगरेट की दुकान, लहराते पेड़ ज्यों के त्यों खड़े रहेंगे और बरसों बाद जब कोई इस सड़क से गुज़रेगा, उसे पता भी नहीं चलेगा कि यहां बहुत पहले एक लड़की एक छोटे से लड़के के साथ जाती थी और वह लड़का इलाहाबाद से आया था और वह लड़की रोड-साइन के तख़्ते पर सिर रखकर रोई थी।‘

इस उपन्यास को पढ़ना एक अप्रतिम कथा-शिल्पी की अंगुली पकड़ कर बहुत गहरी और वेधक मार्मिकता के साथ जीवन की कई परतों को पहचानना है।

 प्रियदर्शन की स्मृति से 




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प्रेमचंद जी और महादेवी वर्मा


प्रेमचंदजी से मेरा प्रथम परिचय पत्र के द्वारा हुआ। तब मैं आठवीं कक्षा की विद्यार्थिनी थी। मेरी 'दीपक' शीर्षक एक कविता सम्भवत: 'चांद' में प्रकाशित हुई। प्रेमचंदजी ने तुरन्त ही मुझे कुछ पंक्तियों में अपना आशीर्वाद भेजा। तब मुझे यह ज्ञात नहीं था कि कहानी और उपन्यास लिखने वाले कविता भी पढ़ते हैं। मेरे लिए ऐसे ख्यातनामा कथाकार का पत्र जो मेरी कविता की विशेषता व्यक्त करता था, मुझे आशीर्वाद देता था, बधाई देता था, बहुत दिनों तक मेरे कौतूहल मिश्रित गर्व का कारण बना रहा।


उनका प्रत्यक्ष दर्शन तो विद्यापीठ आने के उपरान्त हुआ। उसकी भी एक कहानी है। एक दोपहर को जब प्रेमचंदजी उपस्थित हुए तो मेरी भक्तिन ने उनकी वेशभूषा से उन्हें भी अपने ही समान ग्रामीण या ग्राम-निवासी समझा और सगर्व उन्हें सूचना दी--गुरुजी काम कर रही हैं।


प्रेमचंदजी ने अपने अट्टहास के साथ उत्तर दिया--तुम तो खाली हो। घड़ी-दो घड़ी बैठकर बात करो।


और तब जब कुछ समय के उपरान्त मैं किसी कार्यवश बाहर आई तो देखा नीम के नीचे एक चौपाल बन गई है। विद्यापीठ के चपरासी, चौकीदार, भक्तिन के नेतृत्व में उनके चारों ओर बैठे हैं और लोक-चर्चा आरम्भ है।


प्रेमचंदजी के व्यक्तित्व में एक सहज संवेदना और ऐसी आत्मीयता थी, जो प्रत्येक साहित्यकार का उत्तराधिकार होने पर भी उसे प्राप्त नहीं होती। अपनी गम्भीर मर्मस्पर्शी दृष्टि से - उन्होंने जीवन के गंभीर सत्यों, मूल्यों का अनुसंधान किया और 'अपनी सहज - सरलता से, आत्मीयता' से उसे सब ओर दूर-दूर तक पहुंचाया।


जिस युग में उन्होंने लिखना आरम्भ किया था, उस समय हिन्दी कथा-साहित्य - जासूसी और तिलस्मी कौतूहली जगत में ही सीमित था। उसी बाल-सुलभ कुतूहल में - प्रेमचन्द उसे एक व्यापक धरातल पर ले आये, जो सर्व सामान्य था। उन्होंने साधारण कथा, मनुष्य की साधारण घर-घर की कथा, हल-बैल की कथा, खेत-खलिहान की कथा, निर्झर, वन, पर्वतों की कथा सब तक इस प्रकार पहुंचाई कि वह आत्मीय तो थी ही, नवीन भी हो गई।


प्राय: जो व्यक्ति हमें प्रिय होता है, जो वस्तु हमें प्रिय होती है हम  उसे देखते हुए थकते नहीं। जीवन का सत्य ही ऐसा है। जो आत्मीय है वह चिर नवीन भी है। हम उसे बार-बार देखना चाहते हैं। कवि के कर्म से कथाकार का कर्म भिन्न होता है। 'कवि अन्तर्मुखी रह सकता है और जीवन की गहराई से किसी सत्य को खोज कर फिर ऊपर आ सकता है। लेकिन कथाकार को बाहर-भीतर दोनों दिशाओं में शोध करना पड़ता है, उसे निरन्तर सबके समक्ष रहना पड़ता है। शोध भी उसका रहस्य- मय नहीं हो सकता, एकान्तमय नहीं हो सकता। जैसे गोताखोर जो समुद्र में जाता है, अनमोल मोती खोजने के लिए, वहीं रहता है और - मोती मिल जाने पर ऊपर आ जाता है। परन्तु नाविक को तो अतल गहराई का ज्ञान भी रहना चाहिए और ज्वार-भाटा भी समझना चाहिए, अन्यथा वह किसी दिशा में नहीं जा सकता।


