महीयसी महादेवी वर्मा के परिवार में कई पीढ़ियों से लड़कियाँ पैदा नहीं हुई थी, इसलिए जब महादेवी का जन्म हुआ तो इनके दादाजी श्री बांके बिहारी जी ने इन्हें घर की देवी मानते हुए इनका नाम 'महादेवी' रख दिया। इनके पिताजी श्री गोविंद प्रसाद और माताजी सभी धार्मिक प्रकृति के थे। इनका पूरा परिवार रामायण और गीता का पाठ किया करता था। इनके दादाजी को अपनी पोती का विवाह करने का बहुत उत्साह था इसलिए महादेवी का विवाह उनकी बाल्यावस्था में ही कर दिया गया था, उस समय वे मात्र ९ वर्ष की थीं।
महादेवी जी का विवाह जिस उम्र में हुआ, उस समय वे विवाह का मतलब भी नहीं जानती थी। उन्होंने स्वयं अपने संस्मरणों में लिखा है, "दादा ने पुण्य लाभ से विवाह रच दिया, पिताजी उनका विरोध नहीं कर सके। बारात आई तो बाहर भागकर हम सबके बीच खड़े होकर बारात देखने लगे। हमें व्रत रखने को कहा गया तो मिठाई वाले कमरे में बैठकर हमने खूब मिठाई खाई। रात को सोते समय नाइन ने गोद में लेकर फेरे दिलवाए होंगे, हमें कुछ ध्यान नहीं है। प्रातः काल जब आँख खुली तो कपड़े में गाँठ लगी देखी, तो उसे खोल कर भाग गए।"
वे सांसारिक जीवन से विरक्त होने के कारण ही कभी पति-पत्नी संबंधों को स्वीकार नहीं कर पाईं। इसके लिए विद्वानों ने उनकी आलोचना भी की है। गंगाप्रसाद पांडेय के अनुसार- "ससुराल पहुँचकर महादेवी जी ने जो उत्पात मचाया, उसे उनके ससुराल वाले ही जानते हैं.....रोना, बस रोना। नई बालिका वधू के स्वागत समारोह का उत्सव फीका पड़ गया और घर में एक आतंक छा गया। फलतः दूसरे ही दिन उनके ससुर महोदय उन्हें वापस लौटा गए।"
अपने पिताजी की मृत्यु के बाद श्री स्वरूप नारायण वर्मा कुछ समय तक अपने ससुर के पास ही रहे। सबने बहुत कोशिश की महादेवी जी को सांसारिक जीवन में रचाने-बसाने की, लेकिन अपनी पुत्री की मनोदशा देखकर उनके बाबूजी ने श्री वर्मा को इंटर करवाकर लखनऊ मेडिकल कॉलेज में प्रवेश दिला दिया और वहीं बोर्डिंग हाउस में उनके रहने की व्यवस्था कर दी। उसके बाद महादेवी जी इलाहाबाद के क्राॅस्थवेट गर्ल्स कॉलेज में पढ़ने चली गईं। उन दोनों के बीच कभी-कभी पत्राचार होता था और उनके पतिदेव उनसे मिलने इलाहाबाद आते थे। उन्होंने महादेवी जी के कहने के बावजूद दूसरी शादी नहीं की।
अपने पिताजी की मृत्यु के बाद श्री स्वरूप नारायण वर्मा कुछ समय तक अपने ससुर के पास ही रहे। सबने बहुत कोशिश की महादेवी जी को सांसारिक जीवन में रचाने-बसाने की, लेकिन अपनी पुत्री की मनोदशा देखकर उनके बाबूजी ने श्री वर्मा को इंटर करवाकर लखनऊ मेडिकल कॉलेज में प्रवेश दिला दिया और वहीं बोर्डिंग हाउस में उनके रहने की व्यवस्था कर दी। उसके बाद महादेवी जी इलाहाबाद के क्राॅस्थवेट गर्ल्स कॉलेज में पढ़ने चली गईं। उन दोनों के बीच कभी-कभी पत्राचार होता था और उनके पतिदेव उनसे मिलने इलाहाबाद आते थे। उन्होंने महादेवी जी के कहने के बावजूद दूसरी शादी नहीं की।
आगे भी महादेवी जी का जीवन एक संन्यासिनी जैसा ही था। उन्होंने जीवन भर सफेद साड़ी ही पहनी। वे आजीवन तख्त पर ही सोईं और उन्होंने कभी शीशे में अपना मुँह नहीं देखा। मीराबाई की तरह महादेवी जी का प्रियतम साकार नहीं है, जिस प्रकार मीराबाई अपने प्रियतम गिरधर गोपाल के विरह में तड़पती हैं, उसी प्रकार महादेवी भी अपने अज्ञात प्रियतम के विरह में पीड़ा का अनुभव करती हैं। दोनों ही प्रेम दीवानी हैं, इसी कारण महादेवी जी को 'आधुनिक युग की मीरा' कहा जाता है। तभी उन्होंने लिखा है-
"मैं नीर भरी दुख की बदली
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना
परिचय इतना, इतिहास यही
उमड़ी कल थी, मिट आज चली।
मैं नीर भरी दुःख की बदली।"
महादेवी जी ने अपनी रचनाओं में लिखा है- "माँ से पूजा और आरती के समय सुने हुए सूर, तुलसी और मीरा आदि के गीत मुझे गीत रचने की प्रेरणा देते थे। माँ से सुनी एक करुण कथा को मैंने प्रायः सौ छंदों में लिपिबद्ध किया था। पड़ोस की एक विधवा बहू के जीवन से प्रभावित होकर मैंने विधवा, अबला आदि शीर्षकों से शब्द चित्र लिखे थे। व्यक्तिगत दुख समष्टिगत गंभीर वेदना का रूप ग्रहण करने लगा। करुणा का बाहुल्य होने के कारण मुझे बौद्ध साहित्य भी प्रिय रहा है।"
- सरिता सुराणा की स्मृति से।
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