‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



सोमवार, 25 दिसंबर 2023

कैसे मिले अज्ञेय ....

 बात उन दिनों की है जब मैं ‘इंडिया टुडे’ (हिंदी) में साहित्य, कला आदि देखता था। हमारे संपादक थे श्री प्रभु चावला।  उनके निर्देशानुसार मुझे ‘इंडिया टुडे’ के साहित्यिक विशेषांक के लिए कोई अच्छी सी योजना बनानी थी। मैंने अपने एक सहायक श्री चितरंजन खेतान के साथ यह योजना बनाई कि कुछ साहित्यकारों, प्रकाशकों और पाठकों से पूछना है कि उन्हें इस वर्ष कौन-सी पुस्तकें पढ़ी और क्यों? हमने तय किया कि यह प्रश्न किसी को बताया नहीं जायेगा, इसे तभी पूछा जायेगा जब हम साहित्यकार/प्रकाशक/पाठक से मिलेंगे।

मैंने और चितरंन ने यह प्रश्न पूछने के लिए जिनको चुना, उनमें अज्ञेय का नाम सर्वोपरि था। मैंने श्री अज्ञेय से फोन पर उनसे मिलने का समय लिया। जो समय उन्होंने दिया उस दिन वे किसी आवश्यक बैठक की वजह से मिल नहीं पाये और ऐसा तीन बार हुआ।

मुझे और चितरंजन को रोज ही किसी न किसी से इस हेतु मिलना होता था। एक दोपहर कहीं जाने से पहले मैंने संपादन विभाग के एक पत्रकार को कहा कि वे हमारे लौटने से पूर्व श्री अज्ञेय मेरे लिये समय ले लें और मैंने उन्हें अज्ञेय जी का व्यक्तिगत फोन नम्बर दे दिया।

जब मैं किसी प्रकाशक से मिलकर वापिस दफ़्तर में आया, इससे पहले कि मैं उन पत्रकार से अज्ञेय जी के विषय में पूछता, उन्होंने बहुत खीझे स्वर में कहा, ‘‘सर मैंने आपके दिये नम्बर पर अज्ञेय जी को कई बार फोन किया लेकिन वे नहीं मिले। हर बार जो व्यक्ति फोन उठाता था वह यही कहता कि अज्ञेय तो नहीं हैं, मैं वात्सयायन बोल रहा हूँ मुझसे अगर नवल जी मिलना चाहें तो स्वागत है। मैं हर बार अज्ञेय जी को पूछता और हर बार वही व्यक्ति कहता रहा कि, ‘‘अज्ञेय नहीं हैं मैं वात्सयायन हूँ मुझसे अगर  ‘इंडिया टुडे’ का काम बनता हो तो मैं हाज़िर हूँ, मैं भी एक साहित्यकार और पत्रकार हूँ।’’

मैंने बड़ी हैरत से अपने आवेश को दबाते हुए पूछा, ‘‘क्या तुम्हें मालूम नहीं कि वात्सयायन और अज्ञेय एक ही हैं?’’ इस पर वह बहुत लज्जित हुआ और माफी मांगने लगा। मैंने कहा, ‘‘माफी अज्ञेय जी से मांगिए, जिस पर उसका निवेदन था कि ‘‘मैं उनसे अब बात न हीं कर पाऊँगा। अब आप ही उनसे बात कीजिये।’’

मैंने अज्ञेय जी को तभी फोन किया और उनसे बहुत क्षमा मांगी। इस पर हँसते हुए उन्होंने कहा, ‘‘आज मेरा भ्रम टूट गया कि मेरा पूरा नाम सभी हिंदी के साहित्यकार और पत्रकार जानते होंगे।’’

अज्ञेय जी की विनोद प्रियता का यह एक विशिष्ट उदाहरण था। आप जानना चाहते होंगे कि अज्ञेय या वात्सयायन से फिर मैं कब मिला?

अज्ञेय जी अपने पिता की स्मृति में एक व्याख्यान-माला आयोजित करते थे, उन्होंने मुझसे कहा कि मैं अमुक दिन चार बजे उनसे मिलने साहित्य अकादमी के सभा कक्ष में आ जाऊँ, कार्यक्रम पाँच बजे आरंभ होगा तब तक हमारी बातचीत हो जाएगी।

मैं चार बजे पहुँच गया लेकिन अज्ञेय जी के चाहने वाले उस समय भी व्याख्यान होने से पूर्व अज्ञेय जी को मिलने वहाँ पहुँच कर उन्हें घेरे हुए थे। मैं प्रश्नसूचक भाव से उन्हें देखता रहा और वे मुझे चाय पीने का संकेत करते रहे। कार्यक्रम से पहले चाय का आयोजन होता था, वे मुझसे मिल पाते उससे पहले बहुत से श्रोता चाय पान के लिए आते रहे।

मन मारकर मैं हाथ में चाय का प्याला लिए अज्ञेय जी को निहारता रहा। अचानक वे सबको छोड़कर मेरे पास आये और हाथ पकड़कर बाहर की ओर ले चले। चलते हुए उन्होंने पूछा, ‘‘कितना समय लगेगा’’ मैंने उत्तर दिया ‘‘जी केवल एक सवाल पूछना है, लेकिन यहाँ बाहर भी लोग खड़े है आपको देखकर आपकी ओर आ रहे हैं’’, वे बोले, ‘‘लिफ्ट  में चलो।’’

मैं उनके साथ लिफ्ट में चला गया। उन्होंने कहा ‘‘पूछो अब कोई नहीं आएगा।’’ चलती लिफ्ट में मैंने सवाल पूछा। लिफ्ट ऊपर दूसरे फ्लोर तक पहुँची, सभा फर्स्ट फ्लोर पर थी, उससे ऊपर तक कम ही लोग आते-जाते थे। ऊपर पहुँचकर अज्ञेय जी ने लिफ्ट रुकने पर उसका दरवाज़ा खोल दिया। तब तक लिफ्ट रुकी रहती जब तक दरवाज़ा न बंद होता। अज्ञेय जी ने खड़ी लिफ्ट में मेरे प्रश्न का उत्तर दिया। अपनी उस वर्ष पढ़ी गई पुस्तकों का नाम बताया और उन पर उनकी तथा उनके रचनाकारों पर बात की और उसके बाद दरवाज़ा बंद करके नीचे जाने के लिए बटन दबा दिया।

लिफ्ट से निकलते ही अज्ञेय जी को मिलने और देखने आए हुए श्रोता उमड़ पड़े। अज्ञेय जी ने मेरी पीठ पर हाथ रख विदा लेने का संकेत किया .... भूलेंगे नहीं खड़ी लिफ्ट के वे पाँच-सात मिनट और भूलेंगी नहीं कभी वात्सयायन जी की अज्ञेयता ......

-डॉ. हरीश नवल की स्मृति से



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