प्रेमचंद ने जीवन के अनेक संघर्ष झेले और किसी संघर्ष में उन्होंने पराजय की अनुभूति नहीं प्राप्त की। पराजय उनके जीवन में कोई स्थान नहीं रखती थी। संघर्ष सभी एक प्रकार से पथ के बसेरे के समान ही उनके लिए रहे। वह उन्हें छोड़ते चले गये। ऐसा कथाकार जो जीवन को इतने सहज भाव से लेता है, संघर्षों को इतना सहज मानकर, स्वाभाविक मानकर चलता है, वह आकर फिर जाता नहीं। उसे मनुष्य और जीवन भूलते नहीं। वह भूलने के योग्य नहीं है। उसे भूलकर जीवन के सत्य को ही हम भूल जाते हैं। ऐसा कुछ नहीं है कि जिसके सम्बन्ध में प्रेमचंद का निश्चित मत नहीं है। दर्शन, साहित्य, जीवन, राष्ट्र, साम्प्रदायिक एकता, सभी विषयों पर उन्होंने विचार किया है और उनका एक मत और ऐसा कोई निश्चित मत नहीं है, जिसके अनुसार उन्होंने आचरण नहीं किया। जिस पर उन्होंने विश्वास किया, जिस सत्य को उनके जीवन ने, आत्मा ने स्वीकार किया उसके अनुसार उन्होंने निरन्तर आचरण किया। इस प्रकार उनका जीवन, उनका साहित्य दोनों खरे स्वर्ण भी हैं और स्वर्ण के खरेपन को जांचने की कसौटी भी है।


रजनीकांत शुक्ल की स्मृति से 


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हरिशंकर परसाई के साथ बीस बरस


समय चालीस वर्ष पूर्व से अधिक, स्थान-सफदरजंग अस्पताल की ऊपरी मंज़िल का एक वार्ड, जिसमें एक पलंग पर लेटे हुए श्री हरिशंकर परसाई को देखने मैं और प्रेम जनमेजय गए थे। कैसा था वह अप्रतिम क्षण जब पहली बार अपने आराध्य व्यंग्य गुरु से बातचीत करने का अवसर मिला था।

परसाई जी की एक टांग क्षतिग्रस्त थी, इलाज चल रहा था, पीड़ा केवल टांग में थी, उनके चेहरे पर उसका कोई भाव स्पष्ट नहीं था। उन्होंने उठने का यत्न करते हुए दो उदीयमान रचनाकारों का स्वागत किया जो व्यंग्य के क्षेत्र को धर्मक्षेत्र समझ उसमें कूद चुके थे। मेरे सेनानायक परसाई जी ही थे। उनकी कोई भी रचना, कहीं से भी उपलब्ध हो, मैं ढूंढ-ढूंढकर अवश्य पढ़ता था। मैं ही क्यों मेरे जैसे अनेक नव व्यंग्यकारों की शैली और लेखन-चेतन पर परसाई जी का गहरा प्रभाव पड़ा था।

वे अस्पताल में कई दिन रहे, उनसे मिलने के, बतियाने के, गुरुमंत्र लेने के अनेक मौके मिले। वे मानते थे कि 'व्यंग्य का क्षेत्र अभी रिक्त है, नई कहानी और नई कविता की जड़ें जम चुकी हैं, व्यंग्य को पूर्णतः अपना लेना चाहिए।' मेरे भीतर के रचनाकार ने यह बात पक्की गांठ बाँध ली थी।

जब कभी व्यंग्य तथा व्यंग्य से संबंधित विषयों पर प्रश्न उठते और समाधान न मिलते, हाथ अपने आप उठकर परसाई जी को पत्र लिख देता और आँखें दो दिन बाद से लैटर बाक्स में पावती ढूंढने लगतीं। तब मैं शाहदरा में रहता था, नेपियर टाउन, जबलपुर से उनका जवाब अवश्य आता था। वर्षों पूर्व व्यंग्य के लिए परिचर्चा का आयोजन करते हुए मैंने परसाई जी को पत्र लिखा था और पूछा था कि क्या वे व्यंग्य को एक स्वतंत्र साहित्यिक विधा मानते हैं? उनका उत्तर देहावसान से ठीक बीस वर्ष पूर्व दस अगस्त उन्नीस सौ पिचहत्तर को मुझे मिला था जिसे आठ अगस्त को लिखा गया था। मुझे घोर अचरज हुआ कि जिस लेखक के कारण 'व्यंग्यकार' विशेषण सम्मानित हुआ, जिसने इसे शुद्र से ब्राह्मण बनाया, वह स्वयं इसे 'विधा' ही नहीं मानता। परसाई जी ने साफ़-साफ़ लिखा व्यंग्य स्पिरिट है। ... व्यंग्य विधा नहीं है। कारण यह है कि व्यंग्य का अपना कोई स्ट्रक्चर नहीं है। कहानी, नाटक, उपन्यास का स्ट्रक्चर है, व्यंग्य का नहीं है......।

