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गुरुवार, 15 जून 2023

बच्चन-नरेन्द्र बन्धुत्व -अर्थात - अग्रज-अनुज मित्रता


१.

सुमित्रानंदन पंत, हरिवंशराय बच्चन, और पं. नरेंद्र शर्मा

अग्रज, बच्चन जी ने १९३६ में अपनी पहली पत्नी श्यामा जी के निधन पश्चात् अपना मुठ्ठीगंज स्थित पैत्रिक घर छोड़ दिया और अपने अनुज, नरेन्द्र के निम्नांकित इलाहाबाद के नया कटरा में स्थित मकान, दिलकुशा नाम के मोहल्ले में रहने आ गए। 

प्रस्तुतकर्ता :- परितोष नरेन्द्र शर्मा ।

संस्मरण :-हरिवंश राय जी 'बच्चन'  (‘ नीड़ का निर्माण ’ आत्मकथ्य से। )

" मैं युनिवर्सिटी के निकट की नई बस्ती नए कटरे में नरेन्द्र शर्मा के साथ रहने को चला आया। नरेन्द्र से मेरा प्रथम परिचय 1933 में, महावीर प्रसाद द्विवेदी मेले के अवसर पर आयोजित कवि-दरबार के रिहर्सलों में हुआ था। नरेन्द्र ने उसमें सुमित्रानंदन पंत की भूमिका अदा की थी। खुदा के फ़ज़ल से सुंदर, गौर, सुकुमार थे ही, लड़कियों के बाल सिर पर लगा दिए गए तो पंतजी के लघु संस्करण लगने लगे। नरेन्द्र, पंत जी की कविता के प्रेमी थे और उनके स्वर मुद्रा की हूबहू नक़ल कर सकते थे। मैं एक देहाती कवि की भूमिका में उतरा था। उसके लिए दो कवित्त और एक लोकगीत मैंने स्वयं रचे थे। "

" उस मेले के बाद समय-समय पर प्रयाग की गोष्ठियों, कवि-सम्मेलनों, साहित्य सभाओं में मिलते-जुलते, एक-दूसरे के यहाँ आते-जाते, एक-दूसरे की कविताएँ पढ़ते-सुनते और सबसे बढ़कर एक-दूसरे के जीवन-संघर्ष में जो नरेन्द्र के सामने प्रायः वैसा ही था जैसा मेरे सामने-रूचि लेते और एक-दूसरे को प्रोत्साहन देते हमारा परिचय क्रमशः पारस्परिक सहानुभूति, लगाव, मैत्री और निकटता में बदल गया था। हमारे संबंध-श्रृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी यह भी थी कि हम दोनों ही पंत जी के कवित्व और उससे बढ़कर उनके व्यक्तित्व के प्रेमी थे। नरेन्द्र मुझसे छह वर्ष छोटे थे, पर किसी को अपने से छोटा समझने की बात तब मेरे मन में उठती ही न थी, लगता था मैं ही सबसे छोटा हूँ-उम्र में भी। मैंने उनको अपना समवयस्क ही समझा। इसमें ज़्यादा सहायता शायद नरेन्द्र ने ही दी। एक तो एम.ए. उन्होंने मुझसे दो बरस पहले कर लिया था; दूसरे, वे बात, और कभी-कभी कविता भी, जरा बुजुर्गी अंदाज में कर जाते थे। क़द में वे नाटे न होते तो बहुत मुमकिन था कि मैं उनको अपने अग्रज का मान देता। उनके ब्राह्मण होने के नाते और अपने कायस्थ संस्कारों से विवश उनका चरण तो मैंने कई बार छुआ है। "

" नए कटरे के किराये के जिस नए मकान में रहते थे उसका नाम ‘ दिल-कुशा ’ था। दुमंजिला था। निचली मंज़िल पर नरेन्द्र। ऊपर दो कमरे छोटे थे, एक बड़ा था। छोटे कमरों में नरेन्द्र रहते थे, बड़ा बंद रहता था, सुमित्रानंदन पंत जी के रहने के लिए, जब वे प्रयाग आएँ। नरेन्द्र के हिस्से में एक कमरा नीचे भी था, बाहर से स्वतंत्र, ठीक जीने से लगा। वह खाली रहता था। नरेन्द्र अकेले ही रहते थे। एक पहाड़ी नौकर था उनके पास, जो खाना भी बनाता था और ऊपर का काम भी करता था। कुछ पढ़ा-लिखा भी था-हिसाब आदि लिखने योग्य। "

