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हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



शुक्रवार, 15 नवंबर 2024

बोरूंदा, बिज्जी और मैं उर्फ 6 कोस का सफर

जब भी गांव आता हूं, पहली प्राथमिकता बिज्जी से मिलना ही होती है हालांकि घर के लोग पहले इसे उलाहने के तौर पर कहते थे, अब ये उन्होने भी मान लिया है,  गांव गए ज्यादा दिन हो जाए तो मजाक में यह जरूर कह देते हैं कि कभी केवल हमसे मिलने ही आ जाया करो या ’बिज्जी से मिलने ही आ जाओ।’ 

एक खास बात यह भी है कि मुझे लगता है बिज्जी भी मुझसे मिलने के उतने ही इच्छुक होते हैं जितना मैं उत्सुक। पता नहीं उनका ऐसा स्नेह सिर्फ मेरे लिए है या सबके लिए पर मैं ऐसा क्यों सोचूं। जी वो मेरे पहले साहित्यिक गुरु हैं और उम्र का फासला एक बार अलग रख दिया जाए तो बहुत अच्छे मित्र वे 82 बसन्त देख चुके हैं और मैने तो अभी 27 ही पार किए हैं।

अगर यह कहना मेरी धृष्टता न माना जाए तो बिज्जी से मेरा याराना हुए आठ बरस तो हो ही गए हैं। पर आज तक उनके लिए ‘दिनेश जी‘ ही हूं मेरे बीसियों बार कहने के बावजूद मुझे वे ‘दिनेश‘ नहीं कहते। इन आठ बरसों में कितनी मुलाकातें हुई खुद मुझे याद नही। पर इतना जरूर और जाहिर है कि जयपुर से जितनी बार घर गया लगभग हर बार उनसे मुलाकात हुई। मेरा गांव बिज्जी के गांव से 24 किलोमीटर की दूरी पर है बिज्जी के लोक की भाषा में कहूं तो सिर्फ 6 कोस।

पहली बार जब मैं उनसे मिला था तो उन्हे केवल नाम और उनके साहित्य के हवाले से जानता था शायद इसी तरह से किसी साहित्यकार को शुरूआत में जाना जाता है। फोन किया, एक आवाज आई ’हां भाई’, जवाब में पूछता हूं बिज्जी बोल रहे हैं?’  ’हां बिज्जी बोलूं हूं ’। अभिवादन के बाद मिलने का समय मांगता हूं तो कहते हैं ’आ जाओ’ और फोन रखने से पहले कह देते हैं ’हां सुनो, खाना खाकर मत आना’ । पहुंचता हूं तो बिज्जी बनियान और लुंगी में हैं तब से आज तक हमेशा इसी परिधान में मिलते हैं बशर्ते सर्दियां ना हां। उनसे मिलकर अपनी लिखने की ललक को प्रकट करता हूं और अपनी कुछ कच्ची-पक्की कवितानुमा पंक्तियां दिखाता हूं तो पढकर कहते हैं ’ये सब तो ठीक है, पर पहले पेट भरने के लिए नौकरी का बंदोबस्त कर लो,  उसके बाद लिखना’। आज भी याद है मुझे कि उसके बाद टैगोर, शरत् , चेखव,  टॉलस्टाय आदि को पढ़ने की सलाह भी दी थी। पहली मुलाकात में ही उन्होने कोई औपचारिकता नहीं बरती और फिर तो मुलाकातों का सिलसिला ही चल पड़ा।

13 जुलाई को इस बार मिलकर आया हूं। पिछले आठ सालों में पहली बार ऐसा हुआ कि मै बिज्जी के पास गया और वे लेटे हुए मिले। हमेशा लिखते या पढ़ते ही मिलते हैं। मुझे देखते ही उठ बैठे और मेरे हालचाल पूछने लगे वहीं बैठे-बैठे सिर्फ मेरे लिए चाय की आवाज लगाई क्योंकि खुद तो चाय पीते नहीं हैं कभी कॉलेज के दिनों में पीते थे बस। लेटे हुए देखकर मन में उनके स्वास्थ्य को लेकर शंका हुई पूछ लिया तब पता चला कि अभी चार दिन पहले ही आंखें चैक करवा कर आए हैं उनमें इन्फेक्शन हो गया था इसलिए अभी पढ़ना-लिखना जरा बंद है और वे आराम की मुद्रा में हैं।