मैं हतप्रभ था क्योंकि हम तो 'व्यंग्य' को गद्य की एक स्थापित विधा मनवाने पर तुले हुए थे और ठोस व्यंग्य का सबसे बड़ा लेखक हमारी नज़र में तब हरिशंकर परसाई ही थे।

परसाई जी के व्यंग्य की सबसे बड़ी ताक़त जो विरासत में अजातशत्रु, ज्ञान चतुर्वेदी, मुझे, जनमेजय, सुरेश कांत तथा कतिपय अन्य हमारी पीढ़ी के व्यंग्यकारों को मिली, वह है - व्यंग्य की परिणति का करुणा में होना, यही त्रासदी ही सार्थक व्यंग्य है, शैली के स्तर पर बदलाव हो सकते हैं। मेरा सौभाग्य कि मुझे परसाई जी से कथात्मकता की किस्सागोई का शैली भी मिली, भले ही बातचीत में उनकी यह शैली नज़र नहीं आती थी।

उन्नीस सौ अठत्तर में जबलपुर जाने का मौका हाथ लगा। युवा व्यंग्यकार रमेश शर्मा 'निशिकर' के बंगले में सपरिवार ठहरना हुा। भाई 'निशिकर' ने एक व्यंग्य-गोष्ठी परसाई जी की अध्यक्षता में मेरे रचना पाठ पर आयोजित की। अनेक साहित्यकार और व्यंग्य-प्रेमी उपस्थित हुए किंतु परसाई जी को वहाँ न पाकर निराशा के उत्सव में मेरे साथ शामिल हुए। गोष्ठी समाप्ति के बाद हम लोग परसाई जी के निवास पर गए। वे अस्वस्थ थे, लेटे थे, हमें देख हाथ जोड़ क्षमा मांगने लगे कि 'किसी ने जाने न दिया, तबियत ख़राब हो गई....।'

मैं उनकी शालीनता और भद्रता देख विह्वल हो उठा। एक वटवृक्ष का घासफूस के आगे नत् देख मैंने उनके चरण पकड़ लिए और आशीर्वाद की मांग की। वे बोले, एक व्यंग्य रचना सुनाओ और आशीर्वाद मिलेगा। मैंने अपनी एक प्रिय रचना 'बुढ़िया, सराय रोहिल्ला और विक्रमार्क' डरते-डरते सुनाई। उन्होंने सराहना की तथा ढेरों आशीर्वाद दिए, कहा, 'गोष्ठी मेरे घर होनी चाहिए थी, घर उतना बड़ा नहीं है पर मन भी तो देखना चाहिए था मगर निशिकर माने नहीं थे।'

परसाई जी दैहिक रूप से अस्वस्थ होने के बावजूद मानसिक रुग्णता के शिकार न हुए। जिस विचारधारा पर उनकी सोच टिकी हुई थी उसे कभी विलग न हुए। मैंने पहली बार उन्हें पहले दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग पर स्थित प्यारेलाल भवन के प्रेक्षागृह में हो रही प्रोग्रेसिव गोष्ठी की कार्यवाही में हिस्सेदारी


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करते देखा था। मेरा आकर्षण वहाँ केवल वे ही थे। कुर्तुल-एन-हैदर वक्तव्य देकर

आई थीं, परसाई प्रतिक्रिया दे रहे थे। तभी एक लेखक ने अपने भाषण में धर्मवीर

भारती का नाम लेकर उन पर कीचड़ उछालना शुरू किया, मुझे बेहद खला। भारती

हमारे प्रिय थे क्योंकि हम लोग 'धर्मयुगीन' कहलाते थे .... कोई कुछ कहता न

कहता परसाई जी ने उठकर उन महाशय के कथन पर अपना विरोध दर्ज कराया कि

जो अनुपस्थित है तथा यहाँ अप्रासंगिक है उस पर ऐसी टिप्पणी देना शोभा नहीं देता

मेरी कीचड़ छंट गई, भारती जी पर मानों छीटें भी नहीं पड़े... मैं परसाई जी पर

मुग्ध हो उठा था, मुझे उनका शोभा मंडल नज़र आने लगा था। तब मैं सोचता था,

क्या कभी उनसे मिल पाऊँगा।

दिसंबर अठासी में कॉलेज का टूर लेकर पंचमढ़ी जाना हुआ, लौटते हुए मैंने

तथा सुरेश ऋतुपर्ण ने जबलपुर का कार्यक्रम बनाया तथा विद्यार्थियों की शंकाओं

को लेकर हम लोग परसाई जी के घर गए। परसाई जी बेहद प्रसन्न हुए, विद्यार्थियों

की शंकाओं का समुचित समाधान किया। हम सब उनके पलंग के चारों ओर बैठे,

खड़े या टिके थे, वे पलंग पर लेटे थे, तब वे बैठ नहीं पाते थे। उन्होंने वातावरण में