" नरेन्द्र उन दिनों अखिल भारतीय काँग्रेस कमिटी में काम करते थे जिसका दफ़्तर थोड़ी  ही दूर पर पुराने ‘ आनंद-भवन ’ में था। फुरसत का समय वे साहित्यानुशीलन या काव्य-सृजन में लगाते। खेल-कूद या किसी मनोरंजन में समय देते मैंने उन्हें न देखा था। "

" मैंने कुछ दिनों के लिए उनके पास आकर रहने का प्रस्ताव उनके सामने रख्खा तो उन्होंने उसका सहज सहानुभूति से स्वागत किया, केवल इसलिए नहीं कि मेरे लिए युनिवर्सिटी निकट पड़ेगी, या मैं दुखद स्मृतियाँ जगानेवाले अपने घर-परिवेश से दूर हो सकूँगा, बल्कि इसलिए कि मेरी आँखों में उन्होंने वही तलाश देख ली थी जो उनकी आँखों में था,  जैसे दो तृषार्त हिरन मृगतृष्णा की ओर भागते हुए साथ-साथ हो जाना चाहें। मेरे सामने तो अभी मृगतृष्णा पूरी परह स्पष्ट भी न थी, पर क्या मेरे शब्दों में उन्होंने मेरी प्यास पढ़ ली थी। पढ़ ली हो तो कोई आश्चर्य नहीं- ‘ समुझहि खग खग ही कै भाषा। ’  "

" जब मैं नरेन्द्र के साथ रहने को आ गया, तब तो कितनी ही रातें, समांतर चारपाइयों पर चित लेटे वेदना-बोझिल अस्फुट शब्दों में हमने एक दूसरे को अपनी-अपनी व्यथा-कथा, कल्पना-आकांक्षा,भय-भ्रांति, आशाएँ-आकांशाएँ सुनाई। मुझ अनिकेतन को अपने घर में शरण देते, मुझ निःसंग को अपना संवेदनशील संग देने और मेरी एकाकी ध्वनि को अपनी प्रतिध्वनि से आश्वस्त करने के लिए मैं आज भी नरेन्द्र को कृतज्ञता-पूर्वक स्मरण करता हूँ। "

‘ नीड़ का निर्माण ’ आत्मकथ्य से। 


संस्मरण :- नरेन्द्र शर्मा ।

" इलाहाबाद के नया कटरा में मेरा मकान, दिलकुशा  नाम के मोहल्ले में, होहल्ले से दूर एक शांत, सुंदर स्थान था। उन दिनों 'बच्चन' भी वहाँ रहते थे और कभी-कभी पंत जी भी वहाँ आ कर दो-चार दिन को ठहर जाते थे।"


निम्नांकित छविचित्र : नरेन्द्र शर्मा के उस काल किराये के मकान का है।



संस्मरण :- श्री सुमित्रानंदन पंत :- 

"सन् 1938 में 'रूपाभ' निकला था और नरेन्द्र ने उसमें सह-संपादक के रूप में कार्य-भार सँभालने की स्वीकृति दी थी।  निःसंदेह इससे पहले हम लोग आपस में घुलमिल कर एक दूसरे के काफ़ी सन्निकट आ गये थे- जिसमें बाहरी घटनाओं या परिस्थितियों से अधिक, भीतर ही के परस्पर खिंचाव का हाथ रहा होगा।  मैं तो 'रूपाभ'  का केवल हाथी के दाँत की तरह दिखावे का संपादक भर था, वास्तविक कार्य-व्यापार, नरेन्द्र ही उसका सँभालता था।  मैं दो-चार दिन को प्रयाग आ कर, नरेन्द्र के पास ही ठहर कर, उसके द्वारा प्रस्तुत की गई 'रूपाभ' के अंकों की रूपरेखा देख भर लेता था।  शेष सारा काम, कविता, लेख आदि के लिए पत्र-व्यवहार करना, ग्राहक बनाना, प्रेस में छपवाने का दायित्व, प्रूफ़ देखना आदि और भी अनेकों काम नरेन्द्र ही करता।  प्रत्येक मास की प्रति यथासमय निकल कर मेरे पास पहुँच जाती और ग्राहकों तथा अभिभावकों के पास समय पर भेज दी जाती थी।  यह सब कितने झंझट का काम है और अकेले उसे निभा लेना और भी कितना कठिन है, यह भुक्तभोगी पत्रकार ही समझ सकता है।  किंतु हिरन से चंचल स्वभाव के नरेन्द्र ने यह सब यथासमय ठीक तरह से संपादित कर लिया- इससे उसके स्वभाव के दूसरे आयाम का पता चला।"

