बात उन दिनों की है जब मैं जबलपुर में होम साइंस कॉलेज में पढ़ती थी।
हिंदी के महान व्यंग्य लेखक हरिशंकर परसाई जी मॉडल हाई स्कूल में विजय भाई को पढ़ाते थे | बाद में एक ही विधा में होने की वजह से गुरु शिष्य का रिश्ता मित्रता में बदल गया, हालांकि परसाई जी व्यंग्य लेखक थे, विजय भाई नाटक, कहानी ,कविता हर विधा में लिखते थे ।अक्सर मैं अपने होम साइंस कॉलेज से लौटते हुए उनके घर चली जाती।
अपनी रचनाएं उन्हें पढ़कर सुनाती। न वे तारीफ करते, न खामियाँ निकालते। मैं असंतुष्टि का भाव लिए घर लौटती।
एक दिन विजय भाई मुझे रोटरी क्लब ले गए | साहित्य कार्यक्रम था और परसाई जी मुख्य अतिथि थे | अधिकतर लोग अंग्रेजी ही बोल रहे थे। सभी परसाई जी से हाथ मिला रहे थे । डिनर के दौरान सलाद की प्लेट लिए एक सज्जन परसाई जी के करीब आए
" सर आप क्या महसूस करते हैं, यह देश विनाश की ओर जा रहा है और हम सब पतित पथभ्रष्ट इसे रसातल पहुंचाकर ही दम लेंगे।" परसाई जी तपाक से बोले
" यह मुझे नहीं मालूम था कि सलाद के साथ देश की दुर्दशा इतनी स्वादिष्ट लगती है ।"
यह सुनकर काले कोट और नीली टाई वाले सज्जन इतनी जोर से ठहाका मारकर हंसे कि उनके कप का सूप छलक पड़ा।
परसाई जी हमें टैक्सी से घर तक छोड़ने आए । रास्ते में विजय भाई ने मेरी रचनाओं पर चर्चा छेड़ी। उन्होंने कहा -"संतोष के अंदर छुपा लेखन का बीज अंकुरित हो चुका है। तुम्हें अपनी हर एक रचना के कई कई ड्राफ्ट बनाने होंगे सन्तोष, फिर देखना निखार।"
उस दिन मैंने उन्हें पहली बार निकटता से जाना। उनकी सादगी से मैं अभिभूत थी । एक दिन अपनी कहानी" शंख और सीपियां "उन्हें सुनाने ले गई। अपने तईं मैंने इस कहानी पर खूब मेहनत की थी। वे अपने घर पलंग पर आराम से बैठे मेरी कहानी सुन रहे थे कि तभी खटर- पटर की आवाज सुन उन्होंने मुझे पढ़ने से रोका। अंदर गए और कटोरदान में रखी रोटी के कुछ टुकड़े फर्श पर बिखेर दिए। तभी एक चूहा अलमारी के नीचे से निकला और सारे टुकड़े एक-एक कर उठा ले गया। "यह भी तो घर का सदस्य है। रोटी खाकर शांत हो जाएगा वरना तुम्हें कहानी नहीं सुनाने देगा ।"
सच में थोड़ी देर में शांति थी। मैं कहानी पढ़ने लगी। मेरी कहानी जब पूरी हुई तो वे बोले "अब वक्त आ गया है छपने का ।"
मेरी खुशी की इंतिहा न थी। दो महीने बाद धर्मयुग से डॉक्टर धर्मवीर भारती जी ने स्वयं मुझे पत्र लिखा --"आपकी कहानी "शंख और सीपियां "धर्मयुग में प्रकाशनार्थ स्वीकृत है।"
मैंने उसी दिन परसाई जी के घर जाकर भारती जी का स्वीकृति पत्र दिखाया ।
"जाओ बिस्कुट खरीद लाओ। चूहे को खिलाना है। आखिर वह भी तो तुम्हारी कहानी सुनने में भागीदार था।"
अब परसाई जी नहीं रहे । उन्होंने जीवन की अनंत पीड़ा सही। उनका जीवन घोर दुखों से गुजरा । उस दुख ने उन्हें लेखनी थमा दी और खंगालने वाली वह दृष्टि प्रदान की जो आज व्यंग्य साहित्य की धरोहर है । वे कहते थे "जो चेतनावान होता है वह दुनिया की हालत पर रोता है ।
प्रस्तुति : संतोष श्रीवास्तव
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