चालीस वर्ष पूर्व हम कुछ मित्रों ने एक संस्था बनाई थी, 'यंग फ्रेंड्स सोसायटी' (जो अब 'तरुण मित्र परिषद' के नाम से उल्लेखनीय कार्य कर रही है)। सोसायटी का वार्षिकोत्सव आज़ाद भवन, आई०सी०आर० नई दिल्ली में होना तय हुआ। भवन आरक्षित कर लिया गया और मुख्य अतिथि की खोज जारी हुई। बैठकों में एक नाम सर्वसम्मति से तय हो गया - श्रीमती तेजी बच्चन।
मैं संस्था का आयोजन मंत्री था, अतः श्रीमती बच्चन से मिलकर निवेदन करने का दायित्व मुझे दिया गया। मैं समझ नहीं पाया कि श्रीमती बच्चन से कैसे मिलूँ। मैंने कविवर श्री अजित कुमार से सहायता माँगी। वे किरोड़ीमल कॉलेज में पढ़ाते थे, जहाँ अमिताभ बच्चन छात्र रहे थे। अजित कुमार के सौजन्य से श्रीमती बच्चन से मिलना तय हो गया। तब वे १०, विलिंगटन क्रीसेंट, नई दिल्ली में रहती थीं।
हम लोग श्री अजित कुमार के साथ उनके घर गए और हमें श्रीमती बच्चन और डॉ० हरिवंशराय से मिलने का सौभाग्य मिला। दोनों के साथ हमने चायपान किया। बच्चन जी ने हमारी संस्था के विषय में पर्याप्त जानकारी ली और हमें तेजी बच्चन जी की स्वीकृति प्राप्त हो गई।
संयोग की बात कि निर्धारित दिन पर मुझे श्री बच्चन का फोन आया कि हम श्रीमती बच्चन को लेने के लिए ३ बजे आ जाएँ। कार्यक्रम संध्या ६ बजे होना तय हुआ था, मैंने पूर्ण विनम्रता से ज़ल्दी आने का कारण किसी भाँति घुमा-फिराकर पूछा, जिस पर जवाब मिला था कि तेजी जी को ठीक नियत समय पर पहुँचने की आदत है पर वे तैयार होने में पर्याप्त समय लेती हैं, अतः दो घंटे का अंतराल देना उचित होगा।
मेरे लिए बच्चन जी का फोन आकाशवाणी था और आदेश पालन कर्तव्यनिष्ठा। उन दिनों दिल्ली की सड़कों पर आजकल-सी भीड़भाड़ नहीं होती थी और मैं तीन बजे के स्थान पर ढाई बजे ही पहुँच गया।
१० विलिंगटन क्रीसेंट का वह बच्चन जी का बंगला, मंत्रियों के बंगलों-सा बड़ा बंगला था, लुटियन की बंगला कलाप्रियता का उदाहरण था। चारों तरफ़ खुली हरीतिमा में पीतवर्णी बंगला बहुत आकर्षक लगता था। मैंने फाटक खोला, बंद किया, झुरमुटों के बीच गुज़रते रास्ते से गुज़रा और बरामदे में लगे घंटी के काले परिवेश में समाहित सफेद बटन को छू भर दबाया, कोई प्रतिक्रिया नहीं, दूसरी बार भी नहीं, तीसरी बार दबाने पर अलसाई-सी आवाज़ आई, "रुकिए भई, खोलते हैं।" यह वर्षों से परिचित कवि की वह वाणी थी, जिसे बाल्यपन से गीतों के स्वर गुँजाते सुना था।
दरवाजा खुला, प्रश्नवाचक मुद्रा में बच्चन जी का गंभीर प्रश्न था, "अभी आ गए, अभी तो विश्राम कर रहे थे?" मैंने क्षमा माँगी। उन्होंने नज़रों से ही माफ़ कर दिया, पानी-वानी पूछा और फिर थोड़ी देर के लिए भीतर जाकर बाहर आए, इस बार उनके कंधों पर गहरे भूरे रंग की शॉल थी- सर्दियों के दिन थे, वे मुझे अपना बगीचा दिखाने लगे- मैं मंत्रबिद्ध यंत्रवत उनके साथ-साथ विचरण करने लगा। वे बड़े मन से एक-एक पौधे के विषय में सविस्तार बता रहे थे, मैं सुन रहा था और अपने को भाग्यवान मान रहा था कि मुझे अपने इच्छित व्यक्तित्व से रू-ब-रू होने का अवसर हाथ लग सका था।