इतनी सहजता पैदा कर दी कि एक छात्रा परमजीत कौर ने उन्हें क्षीर सागर में शेष-

शैय्या पर लेटे विष्णु भगवान बताया। वे यह उपमा सुनकर खूब हँसे। एक छात्र गौतम

ने 'दलित साहित्य' पर उनसे इंटरव्यू लेना चाहा, वे लगभग बैठ गए यह उनके

भीतरी मन का प्रश्न था और दलित साहित्य पर धाराप्रवाह बोलने लगे

'पंचमढ़ी टूर' आज भी हमारे छात्रों की यादों की धरोहर है। वे जब भी मिलते हैं परसाई जी के घर की यात्रा की बरबस याद आती है, विशेषकर परसाई जी का आग्रह कर बिस्किट खिलाना तथा फ़ोटो खिंचवाना नहीं भूल पाता, उनका मेरे प्रति व्यंग्यात्मक कमेंट 'तुम अब ज्ञानपीठ मार्का हो' मैं भी भला कहाँ भुला सकता हूँ।

एक सहज इंसान थे परसाई जी जिनमें ममता और शालीनता कूट-कूट कर भरी हुई थी, जो उन्हें ठीक से नहीं जानते थे, उनके बारे में भ्रांतियाँ पाल लेते थे। मसलन एक टी.वी. प्रोड्यूसर जो परसाई जी की कृति 'रानी नागफनी' पर धारावाहिक बना चुके थे, उनके विषय में भ्रांत थे। जब सन् नब्बे में वे दूरदर्शन के लिए धारावाहिक प्रस्ताव बनवाने आए और मैंने तथा प्रेम जनमेजय ने उनके समक्ष तेरह व्यंग्यकारों की तेरह रचनाओं पर आधारित एक धारावाहिक बनाने का विचार


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दिया, वे ख़ुश हुए, लेकिन परसाई जी का पहला नाम सुनते ही कि पायलेट एपिसोड

उनकी कृति पर हो, वे कहने लगे, 'परसाई जी डिफिकल्ट हैं, वे बड़ी शर्तें रखेंगे,

उनसे आप ही स्वीकृति मंगवाओ। लेकिन मैं उन्हें उतना पैसा नहीं दे पाऊँगा, जितना

वे मांगेंगे, आप ही निपटें .... आदि आदि ....

परसाई जी ने हमें लौटती डाक से ही स्वीकृति भेज दी तथा किसी भी

रचना को लेने तक की हामी भरी, पैसे की बात तो पत्र में कहीं थी ही नहीं। पत्र

देखकर प्रोड्यूसर विंग कमांडर दास विस्मय से भर उठे, बोले, 'दरअसल परसाई जी

से मैंने कभी डाइरेक्ट डील नहीं किया था, इसलिए गलतफहमी हुई।'

सन् तिरानवे में भी हमने परसाई जी से किसी रचना के प्रकाशन की अनुमति मांगी थी जो जगमोहन चोपड़ा की 'बहरहाल' योजना के अधीन थी, अनुमति तुरंत व बिना शर्त ही मिली। हमें उनका आशीर्वाद ही नहीं, प्यार ही नहीं, दुलार भी मिला। वे गोष्ठियों में नहीं जा पाते थे। जब से एक राजनैतिक दल के कार्यकर्ताओं ने उन पर शारीरिक प्रहार किए थे, तब से ही वे स्वस्थ नहीं हो पाए किंतु मानसिक शक्ति उनकी प्रबल रही जिसका उदाहरण है उनके द्वारा निरंतर लिखा जाने वाला धारदार व्यंग्य।

आज वह हिंदी व्यंग्य का स्तंभ शरीर से नहीं दिखाई देता किंतु हमारे हिंदी व्यंग्य साहित्य पर आज भी उनका मस्तिष्क राज कर रहा है, कुछ नहीं छोड़ा उन्होंने, सब पर प्रहार किया, हम लोग उनसे आगे जाने की बात दूर, उनके पासंग तक फटक भी कहाँ पा रहे हैं।

हरीश नवल की स्मृति से 

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