चाय आई तब तक चर्चा चल पड़ी और उन्होने मुझसे हमेशा की तरह पूछा क्या पढ़ा है इन दिनों ? मैं राकेश कुमार सिंह की ‘महुआ मांदल और अंधेरा‘ सुधा अरोड़ा संपादित ‘औरत की कहानी‘ मीराकांत की ‘कागजी बुर्ज‘ आदि के बारे में बताने लगा। इत्तेफाक से राकेश कुमार सिंह से मेरा पहला परिचय उन्होने ही करवाया था। उनके उपन्यास ‘जो इतिहास में नहीं है‘ के जरिए। फिर तो वो मेरे प्रिय कथाकारों में शामिल हो गए।

जब मैने बिज्जी से ज्ञानपीठ से आ रहे उनके उपन्यास ‘अन्तस का उजास‘ पर मुझे ना बताने का उलाहना सा देते नए प्रकाशनों के बारे में पूछा कि मैं जब चार महीने पहले आया तब तो आप प्रेम कथाएं लिख रहे थे ! बोले- ‘अरे ! गलती से ज्ञानोदय के विज्ञापन में छप गया कि उपन्यास है, ये वही प्रेमकथाएं हैं,  इनका पहला भाग आ रहा है। उसके बाद छः भाग और आने हैं। रेमाधव प्रकाशन से संजीव मेरी कहानियों की किताब संपादित कर रहे हैं, वहीं साहित्य अकादमी से कैलाश (कैलाश  कबीर  उनके बेटे) द्वारा संपादित मेरी एक किताब आ रही है।‘

इन दिनों क्या लिख रहे हैं?  पूछता हूं तो कहते हैं कि जब से गिरा हूं लिखना कुछ कम हो गया है (पिछले बरस सितंबर में वो बाथरूम में गिर गए थे सिर मे चोट लगी थी और जिससे थोड़ी स्मृति कमजोर पड़ गई है) तभी आवाज लगाते हैं निसार कठै तक पहूंचगो? निसारजी कहते हैं ‘गुणवंती देखूं हूं।‘ बिज्जी पूछते हैं ‘खेजड़ी तक पहूंचगो? ‘अबै इज शुरू करी हूं‘ निसारजी बोले। निसारजी बिज्जी के पुराने सहायक हैं बरसों से साथ ही रहते हैं। दरअसल बिज्जी की बातां री फुलवाड़ी का पुनः प्रकाशन हो रहा है। उसके नवें खण्ड के प्रूफ देख रहे थे निसारजी। 

तभी हमारे लिए खाना आ गया था। बिज्जी के लिए सब्जी रोटी व दूध और मेरी थाली में दो सब्जी अचार दही और लापसी। लापसी राजस्थान का व्यंजन है जो मेहमानों के लिए विशेष रूप से बनाया जाता है। डायबिटीज के कारण बिज्जी मीठा नहीं खाते और लापसी मीठी होती ही है। इसे खास बात ही माना जाना चाहिए कि जो भी बिज्जी से मिलने आता है खाना उसे वहीं खाना होता है। मेरे लिए तो आने से पहले ही सख्त हिदायत होती है कि खाना साथ ही खाएंगे ताकि फिर कोई बहाना ना रहे कि खाकर आया हूं। कई बार देरी हो जाती है तो मुझ अकेले को खिलाते हैं और खुद बैठकर मेहमाननवाजी करते हैं। 

मैं तो एक तरह से उन पर उनके लेखन पर मोहित सा ही हूं और मुंबई की शायरा दीप्ति मिश्रा के शेर का तर्जुमा करते हुए कहूं कि ‘लोगों की नजर में ये गुनाह है तो है‘ और मुझे ये कुबूल है और मैं ये गुनाह बार-बार करना चाहूंगा। उनकी एक खासियत यह है कि वे लिखते-लिखते रुक जाते हैं और बात करने लगते हैं कुछ पढने लगते हैं और सो जाते हैं और फिर उठकर वहीं से लिखना शुरू कर देते हैं। यानी उन्हे क्रम टूटने जैसी कोई अनुभूति नहीं होती। मुझे ये जानकर भी सुखद आश्चर्य होता है कि उनकी दोस्ती या संपर्क नई पीढ़ी के लेखकों से भी उतना ही बेहतर है जितना अपने हमउम्रों से है। युवतर लेखकों में संजीव, राकेश कुमार सिंह,  उदयप्रकाश और अनामिका उनकी पसंद हैं। एक और खास बात बताता चलूं कि वे साक्षात्कार  देने से बचते रहते हैं। क्योंकि उन्हे लगता है जो मैं कहना चाहता हूं अपने लेखन के जरिए कह ही देता हूं। फिर साक्षात्कार का क्या मतलब।

