‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



गुरुवार, 7 सितंबर 2023

राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त जी (दद्दा) और मेरे पिता श्री नरेन्द्र शर्मा का कथोपकथन

एक रोचक कथा 

" एक दिन उन्होंने (दद्दा ने) मुझे (नरेन्द्र शर्मा को) एक दोहा सुनाया:-"औसर बीते, दिन गए, जाव बिप्र घर जाव। तोहि न भूले पुत्र-दुख, मोहि पूँछ कौ घाव।।" दोहा सुना कर, दद्दा ने पूछा- "अच्छा बताओ यह दोहा किसने, किसके प्रति कहा होगा।" मैंने उत्तर दिया- "कहा तो गया है किसी विप्र के प्रति..." दद्दा ने बात काटी- "पर कहा किसने है?" मैं सोचने लगा। विचार आया कि शेर को मूँछ प्यारी होती है  वानर को पूँछ। रामायण में रावण की उक्ति की स्मृति ने विचार की पुष्टि की। लेकिन फिर संशय हुआ कि वानर की पूँछ का घाव आख़िर क्योंकर इतना अविस्मरणीय होगा। मैं चक्कर में पड़ गया और कुछ देर बाद मैंने हार मान ली। दद्दा ने मुझे एक लोक-कथा कह सुनाई।"

 " एक ब्राह्मण देवता गाँव-आनगाँव, कथा-वार्ता कह कर, अपना गुज़ारा करते थे। एक समय ऐसा आया कि कथा कहने की उनकी शैली लोगों को बहुत घिसी-पिटी-सी लगने लगी। और अनेक कथा-वाचक मैदान में उतर चुके थे। वह दिनों-दिन अधिक लोकप्रिय होने लगे। बूढ़े ब्राह्मण देवता को कोई न पूछता। एक दिन वह सात गाँव निराहार घूम-फिर कर, घर लौट रहे थे कि उन्होंने निश्चय किया- जंगल में पेड़ के नीचे बैठ कर कथा कहते दिन बिता देना भला है, रीती झोली लिए घर लौटना ठीक नहीं। पेड़ के नीचे बैठ कर, वह कथा सुनाने लगे। सुनने वाला कोई न था। कथा-समापन कर, वह बस्ता बाँध ही रहे थे कि एक स्वर्ण-मुद्रा उनके सामने न जाने कहाँ से टपक पड़ी। उन्होंने आश्चर्य-चकित हो कर, इधर-उधर देखा। देखते क्या हैं कि एक नाग फन झुका-झुका कर उन्हें नमस्कार कर रहा है। ब्राह्मण देवता ने नाग को आशीर्वाद दिया और नाग ने उन्हें न्यौता दिया नित्य आने और कथा सुनाने का। ब्राह्मण देवता नाग को नित्य कथा सुनाने लगे। दक्षिणा में उन्हें नित्य एक स्वर्ण-मुद्रा की प्राप्ति होने लगी। स्वर्ण के साथ संपन्नता आई और संपन्नता के साथ भोग। और भोग है, तो रोग का आना भी अनिवार्य माना गया है। बरस भर भी कथा न कह पाए होंगे कि ब्राह्मण देवता रुग्ण हो गए। इस दशा में उन्होंने अपने किशोर पुत्र को सारा भेद बता दिया। पुत्र ने बड़े उत्साह से कहा- आज मैं जाऊँगा कथा कहने।"

" ब्राह्मण किशोर ने पेड़ के नीचे बैठ कर, कथा कही। नाग ने दक्षिणा दी। दक्षिणा पाते ही ब्राह्मण-पुत्र की बुद्धि भ्रष्ट हो गई। उसने सोचा, क्यों न नाग को मार डालूँ? और बाँबी (सर्पबिल) को खोद कर, सारी स्वर्ण-राशि क्यों न एक ही फटके में हथिया लूँ? आशीर्वाद देने को उठे हुए हाथ में डंडा था। ब्राह्मण ने नाग पर भरपूर वार किया। साँप की पूँछ घायल हुई। घायल नाग ने पलट कर आक्रमण किया। ब्राह्मण कुमार मर गया। वृद्ध ब्राह्मण ने शोक के दिन पूरे किए और एक दिन वह कथा सुनाने फिर पेड़ के नीचे आ बैठे। कथा सुनने के पूर्व ही नाग ने उन्हें दक्षिणा दे दी और कहा:-"औसर बीते, दिन गए, जाव विप्र घर जाव। तोहि न भूले पुत्र-दुख, मोहि पूँछ की घाव।।"

श्री परितोष नरेन्द्र शर्मा की स्मृति से

प्रस्तुति : लावण्या शाह 



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