" 'रूपाभ' के संपादनकाल के दिनों में जब मैं नरेन्द्र के साथ रहता था, उसके परिहास और व्यंग्यों का लक्ष्य मैं ही रहता था, जिससे उसका पर्याप्त मनोविनोद होता रहता था। पर जैसा स्वाभाविक है, उसके हास-परिहास में कटुता, आदि का एकदम अभाव रहता था और निर्मल पहाड़ी निर्झर की तरह अपनी फेनमुखार कलकल के प्रवाह में बहता रहता था।  दूसरा उसकी फबतियों का निशाना शमशेर रहता, जो एकदम शायराना तबियत का था और उसे 'रूपाभ' के काम में छोटी-मोटी मदद कर दिया करता था।  वह नरेन्द्र की कविताओं के साथ, आकंठ स्नेह में डूबा उसका प्रशंसक था और गूँगे के गुड़ की तरह मन ही मन अपने स्नेह का स्वाद लेता रहता था।"

 "उन दिनों नरेन्द्र काँग्रेस-ऑफ़िस में काम करता था, जो तब 'आनंद भवन' में स्थित था।  उसके सहयोगियों में तब, यदि मुझे ठीक याद है तो, डॉक्टर लोहिया भी थे, जो आगे चल कर प्रसिद्ध सोशलिस्ट नेता बने।  उसके दिलकुशा वाले आवास में प्रगतिशील लेखकों तथा कवियों का अच्छा जमघट रहता था और दो एक बार 'निराला' जी ने भी वहाँ अपनी रचनाएँ सुनाई थीं।  'बच्चन' के निकट संपर्क में भी मैं, दिलकुशा ही में पहले-पहल आया था।  तब वह नरेन्द्र ही के साथ रहता था और संभवतः अँग्रेज़ी में एम. ए. परीक्षा की तैयारी कर रहा था।  पत्नी के मृत्यु के शोक में 'निशा निमंत्रण'  तथा 'आकुल अंतर' की स्फुट रचनाएँ भी उसने अधिकांशतः इसी काल में की।"

"नरेन्द्र का स्वर्गीय श्री भवानीशंकर जी से भी अच्छा परिचय था, जो तब प्रयाग विश्वविद्यालय में अँग्रेज़ी के प्राध्यापक थे।  उसके साथ जब-तब मैं भी उनके पास आता-जाता रहता था। मिलनसार होने के कारण नरेन्द्र का और भी कई लोगों से संपर्क था, वह तब अपने उन्मुक्त स्वभाव के कारण काफ़ी लोकप्रिय था।"

"अपनी एम. ए. कक्षा के साथियों से पहले के स्वर्गीय श्री रवींद्रनाथ देव तथा श्री प्रकाशचंद्र गुप्त जी से उसके अधिक प्रगाढ़ संबंध रहे। उसने अँग्रेज़ी में एम. ए. किया और तब वह शायद हिंदू होस्टल से हॉलैंड हॉल छात्रावास में चला आया था। रवि देब के साथ उसका विशेष रूप से हास-परिहास और व्यंग्य-विनोद चलता।  उसके मनोविनोद के इस ढंग पर उन दिनों का काफ़ी प्रभाव लक्षित होता है।"

प्रस्तुतकर्ता :- परितोष नरेन्द्र शर्मा ।

अग्रज, बच्चन जी ने ‘ नीड़ का निर्माण ’ नामक अपने आत्मकथ्य में लिखा है, उसी कथन को प्रकट करने  हेतु वह कमरा जो श्री सुमित्रानंदन पंत जी  के लिए सुरक्षित रहता था उसी का छविचित्र !

संस्मरण :-हरिवंश राय जी 'बच्चन' (‘ नीड़ का निर्माण ’ आत्मकथ्य से। )

" नए कटरे के किराये के जिस नए मकान में रहते थे उसका नाम ‘ दिल-कुशा ’ था। दुमंजिला था। निचली मंज़िल पर नरेन्द्र। ऊपर दो कमरे छोटे थे, एक बड़ा था। छोटे कमरों में नरेन्द्र रहते थे, बड़ा बंद रहता था, सुमित्रानंदन पंत जी के रहने के लिए, जब वे प्रयाग आएँ। नरेन्द्र के हिस्से में एक कमरा नीचे भी था, बाहर से स्वतंत्र, ठीक जीने से लगा। वह खाली रहता था। नरेन्द्र अकेले ही रहते थे।"

‘ नीड़ का निर्माण ’ नामक अपने आत्मकथ्य में लिखा है, उसी कथन को प्रकट करने  हेतु वह कमरा जो श्री सुमित्रानंदन पंत जी  के लिए सुरक्षित रहता था उसी का छविचित्र !


प्रस्तुति - लावण्या शाह


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