हम तीन तिलंगे-- कमलेश मिश्रा, नरेंद्र भट्ट और राम प्रकाश त्रिपाठी, थे सिर्फ़ बीए पार्ट वन में ;पढने में कच्चे पर आवारगी में पक्के। राहुल सांकृत्यायन का मंत्र "अथतो घुमक्कड़ जिज्ञासा" साथ लिये फिरते रहते। इसी जुनून के चलते1965की छुट्टियों में देश भर में भटकते बम्बई जा पहुंचे (कृपया संघी और शिवसैनिक बुरा न माने, तब बंबई मुंबई नहीं हुआ था!)! हम सब थे तो ठन ठन गोपाल, मैं ही रु.164-00 लेकर देश विजय पर निकला था। बाकी दो की भी कम ओ बेश यही कहानी थी!
ठहरने के लिए धर्मशाला न मिले। कमलेश को आवारगी के अलावा क्रिकेट की भी संघातक बीमारी थी।मैरिन ड्राइव पर भटकते हुए उसकी नज़र सामने के स्टेडियम पर पडी। स्टेडियम खाली था। भाई ने किस हिकमत अमली से क्या पट्टी पढाई कि स्टेडियम का चौकदार पट गया। उसने रात में ठहरने के लिए मुफ्त में ड्रेसिंग रूम में जगह दे दी!
वह पूर्णमासी की रात थी। खाने-पीने की जुगाड़ करके सोने गये तो अरब सागर हाहाकार क्रंदन करते हुए चिंघाड़ने लगा। सागर का ऐसा तांडव कारी संगीत हम ग्वालियर वासी पहली बार सुन रहे थे।
एक संघ से बाहर देखा तो मंज़र अभूतपूर्व था। सागर आकाश छूने को उतावला था। इस कोशिश में उठ गिर रहा था। हम तीनों ने पास से यह अजूबा दृश्य देखना तय किया! मगर स्टेडियम का चौकदार फाटक खोलने पर हज़ार मिन्नतों के बाद भी राजी न हुआ! गुस्सा तो इतना आया कि मारें साले को, पर उसकी मेहरबानी पर वहाँ टिके थे, सो मन मार कर रहना पडा। बहरहाल उसे गालियाँ देते और समुद्र का शोर सुनते कब सो गये पता तक नहीं चला!
सुबह पांच बजे चौकदार ने मग्गों भरी चाय के साथ जगाया और कहा समुद्र में ज्वार ठंडा पड़ गया है बस उतरता हुआ भाटा है, अब कोई खतरा नहीं है।
--देखने में कैसा खतरा? मैने रात के गुस्से को दबाते हुए कहा।
---आप सूखे इलाके के हो। समुद्र और उसके स्वभाव को जानते नहीं हो। किनारे पर पछाडें खाता समुद्र कब कितनी दूर से पकड कर साथ ले जाय, कोई नहीं समझ सकता। इसलिए रोका था, चौकदार ने प्यार से समझाया।
यों भी हमारे पास समझने के अलावा कोई चारा भी नहीं था। बाहर आकर हमने उतरते ज्वार की जितनी भीषण लहरें देखीं वे भी आश्चर्य में डालने वाली थीं। लेकिन इससे भी बड़ा आश्चर्य हमारा इंतजार कर रहा था। आधी सडक पार करके हम सेण्टर वर्ज पर चढे ही थे कि मेरी नज़र कुछ दूर खड़े ट्रेफिक मैन पर पडी। मैंने उससे जाकर पूछा---भैये, इत्ती सुबह सुनसान सड़क पर क्या कर रहे हो?
उसका संक्षिप्त जबाव था -- पंत प्रधान आने वाले हैं! मुझे मुंह फाडे देख कर नरेंद्र भट्ट ने समझाया--पंतप्रधान मराठी में प्रधानमंत्री कहते हैं।–
बात पूरी होते न होते सामने मोटर पर एक लाल झंडी वाला पायलट गुज़रा। पीछे एक सफेद एम्बेसडर कार और उसके पीछे एक पुलिसिया जीप। जिसमें एक बंदूकची और चार बैंक धारी जवान। कुल इतनी भर सुरक्षा प्रधानमंत्री की। आज तो पी एम की परछाईं को भी सौ शस्त्रधारी जवान लगते हैं। ख़ैर!
हुआ यह कि हमारे साथी नरेंद्र ने पता नहीं किस बेखुदी में कार को हाथ दे दिया! कार रुक भी गयी। खुद प्रधानमंत्री ने शीशा नीचा करके पूछा --कहिये?
अब हमारे होश फाख्ता! क्या कहें? किसी तरह आत्म नियंत्रण कर, मैंने कहा --सर, किसी प्रधानमंत्री को इतने पास से कभी देखा नहीं था इस उत्सुकता में गाड़ी को हाथ दे दिया। बारीक सी हंसी हंसे प्रधानमंत्रीप्रधानमंत्री श्री लबहादुर शास्त्री! बोले कोई बात नहीं!
कहाँ से हो? क्या करते हो? क्या परेशानी है?...
ऐसे सवाल प्रधानमंत्री पूछ रहे थे, हममें से जिससे बन रहा था अट-पट जबाव दे रहा था । सबके दिमाग सुन्न थे। सवाल होते तो पूछते! शीतोष्ण सुबह में भी हम पसीने पसीन-!
मुझे अचानक रेडियो पर होने वाले इंटरव्यू याद आये। एंकर आखिर में मेहमान से पूछता था --युवापीढ़ी के लिए आपका क्या संदेश है?.. मुझे इस वाक्य में मुक्ति की राह सूझी। मैने तुरंत कहा--सर हमारे लिए आपका क्या संदेश है?
--संदेश नहीं, आदेश है, मानोगे?
--जी अवश्य!
--- तो मुझे वचन दो कि तुम कभी अपनी थाली में एक कौर ,एक दाना भी नहीं छोडोगे!
हम सब ने वचन दिया । आज तक निभा भी रहे हैं।
बात मगर वचन निभाने की नहीं है। आज के दौर में, यह याद करने की है कि तब के प्रधानमंत्री के जन-सरोकार कितने बुनियादी थे।
यह लिखते वक्त मेरी आंखें नम हैं और रो़गटे खड़े!
-राम प्रकाश त्रिपाठी की स्मृति से
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