जब भी मैं टेलीविजन पर समाचार चैनल “आज तक “देखती हूँ, कान खबरें सुनने से इंकार कर देती हैं , मन भर आता है? एक ज़िद्द सी माहौल में कि उस आवाज को ढूंढ लाऊँ जिससे बिछड़े बरसों बीत गए लेकिन जो अब भी मेरे कानों में गूंजती है।सुरेन्द्र प्रताप सिंह यानी सबके एस पी और मेरे सुरेंद्र भाई। क्रूर काल ने यह छल क्यों किया हमारे साथ? वैसे सुना है अच्छे इंसानों की ईश्वर को भी ज़रूरत होती है। शायद इसीलिए वे अल्प आयु में ही चले गए।
विरले ही होते हैं जो किवदंती बन जाते हैं। जैसे कि एस पी ।इन दो अक्षरों में एक ऐसे शख्स का अनुभव कराता है जिनका नाम पत्रकारिता के दुर्लभ व्यक्तित्व में आसानी से शुमार किया जा सकता है। सुरेंद्र प्रताप सिंह यानी धर्मयुग के उपसंपादक, रविवार के संपादक ,नवभारत टाइम्स के कार्यकारी संपादक से टेलीग्राफ के राजनीतिक संपादक और उसके बाद समाचार चैनल आज तक के प्रस्तोता एस पी यानी खांटी ग्रामीण परिवेश को अपने भीतर संजो कर रखे हुए एक जेंटलमैन। जिनकी खिचड़ी होती दाढ़ी में जैसे जीवन के विविध अनुभव अपना रंग दिखा रहे हो ।गोल चश्मे के भीतर आंखे इतनी सजग चौकन्नी कि खबरों के प्रस्तुतीकरण में बोलती महसूस हो। जमाने की आंखों में पूरी तरह हंसती हुई ।मुंबई की पत्रकार बिरादरी के लोग ,शायर ,साहित्यकार उन्हें इसी रुप में जानते हैं और उन्हें भरपूर याद करते हैं
मन पहुंच जाता है उस दिन को टकोरने जब मैं पहली बार जबलपुर से मुंबई आई थी और सुरेंद्र भाई विजय भाई(मेरे बड़े भाई विजय वर्मा) के साथ स्टेशन मुझे लेने आए थे।।यूँ खतों से मैं सुरेंद्र भाई के व्यक्तित्व से परिचित थी लेकिन देखा उन्हें पहली बार। बेहद सौम्य व्यक्तित्व ,मिलनसार ।टैक्सी चल पड़ी मुंबई स्वप्न नगरी की राहों पर ।सुरेंद्र भाई ने बताया "ये विजय दो महीने से चप्पलें घिसता रहा तुम्हारे लिए मकान तलाशने में ,क्योंकि यह तो रमता जोगी है जहां शाम वही बसेरा।"
हम हंस पड़े थे। विजय भाई ने अंधेरी में वन रूम किचन का फ्लैट किराए पर लिया था। सुरेंद्र भाई अक्सर वहां आते विजय भाई के सभी पत्रकार ,साहित्यकार और आवाज की दुनिया से जुड़े दोस्त भी आते ।विजय भाई जबलपुर के नवभारत में समाचार संपादक थे और बेहद अच्छे कवि, कथाकार थे। और अपने दोस्त ज्ञानरंजन के साथ जनवादी आंदोलन के दौरान चर्चित हुए थे ।लेकिन जबलपुर उन्हें रास नहीं आया। सुरेंद्र भाई की जिद थी कि विजय भाई मुंबई आ जाएं और अपने टैलेंट को यहां प्रकाशित करें ।मैं भी प्रकाशित होना चाहती थी अपनी रचनाओं के द्वारा। लेखन का नशा चढ़ा था मुझ पर ।धर्मयुग में बदस्तूर रचनाएं छप रही थी मेरी ।मेरी हर कहानी की कमियों को सुरेंद्र भाई बताते थे मैं बुझती जाती तो कहते "यह तो सुनना ही पड़ेगा तुम्हें। मैं तुम्हारा पाठक हूं कहने का हक है मुझे ।"
बेशक मेरे लेखन के निखार से सुरेंद्र भाई कहीं ना कहीं गहरे जुड़े हैं।