बगीचे की यात्रा समाप्त हुई। अभी तो साढ़े तीन भी नहीं बजे थे, अब क्या होगा? बच्चन जी का टाइमटेबल तैयार था - अगली कक्षा बरामदे में हुई, पहली बॉटनी यानी वनस्पति की कक्षा थी और दूसरी कक्षा पुरातत्व की आरंभ हुई। यह कक्षा और भी रोचक थी बरामदे अनेक मूर्तियों, मूर्तिखंड, शिलालेख आदि से करीने से सजाए गए थे- बच्चन जी एक-एक कला प्रतीक दिखाते और वह कहाँ से कैसे उपलब्ध हुआ बताते और फिर पूरे समाचार सुनाते कि अमुक कला प्रतीक क्या है, किसकी व कब की निर्मिति है आदि-आदि। साढ़े चार बज गए। मैंने प्रश्नसूचक दृष्टि से बच्चन जी को देखा, वे मंदस्मित के साथ कह उठे, "अभी तो तैयारी के लिए तैयार हुई होंगी, उन्हें सजने-वजने में बड़ा वक़्त लगता है। ये आजकल बालों का फैशन भी तो अजीब सा है - वक्त लेता है।"
बरामदे में बिछी कुर्सियों में से दो पर हम दोनों बैठ गए और अब शुरू हुआ ट्यूटॉरियल, सर ने पूछा, "कहाँ पढ़ाते हो, क्या लिखते हो, कुछ बताओ-कुछ सुनाओ।"
मैंने उन्हें बताया कि मैं यूँ ही कुछ कविता-कहानी, व्यंग्य आदि लिखना सीख रहा हूँ पर जो सुनाता हूँ वह मेरा लिखा नहीं है- वह उनका लिखा है, यानी 'मधुशाला'। वे कुछ चौंके और टाइम पास के लिए मुझे सुनाने को कह दिया। अब उन्हें क्या पता था कि बरसों से मैं मधुशाला सुनाता हूँ बिल्कुल उनकी शैली में उनकी नकल करता सा। दरअसल मेरे बचपन के मित्र- श्री सुरेंद्र, जब भी अमृतसर से दिल्ली आते, हमारे घर में ठहरते और हम दोनों अक्सर मधुशाला का समवेत गान करते। श्री सुरेंद्र भाई से ही मैंने नाक से गाने का प्रयोग सीखा था, जैसा कि बच्चन जी गाते थे और अतिशय लोकप्रिय थे- उनकी मधुशाला की गायन ख्याति असीम थी।''
बहरहाल, मैंने "मेरे शव पर वह रोए, हो जिसके आँसू में हाला" गाना शुरू कर दिया, दूसरी पंक्ति में ही संकोच टूट गया और अंतिम पंक्ति के अंतिम अक्षर 'मधुशाला' गाने पर बच्चन जी की वाणी का साथ भी मिला।
यह एक भव्य मुलाकात थी जो मेरी स्मरण-डायरी का एक स्वर्णिम पृष्ठ है। उस समारोह के बाद दो बार मैं श्रीमती बच्चन की फोटो देने के बहाने से अपने मित्रों के साथ विलिंगटन क्रीसेंट गया और दोनों बार श्रद्धेय बच्चन जी से बात करने का सुयोग हुआ। पहली बार उन्होंने शिकायत की थी कि हमने उन्हें तेजी जी वाले समारोह में 'आमंत्रित' क्यों नहीं किया। हम मानो कट से गए थे। दूसरी बार मैंने उन्हें बताया भी और दिखाया भी कि स्कूली जीवन में एक बार वे हमारे स्कूल में पधारे थे, उनके ऑटोग्राफ लेने के लिए बच्चे उमड़ पड़े थे, मैं अपनी ऑटोग्राफ-बुक थामे कहीं पीछे खड़ा था, मेरे लंबे-चौड़े सहपाठी राकेश ने मेरी ऑटोग्राफ बुक मुझसे लेकर आगे भीड़ में लड़-भिड़कर बच्चन जी के हाथ तक पहुँचा दी थी- बच्चन जी ने राकेश से पूछा था- "तुम्हारा घर का नाम क्या है" और ऑटोग्राफ दे दिए। मेरी ऑटोग्राफ बुक पर आज भी मैं देखता हूँ- लिखा है, "टिल्लू के लिए" और अँग्रेज़ी में 'गुड' लिखे जाने जैसे बच्चन जी के हस्ताक्षर मौजूद हैं। इस घटना के वर्षों बाद उस दिन उन्होंने मेरी आटोग्राफ बुक देखी थी, मैंने निवेदन किया था, "कृपया इस पर लिख देंगे 'हरीश के लिए'।" वे बोले, "नहीं, टिल्लू ने कहा था, उसी को ही ऑटोग्राफ दिए थे, तुम चाहो तो नए करवा लो।"