बिज्जी को दुनिया उनके लोक केन्द्रित और लोक संबोधित सृजन के कारण जानती, मानती और पहचानती है। सच कहें तो वे इस कदर लोक में रचे बसे हैं कि उनकी हरेक कहानी उपन्यास में प्रथमतः और अंततः लोक ही दिखता है। वे अपनी कहानी सुनाने भी लगते हैं और एक बच्चे के से चाव के साथ। मैं हुंकारा भरता जाता हूं। बिज्जी से कहानी सुनने का आनंद ही कुछ और है चाहे कहानी उनकी हो या उनके लोक की और कैसे भूल जाऊं कि मेरा भी तो यही लोक है। मेरी बात निकली है तो याद आया कि मेरे गांव जालीवाड़ा के बारे में अपने पिता द्वारा रचित छंद वे हर बार सुनाना नही भूलते- 

ढबस्या भैते ढीमड़े पाणी लैस्यां पाय।

चारौ बळदा चारस्या जाळीवाड़े जाय।।

लोक की बात करते-करते फिल्मों की बात चल पड़ी मैने पूछा कि दोहरी जिंदगी का क्या हुआ? तो बोले- अमोल पालेकर से अनुबंध हो ही गया है, पैसा भी वो दे गया है, फुर्सत में बन जाएगी।

चार बज गए, पता ही नहीं चला। उन्होने निसारजी से मेरे और निसारजी के लिए चाय मंगवाने को कहा। निसारजी आवाज लगाते हैं ‘पिंकी भाभा चा रो कहियो है च्यार बजगी है।‘ पिंकी उनके यहां काम करने वाली लड़की है। जवाब देती है ‘गाय नै दूवे है दूध आवता ही चा बणावै।‘ तभी बिज्जी कहते हैं ‘निसार तो कब्र मैं पग लटकता व्है तो ही चाय पी लै।‘ रुक कर कहते हैं ‘क्यूं निसार!‘ और हंस देते हैं और कहते हैं ‘निसार तनै कब्रिस्तान मैं कुण चाय पाई रै!‘ ‘भाभा पछै चाय री काईं जरूरत हैं।‘ बिज्जी का कमरा हंसी से खिलखिला उठा। एक बार फिर वे निसारजी से पूछते हैं -‘कठै तक पहूंचगो !‘ जवाब मिला ‘गुणवंती थोड़ीक बची है।‘ 

तभी उनको याद आता है कि किसी को फोन करना है, निसारजी मोबाइल मिलाकर बिज्जी को देते है, वे बात पूरी करके मोबाइल निसारजी को देते हुए मुझसे कहते हैं- ‘राजीव गांधी सूचना क्रांति जोरदार ही लायौ। आदमी कठे ही व्है बात कर लै।‘ वे जब से गिरे हैं मोबाइल काम में लेने लगे हैं।

...और इतने में चाय भी आ गई।

बिज्जी फिर निसारजी को अलमारी में से किताबें ठीक करने को कहते हैं। उनमें कुछ उनकी पसंदीदा पुरानी किताबें और कुछ नई किताबें जिन्हें अभी वे पढ रहे हैं। किताबें पढ़ने का भी उनका अलग ही अंदाज है। हार्डबाउंड किताबों के कवर उतार कर पढ़ते हैं। पूरी किताब में पसंदीदा जगहों पर अंडरलाइन और टिप्पणी करते हुए पढ़ते हैं।

इतने में देखता हूं कि छः बजने वाले हैं। देखिए, उनके गांव से मेरे गांव के लिए आखिरी बस का समय होते पता भी नहीं चला। मैं  बिज्जी से विदा लेता हूं। 

 [2008 में बिज्जी से एक मुलाकात]

दिनेश  चारण की स्मृति से 



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