सुरेंद्र भाई को मैं अक्सर उचाट सा पाती ।वे पत्रकारिता के लिए बेहद चिंतित थे सारी व्यवस्थाओं में अव्यवस्था नजर आती उन्हें। हमेशा नई राहों की तलाश थी जिन्हें वे आने वाली पीढ़ी के लिए बनाना चाहते थे। धर्मयुग कार्यालय से लौट कर हम प्रायः मिला करते। उस रात लगभग 3:00 बजे दरवाजे पर दस्तक हुई। दरवाजा खोलते ही देखा सुरेंद्र भाई विजय भाई को कंधों का सहारा दिए ला रहे हैं। विजय भाई की जींस घुटने पर से फट चुकी थी और खून के काले पड़ चुके धब्बे थे वहां। माथे पर भी चोट के निशान थे।" क्या हुआ" घबरा गई मैं ।सुरेंद्र भाई ने उन्हें बिस्तर पर लेटाया। "घबराने की जरूरत नहीं संतोष, बस मै घंटे दो घंटे में पैसों का इंतजाम करके लौटता हूं तब तक तुम कॉफी बना कर पिलाओ विजय को।' सुरेंद्र भाई तेजी से चले गए सारा शहर रात के सन्नाटे में डूबा था लेकिन सुरेंद्र भाई दौड़ रहे थे अपने घायल दोस्त की खातिर उन सूनी सड़कों का सन्नाटा चीरते। किंग सर्कल में सड़क पर डिवाइडर पर कमर तक ऊंची दीवार सी है। ये लोग ट्रेन पकड़ने की जल्दी में दीवार फलांग रहे थे कि विजय भाई गिर पड़े। उनका घुटना पत्थर से जा टकराया और घुटने की केप चूर चूर हो गई ।
पैर सूजकर डबल हो गया। विजय भाई फ्री लांसर थे। जेब हमेशा मुंह बाए रहती ।मैं भी बेरोजगार थी। सो इस बात से चिंतित थी कि अब क्या होगा ।सिर्फ सुरेंद्र भाई पर भरोसा था ।एक फरिश्ते की तरह उन्होंने हमें संभाला। उनके आते ही हम सब नानावती अस्पताल गए। जहां विजय भाई का 3 घंटों का लंबा ऑपरेशन हुआ। सुरेंद्र भाई लगातार 3 घंटे बेचैनी से अस्पताल के गलियारे में टहलते रहे ।ऑपरेशन के बाद विजय भाई को पलंग पर सुला दिया गया और सुरेंद्र भाई फिर दौड़े ।लौटे तो हाथ में दोसे का पार्सल और थरमस में चाय थी ।मेरे हाथों पर कुछ नोट रखकर उन्होंने मुट्ठी बंद कर दी ।
"बिल्कुल परेशान मत होना। तुमने सुबह से कुछ खाया नहीं है ।पहले दोसा खा लो फिर घर जाकर थोड़ा आराम कर लेना।यहां सब मैं देख लूंगा ।"
मेरे सब्र का बांध टूट गया मैं उनसे लिपटकर रो पड़ी ।इतनी बड़ी मुंबई में कोई भी तो सगा संबंधी नहीं था। लेकिन सुरेंद्र भाई थे सगे-संबंधियों से बढ़कर।
' मैं हूं ना संतोष ,पगली... मुझ पर विश्वास नहीं।" मेरी रुलाई ने सारे बाँध तोड़ डाले ।विजय भाई के घुटने से तलवे तक प्लास्टर बंधा था। अचेतन अवस्था में अपने उस प्रिय दोस्त को देख और मुझे रोता देख सुरेंद्र भाई की आंखे भर आई। विजय भाई की दुर्घटना के बाद कितनी बार इस लौह पुरुष की आंखों में मैंने पनीली परते तैरती देखी थी ।विजय भाई के घुटने को सहलाते उनका हाथ कितनी बार काँपा था ।
'यार विजय, तुम बिना नी कैप के चलोगे कैसे? चांदी का कैप कहां से जुटाया जाए। हजारों का खर्चा है ।"
"हम आदत डाल लेंगे सुरेंद्र, बिना नी कैप के चलने की।"
विजय भाई ने जितनी वीरता से यह बात कही शायद उतनी ही हार सुरेंद्र भाई को महसूस हुई। मैंने उस दिन से पहले कभी सुरेंद्र भाई को रोते या हारते नहीं देखा था। मेरी नजरों में वे पूर्ण पुरुष थे। उनका फक्कड़ी मस्तमौलापन ,काम का लबादा ओढे ज़िंदगी की राहे नापना। पत्रकारिता की कठिन राहों को सुगम करने का प्रयास और गहरी जिजीविषा ।सुरेंद्र भाई भरपूर व्यक्तित्व के धनी थे ।ताउम्र वे पत्रकारिता के लिए जूझते रहे ।वही उनका लक्ष्य था और वहीं तक उन्हें पहुंचना था।