हम तीन मित्रों ने 'मित्रत्रयी' नाम से छिटपुट लेखन आरंभ किया था। हम 'मित्रत्रयी' की ओर से नूतन वर्षाभिनंदन पत्रक भी भेजते थे तथा परिचर्चा हेतु मत एकत्रित करते थे- मेरे पास उस समय के बच्चन जी के हाथ के लिखे पत्र मौजूद हैं। वे सभी के पत्रों का तुरंत जवाब दिया करते थे। 'मित्रत्रयी' द्वारा आयोजित एक परिचर्चा के लिए उनके हाथ का लिखा एक वक्तव्य भी है, जिसके संशोधन के लिए उन्होंने एक दूसरा वक्तव्य भी प्रेषित किया था। वे हर दृष्टि से एक संभ्रात, कुलीन व्यक्तित्व के स्वामी थे, जो सच्चा कर्मयोग का पाठ पढ़ाते थे।
सन १९७७-७८ की बात है, कांस्टीट्यूशन क्लब में एक सभा में मैं अपनी डेढ़-दो बरस की बेटी अन्विता को लेकर गया था। कार्यक्रम की समाप्ति पर डॉ० नगेंद्र और डॉ० विजयेंद्र स्नातक एक साथ बाहर की ओर आ रहे थे। दोनों का पहनावा लगभग एक-सा होता था। अन्विता ने आश्चर्य से भरे स्वर में ज़ोर से कहा था, "ओ दो दो नाना जी?"
वहाँ बच्चन जी भी थोड़ा पीछे खड़े थे, अन्विता ने देखा, वे भी धोती-कुर्ते में थे, असमंजस में कहा, "एक और नाना जी?" धीर-गंभीर बच्चन जी अपनी हँसी न रोक पाए और उसे प्यार से एक धौल दिया।
वहाँ बच्चन जी भी थोड़ा पीछे खड़े थे, अन्विता ने देखा, वे भी धोती-कुर्ते में थे, असमंजस में कहा, "एक और नाना जी?" धीर-गंभीर बच्चन जी अपनी हँसी न रोक पाए और उसे प्यार से एक धौल दिया।
वह सभा बच्चन जी की संगोष्ठियों में भाग लेने वाली अंतिम सभाओं में से थी, फिर तो वे बीमारी की दीर्घ अवधि में फँसते चले गए थे। मैं दो बार उन्हें देखने गुलमोहर पार्क के उनके घर 'सोपान' में गया था। श्रीमती तेजी बच्चन उनकी सेवा-सुश्रूषा में निमग्न रहती थीं, उन्हें कष्टरहित देखना चाहती थीं। बीच में वे कुछ स्वस्थ भी हुए थे और कमानी सभागार में एक विशिष्ट समारोह में उन पर केंद्रित एक भव्य कार्यक्रम हुआ था, जिसमें श्रीमती इंदिरा गाँधी पधारी थीं। उक्त समारोह में श्री राजीव गाँधी और श्री अमिताभ बच्चन साथ-साथ आए थे। दिल्लीवासियों के लिए यह एक यादगार कार्यक्रम था जिसमें श्रीमती इंदिरा गाँधी, डॉ० हरिवंशराय बच्चन के समक्ष मानो एक भोली छोटी बालिका सी बन गई थीं और उनका आशीर्वाद लिया था।
.....और भी अनेक यादें हैं उस महाकवि की, उस भविष्यद्रष्टा की, पर उन्हीं के शब्दों में उनको याद करते हुए मन भीग उठता है :
अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला
अपने युग में सबको अद्भुत ज्ञात हुआ अपना प्याला
फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया
अब न रहे वे पीनेवाले अब न रही वह मधुशाला
- हरीश नवल की स्मृति से।
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