मैं पूर्णतया मुंबई में सैटल हो चुकी थी ।तब सुरेंद्र भाई मुंबई में नहीं थे। मैं उन्हें पत्रों से सारी सूचनाएं देती रहती। सुरेंद्र भाई और विजय भाई की दोस्ती के दसियों वर्ष की गवाह हूँ मैं। वे विजय भाई के दोस्त ही नहीं सलाहकार, सहकर्मी और साथ साथ एक दूसरे के दुखों से पीड़ित होने वाले दोस्त भी थे ।उनके अंदर संवेदनाओ का गहरा सागर था ।मैं उनसे जिरह करती प्रकाशकों के रवैये की, बरसो बरस छप कर भी बिना रूपये के किताब छापने को कोई तैयार नहीं।एक पैसे की रॉयल्टी नहीं।साहित्य में राजनीति की घुसपैठ है। पूंजीवाद की घुसपैठ है। लेखक आवाज उठाता है पूंजीवाद के खिलाफ लेकिन स्वयं चाकरी करता है पूंजी पतियों की। अपनी किताब के प्रकाशन की । लोकार्पण के लिए वह मुंह जोहता है उनका। साहित्य का क ख ग भी नहीं जानने वाले पूंजीपति आज पूजे जा रहे हैं साहित्य में। सुरेंद्र भाई ......ये कैसे पत्रकार है जो रिश्वतखोरी के खिलाफ कलम तो उठाते हैं परंतु चाहते हैं मुफ्त इलाज, मुफ्त दवाएं, मुफ्त रेलयात्रा, मुफ्त किताबें ,और मुफ्त विज्ञापन का माल ।शराब की दुर्गति पर लिखने वाला पत्रकार शराब की एवज लेख छापता है ।यह कैसी पत्रकारिता है ? वे समझाते "यह तो तूफान के पूर्व की स्थिति है ।तूफान गुजर जाए फिर सब ठीक हो जाएगा।' सुरेंद्र भाई ने मेरी कहानी "इंतसाब" रविवार में छापी। लिखा "तुमने बेमिसाल लिखा है ।अब तुम्हारी रचनाएं प्रौढ हो गई ।अब तुम पूर्ण कथाकार बन गई ।"
वे महान शिल्पी थे ।न जाने कितनों को बना गए। विजय भाई से कहते थे ....."मेरे मन में पत्रकारिता को लेकर एक सागर उफ़नता रहता है ।"
हां उनके अंदर एक सागर उफनता रहता था । यह सागर उस दिन छलक पड़ा था जब विजय भाई मात्र 44 वर्ष की अवस्था में हार्टफेल हो जाने से चल बसे थे।
सुरेंद्र भाई अंदर ही अंदर रोए होंगे ।टूटे होंगे ।लेकिन हमें तसल्ली दी ।फोन आया.... "हौसला रखो ,हम मुंबई पहुंच रहे हैं।"
वे आए और आते ही रोती बिलखती अम्मा के आंसू पोंछ भर्राये गले से बोले...." मैं हूं ना ,विजय की प्रतिकृति....।" लेकिन क्रूर काल ने यह प्रतिकृति भी हमसे छीन ली। उपहार थिएटर में आग लगने की दुर्घटना के बाद उनके दिमाग की नसें फट गई और फट गया सागर का विस्तार, उफ़न आये ज्वालामुखी, आंसुओं के सोते ।उनके अस्पताल में भर्ती होने की खबर सुन मैंने दिल्ली जाने की तैयारी कर ली। पर उन्होंने मौका ही नहीं दिया। चंद घंटों में ही चल बसे। मैं थर्रा उठी हूं और थर्रा उठे है वे दिन, वे यादें ,.....क्या भूलूं.... किसे याद करूं..... कलकत्ते के सुरेंद्र भाई को जिन्होंने रविवार में मेरी रचनाएं छापकर मुझे प्रौढ़ लेखिका का दर्जा दिया या मुंबई के सुरेंद्र भाई को जो व्हील चेयर से टैक्सी तक विजय भाई को लाते हुए चिंतित थे कि विजय बिना नी कैप के चलेगा कैसे ? या दिल्ली के सुरेंद्र भाई को जो भीष्म पितामह की तरह पत्रकारिता के हस्तिनापुर को बचाने के लिए कटिबद्ध थे।समाचार चैनल "आज तक "का आकर्षक कार्यक्रम देखने को रोज की हमारी प्रतीक्षा..... फोन पर हमारी शिकायत ....."सुरेन्द्र भाई आप भाभी को लेकर एक बार भी यहां नहीं आए "और उनका वादा "आएंगे संतोष जल्दी ही आएंगे"
कब आएंगे सुरेंद्र भाई आप? आप तो उस राह चल पड़े जहां से वापसी असंभव है।......... जाइए मेरे प्यारे सुरेंद्र भाई आप को विदा दे रहे हैं वे तमाम पत्रकार जिन्हें आपने राह सुझाई ,रोती सिसकती मै ,भरभरा कर टूटी भाभी और दूरदर्शन की वो पूरी टीम जो आज तक से लोकप्रिय हुई। अलविदा ....सुरेंद्र भाई..... अलविदा ।
संतोष श्रीवास्तव की स्मृति से
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